Saturday, July 5, 2008
ऐसे न सताओ निरीह को
गाहे-बगाहे यह आवाज उठती रहती है कि आवारा कुत्तों को सिपुर्र्द-ए-खाक कर देना चाहिए, ठीक उसी तरह से जैसे मुर्गियों को बर्ड-फ्लू के डर से किया गया. कुत्ते रैबीज फैलाते हैं, नींद में खलल डालते हैं इसलिए उन्हें जीने का कोई हक नहीं. दलीलें तो यहां तक दी जाती हैं कि गली-मोहल्लों में घूमते आवारा कुत्तों से डर लगता है. अत: उन्हें सजा-ए-मौत दी जानी चाहिए. पर ऐसी सजा की दरयाफ्त करने वालों ने कभी चश्मा उतारकर एक-एक निवाले को तरसते कुत्तों को गौर से देखा है. भुखमरी के शिकार बेचारे किसी कोने में चुपचाप पड़े रहते हैं. पास आओ तो भाग खड़े होते हैं. वो खुद इतने डरे होते हैं कि कभी-कभी तो अपने अक्स से भी घबरा जाते हैं. फिर भला ये निरीह किसी को क्या डराएंगे. जो खुद डरा हुआ हो वो किसी को डरा भी कैसे सकता है.
कुत्ते सदियों से ही वफादारी की परंपरा को निभाते आए हैं. वो बात अलग है कि मनुष्य जानकर भी अंजान बना रहता है. बेचारे लात खाते हैं, गाली खाते हैं मगर सोते उसी चौखट पर हैं जहां उन्हें कभी आसरा मिला था. मनुष्य भले ही विलासिता के समुंदर में मानवता की गठरी बहाकर क्रूर और निर्दयी बन बैठा हो मगर ये बेजुबान आज भी प्यार का अथाह सागर अपने छोटे से दिल में समाए बैठे हैं. प्यार के बदले प्यार कैसे किया जाता है, यह इनसे बेहतर भला कौन समझा सकता है. मनुष्य हमेशा से ही अपनी जरूरतों के मुताबिक रिश्तों की उधेड़बुन करता रहा है. जिन उंगलियों के सहारे वह चलना सीखता है वक्त निकल जाने के बाद उन्हें झटकने में एक पल की भी देर नहीं करता. जिन कंधों पर बैठकर वह दुनिया देखता है उन कंधों को कंधा देना भी अपना धर्म नहीं समझता. मनुष्य सिर्फ ढोंग करता है. बचपन में सच्चा बनने का और जवानी में अच्छा बनने का, लेकिन बेजुबान, वे बेचारे न तो ढोंग का मतलब जानते हैं और न ही छल-कपट उन्हें आता है. उन्हें आता है तो बस प्यार करना. लाख मारो, लाख सताओ फिर भी एक पुचकार पर उसी स्नेहभाव और आदर के साथ आपका सम्मान करेंगे जैसा हमेशा करते रहे हैं.
रंग बदलने की प्रवृत्ति न तो उनमें कभी थी और न ही कभी होगी. यह काम तो मनुष्य का है. कुत्तों को इंसान का दोस्त समझा जाता है मगर चकाचौंध और ऐशोआराम से भरी मनुष्य की जिंदगी में इस बेजुबान दोस्त के लिए कोई जगह नहीं. गली-मोहल्लों में किसी तरह अपना गुजर-बसर करने वाले आवारा कुत्ते भी अब उसकी आंखों में खटकने लगे हैं. अभी कुछ वक्त पहले बेंगलुरु और उसके बाद जम्मू-कश्मीर में जिस निर्दयता से आवारा कुत्तों को मौत के घाट उतारा गया, ऐसा काम तो सिर्फ इंसान ही कर सकता है. गले में रस्सी बांधकर बड़ी निर्ममता के साथ उन्हें घसीटकर ऐसे गाड़ी में फेंका गया, जैसे वो कोई कूड़े की गठरी हों. बेचारे चीखते रहे, चिल्लाते रहे, अपनी जिंदगी की भीख मांगते रहे, मगर किसी को दया नहीं आई. इन बेजुबानों का कसूर सिर्फ इतना था कि वो शहर के सौंदर्यीकरण में फिट नहीं बैठ रहे थे.
मनुष्य शक्तिशाली है, उसे किसी भी बेजुबान को मारने का हक है, पर उसे ये हक किसने दिया? शायद भगवान ने तो नहीं. सृष्टि की रचना के वक्त ईश्वर ने अन्न बांटने से पूर्व सबसे पहले कुत्तों को बुलाकर कहा, पृथ्वी का सारा अन्न मैं तुम्हें देता हूं, पर कुत्तों ने निवेदन किया कि इतने अन्न का हम क्या करेंगे? अन्न आप मनुष्य को दे दीजिए. वो खाने के बाद जो कुछ भी बचाएगा हम उससे गुजारा कर लेंगे. बद्किस्मती से मनुष्य खाता तो खूब है मगर कुत्तों के लिए बचाता बिल्कुल नहीं. खाने की हर दुकान के सामने बेचारे टकटकी लगाए इस उम्मीद में बैठे रहते हैं कि शायद मनुष्य को उनके हाल पर दया आ जाए, पर अमूमन ऐसा होता नहीं. टिन के पिचके हुए डब्बे की माफिक पतला-सा पेट, आंखों में डर और खामोशी लिए बेचारे एक-एक दाने के लिए यहां-वहां भटकते रहते हैं. कुछ रुखा-सूखा मिल गया तो ठीक वरना भूखे ही सो जाते हैं, पर वफादारी और प्यार के जज्बे पर कभी भूख को हावी नहीं होने देते. ऐसे निरीह को बेतुकी दलीलों और शहर के सौंदर्यीकरण की खातिर मौत की नींद सुला देना क्या हम इंसानों को शोभा देता है?
नीरज नैयर
ऐसे क्रि के टर किस काम के
नीरज नैयर
अभी हाल ही में एक खबरिया चैनल के टॉक शो में इस बात पर बहस चल रही थी कि क्या सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न से नवाजा जाना चाहिए. जाहिर है क्रिकेट को धर्म और क्रिकेटरों को देवता समझने वालों केमुंह से न कैसे निकल सकता है. सो अधिकतर लोगों के हाथ हां में ही खड़े हुए. खेल जगत में अगर सचिन की उपलब्धियों को सहेज कर देखा जाए तो उनके कद के आगे हर पुरस्कार छोटा है.
अपने चौकों-छक्कों से क्रिकेट की किताब में भारत की जो तस्वीर उन्होंने उकेरी है वह अतुल्य है. खेल की दुनिया केबड़े से बड़े सम्मान पर बेशक सिर्फ और सिर्फ उनका ही नाम हो सकता है लेकिन जहां तक भारत रत्न का सवाल है कोई क्रिकेटर इसका हकदार नहीं दिखाई देता. भारत रत्न किसी ऐसे व्यक्ति को दिया जाना चाहिए जिसने हर पहलू में देश के लिए अनुकरणीय योगदान दिया हो. सचिन ने खेल दुनिया में बहुत कुछ किया पर समाज के लिए उनके या किसी भी अन्य क्रिकेटर ने कभी कुछ किया हो ऐसा याद नहीं आता. क्रिकेट अन्य देशों के लिए भले ही एक खेल से ज्यादा कुछ न हो मगर भारत में यह किसी धर्म से कम नहीं. क्रिकेट के प्रति समर्पण और उन्माद का जो नजारा भारत में देखने को मिलता है वह कहीं और नहीं मिल सकता. क्रिकेट अगर यहां धर्म है तो क्रिकेटर भी किसी अवतार से कम नहीं. उन्हें यहां भगवान की तरह पूजा जाता है, उनकी मंगलकामना के लिए व्रत रखे जाते हैं, हवन किए जाते हैं. हां, उनके खिलाफ कभी-कभार नाराजगी जरूर झलक पड़ती है मगर वो भी क्षणिक भर से ज्यादा नहीं. ठीक वैसे ही जैसे कोई भक्त मनोकामना पूरी न होने पर थोड़ी देर के लिए तो मुंह फुला सकता है मगर हमेशा के लिए अपने भगवान से रूठे नहीं रह सकता. विश्वकप जैसे अहम् मुकाबलों में हारने के बाद भले ही उनके घरों पर पत्थर फेंके जाते हों मगर बांग्लादेश जैसी दोयम दर्जे की टीम को हराने के बाद कंधें पर भी उन्हें ही बिठाया जाता है. सही मायनों में कहें तो क्रिकेट शहर से लेकर गांव तक बच्चों से लेकर बूढ़ों तक देश को धर्म की भांति एक सूत्र में पिरोने का काम करता है. क्रिकेट और क्रिकेटरों का देश में एकक्षत्र राज है उनके आगे किसी दूसरे को तवाो दी गई हो ऐसा शायद ही कभी देखने-सुनने में आया हो. भले ही इस उपमहाद्वीप पर क्रिकेट में आए पैसे की बात सबसे अधिक होती है लेकिन सही मायने में देखा जाए तो केवल भारत ही कुबेर है.
पिछली भारत-पाक सीरीज के वक्त पाकिस्तानी खिलाडी यह गुजारिश करते फिर रहे थे कि किसी भारतीय कंपनी के साथ करार करवा दो. उनकी कमाई का अंदाजा तो इससे ही लगाया जा सकता है कि साक्षात्कार चाहने वाले पत्रकारों से वह 100-200 डॉलर मांगने में भी गुरेज नहीं करते. पिछले दस सालों के दौरान क्रिकेट में इतना पैसा आया है कि इससे जुड़े लोगों से संभाले नहीं संभलरहा है. सिर्फ सचिन, सौरव और गांगुली ही नहीं धोनी-युवराज जैसे खिलाड़ियों की युवा ब्रिगेड भी करोड़ों में खेल रही है. कॉरपोरेट जगत के तकरीबन 60 फीसदी विज्ञापनों पर क्रिकेटरों का कब्जा है, इसके अलावा बोर्ड द्वारा दी जाने वाली रिटेनरशिप फीस से लाखों के वारे-न्यारे अलग हो जाते हैं.
धोनी एक फीता काटने के 20 लाख लेते हैं तो युवराज रैंप पर चलने को 40. क्रिकेट ने इन लोगों को इतना दिया है कि दोनों हाथों से लुटाने पर भी जेब खाली नहीं होने वाली. पर अफसोस कि दोनों हाथ से लुटाना तो दूर इनकी जेब से एक धेला तक नहीं निकलता. दुनिया के हर धर्म में परोपकार और सामाजिक दायित्व का तत्व विद्यमान होता है मगर जब बात हमारे क्रिकेटरों और क्रिकेट की आती है तो इसका साया तक उन पर नहीं दिखाई देता. देश की जनता से क्रिकेटरों को जो शानो-शौकत मिली है उसके बदले में वह कभी कुछ लौटाते नजर नहीं आते. पड़ोस में पाकिस्तान की ही अगर बात करें तो इमरान खान ने अपने सेलेब्रिटी स्टेटस की बदौलत ही कैंसर का एक बड़ा सा अस्पताल खड़ा कर डाला. आस्ट्रेलिया के स्टीव वॉ वर्षो से बच्चों के कल्याण के लिए कुछ न कुछ करते रहे हैं. ऐसे ही न्यूजीलैंड के क्रिस कैंस से लेकर टेनिस स्टार रोजर फेडरर तक हर कोई समाज के प्रति अपनी भूमिका पर खरा उतरा है. मगर लगता है हमारे क्रिकेटरों को इस बात से कोई सरोकार नहीं, उन्हें सरोकार है तो बस इस बात से कि कैसे कम से कम वक्त में ज्यादा से ज्यादा पैसे बटोरे जाएं. हमारे देश में सचिन तेंदुलकर भले ही एक-आध बार कैंसर पीड़ित बच्चों में खुशियां बांटते नजर आए हों पर बाकि खिलाड़ियों के पास तो शायद इतना भी वक्त नहीं. कहने का मतलब यह हरजिग नहीं है कि क्रिकेटर सबकुछ छोड़कर समाज सेवक बन जाएं, किसी सेलिब्रिटी के समाज कल्याण के कार्यो से जुड़ना उसके उद्देश्यों की प्राप्ति में प्रेरक होता है.
बड़े नामों के साथ आने से न केवल मुद्दे सुर्खियों में रहते हैं बल्कि उन्हें आर्थिक सहायता का सहारा भी मिल जाता है. बॉलीवुड का ही अगर उदाहरण लें तो उसने समाजिक दायित्व का निर्वाहन करने में हमेशा मिसाले पेश की हैं. सुनील दत्त और नर्गिस का युद्ध के दिनों में सैनिकों का हौसला बढाना भला कौन भूल सकता है. सूनामी जैसी आपदाओं के वक्त भी क्रिकेटरों के हाथ भले ही न खुले हाें मगर बॉलीवुड कलाकार दिल खोलकर मदद के लिए तैयार रहे हैं. हालांकि यह बात अलग है कि उनकी कोशिशों पर रह-रहकर सवाल भी उठते रहे हैं. कोई इसे पर्सिनलसिटी स्ंटट कहता हैं तो कोई कुछ और. पर हमारे क्रिकेटर तो कभी भी कुछ ऐसा करने की जहमत नहीं उठाते जिससे वे इन सवालों में घिरें.
यह सिर्फ अकेले खिलाड़ियों की ही बात नहीं है, घर का बड़ा ही अगर नालायक हो तो फिर बच्चों के क्या कहने. दुनिया के सबसे अमीर बोर्ड का दर्जा पाने वाले बीसीसीआई का भी सामाजिक दायित्व से दूर का नाता नहीं है. भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का सालाना कारोबार करोड़ों रुपए का है, वर्ल्ड कप के दौरान महज टीवी करार से ही उसने 1200 करोड़ से अधिक की कमाई की थी. मगर आज तक शायद ही कभी कोई ऐसी खबर सुनने में आई हो जब बोर्ड ने खुद आगे बढ़कर समाज के लिए कुछ किया हो. सिवाए बरसो-बरस आयोजित होने वाले एक-दो चैरिटी मैचों के. अक्सर सुनने में आता है कि फंला खिलाड़ी ने आर्थिक तंगी के चलते मौत को गले लगा लिया, इसका सबसे ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश का है, जहां आर्थिक बदहाली ने एक होनहार रणजी खिलाड़ी को जान देने पर मजबूर कर दिया. क्या बीसीसीआई का ऐसे खिलाड़ियों के प्रति कोई दायित्व नहीं . बोर्ड कतई चैरिटी न करे मगर इतना तो कर सकता है कि क्रिकेट मैच के टिकट ब्रिकी से होने वाली आय में से एक रुपया ऐसे खिलाड़ियों के कल्याण में लगा दे. देश के लिए कुछ करना तो बहुत दूर की बात है अपनी खिलाड़ी बिरादरी के लिए तो बोर्ड कुछ कर ही सकता है. क्या इतना बड़ा कारोबार और क्रिकेटरों की चमक-धमक महज मनोरंजन तक ही सीमित है. क्या बोर्ड और खिलाड़ियों का जेब भरने के अलावा कोई सामजिक दायित्व नहीं है, और अगर नहीं है तो फिर ऐसा क्रिकेट और क्रिकेटर किस काम के.
नीरज नैयर
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