Monday, June 13, 2011
नौ दिन में क्या से क्या हो गया योगी
चलिए बाबा का अनशन आखिरकार खत्म हो गया। पिछले नौ दिनों से बाबा के हठ ने बेफिजूल में सरकार को टेंशन दे रखी थी। बेफिजूल इसलिए क्योंकि सरकार बखूबी जानती थी कि इस हठ से होना-हवाना कुछ नहीं है, फिर भी जनता कहीं भावुक न हो जाए ये सोच-सोच कर उसे टेंशन हो रही थी। वैसे खबरनवीसों को छोड़कर बाकी लोगाबाग भी टेंशन में थे, क्योंकि बाबा के अलावा कुछ देखने-सुनने को मिलता ही नहीं था। चाहे अखबार के पन्ने पलटना हो या टीवी के चैनल बदलना हर तरफ बाबा ही बाबा थे। बाबा लंबे समय तक खबरों में लीड करते रहे, और उम्मीद है कि आगे में सुर्खियों में छाय रहेंगे। वो इसलिए कि सरकार अब टेंशन का बदला लेने पर उतारू हो चुकी है। सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग बाबा की कुंडली खंगालने में लगे हैं, यानी टेंशन लेने की बारी अब बाबा की है। वैसे बाबा के टेंशन का स्तर सरकार के टेंशन से ज्यादा होगा, योगगुरु के पास योग संपदा के अलावा भी बहुत कुछ है। बाबा का अरबों को साम्राज्य है, विदेशों में आइलैंड हैं, ऐसे में पाई-पाई का हिसाब देते-देते मासपेशियां खिंच जाएंगी। तमाम टेंशनों के बावजूद, एक तरह से ये अच्छा हुआ कि बाबा को आंदोलन का चस्का लगा। इस चस्के में उनके योग की जांच पड़ताल भी हो गई। देश से लेकर विदेशों तक योग का डंका बजाने वाले बाबा 200 साल तक जीने का दावा करते रहे, महीनों तक अनशन की रट लगाते रहे। लेकिन नौ दिन चला अढाई कोस की तरह महज नौ दिनों में ही ये योगी पस्त हो गया।
इतना पस्त हो गया कि शक्ल मुरझाए हुए छुआरे माफिक हो गई। नौदुर्गे के व्रत में कई आम लोग लॉंग के जोड़े पर ही नौ दिन गुजार देते हैं, मगर असाध्य बीमारियों का रामबाण इलाज बताने वाले रामदेव अपने योग से अपना भला भी नहीं कर सके। फिलहाल तो बाबा नौ दिनों की कमी पूरी करने में जुटे हैं, एक-दो दिन में चेहरे पर पुरानी रंगत लौट ही आएगी। लेकिन पुराने भक्त लौटेंगे या नहीं ये सबसे बड़ा सवाल है और ये सवाल बाबा को भी खाए जा रहा होगा। कहतें हैं ज्यादा चतुराई भी कभी-कभी भारी पड़ जाती है, बेचारे बाबा भी चतुराई में मारे गए। अच्छी-भलि सरकार शीर्षासन करने लगी थी, मगर बाबा मेक इट लार्ज का ख्वाब पाले हुए थे। और अब खुद झुकासन की मुद्रा में हैं। बाबा को अनशन की प्रेरणा जरूर अन्ना से मिली मगर उसका क्लाइमैक्स बिल्कुल बॉलीवुड की मसाला फिल्मों की तरह रहा। रात के अंधेरे में डाकुओं की एंट्री, राबिन हुड टाइप हीरो का अपने समर्थकों की आड़ में भागना लेकिन पकड़े जाना। कुछ अलग था तो बस इतना कि यहां डाकुओं की जगह पुलिस थी। वैसे हमारी पुलिस डाकुओं से कम भी नहीं है, वो कानून तोड़कर लोगों की तुड़ाई किया करते थे ये कानून के साथ लोगों को तोडऩे में विश्वास रखती है। बाबा की अनशन रूपी नौटंकी में सबसे दिलचस्प सीन रहा, योगगुरु का स्त्री के वेष में आना। ऐसा अक्सर गोविंदा की फिल्मों में देखने को मिलता था। गोविंदा को ये महारथ हासिल थी कि लड़की बनकर वो लड़की के अंकल को पटाता और लड़का बनकर लड़की को। लेकिन बाबा एक पुलिस को नहीं पटा पाए। हालांकि पटाना आसान भी नहीं था, एकाध पुलिसवाला होता तो ले-देकर पटा भी लिया जाता, पर रामलीला में लीला करने के लिए 10 हजार खाकीवर्दी वाले मौजूद थे। बाबा के साथ बालाकृष्ण भी भागे, शायद बलाकृष्ण को भागने की अच्छी आदत है इसीलिए बाबा रूप बदलकर भी धरे गए, लेकिन बाबा का बाला पुलिस को चकमा देने में कामयाब रहा। कुछ दिनों तक ढुंढाई मची, पर जैसे ही बात नेपाल तक गई बाला प्रकट हो गए।
खबरचियोंं को देखते ही आंखों से आंसू टपकाए और एक स्क्रिप्ट पढ़ डाली। बाला का रोना अनशन का सीक्वल था, पहले बाबा के आंसू गिरे और फिर उनके सहयोगी के। वैसे रोने-धोने के सीन की अपेक्षा जनता ने भी नहीं की होगी। योगी से सबको धमेंद्र या सनी देओल के हैंडपंप उखाडऩे जैसे आचरण की उम्मीद थी, मगर बाबा श्वेत-श्याम जमाने की अदाकारा निरुपमा रॉय साबित हुए जिन्हें ज्यादातर लोगों ने कभी हंसते हुए नहीं देखा होगा। मां का किरदार एक तरह से निरुपमा रॉय का पेटेंट था, उनके अलावा मां बनने वाली दूसरी अभिनेत्रियां मां लगती ही नहीं थीं। इस पर्दे की मां को तो चंद पलों के लिए सिनेमाघरों में बैठे दर्शकों की सहानभति मिल जाती थी, मगर हमारे योगी महाराज को वो भी नसीब नहीं हुई। बाबा के आंसूओं को देख केवल उन्हीं के आंसू निकले या जबरदस्ती निकाले जो बस बाबा में ही रम गए हैं। 196 घंटों के इस एपीसोड के अंत के पीछे मान-मनौव्वल को प्रमुख वजह माना जा रहा है, आर्ट ऑफ लिविंग श्रीश्री रविशंकर सहित संतों, नेताओं और बाबा के सैंकड़ों समर्थकों के हठ से बाबा अपना हठ छोडऩे को मजबूर हुए। अगर ऐसे ही मजबूर वो थोड़ा सा पहले हो गए होते तो न रामलीला मैदान में पुलिस की लीला होती और न यूं अस्पताल में पड़े रहना पड़ता। वैसे बाबा की मजबूरी के पीछे मान-मनौव्वल के अलावा भी एक कारण है, वो है सरकार से मिलने वाली टेंशन का टेंशन। योगी को आभास हो चला था कि हठी सरकार पिघलने वाली नहीं है, जो मीडिया कल तक उनके सत्याग्रह को नए भारत के उदय के रूप में प्रचारित कर रहा था उसने भी पलटी मार ली है। इसलिए हठी के आगे हठ करने से कोई फायदा नहीं।
जितना ज्यादा हठ होगा उतना ही ज्यादा सरकार और मीडिया वार करते जाएंगे। सरकार तो सरकार ठहरी जिससे दुश्मनी ठान ली उसे सड़क पर लाकर ही मानती है। फिल्म सरकार में जब सरकार यानी अमिताभ बच्चन पूरी गुंडा बिरादरी में भारी पड़ता है तो फिर यहां तो पूरी की पूरी फौज है। प्रणब, चिदंबरम, सिब्बल, सहाय और खुद मनमोहन सिंह। मनमोहन जितने मनमोहनी लगते हैं असल में उतने हैं नहीं। ऊपर से सॉफ्ट और अंदर से हार्ड (कड़क) तभी तो पिटाई जैसे कड़े फैसले चंद घंटों में कर लेते हैं और बाद में अफसोस जताकर अपने सॉफ्ट होने का परिचय देते हैं। महंगाई को ही लें, मनमोहन सिंह कई बार चढ़ते दामों पर चिंता जता चुके हैं, लेकिन फिर भी तेल कंपनियों को पेट्रोल के दाम बढ़ाने की छूट दिए जा रहे हैं। ऐसे में बाबा को छोडऩे का तो सवाल ही नहीं बनता। खैर ये तो सरकार की सरकारियत ठहरी, जहां तक बात मीडिया के बाबा का बैंड बजाने की कवायद की है तो वो इस कला में माहिर है। वो भी पुलिस की तरह लेन-देन में विश्वास रखती है। कुछ मिला तो नायक नहीं तो खलनायक। बाबा को महिमामंडित करके सरकार से बैर लेने के खतरे के आकलन के बाद खबरनवीसों पर से पलभर में ही बाबा प्रेम उतर गया। फिलहाल तो बाबा अपने भविष्य को लेकर चिंता में हैं, और ये चिंता कहीं उनकी चंचलता न हर ले इस बात की टेंशन उन्हें हमेशा रहेगी।
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