Saturday, January 30, 2010

कहीं गुम हो गई है देशभक्ति

नीरज नैयर
देश का 60वां गणतंत्र दिवस हर बार की तरह आया और खामोशी से चला गया। खामोशी इसलिए कि उल्लास और उत्साह का शोर महज स्कूलों, परेड ग्राउंड और मुल्क की राजधानी दिल्ली के एक खास हिस्से में सुनाई दिया। 15 अगस्त और 26 जनवरी की तैयारी हर साल स्कूलों से शुरू होकर परेड ग्राउंड्स में खत्म हो जाती है। इसके समापन पर एक शानदार जलसा होता है, जिसमें मंत्री, संतरी, अधिकारी और मुट्ठी भर भीड़ पहुंचती है। झंडावंदन किया जाता है, सलामी ली जाती है और थोड़ी ही देर में सबकुछ समान्य हो जाता है। देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा इस जलसे में खुद को शरीक नहीं करता, अगली सुबह उसे ये भी याद नहीं रहता कि बीती रात देश ने किस मुकाम को छुआ है। हां उसे इतना याद जरूर रहता है कि सालाना जलसे की छुट्टी में उसके व्यक्तिगत कामों की लिस्ट में क्या छूट गया।
यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए कि हम राष्ट्रीय पर्वों को मनाने की महज रस्मअदायगी भर कर रहे हैं, और आम जनता ने इस रस्मअदायगी का ठेका भी सरकार और उसके नुमाइंदों पर छोड़ रखा है। 26 जनवरी या 15 अगस्त को राष्ट्रध्वज फैहरे या न फैहरे, देशभक्ति के गीत गाय जाएं या न गाय जाएं हमें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारा सरोकार सिर्फ छुट्टी और उसके उपयोग तक सीमित होकर रह गया है। यह निहायत ही संवेदनशील और सोचनीय मु्द्दा है कि जिस दिन हर भारतीय को एक साथ खड़े होकर राष्ट्रीय पर्व का हिस्सा बनना चाहिए उस दिन आधे से यादा लोग चादर तानकर क्यों सो रहे होते हैं। इसे बदलाव का एक चक्र कहा जा सकता है, पहले स्थिति ऐसी बिल्कुल नहीं थी। यादा पीछे तो मैं नहीं जा सकता, पर अपने 28 साल के सफर में मैंने इस जोश को ठंडा होते देखा है। बचपन के दिनों में जब थोड़ी बहुत समझ आ जाती है, तब मैं और मेरे भाई बहन जितनी तैयारी होली के लिए किया करते थे, उससे कहीं यादा गणतंत्र दिवस या पंद्रह अगस्त के लिए करते थे। हम कई दिनों पहले से ही पैसे इकट्ठा करना शुरू कर दिया करते थे ताकि झंडा बनाने के लिए कपड़ा खरीदा जा सके। पॉकेट मनी के नाम पर कुछ खास मिलता नहीं था, सो रेडीमेट झंडे खरीदने के बारे में सोचते भी नहीं थे, और प्लास्टिक का झंडा लगाना हमें मंजूर नहीं था। कपड़े को तिरंगे में तब्दील करने का काम मैं खुद किया करता था, हो सकता है कि उन दिनों राष्ट्रध्वज की शान में हमसे कुछ कमी रह गई हो मगर हमारी भावना कभी वैसी नहीं रही।
हमारा झंडावंदन दिल्ली में तिरंगा लहराने के बाद ही होता था, क्योंकि आंख खुलने के साथ ही कदम टीवी का स्विच ऑन करने की तरफ बढ़ लिया करते थे, परेड देखने के लिए। टीवी में रिमोट न होने का मलाल भी खूब होता था, पर मलाल में फंसकर हम परेड का एक भी पल गंवाना नहीं चाहते थे। परेड के वक्त जब प्रधानमंत्री सलामी ले रहे होते हमारा नाश्ता बिस्तर पर बैठे-बैठे ही चल रहा होता। उस वक्त ब्रश करने जाना दुनिया का सबसे बुरा काम लगता, क्योंकि उस थोड़े वक्त के लिए हमें टीवी से नजरें हटाना पड़तीं। ध्वजारोहण के लिए हम छत के ऊपर बने छोटे से कमरे की छत का चुनाव करते, हालांकि वहां तक पहुंचने के लिए सीड़ियां नहीं हुआ करती थीं। फिर भी दीवार से बाहर निकल रहीं ईंटों और लोहे की ग्रिल को सहारा बनाकर छत पर पहुंचते, तिरंगा लहराते, उसे सलामी देते और नीचे उतर आते। नीचे उतरने के बाद लहराते तिरंगे को देखकर जो खुशी मिलती उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। पूरी कॉलोनी में सिर्फ मंदिर को छोड़कर जहां वरिष्ठ नागरिकों द्वारा ध्वजारोहण किया जाता था, हमारे घर की छत पर तिरंगा शान से लहराता। सूरज ढलने से पहले ही हम तिरंगे को उतारकर तय बनाकर अलमारी में रख दिया करते और दूसरे दिन फिर उसी स्थान पर लगा दिया करते। हमारा गणतंत्र या स्वतंत्रता दिवस दूसरों की अपेक्षा एक-दो हफ्ते यादा ही चलता।
अगर उस वक्त तिरंगे को रात में फैहराने की छूट होती तो निश्चित ही दूधिया रोशनी हम उसे फैहराया करते। गणतंत्र दिवस समारोह में जाने की मेरी बचपन से दिली इच्छा रही, जिसको मैं स्कूल में होने वाले कार्यक्रमों से पूरी करता रहा। शायद उस वक्त मैं 10वीं क्लास में था। 15 अगस्त के दिन जब कॉलोनी के दोस्त सुबह-सुबह क्रिकेट खेलने में मशगूल थे, मैं स्कूल में होने वाले कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए तैयार हो रहा था, मेरे भाई ने लाख समझाया कि भई स्कूल में कुछ खास नहीं होगा। जाकर पछताना ही पड़ेगा, मगर मैंने उसके एक न सुनी और हम दोनों स्कूल पहुंच गए। हमारे स्कूल का नाम था राजा बलवंत सिंह इंटर कॉलेज, शायद इसीलिए वो समझते थे कि यहां आने वाला हर बच्चा किसी राजा की तरह ही योध्दा होगा। ग्राउड में हम सारे छात्रों को कतार में खड़ा कर दिया गया, सूरज देवता उस दिन बिल्कुल भी मेहरबान नहीं थे। सुबह से ही धूप अपने पूरे शबाब पर थी, हम कड़ी धूप में मुख्य अतिथि के इंतजार में तकरीबन 50-60 मिनट खड़े रहे। इसके बाद धूप के आगे छात्रों का धैर्य जवाब देने लगा, कुछ छात्र गिरने लगे, कुछ जानबूझ कर जूत के फीते खोलते और फिर उन्हें बांधने के बहाने चंद मिनटों के लिए बैठ जाते। मेरा भाई उस वक्त मुझे क्रोध भरी निगाहों से देख रहा था, मैं बिन बोले ही उसके अल्फाज समझ सकता था। खैर, हमारे गिरने से पहले ही मुख्य अतिथि आए, झंडावंदन हुआ। लहराते झंडे को देखकर 60 मिनट तक खड़े रहने को दर्द पलभर में ही काफुर हो गया।
मुख्य अतिथि के हाथ से दो-दो लड्डू मिले जिसे खाते हुए हम स्कूल से बाहर निकल आए। उन दिनों राष्ट्रीय पर्व पर स्कूलों में विद्यार्थियों को दो-दो लड्डू दिए जाते थे। हिंदी मीडियम स्कूलों में तो यही आलम था, इंगलिश मीडियम के बारे में कुछ कह नहीं सकता, हो सकता है वहां कुछ अलग होता हो। स्कूल से घर तक साइकिल चलाने की जिम्मेदारी मेरे भाई ने मुझे सौंपी। अब ये स्कूल लाने का दंड था या कुछ और, मैंने समझे बिना ही हामीं भर दी। क्योंकि मैं जानता था कि न चाहते हुए भी उसे मेरी वजह से यहां आना पड़ा और धूप में 60 मिनट खड़े होने की सजा झेलनी पड़ी। उस वक्त हमारे पास रेंजर साइकिल हुआ करती थी, दिखने में स्टाइलिश थी इसलिए हमने पहली नजर में ही उसे पसंद कर लिया था। मगर चौडे टायरों की वजह से दो लोगों को बिठाकर उसे चलाना बड़ा परिश्रम वाला काम था। हम इसी साइकिल पर सवार होकर घर से 9 किलोमीटर दूर स्थित स्टेडियम भी जाया करते थे, उन दिनों बैडमिंटन खेलने का जुनून सवार था। कुछ ओपन टूर्नामेंट जीतने के बाद स्टेडियम में खेलकर आगे बढ़ने का उत्साह भी खूब था, इसलिए थकान कमजोर नहीं कर पाती। स्टेडियम में एंट्री के लिए हमें बहुत पापड़ बेलने पड़े। कोच हमें खिलाने को बिल्कुल तैयार नहीं था, ऐसा नहीं था कि हमारी उससे कोई पुरानी दुश्मनी थी बल्कि वहां तक पहुंचने के लिए किसी रसूख वाले व्यक्ति का सिफारिशी पत्र हमारे पास नहीं था। कोच न नहीं किस्मत ने हमारा साथ जरूर दिया, हमें कुछ सुपर सीनियर खिलाड़ियों का मैच दिखने का मौका मिला।
उस टीम के कप्तान मिस्टर भल्ला के खेल ने हमें बहुत प्रभावित किया, वहां बैठे लोगों के मुंह से उनके व्यवहार के बारे में भी काफी तारीफ सुनने को मिली। उसी वक्त हमने सोच लिया कि शायद मिस्टर भल्ला स्टेडियम में हमारी एंट्री करवा सकें। मैंच के दूसरे दिन किसी तरह पता लगाकर हम उनके घर पहुंच गए, उस वक्त शाम के शायद 6 बज रहे होंगे। उन्होंने बड़े प्यार और सम्मान से हमें बिठाया हमारी बातें सुनी और एक पत्र कोच के नाम हमारे हाथों में थमा दिया। हमने उन्हें धन्यवाद दिया, पैर छूकर उनका आशीर्वाद लिया और अगली शाम स्टेडियम पहुंच गए। कोच को सिफारिशी पत्र थमाया तो उसके मुंह से चाहते हुए भी न नहीं निकल सकी। थोड़े ही वक्त में हमने आउटडोर और इंडोर के बीच के फर्क को समझते हुए अपने को ढाल लिया। भगवान के आशीर्वाद, भल्ला साहब की दुआएं और अपनी मेहनत से हम अच्छा खेलने भी लगे। मगर यादा आगे नहीं बढ़ पाए, कोच का सारा ध्यान महज उन खिलाड़ियों की प्रतिभा निखाकरने में रहता जिनके पीछे उनके पिताजी की करोड़ों की दौलत पड़ी हो। हमारी तरह कुछ और खिलाड़ी भी इसी पीड़ा से ग्रसित थे, बोर्ड की पढ़ाई और कोच के रुखे व्यवहार के चलते हमने स्टेडियम से नाता तोड़ लिया। खिलाड़ी बनने की तमन्ना कोच की वजह से पूरी नहीं हो पाई और सेना में जाने की ख्वाहिश पारिवारिक स्थिति के चलते परवान नहीं चढ़ सकी। उस दौर की परेशानियों को न तो कागज पर और न ही लफ्जों में बयां किया जा सकता है। बस इतना कह सकता हूं कि उन दिनों हर दिन एक जंग की तरह था, और निहत्थे ही उसमें उतरना होता। भले ही सेना में जाने की इच्छा अधूरी रह गई हो मगर देशभक्ति का जबा अब भी कायम है। ये देखकर बेहद अफसोस होता है कि आजकल के बच्चों में वो जोश दुखाई नहीं पड़ता। हर कोई 26 जनवरी और 15 अगस्त को सिर्फ छुट्टी के रूप में मनाना चाहता था। इस गणतंत्र दिवस को मैंने अपने फोन में फीड अनगिनत लोगों को बधाई संदेश भेजा, शाम तक मेरी उंगलियां मोबाइल के की-पेड पर चलती रहीं। लेकिन मेरे पास बधाई का महज एक मैसेज आया वो भी मेरी बहन का।
अगर ये बात दिपावली या नए साल की होती तो शायद मुझे रिटर्न में शुभकामनाएं जरूर मिलती, मगर गणतंत्र दिवस को लोगों ने इस लायक ही नहीं समझा कि उसकी खुशी में अपनी खुशी ढूंढी जा सके। भले ही हमारे देश में भ्रष्टाचार बीमारी की तरह फैल गया हो, देश को चलाने वाले नेता उस भ्रष्टाचार का अंग बन गए हों मगर देश के प्रति हमारी सोच में परिर्वतन कैसे आ सकता है। हम राष्ट्रीय त्योहार का अनादर कैसे कर सकते हैं, इस बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है। वरना आने वाले वक्त में प्रधानमंत्री भी अपने कार्यालय में बैठकर ही परेड की सलामी लिया करेंगे।

Saturday, January 16, 2010

कब उगेगा उम्मीद का सूरज

नीरज नैयर
भारत में एक काम जो सबसे मुश्किल है, वो है लोगों को उनका कर्तव्य याद दिलाना। उन्हें ये समझाना कि क्या करना चाहिए, क्या नहीं। डू और डू नॉट की लंबी चौडी लिस्ट होने के बाद भी लोग गफलत में रहते हैं। इस गफलत का कारण खुद उनकी सोच और वो आदत है जो उन्हें कुछ करने नहीं देती। जो काम नियमों के खिलाफ है उसे करने में तो लोगों को चमत्कारिक सुख की अनुभूति होती है, उन्हें लगता है जैसे उन्होंने दुश्मन के खेमे में जाकर कोई जीत हासिल की हो। ट्रैफिक नियमों को इसके सबसे उपयुक्त उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। वाहन चलाने वाले इक्का-दुक्क लोग ही इनका पालन करने में विश्वास रखते हैं, और वो भी तब जब यातायात पुलिस का जवान आसपास कहीं दिखाई दे रहा हो। वरना क्या रेड लाइट, क्या स्टाप लाइन और क्या नो एंट्री। मेरे एक मित्र हैं, जिन्होंने ट्रैफिक नियमों की घाियां उड़ाने में शायद ही कोई कसर छोड़ी हो। उनका मानना है कि नियम तो होते ही तोड़ने के लिए हैं। एक-दो बार बेचारे यातायाता पुलिस के हत्थे चढ़े भी तो अपने पद का रुबाब दिखाकर पाक-साफ निकल आए। वो भी पत्रकारिता से जुडे हैं, और पत्रकार बनने के बाद जैसे नियमों को ताक पर रखने का लाइसेंस मिल जाता है। ऐसे कितने मीडिया वाले होंगे जो दोपहिया वाहन पर चलते वक्त हेलमेट का प्रयोग करते हों, फिर रेड लाइट आदि की तो बात करना ही बेकार है। गाड़ी पर प्रेस लिखवाने मात्र से ही एक अदृश्य शक्ति का संचार होता है, जिसका मुजायरा किसी चौराहे आदि पर अमूमन देखने को मिल जाया करता है। वैसे इस 'प्रेस' नामक शस्त्र का इस्तेमाल महज इससे जुड़ा व्यक्ति ही नहीं करता, उसके परिवारवाले और मित्र मंडली के लिए भी यह कवज साबित होता है। कहीं नियम तोड़ते पकड़े गए तो फट से फोन लगाकर खाकी वर्दीधारी को थमा दिया। ये स्थिति किसी एक शहर या राय की नहीं, कमोबश पूरे मुल्क में यही आलम है। आम जनता को ही लीजिए जहां नो पार्किंग का बोर्ड लगा होगा, गाड़ी वहीं टिकाना इात का विषय बन जाता है। अपने घर में साफ-सफाई करके कूड़ा दूसरे के घर के सामने फेंकना हम भारतीयों का शगल है। पर्यावरण का ख्याल हमने शायद ही कभी किया हो, हां आजकल के बच्चे जरूर ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर जागरुकता फैलाने की कोशिशों में लगे हैं। चंद हफ्ते पहले कुंभकरणी नींद में सोई जनता को जगाने के लिए भोपाल में बच्चों ने पर्यावरण रैली निकाली थी। रैली का प्रतिनिधित्व कर रहीं छात्रा शान और उनके सहयोगियों ने पर्यावरण सुरक्षा के तमाम संदेश दिए लेकिन बाल मन से निकले इन संदेशों पर कितना गौर फरमाया जाएगा ये सब जानते हैं। लोगों को लगता है कि इस तरह की रैलियां महज रस्मआदायगी है मगर वो इनके पीछे के महत्व को नहीं समझ पाते। ये कहना गलत नहीं होगा कि आज देश, समाज और पृथ्वी के प्रति कर्तव्य और जिम्मेदारी का जो थोड़ा बहुत भाव जीवित है, वो सिर्फ बच्चों में है। शायद इसलिए ही वो तरह-तरह से हमें जागरुक करने का प्रयास करते रहते हैं। दरअसल समाज के एक बड़े तबके के अंदर यह सोच घर कर गई है कि 'मेरे अकेले के करने से क्या होगा', ऐसे लोगों के लिए बूंद-बूंद से घड़ा भरने की प्रचलित कहावत एक सीख है मगर कोई इसमें विश्वास करने की पहल नहीं करना चाहता। यही वजह है कि सामजिक कर्तव्य और जिम्मेदारियों के मामले में हमारा दामन खाली का खाली है। ऐसे ही खाली लोगों के लिए मध्यप्रदेश सरकार ने कुछ कठोर कदम उठाने का मन बनाया है, मसलन शहर में गंदगी फैलाने वालों पर दंड का प्रावधान किया गया है। सार्वजनिक स्थानों पर थूकने पर 100, पेशाब करने पर 250, शौच करने पर 500, अधिसूचित क्षेत्र के बाहर पशुपालन करने पर 1000, सार्वजनिक स्थानों पर रासायनिक अपशिष्ट डालने पर 1000 रुपए जुर्माना वसूला जाएगा। इसके साथ ही नागरिक कर्तव्य चार्टर भी जारी किया गया है, जिसमें स्वयं एवं आस-पास के क्षेत्र की साफ सफाई का समुचित ध्यान रखना, पर्यावरण का पूरा ध्यान रखना, पानी का अनुकूलन उपयोग करना, यातायात नियमों का पालन करना , पार्किंग के लिए नियत स्थल का ही उपयोग करना, सार्वजनिक स्थल एवं शासकीय संपत्तियों पर हो रहे अतिक्रमण की समय पर सूचना देना आदि शामिल हैं। देखा जाए तो यह बहुत ही अच्छी पहल है, लेकिन व्यवहारिक रूप में इसका सफल होना बहुत मुश्किल है। सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान करना पूरी तरह से प्रतिबंधित है, बावजूद इसके धुएं के छल्ले उड़ते देखे जा सकते हैं। कानून के अमल में आने के बाद से अब तक बहुत कम ही ऐसे मामले होंगे जिनमें किसी को दंडित किया गया हो। इस तरह की पहल हमारे देश में महज फाइलों तक ही सिमट कर रह जाती हैं। शुरूआती सख्ती के बाद न तो सरकारी स्तर पर कुछ किया जाता है और न ही लोगों को अपनी जिम्मेदारी का अहसास होता है। हर साल आस्था के नाम पर बड़े पैमाने पर नदी, तालाब और समुद्र को प्रदूषित किया जाता है। यह जानते-समझते हुए भी कि प्रतिमाओं के विसर्जन का पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है, हम अपनी धुन से बाहर निकलना नहीं चाहते। तमाम संगठनों ने इसके प्रति जागरुकता फैलाने का प्रयास किया मगर उनके प्रयास कितना रंग लाए हैं इसका अंदाजा हमें दूर्गा पूजा और गणेश चतुर्थी के वक्त हो ही जाता है। ऐसे मामलों में बात फिर वहीं आकर रुक जाती है कि 'मेरे अकेले के करने से क्या होगा'। वैसे हम भारतीयों की एक और आदत है, हमेशा प्रशासन, सरकार और मुल्क को कोसते रहना। मसलन कोई गलत काम हो रहा है तो 'भारत में तो यही सब रह गया है', कहीं गंदगी पड़ी है तो 'प्रशासन नकारा हो गया है', कहीं कुछ ठीक नहीं हो रहा तो 'ये देश कभी सुधर ही नहीं सकता, 'यहां की पुलिस निक्कमी है', 'यहां विदेशों जैसी सुंदरता कभी हो ही नहीं सकती' आदि.. आदि। लेकिन ऐसी बातें करते वक्त हम भूल जाते हैं कि दूसरे देशों में नागरिकों मेंअपने मुल्क को बेहतर बनाने की जो उमंग है, हममें उसका अभाव है। और हम उसे पैदा करना भी नहीं चाहते, क्योंकि अपने कर्तव्य, जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाकर जीना हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया है। इसलिए मध्यप्रदेश सरकार की अनोखी पहल का भविष्य वर्तमान से धुंधला ही नजर आ रहा है। पर यदि सरकार ने अपनी आदत के विपरीत रुख अपनाया तो शायद कुछ परिवर्तन देखने को मिल सकें। मगर इसे अमल में लाने से पहले कुछ बुनियादी बातों पर गौर करने की जरूरत है, जैसे सार्वजनिक जगहों पर पेशाब और शौच जैसी समस्याओं पर महज दंड लगाकर उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए पहले ऐसी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए कि किसी को ऐसा करने पर मजबूर न होना पड़े। वैसे जिस दिन भारतीय अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्यों का समझना सीख लेंगे उस दिन ऐसे प्रावधानों की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी, लेकिन उम्मीद का वो सूरज कब उगेगा इस बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है।