Monday, November 1, 2010

ओबामा की यात्रा पर विशेष----हम भारतीय बहुत संतोषी हैं

नीरज नैयर
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के भारत आने में बस कुछ ही दिन बचे हैं। उनके स्वागत से लेकर लगभग सारी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं, और जो कुछ-एक बची भी हैं वो उनके आने से पहले पूरी हो जाएंगी। ओबामा मुंबई के उसी होटल ताज में रुकेंगे जो पाकिस्तानी आतंकवादियों का निशाना बना था। शायद ये उनकी आतंकवाद के आगे न झुकने वाली सोच को प्रदर्शित करने का एक तरीका है। ओबामा की यात्रा के लिए मुंबई को खासतौर पर सजाया जा रहा है, ताज की खूबसूरती तो पहले से ही कमाल की है, फिर भी ओबामा को कहीं कोई कमी न दिख जाए इसका होटल प्रबंधन ने पूरा ख्याल रखा है। इसके साथ ही कभी न चमकने वाली सड़कों का सूरत-ए-हाल भी बदला जा रहा है। डिवाइडरों को गहरे पीले रंग से रंगा गया है, कि कहीं ओबामा हल्के कलर को देखकर मुंबईवासियों को हल्का न समझ बैठें।

ओबामा के स्वागत से लेकर सुरक्षा तैयारियों में सरकार ने पानी की तरह पैसा बहाया है। उनकी दिल्ली यात्रा के दौरान सुरक्षा के लिए दुनिया की सबसे अत्याधुनिक प्रणाली सी4आई तैनात की जाएगी। इसे लगभग 150 करोड क़ी लागत से इजरायल से मंगाया गया है। संभवत ये पहला मौका है जब भारत में किसी विदेशी अतिथि की सुरक्षा के लिए इसका इस्तेमाल हो रहा है। कुल मिलाकर अमेरिकी राष्ट्रपति की इस यात्रा को यादगार बनाने के लिए सबकुछ किया गया है। सरकार के साथ-साथ मीडिया भी इस दौरे को लेकर उत्साहित है, वैसे उसका उत्साहित होना इसलिए भी लाजमी है क्योंकि इसी मीडिया ने ओबामा की ताजपोशी को जंग जीतने जैसा पेश किया था। देखा जाए तो बराक ओबामा की भारत यात्रा नई दिल्ली के लिए दो मायनों में अहम है, पहली तो यही कि ओबामा अपने पहले कार्यकाल में भारत आ रहे हैं। जबकि बुश और बिल क्लिंटन सेकेंड टर्म में आए थे। दूसरी, ओबामा पहले ऐसे राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं जो भारत दौरे के साथ पाकिस्तान नहीं जाएंगे। इससे पहले जितने भी अमेरिकी प्रेसिडेंटों ने नई दिल्ली का रुख किया वो या तो वाया इस्लामाबाद किया या फिर बाद में पाकिस्तान गए। ओबामा के साथ मुलाकात में जिन मुद्दों पर चर्चा होगी उनमें परमाणु करार, द्विपक्षीय व्यापार, चीन, पाकिस्तान और संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्यता शामिल है। इनमें अमेरिकी पसंद के केवल दो ही मुद्दे हैं, परमाणु करार और व्यापार, बाकी भारत की चिंताओं और अपेक्षाओं से जुड़े हैं।

जार्ज डब्लू बुश के कार्यकाल में भारत-अमेरिका के बीच हुईएटमी डील के पूरी तरह अमल में आने का तत्कालीक तौर पर सबसे बड़ा फायदा अगर किसी को होगा तो अमेरिका को। करार के रास्ते अमेरिकी कंपनियां भारत में करोड़ों-अरबों का व्यापार कर मोटा मुनाफा वसूल सकेंगी। ऐसी भी चर्चाएं हैं कि ओबामा कश्मीर पर कुछ फॉर्मूले सुझा सकते हैं, हालांकि अमेरिकी प्रशासन ने इससे इंकार किया है। वैसे कश्मीर पर ओबामा कुछ कहें इसकी संभावना इसलिए भी कम है क्योंकि उनका यह दौरा पूरी तरह से अमेरिकी फायदे पर केंद्रित है यानी करार से होने वाले मुनाफे पर। अमेरिकी प्रतिनिधियों की वैसे भी ये फितरत रही है कि भारत आने के बाद वो भारत को पसंद आने वाली बातें ही करते हैं। कुछ वक्त पहले अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने नई दिल्ली में खडे होकर पाकिस्तान के खिलाफ कुछ कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया, और बदले में करोड़ों के एंड यूजर समझौते को सील करवां गईं। ओबामा अपनी यात्रा में निश्चित तौर पर पाकिस्तान को लेकर भारत की चिंताओं पर गंभीरता दिखाएंगे, और ये भी हो सकता है कि वो भारतीय नेतृत्व के चेहरे खिलाने वाला कोई ऐसा बयान दे डालें।

भारतीय बहुत ही संतोषी होते हैं, ओबामा के इतना भर करने से ही खुश हो जाएंगे और भूल जाएंगे कि उन्होंने राष्ट्रपति बनने के बाद से अब तक हमारा क्या-क्या बुरा किया। ओबामा ने भारत को सबसे यादा चोट आउटसोर्सिंग के मुद्दे पर पहुंचाई। अमेरिकी कंपनियों से भारत को मिलने वाले काम के बीच में ओबामा दीवार बनकरखड़े हो गए, उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि जो ेकंपनी गैर अमेरिकियों को नौकरी देगी उसे सालाना मिलने वाली टैक्स छूट से हाथ धोना पड़ेगा। अमेरिका के इस फैसले से भारतीय आईटी उद्योग को काफी नुकसान उठाना पड़ा, अमेरिका की आईटी इंडस्ट्री का आधे से यादा काम भारत या भारतीय प्रोफेशनलों के रास्ते ही होता आया है। ओबामा ने परमाणु करार के रास्ते में रुकावट टालने की भी कुछ कम कोशिश नहीं की, दरअसल ओबामा बगैर परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत किए भारत को छूट दिए जाने के सख्त खिलाफ रहे हैं। हालांकि ये बात अलग है कि वो चाहकर भी करार पर विराम नहीं लगा पाए, क्योंकि ऐसा करने पर उद्योग लॉबी उनके खिलाफ मोर्चो खोल सकती थी। इसके अलावा कश्मीर पर भी वो रह-रहकर भारत की भावनाओं के खिलाफ खिलवाड़ करते रहे, हालांकि उन्होंने सीधे तौर पर अपने मुंह से कभी कुछ नहीं कहा मगर उनके सहयोगी उनकी जुबान बनते रहे। इसके अलावा पाकिस्तान को लेकर ओबामा ने नई दिल्ली के रुख को कभी महत्व नहीं दिया, भारत आने से पहले भी वो दिल खोलकर पाकिस्तान की झोली भरकर आ रहे हैं। जबकि कई रिपोर्टो में खुलासा हो चुका है कि इस्लामाबाद अमेरिकी मदद का इस्तेमाल भारत के खिलाफ मोर्चा पर लगता है। अमेरिका भले ही जुबानी तौर पर बड़ी-बड़ी बातें करके भारतीय नेतृत्व को विश्वास दिलाने की कोशिश करे कि उसकी नजर में नई दिल्ली का दर्जा पाकिस्तान से ऊपर है, मगर हकीकत इससे पूरी तरह अलग है। दरअसल इराक छोड़ने के बाद अमेरिकी फौजें अफगानिस्तान में मौजूद हैं, और निकट भविष्य में उनके वहां से हटने की संभावना भी नग्णय है।

इस करके अमेरिका को पाक की जरूरत लंबे समय तक पड़ती रहेगी, तो फिर उसके लिए भारत पाक से यादा महत्वपूर्ण कैसे हो सकता है। लेकिन अफसोस की बात है कि इतना सीधा लॉजिक भी भारतीय नेतृत्व को समझ नहीं आता। अमेरिका उल्लू बनाता है और हम बनते रहते हैं। ओबामा के इस दौरे को लेकर भी भारत हद से यादा उत्साहित है। हमारी सरकार किसी बड़े समझौते की उम्मीद लगाए बैठी है, उसे ये भी उम्मीद है कि ओबामा के आने से अशांति फैलाने वाले पड़ोसियों की आवाज थोडी नरम पड़ेगी। मगर ये सारे ख्वाब बराक ओबामा के दिल्ली छोड़ने से पहले ही चकनाचूर हो जाएंगे। पता नहीं क्यों, अमेरिका से आने वाला हर शख्स (सरकार से जुडा हुआ) हमारे लिए आम इंसान से बड़ा हो जाता है। अमेरिकियों से हमारी अपेक्षांए दूसरों से कई गुना यादा रहती हैं, फिर भले ही बार-बार चोट क्यों न पड़ती रहे। ओबामा पहली बार भारत आ रहे हैं, उनका स्वागत जोरदार होना चाहिए, लेकिन इनसब में उम्मीदों और अपेक्षाओं के पहाड़ खड़े करना नादानी के सिवा कुछ नहीं होगा। ण