Friday, December 21, 2007

विकास से नहीं भरेगा नक्सलवाद का जख्म

किसी ंजमाने में सामंतवाद के खिलाफ भड़की छोटी सी चिंगारी आज शोले का रूप अख्तियार कर चुकी है। उस वक्त जो माहौल था उसमें चिंगारी के भड़कने को जायज ठहराया जा सकता था मगर अब जो कुछ भी हो रहा है, वह कतई मर्यादित नहीं। अपने वाजिव हक के लिए छेड़ी गई लड़ाई अब दिशाहीन हो चली है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि सरकार की अनदेखी और विकास के अभाव ने ही नक्सली समस्या को उपजने में खाद का काम किया। परन्तु अब स्थिति बहुत हद तक बदल चुकी है। बेगुनाहों के खून से रंगे हाथ आज विकास की फसल नहीं बल्कि लोगों के सिर कलम करने को आमादा हैं। ऐसे में सवाल उठता है विकास किसके लिए, नक्सल समस्या को लेकर हमारा समाज दो वर्गो में विभाजित है एक तरफ ऐसे लोगो की जमात है जो समझते हैं कि विकास की राह पर चलकर ही इस समस्या का निवारण हो सकता है।वही दूसरे वर्ग ईट का जवाब पत्थर से देने
में विश्वास रखता है। यह निश्चित ही एक बहस का मुद्दा है कि दोनों में से कौन सा रास्ता ज्यादा कारगर है। अगर बीते कुछ समय में नक्सली रणनीति पर गौर फरमाया जाए तो कदम खुद-ब-खुद दूसरे रास्ते पर चलना चाहेंगे।आतंक के लाल गलियारे की जद में आज 15 राज्य हैं और कई राज्यों में इसका विस्तार हो रहा है। 60 के दशक से अब तक नक्सलियों ने न सिर्फ अपनी ताकत में इजाफा किया है, बल्कि अपने स्वरूप में भी बदलाव लाए हैं। पहले इनके निशाने पर महज सत्ता प्रतिष्ठान व पुलिस हुआ करती थी,मगर अब आम आदमी भी इनका निशाना बन रहे हैं।आज नक्सली संगठनों के पास पैसा है। आधुनिक अग्नेयास्त्र हैं। कभी पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश तक सिमटा लाल सलाम का नारा नेपाल से केरल तक बुलंद है। धीरे-धीरे महाराष्ट मे यह पैर पसारने लगा है। नेपाल बार्डर से झारखंड होते हुए केरल तक विभिन्न नदियो और बसतर से कैमूर तक जंगल और पहाड़ों के बीच नक्सलियों की आवाजाही किसी से छिपी हुई नहीं है। जंगल की जिन जमीनों के नाम पर नक्सलवाद पनपा आज उसे नक्सली संगठन खुद पट्टे पर दे रहे हैं। नक्सली महीने में करोड़ों की लेवी वसूल रहे हैं। इंडियन ईयर बुक के आंकड़ों के अनुसार अकेले झारखंड से नक्सली संगठन सालाना करीब 320 करोड़ लेवी वसूल रहे हैं। दस हंजार नक्सलियों के पास 20 हजार आधुनिक हथियार हैं। उद्योगपति खुद धन मुहैयार कराने लगे हैं। अर्थात अधिकांश प्रभावित इलाकों
में आज भी इनकी समानांतर सरकार और कानून का राज है। यही कारण है कि तीन साल पहले नौ राज्यों के 76 जिलों तक सिमटा नक्सलवाद फिलहाल देश के 15 राज्यों के 160 जिलों तक अपने पांव पसार चुका है।इस साल की ही अगर बात करें तो अब तक पूरे देश में नक्सली हिंसा में करीब 520 लोग मारे जा चुके हैं।इनमें 190 तो बेकसूर लोग शामिल हैं, जबकि सुरक्षा बलों और राज्यों की पुलिस के कुल 166 जवान भी शहीद हो चुके हैं।नक्सली समस्या को विकास के पैमाने में तौलकर देखने वालों को अगर अब भी यह लगता है कि विकास के बल पर बंदूकों को शांत किया जा सकता है तो यह ंगलत है। सच तो यह है कि नक्सलवाद की किताब के शुरूआती पन्ने फट गये हैं और उनके स्थान पर नये जोड़ दिये गये हैं। जिनमें न तो हक की लड़ाई का ही कोई ंजिक्र है और न ही विकास की बयार देखने की कोई बात। किसी ंजमाने में नक्सली लड़ाई में हिस्सा लेने वाले भी अब इस बात को स्वीकारने लगे हैं कि यह जंग अब सही गलत से बहुत दूर निकलकर सत्ता और शोहरत के इर्द-गिर्द ही सिमटकर रह गई है।इसे विसंगति ही कहा जाएगा कि लाल गलियारे में पड़ी खून की लाली को भुलाकर आज भी लोग इसे विकास से जोड़कर देख रहे हैं। खुद सरकार भी इस सीधे कानून व्यवस्था से जोड़कर अब तक नहीं देख पाई है।नक्सली हिंसा को जनता के आंदोलन के रूप में देखने वाले अब भी इस अवधारणा से ग्रसित हैं कि नक्सलियों को जनसमर्थन
प्राप्त है। किसी ंजमाने में नक्सलियों को ंजरूर रॉबिन हुड के रूप में देखा जाता होगा, मगर वर्तमान में ऐसा नहीं है। नक्सलियों के साथ आज जो हाथ खड़े हैं उनमें अधिकतर का कारण है डर और मंजबूरी, डर बंदूक का और मंजबूरी पेट की। सरकार के साथ वह जुड़ नहीं सकते, क्योंकि ऐसा करने पर नक्सलियों के कहर का उन्हें सामना करना पड़ेगा। लिहाजा हालात से समझौता करने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं। वैसे देखा जाए तो नक्सली समस्या के विस्तार का रास्ता कहीं न कहीं सियासत की गलियों से होकर ही गुंजरा है। नक्सलियों की मंजबूत होती जड़ों को खाद-पानी राजनीतिक दल ही मुहैया करा रहे हैं।
नीरज नैयर

मासूमों के कांधों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बंदूक

डॉ. महेश परिमल
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आज हमारे में चुपके-चुपके बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दखल बढ़ रहा है। इसे हम अभी तो नहीं समझ पा रहे हैं, पर भविष्य में निश्चित रूप से यह हमारे सामने आएगा। इस बार इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हमारी मानसिकता पर हमला करने के लिए मासूमों का सहारा लिया है। हमारे मासूम याने वे बच्चे, जिन पर हम अपना भविष्य दाँव पर लगाते हैं और उन्हें इस लायक बनाते हैं कि वे हमारा सहारा बनें। सहारा बनने की बात तो दूर, अब तो बच्चे अपने माता-पिता को बेवकूफ समझने लगे हैं और उनसे बार-बार यह कहते पाए गए हैं कि पापा, छोड़ दो, आप इसे नहीं समझ पाएँगे। इस पर हम भले ही गर्व कर लें कि हमारा बच्चा आज हमसे भी अधिक समझदार हो गया है, पर बात ऐसी नहीं है, उसकी मासूमियत पर जो परोक्ष रूप से हमला हो रहा हैं, हम उसे नहीं समझ पा रहे हैं। आज घर में नाश्ता क्या बनेगा, इसे तय करते हैं आज के बच्चे। तीन वर्ष का बच्चा यदि मैगी खाने या पेप्सी पीने की जिद पकड़ता है, तो हमें समझ लेना चाहिए कि यह अनजाने में उसके मस्तिष्क में विज्ञापनों ने हमला किया है। मतलब नाश्ता क्या बनेगा, यह माता-पिता नहीं, बल्कि कहीं बहुत दूर से बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ तय कर रही हैं।
मैंने पहले ही कह दिया है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बहुत ही धीरे से चुपके-चुपके हमारे निजी जीवन में प्रवेश कर रही हैं, इस बार उन्होंने निशाना तो हमें ही बनाया है, पर इस बार उन्होंने काँधो के रूप में बच्चों को माधयम बनाया है। यह उसने कैसे किया, आइए उसकी एक बानगी देखें- इन दिनों टीवी पर नई कार का विज्ञापन आ रहा है, जिसमें एक बच्चा अपने पिता के साथ कार पर कहीं जा रहा है, थोड़ी देर बाद वह अपने गंतव्य पहुँचकर कार के सामने जाता है और अपने दोनों हाथ फैलाकर कहता है '' माय डैडीड बिग कार''। इस तरह से अपनी नई कार को बेचने के लिए बच्चों की आवश्यकता कंपनी को आखिर क्यों पड़ी? जानते हैं आप? शायद नहीं, शायद जानना भी नहीं चाहते। टीवी और प्रिंट मीडिया पर प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों में नारी देह के अधिक उपयोग या कह लें दुरुपयोग को देखते हुए कतिपय नारीवादी संस्थाओं ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। नारी देह अब पुरुषों को आकर्षित नहीं कर पा रही है, इसलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने बच्चों का सहारा लिया है। अब यह स्थिति और भी भयावह होती जा रही है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अब बच्चों में अपना बाजार देख रहीं हैं। आजकल टीवी पर आने वाले कई विज्ञापन ऐसे हैं, जिसमें उत्पाद तो बड़ों के लिए होते हैं, पर उसमें बच्चों का इस्तेमाल किया जाता है।घर में नया टीवी कौन सा होगा, किस कंपनी का होगा, या फिर वाशिंग मशीन, मिक्सी किस कंपनी की होगी, यह बच्चे की जिद से तय होता है। सवाल यह उठता है कि जब बच्चों की जिद के आधार पर घर में चीजें आने लगे, तो फिर माता-पिता की आवश्यकता ही क्या है? जिस तरह से हॉलीवुड की फिल्में हिट करने में दस से पंद्रह वर्ष के बच्चों की भूमिका अहम् होती है, ठीक उसी तरह आज बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बच्चों के माधयम से अपने उत्पाद बेचने की कोशिश में लगी हुई हैं। क्या आप जानते हैं कि इन मल्टीनेशनल कंपनियों ने इन बच्चों को ही धयान में रखते हुए 74 करोड़ अमेरिकन डॉलर का बाजार खड़ा किया है। यह बाजार भी बच्चों के शरीर की तरह तेजी से बढ़ रहा है। इस बारे में मार्केटिंग गुरुओं का कहना है कि किसी भी वस्तु को खरीदने में आज के माता-पिता अपने पुराने ब्रांडों से अपना लगाव नहीं तोड़ पाते हैं, दूसरी ओर बच्चे, जो अभी अपरिपक्व हैं, उन्हें अपनी ओर मोड़ने में इन कंपनियों को आसानी होती है। नई ब्रांड को बच्चे बहुत तेजी से अपनाते हैं।इसीलिए उन्हें सामने रखकर विज्ञापन बनाए जाने लगे हैं, आश्चर्य की बात यह है कि इसके तात्कालिक परिणाम भी सामने आए हैं।याने यह मासूमों पर एक ऐसा प्रहार है, जिसे हम अपनी ऑंखों से उन पर होता देख तो रहे हैं, पर कुछ भी नहीं कर सकते, क्योंकि आज हम टीवी के गुलाम जो हो गए हैं।आज टीवी हमारा नहीं, बल्कि हम टीवी के हो गए हैं।
हाल ही में एक किताब आई है ''ब्रांड चाइल्ड''। इसमें यह बताया गया है कि 6 महीने का बच्चा कंपनियों का ''लोगो'' पहचान सकता है, 3 साल का बच्चा ब्रांड को उसके नाम से जान सकता है और 11 वर्ष का बालक किसी निश्चित ब्रांड पर अपने विचार रख सकता है। यही कारण है कि विज्ञापनों के निर्माता '' केच देम यंग '' का सूत्र अपनाते हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत के बच्चे सोमवार से शुक्रवार तक रोज आमतौर पर 3 घंटे और शनिवार और रविवार को औसतन 3.7 घंटे टीवी देखते हैं। अब तो कोई भी कार्यक्रम देख लो, हर 5 मिनट में कॉमर्शियल ब्रेक आता ही है और इस दौरान कम से कम 5 विज्ञापन तो आते ही हैं। इस पर यदि क्रिकेट मैच या फिर कोई लोकप्रिय कार्यक्रम चल रहा हो, तो विज्ञापनों की संख्या बहुत ही अधिक बढ़ जाती है। इस तरह से बच्चा रोज करीब 300 विज्ञापन तो देख ही लेता है, यही विज्ञापन ही तय करते हैं कि उसकी लाइफ स्टाइल कैसी होगी। इस तरह से टीवी से मिलने वाले इस आकाशीय मनोरंजन की हमें बड़ी कीमत चुकानी होगी, इसके लिए हमें अभी से तैयार होना ही पड़ेगा।
समय बदल रहा है, हमें भी बदलना होगा। इसका आशय यह तो कतई नहीं हो जाता कि हम अपने जीवन मूल्यों को ही पीछे छोड़ दें।पहले जब तक बच्चा 18 वर्ष का नहीं हो जाता था, तब तक वह अपने हस्ताक्षर से बैंक से धान नहीं निकाल पाता था। लेकिन अब तो कई ऐसी निजी बैंक सामने आ गई हैं, जिसमें 10 वर्ष के बच्चे के लिए क्रेडिट कार्ड की योजना शुरू की है। इसके अनुसार कोई भी बच्चा एटीएम जाकर अधिक से अधिक एक हजार रुपए निकालकर मनपसंद वस्तु खरीद सकता है। सभ्रांत घरों के बच्चों का पॉकेट खर्च आजकल दस हजार रुपए महीने हो गया है।इतनी रकम तो मधयम वर्ग का एक परिवार का गुजारा हो जाता है। सभ्रांत परिवार के बच्चे क्या खर्च करेंगे, यह तय करते हैं, वे विज्ञापन, जिसे वे दिन में न जाने कितनी बार देखते हैं। चलो, आपने समझदारी दिखाते हुए घर में चलने वाले बुध्दू बक्से पर नियंत्रण रखा। बच्चों ने टीवी देखना कम कर दिया। पर क्या आपने कभी उसकी स्कूल की गतिविधियों पर नजर डाली? नहीं न....। यहीं गच्चा खा गए आप, क्योंकि आजकल स्कूलों के माधयम से भी बच्चों की मानसिकता पर प्रहार किया जा रहा है। आजकल तो स्कूलें भी हाईफाई होने लगी है। इन स्कूलों में बच्चों को भेजना किसी जोखिम से कम नहीं है।मुम्बई की एक नर्सरी स्कूल के संचालकों ने बच्चों फील्ड ट्रिप के बहाने एक आलिशान शॉपिंग मॉल में ले गए। यहाँ आकर बच्चों ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विभिन्न उत्पादों के बारे में जानकारी ली। इसमें शामिल शिक्षकों ने भी अपने ज्ञान की अभिवृद्धिा की।एक और नर्सरी स्कूल के बच्चों को शरीर की पाँच इंद्रियों के बारे में बताने के लिए मेकडोनाल्ड्स के रेस्टॉरेंट में ले जाया गया। ऐसे उदाहरणों से आप सभी समझ रहे होंगे कि किस तरह से इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने शाला के संचालकों और प्राचार्यों पर डोरे डालकर उन्हें अपने उत्पादों का संवाहक बना रहे हैं। ये कंपनियाँ अब उन्हें प्रलोभन देकर अपने उत्पादों को सीधो स्कूलों में ही बेचना शुरु कर दिया है। जिन स्कूलों में ये नियम होता है कि यूनिफार्म, जूते, कॉपी-किताबें आदि स्कूल से ही लिए जाएँ, वहाँ इसी तरह का खेल खेला जाता है। कोलगेट कंपनी तो आजकल स्कूलों में दंत विशेषज्ञों को लेकर पहुँच ही रही है। जहाँ विशेषज्ञ बच्चों के दाँतों का परीक्षण कर उन्हें कोलगेट करने की सलाह देते हैं, साथ ही एक छोटा सा ब्रश और पेस्ट की टयूब भी देते हैं, ताकि बच्चे को उसका चस्का लग जाए।इस तरह से बच्चों के दिमाग पर उपभोक्तावाद का आक्रमण हो रहा है। इससे तो पालक किसी भी तरह से अपने बच्चों को बचा ही नहीं सकते।
अब यह प्रश्न उठता है कि क्या आजकल स्कूलें बच्चों का ब्रेन वॉश करने वाली संस्थाएँ बनकर रह गई हैं? बच्चे बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ग्राहक बनकर अनजाने में ही पश्चिमी संस्.ति के जीवनमूल्यों को अपनाने लगे हैं।यह चिंता का विषय है। पहले सादा जीवन उच्च विचार को प्राथमिकता दी जाती थी, पर अब यह हो गया है कि जो जितना अधिक मूल्यवान चीजों को उपयोग में लाता है, वही आधुनिक है। वही सुखी और सम्पन्न है। ऐसे में माता-पिता यदि बच्चों से यह कहें कि आधुनिक बनने के चक्कर में वे कहीं भटक तो नहीं रहे हैं, तो बच्चों का यही उत्तर होगा कि आप लोग देहाती ही रहे, आप क्या जानते हैं इसके बारे में। ऐसे में इन तथाकथित आधुनिक बच्चों से यह कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वे अपने वृध्दा माता-पिता की सेवा करेंगे?
डॉ- महेश परिमल