Monday, December 26, 2011
असहमति का ये अंदाज कितना जायज
नीरज नैयर
मानसिक दीवालियापन क्या होता है, ये कांंग्रेसी नेता बहुत अच्छे से समझते हैं। यूं तो लगभग हर राजनीतिज्ञ कभी न कभी इस स्थिति से गुजरता है लेकिन जिस तरह से कांग्रेसी अन्ना हजारे के खिलाफ अपशब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं उससे कांग्रेस के बिगड़ते मानसिक संतुलन का आभास स्वत: ही हो जाता है। पहले दिग्विजय सिंह अन्ना के खिलाफ आगे आए, फिर कमान मनीष तिवारी ने संभाली अब केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद जहर उगल रहे हैं। बीते कुछ दिनों में ही बेनी प्रसाद कई बार अन्ना पर हमला बोल चुके हैं, इन हमलों के लिए उन्होंने जिन शब्दों का इस्तेमाल किया वो गंदी राजनीति के परिचायक हैं। बेनी ने अन्ना को पागल बूढ़े से लेकर भगोड़ा फौजी तक कह डाला, अफसोस की बात तो ये है कि उन्हें इसका कोई पछतावा भी नहीं है। उल्टा दिन ब दिन उनके शब्दों का स्तर और गिरता जा रहा है। बेनी का निजी जीवन कैसा रहा ये अलग बात है, लेकिन एक केंद्रीय मंत्री के तौर पर इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल कहां तक जायज है ये सवाल कांग्रेस से पूछा जाना चाहिए। बेहद अफसोस की बात है कि हमारे देश में सरकार या सांसदों के खिलाफ आम आदमी के शब्दों को विशेषाधिकार हनन मान लिया जाता है, लेकिन सांसद या सरकार में बैठे नेताओं को कुछ भी बोलने की आजादी है। क्या आम आदमी का कोई विशेषाधिकार नहीं है, क्या इज्जत और सम्मान पर महज माननीयों का कॉपीराइट है? मतभिन्नता अलग बात है, किसी की बातों-विचारों से असहमत हुआ जा सकता है। लेकिन इस असहमति को अपशब्दों में बयां करना कितना उचित है।
गली-मोहल्ले के मवाली से तो उम्मीद नहीं की जा सकती कि वो सभ्य व्यक्ति की तरह पेश आए। महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग एवं बुद्धिजीवियों से ही ऐसी अपेक्षा होती है, लेकिन इनका नैतिक और वैचारिक पतन निश्चित तौर पर चिंता का विषय है। बेनी प्रसाद की बदजुबानी की असल वजह, अन्ना द्वारा राहुल का विरोध है। लोकपाल बिल पर अन्ना ने राहुल को सीधे तौर पर टारगेट किया, इसे लेकर ही बेनी सरीखे कांग्रेसी मर्यादाओं को तार-तार करने पर तुले हैं। अन्ना ने साफ, सरल , स्पष्ट और सभ्य शब्दों में राहुल को कमजोर लोकपाल के लिए जिम्मेदार ठहराया, लेकिन वो अपनी मर्यादा नहीं भूले। उन्होंने मनमोहन सिंह या किसी दूसरे मंत्री को भी कठघरे में खड़ा किया तो शब्दों के इस्तेमाल में सतर्कता बरती, मगर कांग्रेस नेता शुरूआत से ही बदजुबानी और बेहयाई की हदें पार करते आ रहे हैं। सबसे ज्यादा ताज्जुब की बात तो ये है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी अपने नेताओं के इस आचरण को उनकी निजी राय बताकर पल्ला झाड़ लेती है। क्या बेनी, दिग्गी और तिवारी का विषवैमन उनकी निजी राय है, अगर है, तो क्या कांग्रेस को उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं करनी चाहिए। जुबान कभी-कभी फिसलती है, पर जिस तरह से दिग्गी, बेनी बोलते आए हैं उसे जुबान फिसलना नहीं जुबान की खाज मिटाना कहा जाएगा। कांग्रेस अलाकमान की खामोशी से साफ जाहिर होता है कि असहमति के इस अंदाज को उसका समर्थन है। बेनी अन्ना को फौज का भगोड़ा बताते हैं, लेकिन अपनी पृष्ठिभूमि में झांकने की हिम्मत नहीं करते। बेनी और उनके बेटे पर हत्या के प्रयास का मामला चल रहा है, तो क्या उन्हें अपराधी कहकर संबोधित नहीं किया जाना चाहिए।
बेनी और दिग्गी अन्ना को संघ का एजेंट बताने पर तुले हैं, दिग्गी ने तो एक समाचार पत्र में छपी खबर का हवाला देते हुए अपने आरोपों को सच साबित करने की कोशिश की है। इस तस्वीर में अन्ना संघ पदाधिकारी नानाजी के साथ नजर आ रहे हैं, लेकिन एक तस्वीर ऐसी भी है जिसमें दिग्विजय खुद नानाजी के साथ हैं। मगर उनके और कांग्रेस के लिए दोनों के मायने बिल्कुल अलग हैं। यदि वो तस्वीर अन्ना और संघ के रिश्तों को उजागर करती है तो फिर दिग्गी खुद भी संघ के एजेंट हुए। दरअसल, कांग्रेस ये साबित करना चाहती है कि अन्ना भाजपा और संघ के इशारे पर उसे निशाना बना रहे हैं। इस कोशिश में वो इतना रम गई है कि सही- गलत में अंतर भी नजर नहीं आ रहा है। अलबत्ता तो किसी के साथ खड़े होने या मुलाकात करने से उनके बीच में संबंध स्थापित नहीं हो जाता और यदि अन्ना का संघ से जुड़ाव रहा भी है तो इसमें हो-हल्ले वाली बात क्या है। संघ को तो कांग्रेसी ऐसे प्रचारित करते हैं जैसे वो कोई आतंकवादी संगठन हो। गनीमत है कि सरकार या कांग्रेसियों को अन्ना के किसी पाकिस्तानी से बातचीत/ मुलाकात के सबूत नहीं मिले, वरना उन्हें देशद्रोही भी करार दे दिया जाता। अलग-अलग विचारधाराओं के राजनेता खुद भी जब किसी समारोह में मिलते हैं तो खिलखिलाकर बातें करते हैं, तो क्या वो एक-दूसरे के एजेंट हो गए। तमाम मंत्री, नेता नरेंद्र मोदी के गले लगते हैं, ऐसे में तो उन्हें भी गुजरात दंगों का गुनाहगार ठहराया जाना चाहिए। पीडीपी प्रमुख मेहबूबा मु$फ्ती ने सरकारी बैठक में मोदी की तारीफों के पुल बांधें थे, सरकार के पास इसके रिकॉर्ड भी मौजूद हैं। फिर क्यों नहीं उनके खिलाफ जांच शुरू कराई जाती।
इस बात को कांग्रेस भी अच्छे से जानती है कि उसके नेता जिन तथ्यों को आधार बनाकर अन्ना संघ में तार जोडऩे में लगे हैं, उनमें कोई दम नहीं। लेकिन चूंकि अन्ना को बदनाम करना है, इसलिए कोशिशों को परवान चढ़ाया जा रहा है। अन्ना के पहले आंदोलन के वक्त भी सरकार ने उन्हें गलत साबित करने के लिए सारे रिकॉर्ड खंगाल डाले, मगर उसे ऐसा कुछ भी नहीं मिला जिसे अन्ना के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सके। तब भी अन्ना के लिए भगोड़ा जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया, मगर सेना ने ऐसे आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया। बावजूद इसके बेनी प्रसाद फिर से अन्ना पर उंगली उठा रहे हैं, कांग्रेस अगर समझती है कि इस तरह की ओछी राजनीति से वो जनता का समर्थन प्राप्त कर लेगी तो ये उसकी भूल है। जनता इस बात को बखूबी जानती है कि सरकार की स्थिति खिसयानी बिल्ली जैसी है, वो खंबा नोचेगी ही। इसलिए बेहतर होगा कि कांग्रेस अन्ना पर कीचछ उछालने के बजाए सहमति का रास्ता खोजे। बड़ी से बड़ी मुश्किल संवाद के रास्ते हल की जा सकती है। टीम अन्ना बातचीत की मेज पर आने को तैयार है, सरकार को भी अपना अहंकार छोड़कर आगे बढऩा चाहिए।
Sunday, November 6, 2011
बेहयाई न पालो मनमोहनजी जनता भी ऐसे ही पेश आएगी
नीरज नैयर
सरकार के मुखिया कहते हैं कि महंगाई बढऩे की वजह आम आदमी है, यानी वो आम आदमी जिसके वोटों के बल पर कांग्रेस सत्ता में आई और मनमोहन पीएम बने खुद ही महंगाई बढ़ा रहा है और खुद ही आंसू बहा रहा है। बकौल मनमोहन, लोग पहले के मुकाबले ज्यादा कमाने लगे हैं, ज्यादा कमा रहे हैं इसलिए ज्यादा खा रहे हैं नतीजतन महंगाई बढ़ रही है। कल तक सीधे साधे अर्थशास्त्री के तौर पर पहचाने जाने वाले मनमोहन इतने बेहया हो गए हैं कि इसे भी सरकार की उपलब्धि बता रहे हैं। उनको लगता है कि सरकार की सामाजिक सुधारों वाली योजनाओं के बल पर ही गरीबों के हाथ में पैसा आने लगा है। इस बयान के बाद तो गुस्से से ज्यादा सरकार के इस मुखिया की अक्ल पर तरस आती है, कमाई बढ़ी है और निश्चित तौर पर बढ़ी है, लेकिन किसकी। हर आदमी को तो महंगाई भत्ता नहीं मिलता, सरकारी मुलाजिमों को वोट की चाह में सरकार महंगाई से मुकाबले के लिए कुछ ताकत दे देती है मगर बाकी का क्या। उन बेचारों को तो जितनी कमाई है उसी में काम चलाना है, और वैसे भी एक औसत आम आदमी की तनख्वाह में सालाना कितना इजाफा होता है, ये बात अब अच्छे से जानते हैं।
दरअसल बेशर्मी की चादर ओढ़ चुके मनमोहन और उनके मंत्रियों के लिए महंगाई डायन अब भी फिल्मों तक ही सीमित है, गाड़ी पर लाल बत्ती लगने के बाद से उन्होंने बाजार का हाल जानना ही बंद कर दिया होगा। फिर उन्हें चढ़ती कीमतों से मायूस होते आम आदमी की मुझाई सूरत भला क्या नजर आएगी। मनमोहन खुद किसी प्राइवेट नौकरी से घर की गाड़ी चला रहे होते तो उन्हें आटे-दाल के भाव पता चलते, लेकिन अफसोस कि ऐसी स्थिति कभी आने वाली नहीं है। दूसरी बार सत्ता संभालने के बाद यूपीए सरकार का पूरा कुनबा लगता है अपने घर भरने में ही लगा हुआ है, यदि ऐसा न होता तो पूरी सरकार में कोई एक तो अपनी गलतियों को स्वीकारता। सोनिया गांधी, राहुल गांधी से लेकर शरद पवार, प्रणब मुखर्जी और मनमोहन सिंह तक सब अपनी नाकामयाबियों के लिए कभी मौसम तो कभी आम आदमी की संपन्नता को दोष देते रहे हैं। पिछले मौसम में कहा गया, बादलों की बेरुखी ने महंगाई को आग लगाई और अब जनता की आमदनी पर नजरें गढ़ाई जा रही हैं। चंद रोज पहले कांग्रेस के भावी प्रधानमंत्री ने महंगाई के लिए गठबंधन की मजबूरी का रोना रोया था, रोना रोते-रोते अपनी बात साबित करने के लिए वो इंदिरा गांधी के कार्यकाल तक पहुंच गए थे। वो ये बताना चाहते थे कि उस वक्त एक पार्टी का राज होने के चलते कीमतें आसमान नहीं जमीं पर थीं, लेकिन बेचारे राहुल शायद भूल गए हैं कि उनकी दादी के शासनकाल में महंगाई और भ्रष्टाचार का आलम मौजूदा सरकार जैसा ही था। तभी तो 'देखो इंदिरा का खेल, खा गई राशन, पी गई तेलÓ जैसे नारों की गूंज कांग्रेस नेतृत्व की परेशानी बन गई थी। महंगाई और भ्रष्टाचार रोकने के लिए यूपीए सरकार ने सिर्फ और सिर्फ वादे किए, ठीक ऐसे ही वादे उसके नेताओं ने चुनावी संग्राम के वक्त जनता के आगे हाथ जोड़कर किए थे।
कांग्रेस नीत गठबंधन ने जब सत्ता संभाली महंगाई का मिजाज इतना तल्ख नहीं था, हालांकि राजग के कार्यकाल में भी प्याज ने आंसू निकाले मगर हालत बेकाबू जैसे फिर भी नहीं थे। आटे-दाल से लेकर फल-सब्जियों तक आज सबकुछ आम आदमी की पहुंच से दूर होता जा रहा है। दूध जैसे पद्धार्थ की कीमत ही चार सालों में सौ प्रतिशत बढ़ी है, जबकि इन्हीं चार सालों में इसके उत्पादन में चार प्रतिशत का इजाफा हुआ है। चार साल पहले जो घी 150-160 के आसपास था, आज 300 रुपए प्रति किलो के करीब बिक रहा है। आमतौर पर माना जाता है कि सर्दियों के वक्त सब्जियों के दाम नीचे आ जाते हैं, लेकिन इस बार पूरी सर्दियां प्याज और टमाटर के दाम सुनते-सुनते ही निकल गईं, प्याज की कीमतों के लिए सरकार ने नासिक में होने वाली बरसात को दोषी बताया। जबकि वहां के किसानों तक ने बारिश के नुकसान को इतना बड़ा मानने से मना कर दिया था। जब भी महंगाई की बात आती है सरकार उत्पादकता और मांग के अंतर का रोना रोने लगती है, पर हकीकत में उचित भंडारण के अभाव में हर साल लाखों टन अनाज, फल-सब्जियां सड़ जाती हैं।
सरकार खुद भी सालाना 58 हजार करोड़ रुपए का अनाज बर्बाद होने की बात स्वीकार चुकी है। ऐसे में कम उत्पादन का सवाल ही ऐसे उठता है, साफ है कि सरकार के मुखिया और उनके मंत्रियों की दिलचस्पी वातानुकूलित कमरों से बाहर निकलकर हालात का पता लगाने में बिल्कुल भी नहीं है। जिसके जैसे मन में आ रहा है, वो वैसे ही नीतियों-नियमों को तोड़मरोड़कर अपनी सेहत सुधारने में लगा है। पिछले साल जब चीनी की कीमतें सारे रिकॉर्ड तोडऩे पर अमादा थीं, तब ही सरकार की धन्ना सेठों का फायदा पहुंचाने वाली नीति उजागर हो गई थी। गन्ने की उपज सामान्य होने के बावजूद 12 रुपए की दर से तकरीबन 48000 टन चीनी का निर्यात किया गया। जब बाजार में चीनी की किल्लत से दाम आसमान पर पहुंचने लगे और विपक्ष हो-हल्ला करने लगा तब सरकार ने चीनी के आयात का फैसला लिया। ये आयात 27 रुपय प्रति किलो के हिसाब से किया गया। यानी जो चीनी हम सस्ते में दूसरे मुल्कों को दे रहे थे उसकी ही हमने दोगुने से ज्यादा कीमत चुकाई। प्याज के मामले में भी सरकार ने ऐसा ही किया, पहले पाकिस्तान आदि को भर-भर के प्याज पहुंचाई गई और बाद में उन्हीं से आयात करनी पड़ी। सरकार में बैठने वालों से ज्यादा अक्ल तो एक गृहणी में होती है, उसे पता होता है कि कौन सा सामान कब तक खत्म हो सकता है। बिन बुलाए मेहमानों की आवभगत के बावजूद वो घर की गाड़ी पटरी से उतरने नहीं देती, लेकिन अर्थशास्त्री कहलाने वाले मनमोहन और उनके दूसरे साथी इतना भी हिसाब नहीं रख सके कि अपना हिस्सा दूसरों को देने से कहीं हम खुद ही भूखे न रह जाएं। आयात-निर्यात के खेल में सरकार उन सालों की कसर पूरी कर रही है जो उसने सत्ता में आने के इंतजार में गुजारे। किसी भूखे को अगर खाना मिल जाए तो वो पेट भरने के बाद भी उसे तब तक खाता रहता है जब तक कि खाना खत्म न हो जाए, मनमोहन सरकार का हाल भी कुछ ऐसा ही लग रहा है। शायद उसे लगने लगा है कि भ्रष्टाचार और महंगाई के विस्फोटों के बाद उसका पुन: सत्ता में लौटना मुमकिन नहीं इसलिए जितना बटोर सकते हो बटोर लो। जिस सरकार को आम आदमी के लिए दी जाने वाली सब्सिडी ही बोझ लग रही हो, उसके खुद के मंत्री करोड़ों के घोटाले कर रहे हैं। यह मानना बहुत मुश्किल है कि इन घोटालों में वो बड़े-बड़े नाम शामिल नहीं होंगे जो कार्रवाई का ढोंग रच रहे हैं। कॉमनवेल्थ के करप्शन किंग कलमाड़ी और स्पेक्ट्रम के करप्ट राजा क्या अकेले बिना ऊपर वालों को विश्वास में लिए इतना बड़ा खेल कर सकते हैं, सोचने में ही अटपटा लगता है। कलमाड़ी तो साफ-साफ कह चुके हैं कि उन्होंने जो कुछ भी किया अकेले नहीं किया, फैसले सब मिल बैठकर लिया करते थे। सरदारजी और सोनिया गांधी जनता को बेवकूफ समझ रहे हैं, एक घोटालों और महंगाई पर बेहयाई वाले बयानों का समर्थन करता है तो दूसरा चिंता जताकर गंभीर होने का ढोंग। मगर दोनों शायद भूल गए हैं कि जल्द ही उन्हें फिर से हाथ जोड़कर वोट के लिए दर-दर भटकना पड़ेगा, और तब शायद जनता भी उनसे ऐसे ही पेश आए जैसा कि वो सत्ता में आने के बाद आते रहे हैं।
Saturday, September 24, 2011
मोंटेकजी आप कर सकते हैं 32 रुपए में गुजारा
नीरज नैयर
इंदिरा गांधी के जमाने में एक नारा दिया गया था, 'गरीबी उन्नमूलनÓ, लेकिन आज लगता है ये बदलकर 'गरीब उन्नमूलनÓ हो गया है। सरकार आज गरीबी नहीं हटाना चाहती बल्कि अपना बोझ हल्का करने के लिए गरीबों को ही कम करने पर तुली है। योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में जो हलफनामा दिया है, उससे सरकार और स्वयं आयोग की नीयत पर सवाल खड़े हो गए हैं। यहां, ये कहना कि आयोग की इस राय में सरकार शरीक नहीं है, सरासर गलत होगा। योजना आयोग का अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है, इस नाते मनमोहन सिंह अच्छे से जानते होंगे कि अहलूवालिया क्या गुल खिलाने वाले हैं। योजना आयोग कहता है कि शहरों में 32 रुपए और गांवों में 26 रुपए प्रति दिन खर्च करने वाला गरीबी रेखा के नीचे नहीं आ सकता। इतना खर्च उसे संपन्नता की निशानी दिखता है। इन 32 और 26 रुपए में महज खाना ही नहीं, किराया, कपड़ा, स्वास्थ्य और शिक्षा का खर्च भी शामिल है। यानी एक आम आदमी इन रुपयों में पेट भरने से लेकर बच्चों के स्कूल की फीस और उनके इलाज तक सबकुछ कर सकता है। आयोग तो यहां तक मानता है कि अगर एक आदमी रोजाना 5.50 रुपए दाल पर, 1.02 चावल-रोटी पर, 2.33 दूध, 1.55 तेल, 1.95 सब्जी, 44 पैसे फल, 70 पैसे चीनी, 78 पैसे नमक, 1.51 पैसे अन्य खाद्यय पदार्थों पर और 3.75 ईंधन पर खर्च करने की हैसीयत रखता है तो वो स्वस्थ्य जीवन यापन कर सकता है। आराम से जीवन बिताने के मामले में आयोग कहता है कि 49.10 रुपए मासिक किराया देने वाला व्यक्ति भी इस श्रेणी में आता है। योजना आयोग के हलफनामे में और गहराई में चलें तो पता चलता है कि शिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च करने वाला अच्छी तालीम पाने की हैसीयत रखता है। इसके अलावा अगर कोई व्यक्ति चप्पल आदि पर 9.6 रुपए खर्च करता है तो वो आयोग की नजर में गरीब नहीं है। गरीबी का ये पैमाना कौनसे गणित से तैयार किया गया, इसका जवाब अहलूवालिया और स्वयं प्रधानमंत्री के अलावा कोई नहीं दे सकता। ऐसे वक्त में जब महंगाई सिर पर पैर रखकर भागे जा रही है, ये कहना कि 32 रुपए पाने वाला गरीब नहीं, गरीबों का मजाक नहीं तो और क्या है। अहलूवालिया साहब को यदि 32 रुपए संपन्नता की निशानी लगते हैं तो इस लिहाज से भारत दुनिया का सबसे संपन्न देश कहा जाना चाहिए। आयोग 99 पैसे हर रोज में बेहतर शिक्षा की बात करता है, 99 पैसे के हिसाब से महीने के हुए 29.7 रुपए। महज 29 रुपए में कौनसा स्कूल बच्चों को दाखिला देगा, सरकारी स्कूल भी इतने में कम में दूर से हाथ जोड़ देंगे।
एक बारगी मान भी लिया जाए कि 29 रुपए मासिक फीस पर कोई स्कूल तालीम दे रहा है तो भी आयोग को समझना चाहिए कि शिक्षा महज स्कूल में दाखिला लेने भर से नहीं आ जाती, कॉपी-किताब, रबड-पैंसिल पर भी खर्चा करना पड़ता है। आयोग 49.10 रुपए प्रति माह में आराम से किराए पर मकान की बात भी कहता है, मगर हकीकत ये है कि अहलूवालिया ऐड़ी-चोटी का जोर भी लगा लेंगे तो भी इतने कम में कोई उन्हें घर के सामने खड़ा तक नहीं होने देगा। आज से 10 साल पीछे भी जाएं तो भी 49 रुपए में किराए पर मकान नहीं मिल सकता। जहां तक बात पेट भरने की है तो सरकार के सरदार और उनके जूनियर यानी अहलूवालिया आम जनता के पेट को चिडिय़ा का पेट समझते हैं। उन्हें लगता है कि दो दाने उसे जिंदा रखने के लिए काफी है। दो दानों को काफी मान भी लिया जाए तो भी सवाल ये उठता है कि चंद पैसों में ये दो दाने किस दुकान से मिलेंगे। मनमोहन सिंह या अहूलवालिया इसका इंतजाम कर दें तो बात अलग है। वैसे ऐसा पहली बार नहीं है जब अहलूवालिया ने गरीबों का मजाक उड़ाया हो, इससे पहले भी कई बार तो महंगाई को लेकर बेहयाई वाली बयान देते रहे हैं। फर्क बस इतना है कि इस बार उनकी बेहयाई कागजों पर सुप्रीम कोर्ट के सामने पहुंची है। इसे जमीनी अनुभव की कमी कह सकते हैं, अहलूवालिया या दूसरे वीवीआईपी को थैला उठाकर बाजार में मोल-भाव नहीं करना पड़ता, उन्हें ये हिसाब भी नहीं लगाना पड़ता कि महंगाई में खुद को जिंदा रखने के लिए उन्हें किन-किन जरूरतों में कटौती करनी होगी। लालबत्ती में घूमने वाले अहलूवालिया जैसे लोगों को सबकुछ थाली में सजा-सजाया मिल जाता है, इसलिए इन्हें अहसास ही नहीं होता कि किस चीज के कितने दाम चुकाने होते हैं। सबसे ज्यादा अफसोस की बता तो ये है कि योजना आयोग के इस तर्क को आम आदमी की बात करने वाली कांग्रेस ने भी खारिज नहीं किया है। कांग्रेस इसके ऐवज में पुराने आंकड़े याद दिलाने में लगी है।
कांग्रेस का कहना है कि 2004-2005 में गरीबी की जो रेखा खींची गई थी, उसके हिसाब से 32 रुपए काफी ज्यादा हैं। पर शायद वो ये भूल गई कि इन छ सालों में खाद्य वस्तुओं के दाम कितने ऊपर पहुंच गए हैं। जितनी रकम की बात उस वक्त की गई थी वो भी नाकाफी थी और आज जिस 32 या 26 रुपए की बात की जा रही है वो भी नाकाफी है। कांग्रेस और अहलूवालिया जैसे लोग संसाधनों का भी रोना रोते हैं, उनके मुताबिक सरकार के पास सीमित संसाधन हैं, ऐसे में वो सबसे पहले उसकी मदद करना चाहेगी जिसका पेट बिल्कुल खाली है। जरूरतमंद को सबसे पहले मदद मिले इससे इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन अगर संसाधनों की वास्तव में इतनी कमी है तो फिर कटौती का प्रतिशत सबके लिए बराबर क्यों नहीं रखा जाता। सरकार ऐसा नहीं कर सकती की आम आदमी को मिलने वाली सब्सिडी खत्म करती जाए और कॉरपोरेट सेक्टर को टैक्स छूट और प्रोत्साहन पैकेज जारी करने में जरा भी देर न लगाई जाए। एक अनुमान के तौर पर 2004 से अब तक सरकार ने कॉरपोरेट सेक्टर को22 लाख करोड़ रुपए की टैक्स छूट दी है। अगर सरकार समझती है कि उद्योग घरानों को खड़े रहने के लिए मदद की जरूरत है तो वो ये कैसे सोच सकती है कि आम आदमी उसके द्वारा पैदा की गई महंगाई में बिना किसी सहारे के मजबूती से खड़ा रहेगा। उद्योग घराने सरकार के आर्थिक विकास के लक्ष्य को पूरा करने में मदद करते हैं इसलिए उन्हें देते वक्त सरकार के हाथ नहीं दुखते, लेकिन जब बात उसे सत्ता में पहुंचाने वाले आम आदमी की आती है तो वो तानाशाह बन जाती है। कांग्रेस भले ही कितनी भी आम आदमी की बात करे, लेकिन ये अब साफ हो चला है कि उसकी सरकार की नजर में आम आदमी की कोई अहमियत नहीं। योजना आयोग का काम देश के संसाधनों का प्रभावी और संतुलित ढंग से उपयोग करने के लिए योजनाएं बनाना है, लेकिन यूपीए सरकार के कार्यकाल में उसका मकसद उद्योग घराने का विकास करना ज्यादा दिखाई दे रहा है। योजना आयोग का गठन 15 मार्च 1950 को पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में किया गया था। पहली पंचवर्षीय योजना 1951 से शुरू हुई, इसमें कृषि पर खासा जोर दिया गया। इसके बाद भी बनने वाली योजनाओं में कृषि को प्रमुखता से स्थान दिया गया।
1997 से नौवीं पंचवर्षीय योजना से उद्योगों के आधुनिकीकरण की शुरूआत हुई, लेकिन फिर भी उसमें मानवीय विकास पर जोर दिया गया। मगर यूपीए के सत्ता संभालने के बाद इस पंचवर्षीय योजना का मुख्य उद्देश्य महज आर्थिक विकास पर ही केंद्रित हो गया। 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) में 8.2 फीसदी आर्थिक वृद्धि अनुमान लगाया गया, इसके अलावा हाल में 12वीं (2012-2017) पंचवर्षीय योजना के जिस दृष्टिकोण पत्र को सरकार ने मंजूरी दी है, उसमें भी 9 फीसदी विकास दर का लक्ष्य रखा गया है। यानी सरकार के एजेंडें से कृषि पूरी तरह बाहर हो चुकी है। जबकि यही सरकार कम उत्पादकता का रोना रोती रहती है। आर्थिक विकास जितनी जरूरी है उतनी ही जरूरत कृषि में सुधार की भी है। ये बात केवल वही समझ सकता है जो जिसने कभी एसी कमरों से बाहर निकलकर हकीकत जानने का प्रयास किया हो, अहलूवालिया जैसे लोग अर्थ का अनर्थ ही कर सकते हैं इससे ज्यादा कुछ नहीं। अहलूवालिया के इस मजाक के लिए एक महीने उन्हें उसी गणित के हिसाब से तनख्वाह दी जाए जिसके इस्तेमाल से उन्होंने आम आदमी को करोड़पति बना दिया है। इन 30 दिनों में सरकार के सरदार के इस जूनियर को आटे-दाल के भाव अच्छे से पता चल जाएंगे, तब शायद उनकी गणित की समझ में कुछ वृद्धि हो सके।
Thursday, September 8, 2011
यूं ही मरते रहेंगे हम
नीरज नैयर
दिल्ली में आतंकी हमले के बाद फिर वही पुराने सवाल सामने आ गए हैं। ये सवाल हर हमले के बाद उठते हैं, शोर मचाते हैं और थोड़े वक्त बाद फिर गुमनामी में चले जाते हैं। विपक्ष को नया मुद्दा मिल जाता है, सरकार नाकामी छिपाने का नया बहाना ढूंढ लेती है और जनता दो जून की रोटी की जुगाड़ में लग जाती है। ये हमला भी चंद आंसू बहाने के बाद कुछ रोज में भुला दिया जाएगा। भुला दिया जाएगा कि कुछ घरों के चिराग बुझ गए, कुछ महिलाओं के माथे का सिंदूर उजड़ गया, कुछ बच्चे हमेशा के लिए अनाथ हो गए। सड़क पर चलते वक्त गिरने का खतरा हमेशा रहता है, लेकिन जब हम बार-बार गिरने लगे तो हमें अपनी कमजोरियों का आभास हो जाना चाहिए। अफसोस कि हमारी सरकार अब तक अपनी कमजोरी को पहचान नहीं पाई है, या कह सकते हैं कि पहचानना ही नहीं चाहती। मुंबई हमले के बाद जरूरत व्यवस्था बदलने की थी मगर चेहरे बदले गए, शिवराज पाटिल को गृहमंत्री की कुर्सी से हटाकर चिदंबरम को बैठाया गया। साबित करने की कोशिश की गई कि सफेदी की चमकार में डूबे रहने वाले पाटिल से धोती पहनने वाले चिदंबरम ज्यादा सख्त होंगे। लेकिन ये सख्ती आतंकियों के दिल में खौफ पैदा करने में नाकम रही। गंभीर चेहरे देखाकर खून की होली खेलने वालों को अगर रोका जा सकता तो आतंक का ये दौर कब का खत्म हो गया होता। पाटिल के कार्यकाल में अगर आतंकी बेखौफ थे तो चिदंबरम के कार्यकाल में उनके हौसले और भी ज्यादा बुलंद हो गए हैं। इस बुलंदी की जिम्मेदार कोई और नहीं सरकार है, मुंबई के दहलने के बाद यदि सख्त कदम उठाए गए होते तो दिल्ली के दहलने की नौबत ही नहीं आती। ऐसा लगता है जैसे ये देश बहुत सहनशील हो गया है, और इसकी सरकार की सहनशीलता कर्ण को भी मात देने लगी है। कर्ण ने तो फिर भी बिच्छु के डंक की पीड़ा को एक बार सहन किया था, लेकिन सरकार बार-बार मिलने वाले जख्मों को अपनी नियती मान बैठी है।
दुस्साहस की ताकत प्रतिक्रियाओं के अभाव में पनपती है। आतंकी भी इस बात को जान गए हैं कि भारत की सहनशीलता बहुत गहरी है। चाहे देश के दिल को दहलाओ या उसकी आर्थिक नब्ज दबाओ कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी, गर होगी भी तो महज बयान मात्र की। बीते दिनों मुंबई में सीरीयल धमाकों के बाद गृहमंत्रालय लेकर प्रधानमंत्री तक ने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा था कि अब ऐसी घटनाएं नहीं होंगी, वो अब फिर इसी दृढ़ता के साथ कह रहे हैं कि दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। पीएम कहते हैं कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई एक युद्ध है और हम इसमें जरूर जीतेंगे। लेकिन कब जीतेंगे ये शायद वो खुद नहीं जानते। 12 मार्च 1993 को मुंबई में 13 श्रृखलांबद्ध धमाके हुए थे, उस वक्त को 18 साल गुजर चुके हैं, 18 साल में एक बच्चा बालिग हो जाता है। अपना बुरा-भला, दोस्त दुश्मन की पहचान करने लगता है। इतना ताकतवर भी हो जाता है कि दुश्मन का मुकाबला कर सके। लेकिन इन 18 सालों में हमारा देश कहां है, ये बताने की जरूरत नहीं। उस वक्त हम जिस स्थिति में आज भी वहीं हैं, फर्क बस इतना है कि तब जख्मों पर आंसू बहाने वाले हम अकेले थे और अब अमेरिका जैसे ताकतवर मुल्क का हमें कंधा मिल गया है। लेकिन इससे ज्यादा नाकारापन और क्या हो सकता है कि अमेरिका के कंधे पर टिकने के बाद भी हम उससे दृढ़ता और इच्छाशक्ति का पाठ नहीं सीख पाए हैं। अमेरिका में आखिरी आतंकवादी हमला 2009 में हुआ था, इसके बाद आतंकी उसकी तरफ नजर उठाकर देखने का साहस भी नहीं जुटा पाए। अमेरिका छोटे-छोटे राज्यों का देश है, बावजूद इसके वहां आतंकवाद के मुद्दों पर राजनीति नहीं होती। वहां, सद्दाम या लादेन को बचाने के लिए विधानसभाओं में प्रस्ताव पारित नहीं होते। लादेन तो फिर भी एक मिशन में मारा गया, लेकिन सद्दाम को बाकायदा फांसी पर चढ़ाया गया था। 9/11 के बाद लादेन की तलाश में इराक से पाकिस्तान तक सैन्य कार्रवाई के बुश के फैसले जैसा अगर कुछ भारत में होता पूरे देश को सिर पर उठा लिया गया होता।
राजनीति का इससे विकृत रूप कहीं और देखने को नहीं मिल सकता, अफजल गुरु ने देश की संसद पर हमला किया लेकिन वो आज भी जिंदा है। पूर्व प्रधानमंत्री को मारने वाले जेल में आराम फरमा रहे हैं, कांग्रेस नेता पर हमला करने वाला भुल्लर दया की आस पाले बैठा है। अफजल मुस्लिम है, उसे फांसी मिली तो अल्पसंख्यक वोट बिदक जाएंगे, राजीव के हत्यारे तमिल हैं, उन्हें सजा हुई तो तमिल भड़क जाएंगे, भुल्लर पंजाबी है उसकी मौत से सिख समुदाय आहत होगा, आतंकवादियों को इस रूप में केवल भारत में ही देखा जा सकता है। कसाब का गुनाह हजारों लोगों ने देखा, इसके बाद भी उसके खिलाफ सुबूत जुटाए, अदालत में दोषी को दोषी साबित करने की प्रक्रिया अपनाई गई। आज भी ये साफ नहीं है कि वो कभी फांसी के फंदे पर लटकेगा भी या नहीं, हो सकता है कल कसाब पर भी सियासत शुरू हो जाए। मुस्लिम वोट बैंक बताकर उसे अफजल की तरह जिंदा रखा जाए। वोट बैंक के नाम पर आतंकवादियों से सहानभूति रखने वाले सियासतदा शायद ये भूल जाते हैं कि बंदूक से निकली गोली और बारूद से निकले शोले जाति-धर्म देखकर तबाही नहीं मचाते। आतंकी हमलों में हिंदू भी मरते हैं और मुस्लिम भी, सिख भी मरते हैं और ईसाई भी तो क्या इन लोगों के दिल में अपनों के हत्यारों के प्रति कोई लगाव हो सकता है? ये कुछ और नहीं सिर्फ डर है, जब आपको अपनी काबलियत पर भरोसा न हो तो आप हर चीज से डरने लगते हैं। पांच साल तक जनता के पैसों पर रोटिया तोडऩे वाले, सिर्फ और सिर्फ अपना भले सोचने वाले नेताओं के दिल में यही खौफ घर कर गया है। इसलिए उन्हें आतंकियों में भी मजहबी वोट बैंक नजर आने लगता है। जो नेता और सरकार महंगाई की रफ्तार को नियंत्रित नहीं पाए हों उनसे भला आतंकवादियों पर काबू पाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है। आतंकवादियों के पास विनाश के हथियार होते हैं, लेकिन महंगाई निहत्थे। बावजूद इसके महंगाई सरकार को परास्त करे हुई है।
देश में होने वाली हर छोटी-बड़ी आतंकवादी घटनाओं के लिए पाकिस्तान को कुसूरवार ठहराया जाता है, ढेरों सुबूत जुटाए जाते हैं, और अंत में उसी पाकिस्तान के साथ रिश्तों की मजबूती का हवाला देकर सारे जख्म भुला दिए जाते हैं। अगर पाकिस्तान कुसूरवार है तो फिर उससे रिश्ते कैसे? देश की जनता आज तक ये समझ नहीं पाई है कि आखिर आतंकवाद के जनक पाकिस्तान के आगे भारत सरकार इतनी बेबस क्यों हो जाती है। एक अदना का जानवर भी अपनों की जान बचाने के लिए जान की बाजी लगा देता है, वो ये नहीं देखता उसका दुश्मन कितना ताकतवर है, मगर इस देश की सरकार अपने दुश्मन से कई गुना ज्यादा ताकतवर होने के बाद भी खामोशी ओढ़े बैठी है, ये कायरपन नहीं तो और क्या है? जब तक इस कायरपन से बाहर आने के प्रयास नहीं होते हम भारतीय हूं ही मरते रहेंगे, यूं ही सुबोध कांत जैसे लोग हमारे दर्द पर अट्टहास लगाते रहेंगे और यूं ही सरकार आश्वासन देती रहेगी। अगले धमाके के बाद यही सब सवाल एक बार फिर सामने आ जाएंगे।
Sunday, September 4, 2011
टीम अन्ना पर कार्रवाई के मायने
चीन के बारे में कहा जाता है कि वो दुश्मन को कमजोर करने के लिए कभी सीधे तौर पर हमला नहीं करता, वो ऐसे रास्तों से वार करता है जहां से चोट भी पहुंचे और उसे नुकसान भी न हो। यही वजह है कि चीन की पहचान एक कुटिल मुल्क के रूप में बन गई है। 1963 में भारत-चीन की लड़ाई के बाद उसने तमाम मतभेदों के बावजूद कभी इतिहास दोहराने का प्रयास नहीं किया। लेकिन खामोशी से शनै: शनै: अपने भारत विरोधी अभियान को आगे बढ़ाता रहा। कुछ यही तरीका आजकल सरकार अपना रही है। अपने विरोधियों पर सीधे हमला करने के बजाए सरकार दूसरे रास्तों से उनपर घेरा कसने में लगी है। बाबा रामदेव ने कालेधन को लेकर सरकार के खिलाफ आवाज उठाई तो बदले में उन्हें जांच एजेंसियों के फेर में उलझा दिया गया। उनके सहयोगी बालकृष्ण की नागरिकता पर सवाल उठाए गए। उनके पासपोर्ट को फर्जी बताया गया और बाद में उनके प्रमाणपत्रों को अवैध बताकर उन्हें पुलिस थाने के दर्जनों चक्कर लगवाए गए। अन्ना के आंदोलन के माध्यम से बाबा ने जब फिर आवाज बुलंद करने की कोशिश की तो उन्हें प्रवर्तन निदेशालय का डर दिखाया गया। विदेशों के लेन-देन के नाम पर उनके खिलाफ मामले दर्ज किए गए। इसके अलावा ये भी बताया गया कि निदेशालय बाबा की विदेशों में संचित संपत्ति की खोज-खबर में जुट गया है। अब इसी तरीके से अन्ना के सदस्यों से निपटा जा रहा है। पहले किरण बेदी के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का नोटिस भेजा गया, फिर प्रशांत भूषण और इसके बाद अरविंद केजरीवाल को।
केजरीवाल को इस नोटिस के अलावा आयकर विभाग से भी नोटिस थमाए गए। सबसे अजीब रहा कुमार विश्वास को नाटिस भेजना। विश्वास से एडवांस में टैक्स डिक्लियर करने को कहा गया है। इससे पहले कभी उन्हें इस तरह का नोटिस नहीं मिला। जो इंसान समय पर टैक्स का भुगतान करता हो, अचानक से उसे एडवांस में टैक्स डिक्लियर करने को कहना क्या सामान्य प्रक्रिया कही जा सकती है? एकबारगी टीम अन्ना के प्रमुख सदस्यों की बात छोड़ दें तो भी विश्वास को नोटिस गले उतरने वाली बात नहीं है। इससे साफ होता है कि सरकार हर उस शख्स को सबक सिखाना चाहती है, जिसने अन्ना का साथ देने का साहस दिखाया। जाहिर है, ऐसे में अभी कई और लोग निशाना बन सकते हैं। अन्ना के अनशन को जितना जनसमर्थन मिला, उसकी उम्मीद सरकार ने नहीं की थी। सरकार और उसके रणनीतिकार मान बैठे थे कि थोड़ी बहुत सख्ती से आंदोलन को कुचल दिया जाएगा। पहले सरकार अन्ना के सदस्यों को अनशन की इजाजत के लिए यहां-वहां दौड़ाती रही, और जब इजाजत दी तो तमाम शर्तें लगा दी गईं। जब इससे भी बात नहीं बनी तो अनशन वाले दिन अन्ना को गिरफ्तार कर लिया गया। इस गिरफ्तारी और इसके बाद रामलीला मैदान में जो कुछ भी हुआ उससे सरकार का खीजना लाजमी था। सिंहासन पर बैठने वाले को कभी वो चेहरे नहीं सुहाते जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर उसके उपहास में शामिल हों। अन्ना के मंच से स्वयं अन्ना और उनके सहयोगियों ने सरकार पर कई बार हमले बोले, शब्दबाणों के इन हमलों में कई शब्द तीखे भी थे। लेकिन इनके तीखे होने की वजह खुद सरकार ने पैदा की थी। वैसे शब्दों के तीखेपन का अहसास संसद में बैठने वालों को बिल्कुल भी नहीं होता अगर ये हजारों लोगों की मौजूदगी में नहीं बोले गए होते।
अरविंद, किरन, प्रशांत और ओमपुरी को भेजे गए विशेषाधिकार हनन के नोटिस के बाद ये बात भी विचारणीय हो गई है कि क्या विशेषाधिकार सिर्फ माननीयों के होते हैं। कांग्रेस प्रवक्ता और सांसद मनीष तिवारी ने अन्ना हजारे के लिए जिन शब्दों का इस्तेमाल किया उसे क्या कहा जाए। हाल ही में जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव ने राष्ट्रपति और राज्यपाल के बारे में जो कुछ कहा, क्या उसे लेकर उन्हें नोटिस नहीं भेजा जाना चाहिए। इसका मतलब तो ये हुआ कि माननीय एक दूसरे पर चाहे जितनी कीचड़ ऊछालें, जितने चाहे अपशब्द कहें, किसी को कोई परेशानी नहीं होती। लेकिन अगर सांसदों-नेताओं के आचरण से त्रस्त जनता कुछ बोल दे तो वो उनकी शान के खिलाफ हो जाता है। टीम अन्ना ने नेताओं के खिलाफ जो कुछ भी कहा, आम जनता को उससे कोई ऐतराज नहीं होगा, ऐसा इसलिए नहीं कि लोगों को माननीयों का उपहास उड़ाने की आदत है बल्कि इसलिए कि उनका आचरण उपहास उड़ाने लायक बन गया है। सरकार अब भले ही कितनी भी सफाई दे मगर टीम अन्ना और बाबा के खिलाफ उठाए गए कमद बदले की कार्रवाई ही माने जाएंगे। इन दोनों मामलों में ये बात काबिले गौर है कि जिन बातों को कार्रवाई का आधार बनाया गया, उसके तहत पहले भी कार्रवाई की जा सकती थी। मसलन, बाबा पर आरोप लगाए जा रहे हैं कि उनकी कंपनियों में वित्तीय अनियमित्तांए, हैं, उन्होंने गुपचुप तरीके से विदेशों में संपत्ति जुटा रखी है आदि. आदि। बाबा रामदेव सालों से देश को योग का पाठ पढ़ा रहे हैं, देश के बाहर भी उनके अनुयायियों की लंबी-चौड़ी तादाद है। बाबा की कई कंपनियां आयुर्वेद उत्पादों को लोगों को बीच पहुंचा रही हैं। यानी सरकारी जुबान में अगर बाबा कुछ गलत कर रहे हैं तो ये सिलसिला काफी पहले से चल रहा होगा।
ऐसा तो हो नहीं सकता कि कालेधन पर सत्याग्रह पर बैठने के तुरंत बाद उनकी कंपनियां गोरखधंधों में लिप्त हो गईं। इसी तरह अरविंद केजरीवाल को नौकरी का हवाला जिस मामले में उलझाया जा रहा है, वो भी काफी पुराना है। अरविंद ने 2006 में ज्वाइंट इनकम टैक्स कमिश्रर का पद छोड़ा था। लेकिन सरकार को अब याद आ रहा है कि उन्होंने सेवा शर्तों का उल्लंघन किया। उनपर 9 लाख की देनदारी भी निकाली जा रही है। यदि सरकार की मंशा बदले की नहीं होती तो इन कार्रवाईयों को गलती सामने आने के बाद ही अंजाम दिया जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ, इसका क्या मतलब निकाला जाए। निश्चित तौर पर यही कि सरकार अपने खिलाफ उठती आवाजों को बर्दाश्त नहीं कर पाई। बेहतर होता अगर सरकार इन आवाजों के साथ गूंज रहे जनता के स्वरों को भी पहचान लेती। पिछले कुछ दिनों में सरकार की छवि पर जितना बट्टा लगा है, उसमें इन कार्रवाईयों ने थोड़ा और इजाफा करने का काम किया है। गनीमत है कि हाल-फिलहाल चुनाव नहीं हैं, अन्यथा अहंकार चूर होते देर नहीं लगती। वैसे भी अहंकार का पेड़ कितना भी ऊंचा क्यों न हो जाए ज्यादा देर मजबूती के साथ खड़ा नहीं रह सकता। एक न एक दिन उसे जमीन पर आना ही पड़ता है। सरकार ये अहंकार कितने दिनों तक टिकता ये देखने वाली बात होगी।
Thursday, September 1, 2011
कहां तक वाजिब है अन्ना और गांधी की तुलना
अन्ना के आंदोलन की अलोचना का सिलसिला अनशन खत्म होने के बाद भी खत्म नहीं हुआ है। जिन लोगों के मन में इस आंदोलन की खिलाफत में थोड़ी बहुत कसर रह गई थी, उसे वो अब पूरा कर रहे हैं। इन आलोचकों में अरुंधति राय सबसे आगे हैं, वैसे तो लालू यादव जैसे राजनीतिज्ञ भी आंदोलन को गलत करार दे रहे हैं मगर ये उनकी महज खीज है। कुछ लोगों को इसमें भी आपत्ति है कि अन्ना की तुलना महात्मा गांधी से की जा रही है। उनके मुताबिक गांधी देश की आजादी के लिए लड़े थे। इसे सोच का फर्क कह सकते हैं, ऐसे लोगों के लिए शायद आजादी के मायने गैरों के चुंगल से मुक्त होना भर है। अगर अंग्रेजों के जाने के बाद भी हमारे अधिकारों का हनन हो रहा है, हमारी आवाज को दबाया जा रहा है, हमारे हितों की अनदेखी की जा रही है तो हम अब भी गुलाम हैं। फर्क बस चमड़ी का है। वैसे मेरे नजरीय में भी अन्ना का आंदोलन गांधी के आंदोलन से अलग है, लेकिन मेरे मायने जुदा हैं। गांधी के आंदोलन की शुरूआत उनके साथ हुए गलत आचरण से शुरू हुई। जबकि अन्ना ने जन-जन की समस्या को मुद्दा बनाया। इस बात में कोई दोराय नहीं कि जिस पीड़ा से गांधीजी गुजरे उसी दर्द का अनुभव हजारों-लाखों भारतीय भी कर रहे थे। लेकिन यदि बापू को ट्रेन से न उतारा गया होता तो शायद वो आजादी की लड़ाई के अगुवा नहीं होते। गांधीजी उन दिनों दक्षिण अफ्रिका में थे, उन्हें फस्र्ट क्लास का टिकट होने के बाद भी थर्ड क्लास में जाने को कहा गया, जब उन्होंने ऐसा नहीं किया तो ट्रेन से बाहर कर दिया गया। ऐसे ही एक दूसरे मामले में बग्घी ड्राइवर ने गांधीजी के साथ महज इसलिए मारपीट की क्योंकि उन्होंने यूरोपियन यात्री को जगह देने से मना कर दिया। इन सबके अलावा दक्षिण अफ्रिका के कई होटलों में गांधीजी का प्रवेश प्रतिबंधित था, डरबन के मजिस्ट्रेट ने तो उन्हें पगड़ी उतारने तक का फरमान भी सुना दिया था, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। ये कुछ ऐसी घटनाएं थी, जिन्होंने गांधीजी को अन्याय और रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाने पर मजबूर किया। यहां मजबूरी काबिले-गौर शब्द है।
गांधीजी ने देश के लिए जो किया, उसे कोई नहीं भुला सकता। आजादी में उनका योगदान हमेशा याद किया जाता रहेगा। विरोध का अहिंसक हथियार महात्मागाधी की ही देन है। लेकिन ये याद उस मजबूरी की भी याद दिलाती रहेगी। अब अन्ना की बात करें तो उन्हें भ्रष्टाचार से त्रस्त आम जनता का दर्द व्यक्तिगत अनुभव से नहीं हुआ, उन्होंने आस-पास जो होते देखा-सुना उसके खिलाफ लामबंद हो गए। फिर भी गांधी और अन्ना की तुलना को कहीं से भी जायज नहीं कहा जा सकता। तुलना करने से हम किसी को थोड़ा ऊपर, और किसी को थोड़ा नीचे कर देते हैं। जो गांधी ने किया वो अन्ना नहीं कर सकते और जो अन्ना कर रहे हैं उसे करने के लिए गांधी हमारे बीच हैं ही नहींं। इसलिए दोनों में अंतर निकालना या समानता बताना दोनों ही गलत हैं। बात केवल अन्ना के आंदोलन पर केंद्रित होनी चाहिए। अरुंधति राय मानती हैं कि अन्ना के समर्थन में सड़कों पर जनसैलाब का उमड़ाना हैरान करने वाला नहीं है, क्योंकि इससे ज्यादा भीड़ वो कश्मीर में देख चुकी हैं। कश्मीर को देश के बाकी इलाकों को जोड़कर देखना अरुंधति की सबसे पहली मूर्खता है। घाटी में जो हालात हैं, उसके लिए पाक परस्त हुर्रियत जिम्मेदार है। जहां तक बात भीड़ के उमडऩे की है तो, कश्मीरियों को इस्लाम के नाम पर आजादी का नारा बुलंद करने का पाठ पढ़ाया जा रहा है। धर्म के नाम पर भीड़ कैसे जुटती है, ये बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान देश देख चुका है। शरीर पर बम बांधकर अपने को उड़ा लेने और हंसते-खेलते जान निछावर करने का परिणाम भले ही मौत हो, मगर दोनों के आश्य अलग हैं। कश्मीर में जुटने वाली भीड़ बम बांधे हुए लोगों की तरह है, जो दूसरों के इशारों पर प्रतिक्रिया करती है जबकि अन्ना के समर्थन में उतरे लोग अपनी मर्जी से सड़क पर आए। अरुंधति को सबसे पहले इन दोनों के बीच का फर्क समझने की जरूरत है। आंदोलन के अहिंसक स्वरूप पर अरुंधति कहती हैं कि इसकी वजह पुलिस का डर था। यानी अगर पुलिस डरी नहीं होती तो आंदोलन को अहिंसक नहीं कहा जा सकता था।
आजादी के दौर में गांधीजी के आंदोलनों को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने कई बार जुल्म ढहाए मगर फिर भी उन आंदोलनों को अहिंसक कहा गया। इसलिए अगर पुलिस बेखौफ होती तो ये जरूरी नहीं कि लोग भी रक्तपात पर उतर आते। जनता के धैर्य और उत्तेजना को काबू रखना बेहद मुश्किल काम है, लेकिन अन्ना ने इस मुश्किल को आसान कर दिखाया। कम से कम इसके लिए तो उनकी तारीफ की ही जानी चाहिए। अरुंधति अन्ना के आंदोलन को मिले मीडिया कवरेज पर भी सवाल उठा रही हैं, इस लेखिका को लगता है कि कुछ चैनलों को साधकर आंदोलन को प्रमोट किया गया। ये बात बिल्कुल सही है कि आंदोलन की सफलता में मीडिया की भूमिका काफी अहम रही, पर क्या इसका ये मतलब निकाला जाना चाहिए कि सबकुछ पेड था। मीडिया मसाले की तलाश में रहता है, और अन्ना के आंदोलन में उसे वो मसाला मिला। आम जनता सिर्फ और सिर्फ अन्ना के बारे में जानना चाहती थी। चाय की दुकान से लेकर दफ्तरों तक में अन्ना की चर्चा थी, ऐसे में मीडिया कुछ और दिखाता या पढ़ाता भी तो कैसे। इस विवादास्पद लेखिका को इस बात पर भी ऐतराज है क लोगों ने हाथ में तिरंगे लेकर वंदेमातरम के नारे क्यों लगाए। बकौल अरुंधति वंदेमातरम का सांप्रदायिक इतिहास रहा है। इस्लाम में मूर्ति पूजा की मनाही है, इसी तर्क को लेकर शाही इमाम ने मुस्लिमों से आंदोलन से दूर रहने को कहा, मगर मुसलमान पहले से भी ज्यादा तादाद में अन्ना का साथ देने पहुंचे। जिन दो बच्चियों ने अन्ना का अनशन तुड़वाया वो भी मुस्लिम थीं। तो फिर इसमें सांप्रदायिकता की बात कहां से आ गई। जब मुस्लिमों को इन नारों के बीच भी खुद को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का हिस्सा बनाने पर कोई ऐतराज नहीं तो फिर अरुंधति ऐतराज जताने वाली कौन होती हैं। अरुंधति और उनके जैसे दूसरे लोग आलोचना की बीमारी से ग्रस्त हैं, इन्हें माओवादियों का रक्तपात, हुर्रियत के देश विरोधी नारे तो सुहाते हैं, लेकिन किसी अन्ना जैसे आम आदमी से जुड़े आंदोलन नहीं। अच्छी बात ये है कि जनता ने भी ऐसे लोगों को गंभीरता से लेना बंद कर दिया है। उसे समझ आ गया है कि ये लोग सुर्खियों में आने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। अन्ना ने जो काम किया है, उसके आगे ये अलोचनाएं कहीं नहीं टिकतीं। वैसे भी हर अच्छी पहल को अंजाम तक पहुंचने से पहले विरोध के दरिया से गुजरना ही पड़ता है।
Tuesday, August 16, 2011
संसद नहीं जनता सर्वोच्च
नीरज नैयर
अभी हाल ही में एक फिल्म देखी, इस फिल्म में हीरो को फंसाने के लिए पुलिस वाले तलाशी के नाम पर उसकी जेब में ड्रगस रख देते हैं और फिर उसी ड्रगस को दिखाकर उसे गिरफ्तार कर लेते हैं। अन्ना हजारे के साथ भी सरकार कुछ ऐसा ही करने की कोशिश कर रही है। छह साल पुराने मामले को उठाकर सरकार ये बताना चाहती है कि भ्रष्टाचार मिटाने की बात करने वाले अन्ना खुद भ्रष्टचार में लिप्त हैं। अन्ना की पीएम को चि_ी के दूसरे दिन जिस तरह से सरकार के तीन-तीन बड़े मंत्री और कांग्रेस ने हजारे पर हमला बोला उससे ये साफ होता है कि सरकार उन्हें फंसाना चाहती है। हालांकि उस स्थिति में नहीं है, जिस स्थिति में फिल्म के पुलिसवाले थे। फिल्म में हीरो अकेला था, लेकिन अन्ना के साथ पूरा देश खड़ा है। सिर्फ देश ही नहीं विदेशों में भी इस गांधीवदी नेता के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं। जिस जस्टिस सावंत की रिपोर्ट का हवाले देकर सरकार अन्ना को भ्रष्ट बताने में लगी है, उस रिपोर्ट पर अन्ना के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। अगर अन्ना हजारे भ्रष्ट थे तो कार्रवाई होनी चाहिए थी। दरअसल, अन्ना ने महाराष्ट्र सरकार के चार मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टचार के आरोप लगाए थे। इन आरोपों से तिलमिलाए एक मंत्री ने भी अन्ना पर यही आरोप लगाया। दोनों आरोपों की जांच के लिए जस्टिस सावंत की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति ने 2005 में विधानसभा को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट के आधार पर तीन मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा, मगर अन्ना के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसका सीधा सा मतलब निकलता है कि अन्ना पर लगे आरोपों का कोई आधार नहीं मिला होगा। वरना जो सरकार अपने तीन मंत्रियों को कुर्बान कर सकती है, भला क्या वो आरोप लगाने वाले अन्ना को बेदाग छोड़ सकती थी?
सरकार ने अन्ना के पिछले सारे रिकॉर्ड खंगाले यहां तक कि उनके सेना के दिनों की भी जानकारी जुटाई, लेकिन जब कुछ नहीं मिला तो उसने जस्टिस सावंत की रिपोर्ट को हथियार बनाया। संभव है आने वाले दिनों में सरकार अन्ना पर कुछ और गंभीर आरोप लगाए, इन आरोपों को साबित करने के लिए वो कुछ दलीलें भी पेश करे। सरकार के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है, वो सच को झूठ और झूठ को सच में बदल सकती है। अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों का हाल वो बाबा रामदेव की तरह कर देती है। कल तक बाबा पूरे जोश के साथ कालाधन वापस लाने की मांग किया करते, मगर अब ऐसे खामोश हैं जैसे उन्होंने ये मुद्दा कभी उठाया ही नहीं। इस खामोशी के पीछे उनकी भी मजबूरी है। सरकार ने कई एजेंसियों को बाबा के पीछे साय की तरह लगा दिया है, वो सांस भी लेते हैं तो सरकार को पता चल जाता है कि उनकी धड़कनें कितनी तेज चलीं। सरकार कहती है कि अन्ना और उनकी टीम की मांगे नाजायज हैं, उन्हें अनशन करने का हक नहीं। कानून जनप्रतिनिधि बनाते हैं, संसद सर्वोच्च है आदि. आदि। अगर अन्ना की मांगे नाजायज हैं तो सरकार पहले उनपर राजी कैसे हो गई। उसे अन्ना का अनशन तुड़वाने के लिए रजामंदी का दिखावा करना ही नहीं चाहिए था। देश का कोई भी नागरिक सरकार के इस तर्क से सहमत नहीं हो सकता, आखिर अन्ना की मांगों में ऐसा क्या है जो जायज नहीं।
सिविल सोसाइटी का जनलोकपाल बिल प्रधानमंत्री और न्यायापालिका को दायरे में रखने की मांग करता है, क्या ये नाजायज है। प्रधानमंत्री या जज कोई दूध के धुले नहीं होते, पैसा उनका ईमान भी ढिगा सकता है। ऐसे तमाम उदाहरण हमारे पास मौजूद हैं। राजीव गांधी से लेकर नरसिंहराव तक पर पीएम रखते वक्त आरोप लगे। सब्बरवाल से लेकर केजी बालकृष्णन तक ने चीफ जस्टिस रहते वक्त भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना किया। क्या ये आरोप ऐसे ही लग गए, कहीं न कहीं तो कुछ न कुछ गड़बड़ रहा होगा तभी इतने उच्च पदों पर विराजमान लोगों पर इतने गंभीर आरोप लगे। जहां भ्रष्टाचार है वहां लोकपाल को जांच करने की अनुमति क्यों नहीं दी जा सकती? जहां तक बात अन्ना को अनशन करने के हक की है तो ये देश के हर व्यक्ति का अधिकार है। संविधान में इसकी इजाजत दी गई है तो फिर सरकार इस अधिकार को कैसे छीन सकती है। गांधी जी ने भी अहिंसक तरीके से सत्याग्रह किया, अगर उस सत्याग्रह के लिए गांधी को पिता का दर्जा दिया जा सकता है तो अन्ना को कम से कम सम्मान के साथ अनशन करने का हक तो मिलना ही चाहिए। सरकार कहती है कि कानून बनाने का अधिकार जनप्रतिनिधियों को है और संसद सर्वोच्च है। इस बात में कोई दोराय नहीं कि कानून जनप्रतिनिधि ही बना सकते हैं, लेकिन वो जनप्रतिनिधि जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। जनता ने उन्हें ये अधिकार दिया है। और अगर जनता अधिकार दे सकती है तो उन अधिकारों के गलत इस्तेमाल का विरोध भी कर सकती है।
लोकतंत्र में संसद को सर्वोच्च नहीं कहा जा सकता, ये बात ब्रिटेन जैसे देशों पर लागू हो सकती है जहां राजा-रानी की भी सरकारी फैसलों में दखलंदाजी होती है। लेकिन भारत में नहीं। देश की जनता अपना प्रतिनिधित्व करने वालों को संसद भेजती है, वो प्रतिनिधि मिलकर संसद चलाते हैं तो संसद सर्वोच्च कैसे हो गई। सर्वोच्च संसद नहीं बल्कि जनता है, अगर जनता प्रतिनिधि न चुने तो संसद इस काम की। जनता को और अन्ना हजारे को इस बात का पूरा अधिकार है कि वो सरकार के कामकाज एवं नीतियों के खिलाफ सड़क पर उतरकर अनशन कर सकें। इस अधिकार को सरकार चाहकर भी नहीं छीन सकती। कहने को भारत में लोकतंत्र है, लेकिन जिस तरह से सरकार अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों को ठिकाने लगाने में लगी है उससे इस लोकतंत्र के मायने ही बदल गए हैं। हमने सिफ लोकतंत्र का चोला ओढ़ा है, अंदर से हमारी मानसिकता तानाशाही वाली है। चीन, म्यांमार और भारत में फर्क केवल इतना ही कि वहां सरकार की मुखालफत करने वालों को सबके सामने कुचलकर रख दिया जाता है जबकि हमारे यहां पर्दे के पीछे रहकर खेल खेला जाता है।
ऐसे लोकतंत्र से अच्छा है तानाशाही, कम से कम लोगों को इस बात का भ्रम तो नहीं रहेगा कि उन्हें आवाज उठाने का हक है। अन्ना हजारे जो कुछ भी कर रहे हैं, उससे भले ही भ्रष्टाचार पूरी तरह खत्म न हो, लेकिन इस पहल की जरूरत थी। सरकार को इस बात का आभास होना ही चाहिए कि जनता सर्वोच्च है और उसकी मर्जी भी कुछ मायने रखती है। सरकार हर वक्त जनता को नहीं हांक सकती, बात चाहे भ्रष्टाचार की हो या महंगाई की सरकार अपनी मनमर्जी के हिसाब से काम करती आई है और उसकी मनमर्जी का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। अन्ना आम जनता की आवाज बनकर उभरे हैं, इस आवाज को बुलंद रखना हमारी भी जिम्मेदारी है और इसे हजारे की मुहिम में शामिल होकर ही बुलंद रखा जा सकता है।
संसद नहीं जनता सर्वोच्च
नीरज नैयर
अभी हाल ही में एक फिल्म देखी, इस फिल्म में हीरो को फंसाने के लिए पुलिस वाले तलाशी के नाम पर उसकी जेब में ड्रगस रख देते हैं और फिर उसी ड्रगस को दिखाकर उसे गिरफ्तार कर लेते हैं। अन्ना हजारे के साथ भी सरकार कुछ ऐसा ही करने की कोशिश कर रही है। छह साल पुराने मामले को उठाकर सरकार ये बताना चाहती है कि भ्रष्टाचार मिटाने की बात करने वाले अन्ना खुद भ्रष्टचार में लिप्त हैं। अन्ना की पीएम को चि_ी के दूसरे दिन जिस तरह से सरकार के तीन-तीन बड़े मंत्री और कांग्रेस ने हजारे पर हमला बोला उससे ये साफ होता है कि सरकार उन्हें फंसाना चाहती है। हालांकि उस स्थिति में नहीं है, जिस स्थिति में फिल्म के पुलिसवाले थे। फिल्म में हीरो अकेला था, लेकिन अन्ना के साथ पूरा देश खड़ा है। सिर्फ देश ही नहीं विदेशों में भी इस गांधीवदी नेता के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं। जिस जस्टिस सावंत की रिपोर्ट का हवाले देकर सरकार अन्ना को भ्रष्ट बताने में लगी है, उस रिपोर्ट पर अन्ना के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। अगर अन्ना हजारे भ्रष्ट थे तो कार्रवाई होनी चाहिए थी। दरअसल, अन्ना ने महाराष्ट्र सरकार के चार मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टचार के आरोप लगाए थे। इन आरोपों से तिलमिलाए एक मंत्री ने भी अन्ना पर यही आरोप लगाया। दोनों आरोपों की जांच के लिए जस्टिस सावंत की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति ने 2005 में विधानसभा को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट के आधार पर तीन मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा, मगर अन्ना के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसका सीधा सा मतलब निकलता है कि अन्ना पर लगे आरोपों का कोई आधार नहीं मिला होगा। वरना जो सरकार अपने तीन मंत्रियों को कुर्बान कर सकती है, भला क्या वो आरोप लगाने वाले अन्ना को बेदाग छोड़ सकती थी?
सरकार ने अन्ना के पिछले सारे रिकॉर्ड खंगाले यहां तक कि उनके सेना के दिनों की भी जानकारी जुटाई, लेकिन जब कुछ नहीं मिला तो उसने जस्टिस सावंत की रिपोर्ट को हथियार बनाया। संभव है आने वाले दिनों में सरकार अन्ना पर कुछ और गंभीर आरोप लगाए, इन आरोपों को साबित करने के लिए वो कुछ दलीलें भी पेश करे। सरकार के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है, वो सच को झूठ और झूठ को सच में बदल सकती है। अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों का हाल वो बाबा रामदेव की तरह कर देती है। कल तक बाबा पूरे जोश के साथ कालाधन वापस लाने की मांग किया करते, मगर अब ऐसे खामोश हैं जैसे उन्होंने ये मुद्दा कभी उठाया ही नहीं। इस खामोशी के पीछे उनकी भी मजबूरी है। सरकार ने कई एजेंसियों को बाबा के पीछे साय की तरह लगा दिया है, वो सांस भी लेते हैं तो सरकार को पता चल जाता है कि उनकी धड़कनें कितनी तेज चलीं। सरकार कहती है कि अन्ना और उनकी टीम की मांगे नाजायज हैं, उन्हें अनशन करने का हक नहीं। कानून जनप्रतिनिधि बनाते हैं, संसद सर्वोच्च है आदि. आदि। अगर अन्ना की मांगे नाजायज हैं तो सरकार पहले उनपर राजी कैसे हो गई। उसे अन्ना का अनशन तुड़वाने के लिए रजामंदी का दिखावा करना ही नहीं चाहिए था। देश का कोई भी नागरिक सरकार के इस तर्क से सहमत नहीं हो सकता, आखिर अन्ना की मांगों में ऐसा क्या है जो जायज नहीं।
सिविल सोसाइटी का जनलोकपाल बिल प्रधानमंत्री और न्यायापालिका को दायरे में रखने की मांग करता है, क्या ये नाजायज है। प्रधानमंत्री या जज कोई दूध के धुले नहीं होते, पैसा उनका ईमान भी ढिगा सकता है। ऐसे तमाम उदाहरण हमारे पास मौजूद हैं। राजीव गांधी से लेकर नरसिंहराव तक पर पीएम रखते वक्त आरोप लगे। सब्बरवाल से लेकर केजी बालकृष्णन तक ने चीफ जस्टिस रहते वक्त भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना किया। क्या ये आरोप ऐसे ही लग गए, कहीं न कहीं तो कुछ न कुछ गड़बड़ रहा होगा तभी इतने उच्च पदों पर विराजमान लोगों पर इतने गंभीर आरोप लगे। जहां भ्रष्टाचार है वहां लोकपाल को जांच करने की अनुमति क्यों नहीं दी जा सकती? जहां तक बात अन्ना को अनशन करने के हक की है तो ये देश के हर व्यक्ति का अधिकार है। संविधान में इसकी इजाजत दी गई है तो फिर सरकार इस अधिकार को कैसे छीन सकती है। गांधी जी ने भी अहिंसक तरीके से सत्याग्रह किया, अगर उस सत्याग्रह के लिए गांधी को पिता का दर्जा दिया जा सकता है तो अन्ना को कम से कम सम्मान के साथ अनशन करने का हक तो मिलना ही चाहिए। सरकार कहती है कि कानून बनाने का अधिकार जनप्रतिनिधियों को है और संसद सर्वोच्च है। इस बात में कोई दोराय नहीं कि कानून जनप्रतिनिधि ही बना सकते हैं, लेकिन वो जनप्रतिनिधि जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। जनता ने उन्हें ये अधिकार दिया है। और अगर जनता अधिकार दे सकती है तो उन अधिकारों के गलत इस्तेमाल का विरोध भी कर सकती है।
लोकतंत्र में संसद को सर्वोच्च नहीं कहा जा सकता, ये बात ब्रिटेन जैसे देशों पर लागू हो सकती है जहां राजा-रानी की भी सरकारी फैसलों में दखलंदाजी होती है। लेकिन भारत में नहीं। देश की जनता अपना प्रतिनिधित्व करने वालों को संसद भेजती है, वो प्रतिनिधि मिलकर संसद चलाते हैं तो संसद सर्वोच्च कैसे हो गई। सर्वोच्च संसद नहीं बल्कि जनता है, अगर जनता प्रतिनिधि न चुने तो संसद इस काम की। जनता को और अन्ना हजारे को इस बात का पूरा अधिकार है कि वो सरकार के कामकाज एवं नीतियों के खिलाफ सड़क पर उतरकर अनशन कर सकें। इस अधिकार को सरकार चाहकर भी नहीं छीन सकती। कहने को भारत में लोकतंत्र है, लेकिन जिस तरह से सरकार अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों को ठिकाने लगाने में लगी है उससे इस लोकतंत्र के मायने ही बदल गए हैं। हमने सिफ लोकतंत्र का चोला ओढ़ा है, अंदर से हमारी मानसिकता तानाशाही वाली है। चीन, म्यांमार और भारत में फर्क केवल इतना ही कि वहां सरकार की मुखालफत करने वालों को सबके सामने कुचलकर रख दिया जाता है जबकि हमारे यहां पर्दे के पीछे रहकर खेल खेला जाता है।
ऐसे लोकतंत्र से अच्छा है तानाशाही, कम से कम लोगों को इस बात का भ्रम तो नहीं रहेगा कि उन्हें आवाज उठाने का हक है। अन्ना हजारे जो कुछ भी कर रहे हैं, उससे भले ही भ्रष्टाचार पूरी तरह खत्म न हो, लेकिन इस पहल की जरूरत थी। सरकार को इस बात का आभास होना ही चाहिए कि जनता सर्वोच्च है और उसकी मर्जी भी कुछ मायने रखती है। सरकार हर वक्त जनता को नहीं हांक सकती, बात चाहे भ्रष्टाचार की हो या महंगाई की सरकार अपनी मनमर्जी के हिसाब से काम करती आई है और उसकी मनमर्जी का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। अन्ना आम जनता की आवाज बनकर उभरे हैं, इस आवाज को बुलंद रखना हमारी भी जिम्मेदारी है और इसे हजारे की मुहिम में शामिल होकर ही बुलंद रखा जा सकता है।
Sunday, August 7, 2011
शेयर बाजार में गिरावट: डरने नहीं, मुनाफ कमाने का वक्त
नीरज नैयर
शेयर बाजार के हालात इस वक्त गमगीन हैं, गमगीन इसलिए कि एक दिन में निवेशकों को 1.33 लाख करोड़ का नुकसान उठाना पड़ा है। इस एक लाख 33 हजार करोड़ में हजारों छोटे-बड़े निवेशकों का पैसा डूबा होगा। जो बड़े हैं, वो किसी तरह इस मार को सह जाएंगे लेकिन जिन्होंने अभी चलना सीखा था या जो छोटे-छोटे कदम बढ़ाने की हैसीयत रखते हैं उनके लिए इससे उबरना बहुत मुश्किल होगा। बाजार में इस तरह का माहौल अचानक ही बनता है, लेकिन उसके पीछे की वजह अचानक जन्म नहीं लेती। मौजूदा गिरावट अमेरिका में आर्थिक मंदी की आशंका से आई है, अमेरिका पर कर्ज बढ़ता जा रहा है। हालांकि कर्ज माफी बिल पर सहमति तो बन गई है, लेकिन बोझ इतना ज्यादा है कि मंदी का खतरा जल्द टलने वाला नहीं। बस, इसी खतरे के चलते निवेशक घबराए हुए हैं और बाजार गिर रहे हैं। भारत ही नहीं, अमेरिका सहित कई देशों के बाजार में नरमी का रुख है। यहां, सोचने वाली बात ये है कि अगर आशंका बाजार को दो साल पीछे ले जा सकती है तो आशंका के सच होने की दशा में क्या हाल होंगे। ऐसी स्थिति में अमूमन निवेशक भारी नुकसान से बचने के लिए धड़ाधड़ बिकवाली करते हैं, उन्हें लगता है कि आज बेच लो कल मौका मिले न मिले। ये मानसिकता सामान्य बाजार में तो कारगर हो सकती है, लेकिन शेयर बाजार बिल्कुल अलग है।
धड़ाधड़ बिकवाली, एक मामूली से बीमार इंसान को आईसीयू में पहुंचाने जैसी है। निवेशकों की घबराहट पूरे के पूरे बाजार को जार-जार कर देती है, और जाहिर है ऐसी स्थिति से निकलने में वक्त लगता है। शेयर बाजार में पूंजी निवेशकर मुनाफा कमाना हमेशा लॉंग टर्म इनवेस्टमेंट रहा है, लेकिन बीते कुछ सालों में शॉट टर्म इनवेटरों की भरमार हो गई है। ऐसे लोगों की तादाद काफी ज्यादा है, जिनकी नजर में शेयर कम वक्त में प्रॉफिट गेन का बहुत बढिय़ा विकल्प है। इस बढिय़ा विकल्प की सोच ने ही ऐसे निवेशकों की लंबी-चौड़ी फौज खड़ी कर दी है जो बाजार में पैसा लगाते हैं और हल्की सी आशंका मात्र पर ही अपने हाथ खींच लेते हैं। नतीजतन, एक्सप्रेस की रफ्तार से दौड़े जा रहे बाजार की स्पीड पैसेंजर की माफिक हो जाती है। शेयर बाजार में निवेश धैर्य का खेल है, जिस किसी को ये खेल समझ आ गया उसके लिए मुनाफा कमाना कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन अफसोस कि इसे समझने में लोग अक्सर चूक कर जाते हैं। गिरावट के वक्त हमेशा समझदारी से काम लेना चाहिए। धड़ाधड़ बिकवाली के बजाए जिन शेयरों में आपको मुनाफे की संभावना बेहद कम नजर आ रही हो केवल उन्हें ही निकालना चाहिए। अन्यथा थोड़े समय के लिए खामोश बैठने में ही भलाई है। शेयर बाजार में कभी एक जैसा रुख नहीं रहता, आज नरमी है तो कल अच्छे दिन भी आएंगे।
पिछली बार जब विश्व ने आर्थिक मंदी का सामना किया था तब भी शेयर बाजार एक ही झटके में कई साल पीछे पहुंच गया था। लेकिन फिर भी उसने वापसी की, धीरे-धीरे ही सही मगर वो पुराने मुकाम तक पहुंच गया। इसलिए ये सोच लेना कि बाजार गर्त में चला गया नादानी और बेवकूफी के सिवा कुछ नहीं। बाजार में मंदी के बादल ज्यादा दिनों तक नहीं टिक सकते। हमारे यहां एक और धारणा है कि जब कभी भी बाजार गोते लगाता है, अच्छे से अच्छे निवेशक भी हाथ बांधे खड़े हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि अगर अब निवेश किया तो ताउम्र पछताना पड़ेगा। जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। सही मायनों में देखा जाए तो खरीददारी का ये सबसे सुनहरा मौका है, ऐसे मौके बार-बार नहीं मिला करते। ये एक तरह से कभी-कभी लगने वाली बंपर सेल की तरह है, अगर आप सेल का लाभ लेने से नहीं चूकते तो फिर यहां घबराहट किस बात की? उदाहरण के तौर पर यदि आपके घर के बाहर कोई सब्जी वाला दो रुपए किलो टमाटर की आवाज लगाए तो क्या आप सिर्फ ये सोचकर कि कल तक तो 20 रुपए किलो थे आज दो रुपए कैसे हो गए, उसे जाने देंगे। शायद नहीं। तो फिर जब बड़ी-बड़ी कपंनियों के शेयर आलू-टमाटर के भाव मिल रहे हैं तो उनमें निवेश करने में बुराई क्या है? गिरावट के वक्त किया गया निवेश ज्यादा मुनाफे कमाने का नायाब तरीका है, वैसे जोखिम की संभावना तो हर पल बनी रहती है। लेकिन इस वक्त जोखिम का प्रतिशत काफी कम हो जाता है। हां, इसके लिए आपको धैर्य से काम लेना होगा। ऐसा बिल्कुल नहीं होगा कि आपने आज निवेश किया और कल आपको उसके दोगुने मिल जाएं।
यदि ऐसी सोच लेकर शेयर बाजार में किस्मत आजमाना चाहते हैं तो बेहतर होगा सोने-चांदी में निवेश करें। दीवाली आने वाली है, लिहाजा सोने-चांदी के रुख में नरमी के संकेत दूर-दूर तलक नजर नहीं आते। ऐसा संभवत: पहली बार हुआ है कि शेयर बाजार में गिरावट के बावजूद सोने के दामों में तेजी आई हो। सेंसेक्स के साथ अगर चलना है तो आपको धैर्य से काम लेना सीखना होगा। सस्ते दामों में आज खरीदे गए शेयर आने वाले कुछ वक्त में बेहतर प्रॉफिट दे सकते हैं। फिर भी निवेश करने से पहले अध्ययन जरूरी है। कुछ दिनों तक मार्केट को वॉच करें, जिन कंपनयिों के शेयर आप खरीदना चाहते हैं उनपर नजर रखें। जिन शेयरों में उतार-चढ़ाव ज्यादा हो रहा हो, उन्हें खरीदने में समझदारी है। उतार-चढ़ाव का मतलब दोनों बातों से है, मसलन, आज भाव बढ़ गए, कल गिरे तो परसों फिर चढ़ गए। ऐसे शेयर उन कंपनियों के शेयरों से ज्यादा मुनाफा दिला सकते हैं जो एक जगह काफी वक्त तक स्थिर हैैं। जिस तरह के हालात हैं, उसमें स्टॉक मार्केट अभी एक गोता और लगा सकता है। लिहाजा बाजार में निवेश की बेहतर संभावनाएं कुछ और वक्त तक बरकरार रहने वाली हैं। शेयर बाजार में उतरने से पहले लॉंग टर्म इनवेस्टमेंट की मानसिकता बनाएं, शॉट टर्म में कभी-कभी तत्कालिक फायदा तो हो सकता है, मगर नुकसान की संभावना भी हमेशा बनी रहती हैं। एक और बात जो सीखना बहुत जरूरी है, वो ये कि जब बाजार गिरावट की दिशा में जा रहा हो, निवेश करने से नहीं चूकें। जाने-माने इनवेस्टर वॉरेन बफेट ने कहा है, जब लोग डर रहे हों, तब आप लालची बन जाओ और जब लोग लालची हों तब आप थम जाओ। इसी लाइन पर आगे चलते हुए बफेट ने शेयर बाजार से बहुत कमाया, वो दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति का खिताब भी हासिल कर चुके हैं। अगर बफेट जैसा विशेषज्ञ कुछ कह रहा है तो निश्चित तौर पर उसके पीछे कुछ तर्क होंगे। इसलिए टीवी चैनलों पर छाय मातम से माहौल से बाहर निकलकर आगे की सोचें। इस वक्त शेयर बाजार से जुड़े लोग डरे हुए हैं, यानी निवेश का बेहतर माहौल है।
Wednesday, August 3, 2011
धुरंधरों की पराजय और मीडिया का मिजाज
नीरज नैयर
मीडिया के भी क्या कहने, पल में किसी को राजा बना दे और पल में उसी राजा की हालत रंक से भी बदतर कर दे। यही वजह है कि राजनेताओं से लेकर फिल्म कलाकारों तक हर कोई इस बिरादरी को साधकर चलना चाहता है। और जो ऐसा करने में असफल रहता है उसका हाल मायावती की माफिक हो जाता है। भले ही उत्तर प्रदेश को सर्वोत्तम प्रदेश बताने वाले लाखों रुपए के विज्ञापन चैनलों या अखबारों में आय दिन नजर आ जाते हों, लेकिन माया फिर भी मीडिया के निशाने पर रहती हैं। आमतौर पर यही धारणा है कि खबरिया बाजार में विज्ञापन फेंकने से मीडिया वाले राजा बनाने की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं, मगर असलीयत शायद इससे थोड़ी अलग है। अगर ऐसा न होता तो मायावती को भी किसी रानी की तरह पेश किया जा रहा होता। फिलहाल तो मीडिया ने उनकी छवि खलनायिका जैसी बना दी है। भट्टर परसौल को लेकर राहुल गांधी के दावों की हवा निकलने के बाद भी मायाराज को हिटलरशाही करार दिया गया। भूमि अधिग्रहण को लेकर यूपी सरकार की नीतियों पर प्रहार किया गया, खबरिया चैनलों ने तो घंटों इस मुद्दे के सहारे निकाल दिए। अभी हाल ही में बलात्कार के मामलों को लेकर भी ऐसा दर्शाया गया, जैसे इस तरह के कृत्य कहीं और होते ही न हों। खैर, ये मीडिया है जो चाहे कर सकता है। जो मीडिया जिंदा को मुर्दा बता दे और माफी भी न मांगे, उसकी तारीफ के लिए शब्द खोजे से भी न मिलेंगे। फिलहाल तो खबरिया बाजार में धोनी एंड कंपनी छायी हुई है, लेकिन नाकारात्मक कारणों से। इंगलैंड की फर्राटा पिचों पर भारतीय खिलाडिय़ों के समर्पण की दास्तान हर चैनल की बड़ी खबर है, चैनल के साथ-साथ अखबार वाले भी आलोचनाओं के शब्दों से खिलाडिय़ों की आरती उतार रहे हैं। वैसे कुछ हद तक इसमें कोई बुराई भी नहीं है। हमारे विश्वविजेता ऐसे खेल रहे हैं, जैसे गल्ली-मोहल्ले में बच्चे खेला करते हैं।
बच्चे भी एक बार के लिए इस बड़े-बड़े नाम वाली टीम से अच्छा खेल लेते हों। क्योंकि उनका पूरा ध्यान सिर्फ खेल पर होता है, जबकि हमारे क्रिकेटरों के पास विज्ञापनों की शूटिंग से लेकर रैंप पर चलने जैसे सैंकड़ों काम होते हैं। लाड्र्स पर खेले गए ऐतिहासिक मैच में हमारे धुरंधर ताश के पत्तों की तरह बिखर गए, इस बिखरने को वार्मअप माना गया। अक्सर टीम इंडिया की तुलना अमिताभ बच्चन से की जाती है, जिस तरह बिग-बी गुजरे जमाने में पहले मार खाते थे फिर मार खिलाते थे उसी तरह टीम इंडिया पहला मैच हारने के बाद वापसी करती है। ऐसी आम धारणा बन गई है। किसी भी हिंदुस्तानी से पूछो, वो यही कहेगा कि अगले मैच में हमारे खिलाड़ी जान लगा देंगे। कई मौकों पर ऐसा हुआ भी है, लेकिन इंगलैंड के सामने ये धारणा गलत साबित हुई। जिन गलतियों के चलते पहले मैंच में मुंह की खानी पड़ी, दूसरे मैच में उन गलतियों का प्रतिशत पहले से भी ज्यादा रहा। थोड़ी-बहुत जो इज्जत बची वो सिर्फ राहुल द्रविड़ की वजह से, वही राहुल द्रविड़ जिन्हें मौजूदा टीम के कुछ खिलाड़ी विदा होते देखना चाहते हैं। क्रिकेट के तमाम प्रशंसक भी इस दीवार को नगर निगम द्वारा खड़ी की गई जर्जर दीवार की तरह देखने लगे थे, लेकिन राहुल ने साबित किया कि दीवार में सीमेंट और बालू का बेजोड़ मिश्रण है। दोनों मैचों में उन्होंने शतक जमाए, टेंटब्रिज में तो वो मात्र ऐसे खिलाड़ी थे जो आखिरी तक संघर्ष करते नजर आए। हांलाकि सचिन तेंदुलकर ने भी अद़र्धशतक जमाया, लेकिन उसकी तुलना राहुल की पारी से नहीं की जा सकती। अ्रगर दूसरे छोर से विकेट गिरने का सिलसिला जारी न होता तो निश्चित तौर पर टीम एक सम्मानजनक बढ़त ले सकती थी। इन दो मैचों में सबसे ज्यादा खराब प्रदर्शन किसी का रहा तो वो कप्तान धोनी का। उन्हें देखकर ऐसा महसूस ही नहीं हुआ कि वो विकेट पर टिकने के इरादे से आए हैं। सही मायनों में कहा जाए तो उन्होंने बल्ला थामकर क्रीज तक आने की महज रस्मअदायगी की। टेंटब्रिज में जब भारत को उनसे बड़ी और लंबी पारी खेलने की उम्मीद थी, तब कप्तान साहब बिना खाता खोले ही पवैलियन लौट गए। सबसे ज्यादा हैरानी की बात तो ये है कि हार के लिए अपने प्रदर्शन को जिम्मेदार ठहराने के बजाए उन्होंने थकान का तर्क दिया।
धोनी का कहना है कि अत्याधिक दौरों के चलते थकान खिलाडिय़ों की क्षमताओं पर हावी हो रही है। इसमें कोई दोराय नहीं कि विश्वकप के बाद से हमारे खिलाड़ी लगातार खेले जा रहे हैं, ऐसे में थकावट होना स्वाभिक है। लेकिन इस थकावट का असल स्त्रोत दौरे नहीं बल्कि आईपीएल है। वल्र्ड कप जीतने के बाद खिलाड़ी चाहते तो आराम कर सकते थे, किसी ने उनके सिर पर बंदूक नहीं तानी थी कि उन्हें खेलना ही पड़ा। तकरीबन दो महीने तक चले आईपीएल में टीम इंडिया के धुरंधरों ने धना-धना रन बरसाए। तब उन्हें थकावट महसूस नहीं हुई, मगर जब बात वेस्टइंडीज जाने की हुई तो सचिन सहित कई खिलाडिय़ों को काम आराम याद आ गया। इसलिए धोनी महाश्य अपनी नाकामी का ढीकरा थकान पर नहीं फोड़ सकते। लचर प्रदर्शन के लिए उन्हें स्वयं जिम्मेदारी लेनी होगी। बतौर कप्तान धोनी के इस तरह के बयान दूसरे खिलाडिय़ों को भी अपनी नाकामी छिपाने का मौका देने वाले साबित होंगे। आज कप्तान ये बोल रहा है, कल बाकी खिलाड़ी भी यही राग गाएंगे। बेतहर तो ये होता कि धोनी सहजता से खामियों को स्वीकारते। खैर, अब वापस मीडिया के रुख पर चलते हैं। धोनी एंड कंपनी की हार का सबसे गहरा सदमा शायद मीडिया को लगा है और इस सदमे से निकलने के लिए वो टीम इंडिया के कथित धुरंधरों को खलनायक बताने में लगी है। यहां सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि जो खिलाड़ी कल तक मीडिया के लिए हीरो की तरह थे, जिनके नाम पर घंटों तक दर्शकों-पाठकों को झिलाया जाता रहा, क्या एक-दो हार से वो इतने बुरे हो गए कि उन्हें खलनायक साबित किया जा रहा है। अव्वल तो मीडिया को किसी का गुणगान करने से पहले थोड़ा-बहुत सोच विचार करना चाहिए, और अगर सोचने के लिए उसके पास भी दिमाग की कमी है तो कम से कम एकदम से किसी को इतना नीचे नहीं गिराना चाहिए।
कल तक मीडिया की नजरों में धोनी दुनिया के सबसे सफलतम कप्तान थे, खबरिया बाजार उनकी मैनेजेंट पावर की तारीफों के पुल बांधा जा रहा है। विश्वविजेता बनने के बाद मीडिया वालों ने लेडी लक यानी साक्षी की धोनी की लाइफ में इंट्री से पड़े प्रभावों तक को सबके सामने सुना-दिखा डाला। टॉक शो आयोजित कर धोनी की काबलियत के बारे में चर्चाएं की गईं, उन्हें भारतीय किक्रेट का सबसे अनमोल सितारा बनाया गया। लेकिन जैसे ही उनकी नाकामयाबी का दौर शुरू हुआ, मीडिया का मिजाज ही बदल गया। हकीकत ये है कि मीडिया ने ही खिलाडिय़ों को खिलाड़ी नहीं रहने दिया। उसने खिलाडिय़ों का गुणगान कर उन्हें इतनी ऊंचाई पर बैठा दिया जहां से क्रिकेट पर ध्यान केंद्रीय करना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है। मीडिया अगर रंक को राजा और राजा को रंक बनाने की मानसिकता से बाहर निकल जाए तो शायद बाकी चीजों के साथ क्रिकेट का भी कुछ भला हो सके। फिलहाल तो धोनी एंड कंपनी की असफलताओं की कहानी कुछ और वक्त तक हमसबको बोर करती रहेंगी।
Thursday, July 28, 2011
महंगाई के नाम पर फिर ब्याज का बोझ
नीरज नैयर
महंगाई अब ऐसा विषय हो गई है जिसपर बहस का कोई मतलब नहीं निकलता। जिस तरह एक मूक-बाघिर इंसान के सामने लाख चीखो-चिल्लाओ उस पर कोई असर नहीं होता ठीक वैसे ही सरकार के सिर पर भी जूं रेंगना बंद हो गया है। शायद यही वजह है कि विपक्षी दल भी थोड़े-बहुत हल्ले के बाद खामोश हो जाते हैं। उन्हें भी लगने लगा है कि गले पर जोर डालने का कोई फायदा नहीं। महंगाई के मोर्चे पर किसी भी सरकार की इतनी बुरी स्थिति पहले कभी देखने को नहीं मिली। पूर्ववर्ती राजग सरकार के कार्यकाल में भी कई दफा आवश्यक वस्तुओं के दाम आसमान पर पहुंचे, लेकिन थोड़े वक्त में नीचे आने की प्रक्रिया भी शुरू हुई। लेकिन मौजूदा वक्त में तो दाम आसमान से अंतरिक्ष में जा पहुंचे हैं। ऐसा लगता है, जैसे सरकार के पास चढ़ते दामों पर काबू पाने के लिए कोई नीति ही नहीं है, सिवाए रिजर्व बैंक के। पिछले 11 महीनों में रिजर्व बैंक 16 बार ब्याज दरों में इजाफा कर चुका है। अभी हाल ही में उसने सीधे आधा प्रतिशत की बढ़ोतरी की है, ये बढ़ोतरी कुछ हद तक पेट्रोल के दामों में एकमुश्त की गई पांच रुपए की वृद्धि के समान है। ये तो सब जानते थे कि रिजर्व बैंक एक बार फिर महंगाई के नाम पर आम जनता की जेब ढीली करेगा, मगर एक साथ आधा फीसदी बढ़ोतरी के बारे में किसी ने नहीं सोचा था। इस आधे प्रतिशत का बोझ क्या होता है, ये सिर्फ उसे वहन करने वाला ही बता सकता है। सरकार और केंद्रीय बैंक के लिए तो ये महज एक छोटा सा आंकड़ा है। तमाम अर्थशास्त्री रिजर्व बैंक के रास्ते महंगाई पर नियंत्रण की रणनीति पर विश्वास रखते हैं, खासकर सरकार में शामिल आंकड़ेबाजों के लिए तो यह रणनीति घर में लगे पेड़ की तरह हो गई जिसके फल तोडऩे से पहले तनिक भी सोचना नहीं पड़ता।
ब्याज दर में वृद्धि से बैंकों को रिजर्व बैंक से मिलने वाला कर्ज महंगा हो जाता है और वो इसका बोझ अपने ग्राहकों पर डालने में जरा सी भी देर नहीं करते। रेपो या रिवर्स रेपा दर बढ़ाने के पीछे गणित ये लगाया जाता है कि कर्ज महंगा होने से लोगों की परचेजिंग पावर घटेगी, जिससे बाजार में मांग कम होगी और मांग और उपलब्धता के बीच की खाई को पाटा जा सकेगा। नतीजतन चढ़ते दामों पर ब्रेक लगेगा। किसी भी वस्तु की कीमतों में इजाफा उसकी उपलब्धता या उत्पादकता पर निर्भर होता है, यदि बाजार में मांग ज्यादा है और स्टाक कम तो निश्चित तौर पर उसके दाम बढ़ेंगे। वैसे भी आजकल लोन सुविधा ने आम आदमी को भी बड़े-बड़े सपने देखना सिखा दिया है। लोन धीमे जहर की तरह है जो किश्तों में अपन असर दिखाता है, इससे हर कोई वाखिफ है मगर फिर भी लोग इसे चखना चाहते हैं क्योंकि उनके पास एकमुश्त रकम नहीं होती। मौजूदा वक्त में टीवी से लेकर घर तक सबकुछ किश्तों पर उपलब्ध है, इन किश्तों की बदौलत आम आदमी भी काफी हद तक संपन्न नजर आने लगा है। अर्थशास्त्रियों को आम आदमी की बस यही संपन्नता चुभ रही है, उन्हें लगता है कि कर्ज महंगा करने से आम इंसान बड़े-बड़े सपने साकार करने की कोशिश नहीं करेगा और संपन्नता को अमीरों के लिए ही छोड़ देगा। कागजी तौर पर मांग और उपलब्धता की खाई पाटकर महंगाई की लगाम कसने की यह रणनीति बहुत असरकारक प्रतीत होती है, लेकिन हकीकत शायद इससे कोसों दूर है। अगर ऐसा न होता तो रिजर्व बैंक को हर थोड़े अंतराल में जनता की जेब काटने की जरूरत ही न पड़ती। ये बात सही है कि इस तरह की नीतियों के परिणाम तात्कालिक तौर पर सामने नहीं आते, लेकिन ब्याज दरों में वृद्धि की ये प्रक्रिया भी काफी लंबे वक्त से चल रही है। रिजर्व बैंक पिछले 11 महीनों से कर्ज महंगा किए जा रहा है, और 11 महीने कोई छोटी अवधि नहीं होती। इस फैसले का वास्तव में यदि महंगाई पर कोई असर दिखाई देता तो कम से कम आम आदमी को एक मोर्चे पर तो कुछ राहत मिलती।
बार-बार ब्याज बढ़ोतरी से तो उसके लिए जिंदगी और भी ज्यादा मुश्किल हो गई है। एक तरफ वो पेट भरने की जुगत करे तो दूसरी ओर किश्त चुकाने की। इन दोनों के बीच में तालमेल बिठाते-बिठाते ही बेचारे का दम निकला जा रहा है। महंगाई थामने के दूसरे भी उपाए हैं, लेकिन सरकार उनको अपनाने के बजाए रिजर्व बैंक के रास्ते आर्थिक मजबूती के अपने एजेंडे को पूरा करने में लगी है। लोगों ने अगर किश्तों के सहारे बड़े-बड़े सपने देखना सीखा है तो उसके गुनाहगार वो खुद नहीं सरकार और स्वयं रिजर्व बैंक हैं। पहले तो लोन को इतना सरल बनाया गया कि आम इंसान को यह बोझ भी हलका लगने लगा और जब इस हल्के बोझ के सहारे उसने सपनों को पूरा करने की दिशा में कदम बढ़ाया तो ब्याज दरें बढ़ाकर उसके पैरों में जंजीरें लगा दी गईं। ब्याज दरों में इजाफा करके रिजर्व बैंक सस्ते लोन का रास्ता संकरा करना चाहता है, लेकिन उसकी इस चाहत में वो लोग भी मारे जाते हैं जो पहले से ही इस रास्ते पर निकल चुके हैं। मसलन, 20 हजार मासिक की तनख्वाह वाले व्यक्ति ने हिसाब-किताब लगाकर घर का सपना पूरा करने के लिए जिस वक्त होम लोन लिया। उस वक्त उसे 5000 प्रति माह की किश्त भरनी पड़ी। इस पांच हजार के लिए उसने अपनी जरूरतों में कटौती करना शुरू कर दिया, लेकिन बार-बार बढ़ती ब्याज दरों से पांच हजार का आंकड़ा धीरे-धीरे ऊपर चढ़ता गया। नतीजतन उसकी जरूरतों का दायरा और सिमट गया। लेकिन इस दायरे को इंसान एक हद तक ही सिमटा सकता है, इसके बाद उसके लिए लोन बंद करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होगा। मगर लोन बीच में बंद करने का मतलब है, अब तक अपना पेट काट-काटकर जितना भी उसने बैंक को दिया वो सब पानी में चला गया।
सरकार ब्याज बढ़ाकर लोन को काफी हद तक साहूकारों से मिलने वाला कर्ज बना रही है, जिसका ब्याज हर दिन बढ़ता रहता है और अंत में उसे चुका पाने में असमर्थ व्यक्ति को मौत की छुटकारा नजर आती है। लोन प्रक्रिया अगर कड़ी करनी ही है तो ऐसे प्रावधान किए जाएं कि पुराने ग्राहकों पर इसका बोझ न पड़े और अगर पड़ता भी है तो उसका प्रतिशत काफी कम हो। नए ग्राहकों को अगर लोन की किश्तें ज्यादा लगेंगी तो वो खुद इससे पूरी बना लेगा, लेकिन जो पहले ही लोन ले चुका है उसके पास ऐसा कोई विकल्पनहीं है। रिजर्व बैंक को धड़ाधड़ ब्याज दरें बढ़ाने से पहले इस दिशा में भी सोचने की जरूरत है। साहूकार की जिस प्रथा से देश ने बाहर निकलना सीखा है, सरकार और रिजर्व बैंक की नीतियां उसे वहीं वापस लिए जा रही हैं। बेहतर होगा कि सरकार महंगाई के नाम पर आम आदमी की परेशानियों में इजाफा करने के बजाए कोई दूसरा रास्ता निकाले।
Sunday, July 24, 2011
सलवा जुडूम बंद होने के मायने
नीरज नैयर
सलवा जुडूम पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उन आदिवासियों के भविष्य पर सवाल खड़ा हो गया है जो सालों तक बंदूक उठाए नक्सलियों का सामना करते रहे। अब न तो उनके पास बंदूकें रहेंगी और न ही राज्य सरकार की तरफ से मिलने वाली मदद। मदद के नाम पर वैसे तो उन्हें कुछ खास नहीं मिलता था, लेकिन जो थोड़ा बहुत मिल रहा था अब उसका रास्ता भी बंद हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सलवा जुडूम को असंवैधानिक करार देते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है कि आप आदिवासियों को भर्ती कर सकते हैं, लेकिन उन्हें हथियार नहीं दे सकते। सर्वाच्च न्यायालय और कुछ गैर सरकारी संगठनों को लगता है कि सलवा जुडूम की आड़ में मासूम आदिवासियों का शोषण हो रहा है। उन्हें जबरन बंदूक थमाकर नक्सलियों के आगे फेंका जाता है। सलवा जुडूम के कार्यकर्ताओं पर बलात्कार जैसे कई संगीन आरोप भी लगे हैं। यह आंदोलन मूलत: आम आदिवासियों द्वारा माओवादियों के जुल्मो-सितम से आजिज आने के बाद शुरू किया गया। लेकिन बाद में राज्य सरकार की तरफ से इसे मदद मिलने लगी। सलवा जुडूम में शामिल लड़ाके स्थानीय पुलिस के साथ मिलकर अपने दुश्मनों से मोर्चा लेने लगे। इन लड़ाकों ने कई मोर्चों पर नक्सलियों को मात भी दी। मगर लगातार लग रहे आरोपों ने इस अभियान की धार को कुंद कर दिया। सलवा जुडूम और इस पर हुए बवाल को विस्तार से समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे चलना होगा। सलवा जुडूम बस्तर की गोंडी बोली से उपजा शब्द है।
इसमें सलवा का अर्थ शांति और जुडूम का अर्थ एकत्र होना है। यानी इसका शाब्दिक अर्थ हुआ शांति अभियान। इस आंदोलन की असल शुरूआत छत्तीसगढ़ के बीजापुर से 2005 में हुई। महज थोड़े से वक्त में यह आंदोलन जंगल में आग की तरह फैल गया, नक्सलियों के सताए आम आदिवासी बड़ी तादाद में इससे जुड़ते चले गए। पेशे से शिक्षक मधुकर राव को इस आंदोलन का जनक माना जाता है। मधुकर इस बात को अच्छे से जानते थे कि नक्सली आदिवासियों के हितैषी नहीं। इसलिए उन्होंने लोगों को संगठित करके नक्सलियों से मुकाबले के लिए आदिवासियों की फौज खड़ी की। शुरूआत के दौर में सलवा जुडूम को मिली सफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि खुलकर इसकी मुखालफत करने वाले भी बाद में आंदोलन से जुड़ते गए। न केवल आदिवासी बल्कि राजनीतिज्ञों ने भी इस में भागीदारी निभाई। कांग्रेस नेता और तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा सहित दोनों प्रमुख पार्टियों के कई नेताओं ने माओवादियों से मुकाबला करने वालों का समर्थन किया। सलवा जुडूम को इतने व्यापक जनसमर्थन के चलते स्थानीय पुलिस-प्रशासन ने इसमें शामिल लोगों की सुरक्षा का जिम्मा खुद उठाना शुरू कर दिया। आदिवासियों के लिए कैंप तैयार किए गए, ताकि नक्सलियों के प्रतिशोध से उन्हें बचाया जा सके। इन कैंपों में एक रुपय की दर से प्रत्येक व्यक्ति को अनाज उपलब्ध कराया जाने लगा। नक्सलियों से सीधे मोर्चा लेने वालों को एसपीओ नाम दिया गया, मतलब स्पेशल पुलिस ऑफिसर। इन्हें 2100 रुपए की आर्थिक सहायता भी दी जाने लगी, जिसे बाद में बढ़ाकर 3000 कर दिया। इस आंदोलन पर भले ही कितनी भी उंगलियां उठी हों लेकिन इसके अमल में आने के बाद नक्सलियों का संघर्ष ज्यादा बढ़ा और पुलिस के हाथ भी मजबूत हुए। इस आंदोलन की बदौलत ही छत्तीसगढ़ में पुलिस की पहुंच बढ़ी है। पहले 157 ग्राम पंचायतों में से केवल 70 में ही पुलिस का वजूद था, मगर आज यह संख्या बढ़कर 100 हो गई है। बासगुड़ा और लिंगागिरि आदि कई ऐसे गांव हैं जहां नक्सलियों की मजबूत पकड़ ढीली हुई है। एसपीओ ने माओवादियों को हर कदम पर चुनौती पेश की, यही कारण रहा कि उन्हें बड़े हमलों का भी शिकर होना पड़ा। सलवा जुडूम शुरू होने के तकरीबन एक साल बाद नक्सलियों ने 2006 में कोंटा से लौट रहे लगभग 33 सलवा जुडूम कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतार दिया। इसके एक महीने बाद फिर नक्सलियों ने हमला किया जिसमें 13 कार्यकर्ता मारे गए। इसके बाद तो जैसे हमलों की झड़ी लग गई।
अगर नक्सली सलवा जुडूम को अपने लिए खतरे के तौर पर नहीं देखते तो क्या ऐसे हमले संभव थे? जाहिर तौर पर नहीं। भले ही इस आंदोलन में शामिल कुछ लोगों ने नक्सलियों के पद-चिन्हों पर चलने का प्रयास किया। लेकिन इसके लिए पूरे के पूरे आंदोलन पर उंगली नहीं उठाई जानी चाहिए थी। सलवा जुडूम को बदनाम करने के पीछे माओवादियों का भी बहुत बड़ा हाथ हो सकता है, माओवादी अच्छे से जानते हैं कि अपने विरोधियों को रास्ते से कैसे हटाया जाता है। अब वो जमाना नहीं रहा, जब नक्सली आम आदिवासियों के संरक्षक की भूमिका निभाते थे। नक्सल आंदोलन अब महज अपने स्वार्थों की पूर्ति तक सिमट कर रह गया है, इस बात की संभावना बेहद ज्यादा है कि नक्सलियों ने खुद आदिवासियों पर जुल्म ढाय हों और बाद में इल्जाम एसपीओ पर मढ़ दिया गया। ये बात सही है कि इस आंदोलन में बिना प्रशिक्षण के आदिवासियों को नक्सलियों से मुकाबले को तैयार किया जा रहा था, इस तरह उनकी जान हरपल जोखिम में थी। लेकिन बिना हथियार उठाए भी क्या वो सुरक्षित महसूस कर सकते हैं, इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए था। जलवा जुडूम से जुडऩे के बाद आदिवासियों को केवल नक्सलियों के प्रतिशोध का सामना करना पड़ता था, मगर इससे दूर रहने की स्थिति उनके लिए ज्यादा खतरनाक थी। पुलिस नक्सलियों के शक में उनका उत्पीडऩ करती थी और नक्सली मुखबिर के शक में । सलवा जुडुम को बंद करने के बजाए उसके अंदर की खामियों को दूर करने के बारे में सोचा जाने की जरूरत थी। आम आदिवासी जो अपनों पर हुए अत्याचारों का बदला लेने के लिए हथियार उठाना चाहते, उन्हें बकायदा प्रशिक्षण के साथ पुलिस के सहयोग के लिए शामिल किया जा सकता था। सलवा जुडूम अगर वास्तव में शोषण का एक जरिया होता तो दूसरे राज्य इसका अनुसरण नहीं करते। पश्चिम बंगाल और उडीसा में आदिवासी सलवा जुडूम की तर्ज पर आंदोलन कर रहे हैं।
पश्चिम बंगाल में तो उन्हें कुछ राजनीतिक व्यक्तियों का भी समर्थन प्राप्त है। सलवा जुडूम के बंद होने से नक्सलियों के हौसले और बुलंद होंगे, जो आदिवासी सुरक्षाबलों के सहयोग की भावना रखते थे वो भी इस भावना को जाहिर करने में कतराएंगे। सबसे बड़ी समस्या तो उन लोगों के सामने खड़ी है जो कल तक बंदूक और सरकारी सहयोग के बल पर नक्सलियों को ललकारते रहे। उनकी सुरक्षा अब कौन करेगा? हथियार छिनने के बाद अब वो स्वयं की सुरक्षा की स्थिति में बिल्कुल नहीं हैं। कुल मिलाकर सलवा जुडूम के अंत से उन आम आदिवासियों को ही परेशानियों का सामना करना पड़ेगा जिनके नाम पर इसे बंद किया गया।
Friday, July 1, 2011
एक चोर तो दूसरा शरीफ कैसे
नीरज नैयर
चोर को चोर कहने में भले ही चोर को बुरा लगे मगर इसमें गलत कुछ भी नहीं। लेकिन यदि एक चोर को चोर कहा जाए और दूसरे पर उंगली भी न उठाई जाए तो पहले चोर को चोट पहुंचना लाजमी है। उत्तर प्रदेश की स्थिति भी पहले चोर की माफिक हो गई है, और इसकी वजह है मीडिया। मीडिया में आजकल उत्तर प्रदेश छाया हुआ है, कानून व्यवस्था पर सवाल उठाती खबरें तकरीबन हर रोज देखने-सुनने में आ जाती हैं। पिछले कुछ दिनों से बलात्कार के मामलों पर मीडिया वाले ज्यादा नजर गड़ाए हुए हैं। ऐसा लगता है जैसे उनकी मंशा यूपी को रेप कैपिटल करार देने की है। वैसे जिस तरह से एक के बाद एक बलात्कार के मामले सामने आ रहे हैं वो वाकई चिंताजनक है और पुलिस प्रशासन को कटघरे में खड़ा करते हैं। महज चंद घंटों में चार-पांच घटनाएं छोटी बात नहीं है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस तरह की घटनाएं केवल यूपी तक ही सीमित हैँ। दूसरे राज्यों में नाबालिगों को हवस का शिकार बनाया जा रहा है, अभी हाल ही में मुंबई में एक दिन में दो रेप के मामले सामने आए। दो अलग-अलग जगह एक नाबालिग और एक विधवा को शिकार बनाया गया। लेकिन इस पर मीडिया में कोई हो-हल्ला नहीं मचा। न तो खबरिया चैनलों ने इन घटनाओं को तवज्जो दी और न ही अखबारों ने इन्हें प्रकाशित करने की जहमत उठाई। अपराध तो अपराध है फिर चाहे वो यूपी में हो या महाराष्ट्र में। अगर मीडिया यूपी के जंगलराज को जंगल में आग की तरह फैलते दिखा सकती है तो उसे दूसरे राज्यों में बढ़ते अपराध को भी उसी तरह से देखना चाहिए। इस बात में कोई दो राय नहीं कि उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था के हाल अच्छे नहीं हैं। सत्ता में बैठी पार्टी के सदस्य और विधायकों की जुर्म में हिस्सेदारी भी सामने आ रही है। चंद रोज पहले एक बीएसपी विधायक की गाड़ी में सवार लोगों ने युवतियों से बलात्कार का प्रयास किया। हालांकि पुलिस ने इसमें कार्रवाई की लेकिन कार्रवाई सजा तक पहुंचेगी इसमें अभी भी संशय बना हुआ है। बांदा रेप कांड, इंजीनयिर हत्या कांड की असलियत हर कोई जानता था। लेकिन फिर भी इसका ये मतलब नहीं कि अपराध अकेले उत्तर प्रदेेश में ही होते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने जनवरी में जो आंकड़े जारी किए थे उनके मुताबिक मध्यप्रदेश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाला इंदौर इस मामले में देश में सबसे अव्वल रहा। इंदौर के बाद भोपाल और फिर जयपुर अपराध के पायदान पर रहे। जहां तक दिल्ली की बात है तो पूरे देश में हुए बलात्कार की घटनाओं में उसके कोटे में एक चौथाई आए। इसी तरह अपहरण के एक तिहाई मामले दिल्ली के खाते में गए। दहेज हत्या और छेड़छाड़ में भी देश की राजधानी का दबदबा रहा। उत्तर प्रदेश इस सूची में इन सब शहरों से नीचे रहा, महिलाओं के साथ अपराध के मामले में यूपी को 26वां स्थान मिला। फिर भी मीडिया यूपी को अपराधियों का गढ़ साबित करने से नहीं चूकता। 2011 के शुरूआती चार महीनों में ही केरला में 357 रेप के मामले सामने आ चुके हैं, यानी एक दिन में तीन से ज्यादा बलात्कार। बावजूद इसके खबरचियों का ध्यान इस ओर नहीं गया।
यूपी के साथ अक्सर ऐसा होता है कि उससे जुड़ी छोटी से छोटी खबर को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है लेकिन दूसरे राज्यों की बड़ी से बड़ी घटना को भी मामूली करार दिया जाता है। उत्तर प्रदेश को लेकर जिस तरह का रुख मीडिया ने अपना रखा है उससे तो यही लगता है कि वो एंटी यूपी मिशन पर है। दरअसल, अगले साल यूपी में विधानसभा चुनाव होने हैं, इसलिए विपक्षी दल खासतौर पर कांग्रेस राज्य में माया विरोधी हवा को और तेज करना चाहते हैं इसलिए मीडिया के राजनीतिक करण से इंकार नहीं किया जा सकता। वैसे भी आज के वक्त में मीडिया की विश्वासनीयता बची ही कहां है। सब जानते हैं कि खबर के लिए कैसे पूरी की पूरी कहानी खुद ही रच दी जाती है। राहुल गांधी ने जब भट्टा परसौल में बलात्कार और हत्याओं के आरोप लगाए तो मीडिया वालों के लिए यही सच हो गया। चैनल से लेकर अखबार तक मायाराज को जंगलराज से भी बदतर बताया गया, लेकिन ये जानने की कोशिश नहीं की गई कि आखिर आरोपों में कितनी सच्चाई है। अब जब ये साफ हो गया है कि भटट परसौल पर राहुल गांधी के आरोप निराधार थे तो खबर गढऩे वाले खामोश बैठे हैं। अब न उन गांवों में कैमरे दिखाई देते हैं और न कलम थामे पत्रकार। जो मीडिया पूर्व राष्ट्रपति की मौत की झूठी खबर फैला दे और माफी भी न मांगे उसकी विश्वसनीयता क्या होगी ये बताने की शायद जरूरत नहीं। हाल ही में एक टीवी चैनल के पत्रकार के साथ पुलिस की बदसलूकी के बाद तो खबर्ची जमात माया सरकार के खिलाफ खुलकर सड़क पर उतर आई है। प्रदर्शन हो रहे हैं, नारे लगाए जा रहे हैं। इस बहती गंगा में कांग्रेस और सपा भी हाथ धोने में लगे हैं। इस बात की पूरी संभावना है कि आने वाले दिनों में मिशन एंटी यूपी में कुछ और नई कडिय़ा देखने-सुनने में आएं।
ऐसा नहीं है कि मीडिया के निशाने पर यूपी केवल मायावती के शासनकाल में ही आया है, मुलायम सिंह जब मुख्यमंत्री थे तब भी उत्तर प्रदेश की गिनती सबसे बुरे राज्यों में होती थी। तब नेता-अपराधी गठजोड़ और अब की तरह अपराध खबरनवीसों के सबसे प्रिय मुद्दे थे। मायावती के आने के बाद उत्तर प्रदेश में कुछ खास बदलाव नहीं हुआ है, खासकर जनता की मूलभूत जरूरतें वैसे की वैसी हैं। न मुलायम ने उन पर ध्यान दिया और न मायावती दे रही हैं, लेकिन मीडिया में कभी भी यूपी की मूल समस्या को जगह नहीं मिली। जब खबर आती है, अपराध से जुड़ी हुई आती है, अगर मीडिया आम आदमी से जुड़े दूसरे जरूरी मुद्दों को भी इसी प्रमुखता से उठाता तो शायद बिजली-पानी के लिए तरस रही यूपी की जनता को थोड़ी बहुत राहत मिल गई होती। लेकिन मीडिया तो मीडिया ठहरी, उसके लिए केवल वो ही खबरें मतलब रखती हैं जो उसके फायदा का अहसास करा सकें। अपराध के ग्राफ को खुलकर प्रचारित-प्रसारित करने से उन्हें चुप रहने के ऐवज में कुछ न कुछ जरूर मिल जाएगा। अगर यहां से नहीं मिला तो दूसरे दल भी हैं जो मायावती के सिंहासन को हिलाकर अपनी दाल गलते देखना चाहते हैं। ऐसे में खबरगढऩे वालों की तो चांदी ही चांदी है। उत्तर प्रदेश की जनता शायद खुद भी महसूस कर रही होगी कि मायावती की विदाई का वक्त आ गया है, उसने बसपा से जो अपेक्षाएं की थीं वो उस पर खरी नहीं उतर पाई, मगर सिर्फ और सिर्फ यूपी पर ही मीडिया वाले कीचड़ उछालें ये उन्हें भी मंजूर नहीं होगा। बेहतर होगा यदि एक चोर को चोर कहा जाए तो दूसरे को भी इसी नजर से देखा जाए।
Sunday, June 26, 2011
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
सरकार चाहती तो टाल सकती थी मूल्यवृद्धि
नीरज नैयर
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास, कई दिनों तक कानी कुतिया, सोई उनके पास। मौजूदा वक्त में आम जनता पर बाबा नागार्जुन का ये कटाक्ष बिल्कुल सटीक बैठता है। दिन ब दिन बढ़ती महंगाई ने चूल्हे की आंच को तो हल्का किया ही है साथ ही आटा-दाल पीसने वाली चक्की की रफ्तार भी मंद पड़़ गई है। आलम ये है कि जब तक लोग चढ़ती कीमतों के साथ खुद को ढाल पाते हैं तब तक महंगाई एक और पायदान ऊपर चढ़ जाती है। अभी कुछ वक्त पहले ही पेट्रोल के दाम में एकमुश्त पांच रुपए की बढ़ोतरी की गई थी, इस इजाफे से गडबड़ाए बजट को आम आदमी संभाल पाता इससे पहले सरकार ने उसके मुंह से निवाला छीनने का बंदोबस्त कर डाला। डीजल में 3, रसोई गैस में 50 और केरोसिन में 2 रुपए की बढ़ोतरी की गई है। पेट्रोल के दाम बढऩे का असर कहीं न कहीं सीमित होता है, लेकिन ये बढ़ोतरी आम जनता के लिए कोढ़ में खाज साबित होगी। रसोई गैस के दाम में सीधे 50 रुपए बढऩे का मतलब है मासिक बजट में 100 से 200 रुपए का इजाफा, बात अगर यहां तक ही रहती तो भी एक बार काम चल सकता था मगर डीजल की कीमत में वृद्धि से पूरे के पूरे बजट का खाका ही दोबारा तैयार करना होगा। सरकार के इस कदम के तुरंत बाद ट्रक ऑपरेटरों ने मालभाड़े में 8 से 9 फीसदी इजाफे का ऐलान कर दिया है, यानी आने वाले चंद दिनों में ही खाने-पीने की हर वस्तुओं के दाम अंतरिक्ष में होंगे, आसमान पर तो पहले से ही हैं। डीजल के दाम में बढ़ोतरी से महंगाई में पांच गुना तक इजाफा होता है, हमारे देश में ईंधन की जितनी खपत होती है उसमें 40 फीसदी हिस्सा डीजल का है। पेट्रोल की हिस्सेदारी तो महज 10 प्रतिशत है। सरकार ने इससे पहले 25 जून 2010 को डीजल के दाम 2, गैस के 35 और केरोसिन कीमत में 3 रुपए प्रति लीटर की बढ़ोतरी की थी, इस लिहाज से देखा जाए तो सरकार ने पूरे एक साल बाद जनता का बोझ बढ़ाने वाला कदम उठाया। लेकिन इस एक साल में उसकी गलत नीतियां हर रोज जनता के गले पर आरी चलाती रहीं।
10-12 रुपए किलो में बिकने वाली सब्जियां 80-90 रुपए किलो के भाव तक पहुंच गईं, दाल ने तो ऐसा रंग दिखाया कि आम आदमी उसका असल रंग तक भूल गया। इसलिए मूल्यवृद्धि पर वक्त के अंतराल के सरकारी तर्कों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। सामान्य तौर पर यदि आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं चल रही हो तो इंसान अपनी सुख-सुविधाओं में कटौती करता है ताकि उसकी जरूरतों की गाड़ी चलती रही, लेकिन सरकार इससे बिल्कुल उलट ट्रैक पर चल रही है। अपनी सुख-सुविधाओं और ठाठ-बाट में कमी करने के बजाए वो जनता की मूलभूत जरूरतों में भी कटौती करने पर उतारू है। अगर मूल्यवृद्धि इतनी ही जरूरी थी तो सरकार को पेट्रोलियम उत्पादों पर लगने वाले करों को बिल्कुल खत्म कर देना चाहिए था। ये अच्छी बात है कि उसने एक्साइज और कस्टम ड्यूटी कम की है, लेकिन ये कमी मूल्यवृद्धि से पैदा हुई खाई को पाटने में कारगर नहीं है। हमारे देश में पेट्रोलियम उत्पादों पर पहले केंद्र सरकार तरह-तरह के टैक्स लगाती है और इसके बाद राज्य सरकारें करों के फेर में आम जनता का तेल निकाल देती हैं। अनुमान के तौर पर एक लीटर पेट्रोल पर सरकार 14.35 रु पए एक्साइट ड्यूटी, 2.65 रुपए कस्टम (कमी से पहले तक), 7.05 रुपए वैट, 1 रुपए एजुकेशन सेस और करीब 3.08 रुपए अन्य कर लगाती है, इस तरह एक लीटर पेट्रोल पर तकरीबन 28.13 रुपए टैक्स के होते हैं। इसमें राज्यों के करों का आंकड़ा शामिल नहीं है। आमतौर पर सरकार हर बार दाम बढ़ाने के बाद राज्यों से अपने खजाने में कमी की उम्मीद करती है, इस बार भी उसने राज्यों से करों में कमी करने को कहा है। कायदे में तो महंगाई पर हो-हल्ला करने वाले राज्यों को भी जनता के प्रति संवेदनशील बनते हुए उसका बोझ कम करने के लिए आगे आना चाहिए, लेकिन वो इसे पूरी तरह केंद्र की जिम्मेदारी समझते हैं। वैसे काफी हद तक ये गलत भी नहीं है, क्योकि हमेशा बड़ों से ही बलिदान की अपेक्षा की जाती है। पर फिर भी कहीं न कहीं उन्हें ममता बनर्जी से सीख लेने की जरूरत है, ममता ने पश्चिम बंगाल की जनता का बोझ हल्का करने के लिए रसोई गैस पर लगने वाले सैस को कम किया है।
इससे राज्य की जनता को मौजूदा मूल्यवृद्धि में 16 रुपए की राहत मिली है। पेट्रोल पर सबसे ज्यादा कर आंध्र प्रदेश में लगता है, इसकी दर यहां 33 प्रतिशत है। इसके बाद दूसरा नंबर तमिलनाडु का है, यहां सरकार नागरिकों पर 30 फीसदी अतिरिक्त बोझ डालती है। ऐसे ही केरल में 29.1 और पश्चिम बंगाल में 25 फीसदी टैक्स पेट्रोल पर वसूला जाता है। मध्यप्रदेश सरकार पेट्रोल पर 28.75 और डीजल पर 23 फीसदी टैक्स लगाती है। इस मामले में पांडेचरी सबसे नीचे है, यहां पट्रोल पर केवल 15 प्रतिशत कर है, जबकि हरियाण और पंजाब डीजल पर कर लगाने के मामले में सबसे पीछे हैं। हरियाणा सरकार ने अब टैक्स का बोझ थोड़ा और कम कर दिया है। वैसे सरकार अगर चाहती तो डीजल की कीमत में इजाफे को टाल सकती थी, क्योंकि जिस कच्चे तेल की कीमत को आधार बनाकर दाम बढ़ाए गए उसमें नरमी का रुख था और नरमी का प्रतिशत और बढऩे की पूरी संभावना थी। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम मूल्यवृद्धि से 48 घंटे पहले नीचे आए थे। सरकार ने वैसे भी टैक्सों में कमी करके तेल कंपनियों के फायदे का रास्ता साफ किया ही था, ऐसे में वो कपंनियों को साफ तौर पर कह सकती थी कि महंगाई के दौर में दाम बढ़ाने के लिए उन्हें थोड़ा इंतजार करना होगा। मगर, उसने जनता से ज्यादा तेल कंपनियों के कथित नुकसान को तरजीह दी,कथित इसलिए क्योंकि बैलेंसशीट में हर साल बढ़-चढ़कर मुनाफा दर्शाया जा रहा है। वित्तीय वर्ष 2008-09 में एचपीसीएल का मुनाफा 574.5 करोड़ पहुंचा था। कुछ इसी तरह इंडियन ऑयल ने 2009-10 में 5556.77 करोड़ और भारत पेट्रोलियम ने 5015.5 मुनाफा कमाया। इसके बाद भी कंपनियों की तरफ से घाटे का रोना रोया जाता रहता है। दरअसल इसे नुकसान नहीं बल्कि अंडररिकवरी कहा जा सकता है। यानी मुनाफे के एक अनुमानित आंकड़े से कम की प्राप्ति। तेल कंपनियां जितने मुनाफे का गणित लगा रही हैं, उन्हें उससे कम मिल रहा है। जिसे नुकसान के तौर पर प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है। सरकार भी खुद आगे बढ़कर कह रही है कि कंपनियों के नुकसान की भरपाई के लिए दाम बढ़ाना मजबूरी थी।
मजबूरी जैसा शब्द आम आदमी के मुंह से तो अच्छा लगता है, लेकिन सरकार जब मजबूरी की बात करने लगे तो उसकी क्षमताओं पर उंगली उठना लाजमी है। बात केवल दाम बढ़ाने की नहीं है, सरकार की नीतियों की भी है। सरकार ने ऐसी नीतियां बना रखी हैं, जिसमें आम जनता के हित के लिए कुछ नहीं। कच्चे तेल के बढ़ते दामों का हवाला देकर पेट्रोल-डीजल की कीमतों में इजाफा तो किया जाता है, लेकिन उसमें नरमी आने का फायदा जनता को नहीं मिलता। जबकि चीन जैसे दूसरे देशों में दोनों बातों का ख्याल रखा जाता है। कम से कम मौजूदा वक्त में तो सरकार को इस वृद्धि से बचना चाहिए था, अगर दाम बढ़ाने ही थे तो पहले महंगाई को कुछ कम करने के बारे में सोचना चाहिए था। एक तरफ सरकार महंगाई पर चिंता के आंसू बहाती है और दूसरी तरफ उसे भड़काने का इंतजाम करती है, इससे तो यही लगता है कि वो आम जनता के प्रति पूरी तरह से संवेदनशून्य हो चुकी है।
Monday, June 13, 2011
नौ दिन में क्या से क्या हो गया योगी
चलिए बाबा का अनशन आखिरकार खत्म हो गया। पिछले नौ दिनों से बाबा के हठ ने बेफिजूल में सरकार को टेंशन दे रखी थी। बेफिजूल इसलिए क्योंकि सरकार बखूबी जानती थी कि इस हठ से होना-हवाना कुछ नहीं है, फिर भी जनता कहीं भावुक न हो जाए ये सोच-सोच कर उसे टेंशन हो रही थी। वैसे खबरनवीसों को छोड़कर बाकी लोगाबाग भी टेंशन में थे, क्योंकि बाबा के अलावा कुछ देखने-सुनने को मिलता ही नहीं था। चाहे अखबार के पन्ने पलटना हो या टीवी के चैनल बदलना हर तरफ बाबा ही बाबा थे। बाबा लंबे समय तक खबरों में लीड करते रहे, और उम्मीद है कि आगे में सुर्खियों में छाय रहेंगे। वो इसलिए कि सरकार अब टेंशन का बदला लेने पर उतारू हो चुकी है। सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग बाबा की कुंडली खंगालने में लगे हैं, यानी टेंशन लेने की बारी अब बाबा की है। वैसे बाबा के टेंशन का स्तर सरकार के टेंशन से ज्यादा होगा, योगगुरु के पास योग संपदा के अलावा भी बहुत कुछ है। बाबा का अरबों को साम्राज्य है, विदेशों में आइलैंड हैं, ऐसे में पाई-पाई का हिसाब देते-देते मासपेशियां खिंच जाएंगी। तमाम टेंशनों के बावजूद, एक तरह से ये अच्छा हुआ कि बाबा को आंदोलन का चस्का लगा। इस चस्के में उनके योग की जांच पड़ताल भी हो गई। देश से लेकर विदेशों तक योग का डंका बजाने वाले बाबा 200 साल तक जीने का दावा करते रहे, महीनों तक अनशन की रट लगाते रहे। लेकिन नौ दिन चला अढाई कोस की तरह महज नौ दिनों में ही ये योगी पस्त हो गया।
इतना पस्त हो गया कि शक्ल मुरझाए हुए छुआरे माफिक हो गई। नौदुर्गे के व्रत में कई आम लोग लॉंग के जोड़े पर ही नौ दिन गुजार देते हैं, मगर असाध्य बीमारियों का रामबाण इलाज बताने वाले रामदेव अपने योग से अपना भला भी नहीं कर सके। फिलहाल तो बाबा नौ दिनों की कमी पूरी करने में जुटे हैं, एक-दो दिन में चेहरे पर पुरानी रंगत लौट ही आएगी। लेकिन पुराने भक्त लौटेंगे या नहीं ये सबसे बड़ा सवाल है और ये सवाल बाबा को भी खाए जा रहा होगा। कहतें हैं ज्यादा चतुराई भी कभी-कभी भारी पड़ जाती है, बेचारे बाबा भी चतुराई में मारे गए। अच्छी-भलि सरकार शीर्षासन करने लगी थी, मगर बाबा मेक इट लार्ज का ख्वाब पाले हुए थे। और अब खुद झुकासन की मुद्रा में हैं। बाबा को अनशन की प्रेरणा जरूर अन्ना से मिली मगर उसका क्लाइमैक्स बिल्कुल बॉलीवुड की मसाला फिल्मों की तरह रहा। रात के अंधेरे में डाकुओं की एंट्री, राबिन हुड टाइप हीरो का अपने समर्थकों की आड़ में भागना लेकिन पकड़े जाना। कुछ अलग था तो बस इतना कि यहां डाकुओं की जगह पुलिस थी। वैसे हमारी पुलिस डाकुओं से कम भी नहीं है, वो कानून तोड़कर लोगों की तुड़ाई किया करते थे ये कानून के साथ लोगों को तोडऩे में विश्वास रखती है। बाबा की अनशन रूपी नौटंकी में सबसे दिलचस्प सीन रहा, योगगुरु का स्त्री के वेष में आना। ऐसा अक्सर गोविंदा की फिल्मों में देखने को मिलता था। गोविंदा को ये महारथ हासिल थी कि लड़की बनकर वो लड़की के अंकल को पटाता और लड़का बनकर लड़की को। लेकिन बाबा एक पुलिस को नहीं पटा पाए। हालांकि पटाना आसान भी नहीं था, एकाध पुलिसवाला होता तो ले-देकर पटा भी लिया जाता, पर रामलीला में लीला करने के लिए 10 हजार खाकीवर्दी वाले मौजूद थे। बाबा के साथ बालाकृष्ण भी भागे, शायद बलाकृष्ण को भागने की अच्छी आदत है इसीलिए बाबा रूप बदलकर भी धरे गए, लेकिन बाबा का बाला पुलिस को चकमा देने में कामयाब रहा। कुछ दिनों तक ढुंढाई मची, पर जैसे ही बात नेपाल तक गई बाला प्रकट हो गए।
खबरचियोंं को देखते ही आंखों से आंसू टपकाए और एक स्क्रिप्ट पढ़ डाली। बाला का रोना अनशन का सीक्वल था, पहले बाबा के आंसू गिरे और फिर उनके सहयोगी के। वैसे रोने-धोने के सीन की अपेक्षा जनता ने भी नहीं की होगी। योगी से सबको धमेंद्र या सनी देओल के हैंडपंप उखाडऩे जैसे आचरण की उम्मीद थी, मगर बाबा श्वेत-श्याम जमाने की अदाकारा निरुपमा रॉय साबित हुए जिन्हें ज्यादातर लोगों ने कभी हंसते हुए नहीं देखा होगा। मां का किरदार एक तरह से निरुपमा रॉय का पेटेंट था, उनके अलावा मां बनने वाली दूसरी अभिनेत्रियां मां लगती ही नहीं थीं। इस पर्दे की मां को तो चंद पलों के लिए सिनेमाघरों में बैठे दर्शकों की सहानभति मिल जाती थी, मगर हमारे योगी महाराज को वो भी नसीब नहीं हुई। बाबा के आंसूओं को देख केवल उन्हीं के आंसू निकले या जबरदस्ती निकाले जो बस बाबा में ही रम गए हैं। 196 घंटों के इस एपीसोड के अंत के पीछे मान-मनौव्वल को प्रमुख वजह माना जा रहा है, आर्ट ऑफ लिविंग श्रीश्री रविशंकर सहित संतों, नेताओं और बाबा के सैंकड़ों समर्थकों के हठ से बाबा अपना हठ छोडऩे को मजबूर हुए। अगर ऐसे ही मजबूर वो थोड़ा सा पहले हो गए होते तो न रामलीला मैदान में पुलिस की लीला होती और न यूं अस्पताल में पड़े रहना पड़ता। वैसे बाबा की मजबूरी के पीछे मान-मनौव्वल के अलावा भी एक कारण है, वो है सरकार से मिलने वाली टेंशन का टेंशन। योगी को आभास हो चला था कि हठी सरकार पिघलने वाली नहीं है, जो मीडिया कल तक उनके सत्याग्रह को नए भारत के उदय के रूप में प्रचारित कर रहा था उसने भी पलटी मार ली है। इसलिए हठी के आगे हठ करने से कोई फायदा नहीं।
जितना ज्यादा हठ होगा उतना ही ज्यादा सरकार और मीडिया वार करते जाएंगे। सरकार तो सरकार ठहरी जिससे दुश्मनी ठान ली उसे सड़क पर लाकर ही मानती है। फिल्म सरकार में जब सरकार यानी अमिताभ बच्चन पूरी गुंडा बिरादरी में भारी पड़ता है तो फिर यहां तो पूरी की पूरी फौज है। प्रणब, चिदंबरम, सिब्बल, सहाय और खुद मनमोहन सिंह। मनमोहन जितने मनमोहनी लगते हैं असल में उतने हैं नहीं। ऊपर से सॉफ्ट और अंदर से हार्ड (कड़क) तभी तो पिटाई जैसे कड़े फैसले चंद घंटों में कर लेते हैं और बाद में अफसोस जताकर अपने सॉफ्ट होने का परिचय देते हैं। महंगाई को ही लें, मनमोहन सिंह कई बार चढ़ते दामों पर चिंता जता चुके हैं, लेकिन फिर भी तेल कंपनियों को पेट्रोल के दाम बढ़ाने की छूट दिए जा रहे हैं। ऐसे में बाबा को छोडऩे का तो सवाल ही नहीं बनता। खैर ये तो सरकार की सरकारियत ठहरी, जहां तक बात मीडिया के बाबा का बैंड बजाने की कवायद की है तो वो इस कला में माहिर है। वो भी पुलिस की तरह लेन-देन में विश्वास रखती है। कुछ मिला तो नायक नहीं तो खलनायक। बाबा को महिमामंडित करके सरकार से बैर लेने के खतरे के आकलन के बाद खबरनवीसों पर से पलभर में ही बाबा प्रेम उतर गया। फिलहाल तो बाबा अपने भविष्य को लेकर चिंता में हैं, और ये चिंता कहीं उनकी चंचलता न हर ले इस बात की टेंशन उन्हें हमेशा रहेगी।
Saturday, June 11, 2011
हुसैन के समर्थन से पहले जरा सोचें
नीरज नैयर
मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन 9 जून को दुनिया से विदा हो गए। उनकी मौत की खबर ने संपूर्ण कला जगत को स्तब्ध कर दिया। मकबूल साहब बेशक 2006 में भारत से नाता तोड़कर कतर के हो गए थे, लेकिन उनके कद्रदानों की सूची यहां दिन ब दिन लंबी होती गई। कला और संगीत ऐसे हैं जिन्हें सीमाओं के बंधन में नहीं बांधा जा सकता। मकबूल जब कतर में बैठे-बैठे कूचीं चलाते तो रंगों की सुगंध भारत तक महसूस होती। बहुत थोड़े से वक्त में हुसैन साहब एक बहुत बड़ी शख्सियत बन गए। भारत में रहते वक्त भी उनकी कला की विदेशों तक चर्चा होती। एक चित्रकार के तौर पर उनका कोई सानी नहीं था, इसीलिए उन्हें हिंदुस्तान का पिकासो कहा जाता है। कहने वाले कहते हैं कि हुसैन साहब की खींची हुईं रेखाएं बेजान कलाकृति में भी जान डाल देती थीं। उनके जाने के बाद अब उनकी चित्रकारी और उनसे जुड़े विवादों को लेकर चर्चा शुरू हो गई है। अक्सर किसी के जाने के बाद ही उसके जीवन को फिर से रेखांकित करने की कवायद शुरू होती है। अगर गुजरने वाला कोई बड़ी शख्सियत हो तो तमाम लेखक-पत्रकार उनसे जुड़ी बातों को शब्दों में पिरोने में जुट जाते हैं। जो नहीं जानते थे, वो भी अच्छाइयां-बुराईयां गिनाने लगते हैं। ऐसे ही एक प्रतिष्ठित अखबार में किसी लेखक का लेख पढऩे को मिला। लेख में हुसैन साहब की कला की जितनी तारीफ की गई, उससे ज्यादा उन लोगों को कोसा गया जो उनकी चित्रकारी को अश£ीलता की नजरों से देखा करते हैं।
मकबूल फिदा हुसैन के माधुरी प्रेम के साथ-साथ उनकी चर्चा हिंदू अराध्यों की नगन तस्वीरें बनाने के लिए भी होती रही। लेकिन इन लेखक साहिब को इसमें कुछ भी अश£ील और असभ्य नहीं लगा। इस नहीं लगने के पीछे उन्होंने कई तर्क भी दिए। मसलन, जब मां काली की प्रतिमा को अश£ील नहीं माना जाता, शिवलिंग की पूजा-अर्चना करने वालों के मन में उसे लेकर कोई गलत विचार नहीं पनपता तो हुसैन की रेखाओं को नगनता कैसे कहा जा सकता है। इसका मैं एक बहुत सीधा सा जवाब देना चाहूंगा, श्रीकृष्ण का चरित्र और उनकी चंचलता से सब वाकिफ हैं। श्रीकृष्ण जिस राधा से प्रेम करते थे उसके अलावा उनकी कई अन्य गोपियां भी थीं। जिनके साथ उनकी अल्पविकसित या कह सकते हैं संक्षिप्त प्रेम लीलाएं चलीं, जिसे आज के जमाने में फल्र्ट कहा जाता है। वो साक्षात भगवान थे, इसलिए उन्होंने जो कुछ किया वो स्वीकार्य हो गया, लेकिन मौजूदा वक्त में यदि कोई उनका अनुसरण करे तो क्या अच्छी निगाहों से देखा जाएगा? क्या समाज में उसकी वही प्रतिष्ठा होगी जो राम की होती है? शायद नहीं, क्योंकि लोग भगवान को उस रूप में स्वीकार सकते हैं लेकिन आम इंसान को नहीं। इसी तरह से शिवलिंग या काली की मूर्तिके पीछे जो कहानी है उसे चित्रों में उतारना भी स्वीकार योगय नहीं।
वैसे भी जिस काली की प्रतिमा का जिक्र लेखक महोदय ने किया है, शायद वो उससे इतने ज्यादा परिचित नहीं, या लिखने से उन्होंने पहले प्रतिमा पर गौर करने की जरूरत ही नहीं समझी। मंदिरों में लगी मां काली की प्रतिमा में ऐसा कुछ है ही नहीं जिसे अश£ीलता की श्रेणी में रखा जा सके, जबकि हुसैन की तस्वीरें रेखाओं में ही नगनता का चित्रण करती हैं। देवी-देवताओं के साथ-साथ हुसैन साहब ने भारत माता का भी बेहद अश£ील चित्रण किया। अगर यह महज कला थी तो उनके मन मेेंं कभी इस्लाम या दूसरे धर्मों की भावानाओं से खेलने का ख्याल क्यों नहीं आया। एक कलाकार धर्म-जात के बंधन से मुक्त होता है, और उसकी सोच भी मुक्त होनी चाहिए। लेकिन हुसैन के साथ ऐसा नहीं था, इसलिए उनकी कूंची सिर्फ हिंदू आस्था के साथ खिलवाड़ करती रही। इस प्रसिद्ध चित्रकार ने सीता और बजरंग बली को जिस रूप में प्रदर्शित किया, वैसा शायद हम-आप सोच भी नहीं सकते। मशाल थामे बजरंग बली पहाड़ लांघे जा रहे हैं और सीता नगन अवस्था में उनकी पूंछ से लिपटी हुई हैं। हिंदुओं के प्रति हुसैन की अश£ीलता महज भगवानों के चित्रण तक ही सीमित नहीं रही, उन्होंने आम इंसानों की छवि को भी उसी रूप में उकेरा। मकबूल साहब की एक पेंटिंग में चोटी धारी पंडित को पूरी तरह निवस्त्र दिखाया गया जबकि पास खड़ा पठान या मौलवी पूरे कपड़ों में हैं। क्या एक समुदाय से जुड़े लोगों और अराध्यों को बिन कपड़ों के कैनवस पर उकेरना ही चित्रकारी है? लेखक महोदय कहते हैं कि हुसैन की तस्वीरों पर बवाल की सबसे बड़ी वजह उनका मुस्लिम होना रहा, दूसरे कलाकारों ने भी ऐसा ही चित्रण किया मगर उनके खिलाफ कभी गुस्सा नहीं पनपा। वैसे लेखक की इस बात में नया कुछ भी नहीं है, हमारे देश में हर बात पर धर्म-समाज की दुहाई देने की परंपरा बन गई है। बॉलिवुड के नामी सितारेां को अगर मकान नहीं मिलता तो उसके लिए मुस्लिम होने का रोना रोते हैं, आजमगढ़ से जब कोई पकड़ा जाता है तो अल्पसंख्कों के प्रति अत्याचार की बाते कहीं जाती है। मैं यहां बस कहना चाहूंगा कि गलत, गलत होता है फिर चाहे वो हिदू करे या मुस्लिम।
जहां तक बात अश£ली चित्रण करने वाले कलाकारों के खिलाफ आक्रोश की है तो शायद लेखक महोदय कुछ वक्त पहले पणजी में हुए हंगामे को भूल चुके हैं। जेवियर रिसर्च इंस्ट्टीयूट में एक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था, जिसमें हिंदू देवताओं की कुछ आपत्तिजनक पेंटिंगस भी प्रदर्शन के लिए रखी गई। हिंदूवादी संगठनों ने इस बात पर इतना बवाल मचाया कि उन कलाकृतियों को प्रदर्शनी से हटाना पड़ा। अपनी बात को सही साबित करने के लिए लेखक महोदय एक और तर्क देते हैं, उनका कहना है कि मकबूल फिदा हुसैन ने पैगंबर साहब या किसी दूसरे मुस्लिम धर्मावलंबी का चित्रण इसलिए नहीं किया क्योंकि इस्लाम में चित्र या मूर्ति बनाने की मनाही है, लेकिन हिंदू धर्म में ऐसी कोई मनाही नहीं। इस तर्क का तो यही मतलब निकलता है कि अगर हिंदू मूर्ति उपासक हैं तो उनके खिलाफ किसी भी हद तक जाने की इजाजत है। पैगंबर साहब या अल्लाह की बात तो छोडि़ए हुसैन ने जब कभी मुस्लिम महिलाओं का चित्रण किया, इस बात का ख्याल रखा कि वो बुर्के में हों। हुसैन की चित्रकारी का अगर विरोध होता है तो उसके वाजिब कारण भी हैं, यदि उनकी कूंची सभी के लिए बराबर भाव रखती तो शायद उन्हें देश छोड़कर जाने की जरूरत नहीं पड़ती। इसमें कोई दो राय नहीं कि वो एक बेहतरीन कलाकार थे, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने लोगों की धार्मिक भावनाओं को बार-बार आहत किया। 1990 में पहली बार धार्मिक भवनााओं को भड़काने वाले उनके चित्र आम जनता के सामने आए, इसके बाद 6 जनवरी 2006 को एक पत्रिका में भारत माता को लेकर उनकी अभद्र पेंटिंग प्रकाशित हुई। हुसैन ने बवाल के बाद माफी मांगी और चित्र वापस लेने का वादा भी किया, मगर वादा निभाया नहीं। थोड़े वक्त बाद ही उनकी आधिकारिक वेबसाइट पर यह तस्वीर चस्पा कर दी गई। क्या इससे ये पता नहीं चलता कि उनका इरादा जानबूझकर समुदाय विशेष को आहत करने का था। लेखक महोदय मेरा आपसे बस यही निवेदन है कि हुसैन की नगनता के समर्थन में तर्क देने से पहले जरा तथ्यों पर भी गौर फरमा लेना चाहिए।
Subscribe to:
Posts (Atom)