नीरज नैयर
25 बरस के बाद भोपाल गैस त्रासदी फिर सुर्खियों में है। यूं तो हर बर्सी पर न्याय और इंसाफ के नारे सुनने में आ जाया करते थे लेकिन इस बार की गूंज ने पूरे मुल्क को हिलाकर रख दिया है। गुनाहगारों को सजा की रस्म अदायगी के बाद सवाल उठ खड़े हुए हैं कि क्या हमारे देश में मानव जिंदगियों का कोई मोल नहीं। 20,000 मौतों और लाखों जिंदगियों में ताउम्र के लिए अंधेरा करने वाले आज भी खुली हवा में सांस लेने के लिए स्वतंत्र हैं। राजनीति पार्टियां एक दूसरे पर आरोप लगाकर महज अपने हितों को साधने में लगी हैं। इतिहास के पन्ने पलटकर ये पता लगाने की कोशिश की जा रही है कि असल कातिल वॉरेन एंडरसन के प्रति हमदर्दी दिखाने वाला चेहरा कौन सा था। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की संलिप्त्तता को पर्दे की ओढ़ से छिपाने की जद्दोजहद में खुद कांग्रेस वाले ही तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के अक्स को एंडरसन की तस्वीर से मिलाने में लगे हैं। और अर्जुन सिंह महाभारत के अर्जुन के इतर खामोशी से सबकुछ देख रहे हैं।
उम्र के इस पड़ाव में अपनों की घेरेबंदी की चुभन शायद इससे पहले उन्होंने कभी महसूस नहीं की होगी। राजनीति में हमेशा से मोहरों की अपेक्षा चाल को तवाो दी जाती है, इसलिए कांग्रेस णणभी पीड़ितों के गुस्से के सैलाब में अर्जुन को बहाकर दो दशकों से दहक रहे अंगारों को शांत करना चाहती है। मुख्यमंत्री होने के नाते एंडरसन की रिहाई से लेकर भोपाल से विदाई के लिए के लिए अर्जुन सिंह को दोषी ठहराया जा सकता है लेकिन इससे उस वक्त की राजीव गांधी सरकार को नहीं बचाया जा सकता। आखिर यूनियन कार्बाइड प्रमुख वॉरेन एंडसरन को बा इात अमेरिका भेजने की व्यवस्था को केंद्रीय स्तर पर की गई थी। मौजूदा वक्त में सबसे बड़ा सवाल ये नहीं है कि एंडरसन को किसने भगाया, बल्कि सवाल ये है कि इतने लंबे वक्त तक इस मुद्दे पर खामोशी क्यों छाई रही। जो लोग आज हो-हल्ला मचा रहे हैं क्या उन्हें ये नहीं पता था कि एंडरसन कैसे भागा। क्या वो नहीं जानते थे कि जिन गुनाहगारों पर मुकदमा चल रहा है उन्हें किसी भी सूरत में सड़क हादसे में मिलने वाली सजा से यादा सजा नहीं मिल सकती। इस केस को कमजोर करने की शुरूआत तो त्रासदी के बाद से ही शुरू हो गई थी और इसके लिए केंद्र एवं राय सरकार दोनों सीधे तौर पर दोषी हैं। लेकिन 1996 में जब सुप्रीम कोर्ट ने यूनियन कार्बाइड से जुड़े लोगों पर 304 की जगह 304 ए की धाराई लगाई तभी साफ हो गया था कि यह मामला दम तोड़ चुका है।
304 गैरइदाइतन हत्या और 304ए लापरवाही के लिए लगाई जाती हैं। ये बेहद तााुब की बात है कि देश की सर्वोच्च अदालत को सबसे बड़ी गैस त्रासदी में महज लापरवाही दिखाई दी। जिस वक्त धाराओं का ये खेल हुआ उस वक्त केंद्र में एचडी देवगौड़ा की सरकार थी लेकिन उन्होंने इस फैसले के खिलाफ आवाज उठाना मुनासिब नहीं समझा। और न ही गैर राजनीतिक दलों से लेकर उन नेताओं ने जो आज अदालत के फैसले को न्याय की हत्या करार देने में लगे हैं। इस फैसले के खिलाफ महज दो याचिकाएं दायर हुईं थी, जिन्हें बाद में खारिज कर दिया गया। क्यों भोपाल गैस कांड पर रोटियां संकेने वालों ने इस मुद्दे को उतनी बुलंदी से नहीं उठाया जितनी बुलंदी से वो मुआवजे की मांग करते हैं। ये हकीकत है कि इस गैस कांड ने मुफलिसी में दिन गुजार रहे बहुतों की जिंदगी गुलजार की है। मुआवजे के नाम पर मिलने वाली रकम ने उन्हें वो सबकुछ दिया है जिसके शायद वो हकदार नहीं थे। पीड़ितों की फेहरिस्त में एक-दो नहीं बल्कि हजारों ऐसे नाम होंगे जो सिर्फ आर्थिक फायदे के लिए इस फेहरिस्त में शामिल हुए। इसलिए उनके लिए न्याय-अन्याय जैसे शब्द कोई अहमीयत नहीं रखते। यदि 1996 में मुआवजे से जुड़ा कोई फैसला आया होता तो निश्चित तौर पर पूरा देश सिर पर उठा लिया गया होता।
हजारों-लाखों जिंदगियों को दर्द की आग में झोंकने वाली यह त्रासदी कुछ लोगों के लिए फायदा का सौदा साबित होती रही है। और आज भी इसकी आड़ में फायदे खोजे जा रहे हैं। जो वास्तव में दो-तीन दिसंबर की दरमियान यूनियन कार्बाइड से रिसी विषैली गैस मिथाइल आइसोसायनट का शिकार बने थे उनके लिए इंसाफ सफेद हाथी जैसा बनकर रह गया है, मगर इंसाफ दिलाने का जिम्मा उठाने वालों के घर की रौनक बढ़ती जा रही है। गैस पीड़ित महिला मोर्चा अब पूर्व मुख्य न्यायाधीश एएच अहमदी को भोपाल मेमोरियल अस्पताल के अध्यक्ष पद से हटाने की मांग कर रहा है, उस दौर में पुलिस अधीक्षक रहे स्वराज पुरी को मध्यप्रदेश सरकार नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण के अधयक्ष पद से पहले ही हटा चुकी है। अहमदी सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच के अध्यक्ष थे जिसने आरोपियों को सस्ते में छूटने का मौका दिया था। हो सकता है कि पुरी की तरह अहमदी को भी दरकिनार कर दिया जाए। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या वास्तव में इस सबसे पीड़ितों को न्याय और दोषियों को सजा के सिध्दांत को पूरा किया जा सकता है। स्वराज पुरी पर आरोप है कि उन्होंने तत्कालीन डीएम मोती सिंह के साथ एंडरसन को एयरपोर्ट छोड़ा था। एक पुलिस अधीक्षक के तौर पर पुरी चाहते भी तो एंडरसन को हिरासत में नहीं रख सकते थे, उस दौरान उन्होंने जो कुछ भी किया उसे आदेशों का पालन करना कहा जा सकता है।
राय सरकार ने केंद्र सरकार के आदेशों का पालन किया और स्थानीय प्रशासन ने राय सरकार के। इसलिए किसी एक को बलि का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए। इतने सालों बाद गुनाहगार की पहचान करने से अच्छा होता अगर उन हालातों को बदलने की कोशिश की जाती जिसमें इस त्रासदी ने जन्म लिया। क्या एंडरसन अमेरिका या दूसरे किसी पश्चिमी मुल्क में हजारों लोगों की मौत की जवाबदेही से महज कुछ हजार डॉलर देकर बच सकते थे। क्या इंसाफ की आस में 25 बरस इंतजार के बाद भी दोषियों को छूटते देखने का दर्द अमेरकिी महसूस कर सकते हैं, निश्चित तौर पर नहीं। दुर्घटनाएं किसी से पूछकर नहीं होती, इस बात की क्या गारंटी है कि आने वाले कल में कोई दूसरा शहर भोपाल नहीं बनेगा। जो गलतियां 1984 और उसके बाद से होती आ रही हैं उनको सुधारना इस वक्त बलि के बकरा खोजने से यादा जरूरी होना चाहिए। पर अफसोस की किसी को इस बात का ख्याल नहीं।