नीरज नैयर
कहने वाले ने सच ही कहा है, खुदा महफूज रखे मेरे बच्चों को इस सियासत से ये वो औरते हैं जो ताउम्र पेशा कराती हैं. वर्तमान में राजनीति का स्वरूप इतना विकृत हो चला है कि इससे ताल्लुकात रखने वाले भगवान को भी छलने का मौका नहीं चूकते. खुद को हिंदू हितों की सबसे बड़ी पैरोकार बताने वाली भाजपा सालों से ऐसा करती आ रही है. इस बार भी वेंटिलेटर पर पड़ी भाजपा खुद को पुन:जीवित करने के लिए राम की शरण में है, पार्टी राम मंदिर निर्माण के प्रति खुलकर प्रतिबध्दता जता रही है.
अभी कुछ दिन पहले जब भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने राम नाम के मार्ग पर लौटने की घोषणा की तो किसी को अचं भा नहीं हुआ, होना भी नहीं चाहिए था क्योंकि सब जानते हैं कि दुर्दिनों में ही भगवान की याद आती है और वैसे भी जिस पार्टी के पास न मुद्दे हों न एकजुटता उसका तो राम की शरण में लौटना स्व भाविक है. भाजपा रणनीतिकारों का मानना है कि लोकस भा चुनाव में रामनाम के सहारे हिंदुत्व की लहर पैदा करके ठीक वैसा ही माहौल तैयार किया जा सकता है जैसा 1999 में किया गया था. इसीलिए एक तरफ पार्टी मंदिर निर्माण की बात दोहरा रही है तो दूसरी तरफ वरुण गांधी जैसे उसके सिपहासलार समुदाय विशेष के खिलाफ जहर उगल रहे हैं. वरुण गांधी ने जिस तरह से पीलीभीत में भड़काऊ भाषण दिए और उसके बाद जिस तरह से भाजपा ने उनसे पल्ला झाड़ा यह सब प्रायोजित नजर आ रहा है. राजनीति की दुनिया में पैर जमाने की कोशिश कर रहे वरुण के मुंह से जो कटु शब्द निकले हैं वो उनके कम पार्टी के कट्टरवादी नेताओं के ज्यादा नजर आ रहे हैं. उत्तर प्रदेश विधानस भा चुनाव के वक्त भh भाजपा ने ऐसे ही जहरीली सीडी जारी करके मुस्लिमों को निशाना बनाया था.
यह बात सही है कि चुनाव में जात-पात, धर्म-समुदाय के हिसाब से वोट आज भी वि भाजित होते हैं लेकिन फिर भी स्थिति अब 10 साल पुरानी नहीं है. आज लोग समझने लगे हैं कि भगवान के नाम पर, समुदाय के नाम पर आपस में भिड़ाने वाले उनका कितना भला कर सकते हैं. शायद यही कारण हैं कि भगवा झंडा बुलंद करने वाली पार्टियो का वोट प्रतिशत लगातार कम होता जा रहा है. गुजरात में नरेंद्र मोदी जरूर अपवाद साबित हुए हैं परंतु बाकी राज्यों में हालात हालिया हुए विधानस भा चुनावों में सामने आ चुके हैं. राम नाप जपना या भगवान की शरण में लौटना गलत नहीं है, हर पार्टी की अपनी अलग विचारधारा होती है और उसे उस पर कायम रहने का पूरा अधिकार है, लेकिन जिस तरह का दोहरा रवैया भाजपा अपनाती रही है उसने लोगों को सोच को परिवर्तित किया है. बाबरी विध्वंस के बाद मंदिर निर्माण को लेकर भाजपा ने जो अभियान चलाया था उसी की बदौलत उसे केंद्र की सत्ता में जगह बनाने का मौका मिला. पार्टी नेता लंबे समय तक मंदिर के प्रति प्रतिबध्दता जताते रहे. मगर सत्ता के मोहपाश ने उन्हें राम से दूर कर दिया. पूरे पांच साल न तो उन्हें राम का ही ख्याल आया और न उनके भक्तों का. 2004 के लोकस भा चुनाव में भाजपा को मिली करारी हार के पीछे यह सबसे बड़ा कारक रहा.
अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार ने जो शासन चलाया था उसे देखकर कोई भी यह नहीं सोच सकता था कि वाजपेयी पुन: प्रधानमंत्री नहीं बन सकेंगे. संतुलित सरकार चलाने बावजूद राजग को हार का सामना करना पड़ा तो सिर्फ और सिर्फ विचारधारा से अलग चलने की वजह से. 1990 के दशक में भाजपा की पहचान कट्टरवादी हिंदू पार्टी के रूप में थी. कम से कम हिंदुवादी तो यही समझते थे कि केवल भाजपा ही है जो हमारे हितों के लिए खुलकर लड़ सकती है. लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा ने भी पार्टी की हिंदुवादी छवि को और पुख्ता किया. मगर जिस तरह से झोपड़ी में रहने वाले का मिजाज महल में पहुंचकर बदल जाता है ठीक वैसे ही सत्ता में पहुंचने के बाद भाजपा का मिजाज भी बदल गया. और अब फिर पार्टी सत्ता तक पहुंचने के लिए राम नाम को सीढ़ी बनाने में लगी है. पार्टी के वरिष्ठ नेता मुख्तार अब्बास नकवी के बयान से साफ हो जाता है कि मंदिर निर्माण की बातें महज हिंदूवोट खींचने की कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं. नकवी कह चुके हैं कि भाजपा कोई कंसट्रक्शन कंपनी नहीं जो मंदिर का निर्माण करवाएगी. मतलब भाजपा पुन: राम को छलने की कोशिश में है लेकिन जिस तरह से जनता जागरुक हो गई है वैसे ही भगवान राम भी उतने उदारवादी नहीं रहे कि बार-बार छलावा करने वाली पार्टी का बेड़ा पार लगा दें.
राम नाम का सहारा लेकर राजनीतिक रोटियां सेंकेने वाली भाजपा अगर अन्य मुद्दों की तरफ ध्यान केंद्रित करती तो शायद उसे जनता का भी साथ मिलता और भगवान राम का भी. क्योंकि यूपीए सरकार के कार्यकाल में जनता ने खुशी से ज्यादा आंसू बहाए हैं. कमरतोड़ महंगाई और पूंजीवादियों की जेब भरने की यूपीए की नीतियों से जनता पूरी तरह त्रस्त हो चुकी है, ऐसे में भाजपा के पास दूसरा विकल्प बनने का सुनहरा मौका था जिसे अब वो काफी हद तक गवां चुकी है