Wednesday, August 3, 2011

धुरंधरों की पराजय और मीडिया का मिजाज


नीरज नैयर
मीडिया के भी क्या कहने, पल में किसी को राजा बना दे और पल में उसी राजा की हालत रंक से भी बदतर कर दे। यही वजह है कि राजनेताओं से लेकर फिल्म कलाकारों तक हर कोई इस बिरादरी को साधकर चलना चाहता है। और जो ऐसा करने में असफल रहता है उसका हाल मायावती की माफिक हो जाता है। भले ही उत्तर प्रदेश को सर्वोत्तम प्रदेश बताने वाले लाखों रुपए के विज्ञापन चैनलों या अखबारों में आय दिन नजर आ जाते हों, लेकिन माया फिर भी मीडिया के निशाने पर रहती हैं। आमतौर पर यही धारणा है कि खबरिया बाजार में विज्ञापन फेंकने से मीडिया वाले राजा बनाने की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं, मगर असलीयत शायद इससे थोड़ी अलग है। अगर ऐसा न होता तो मायावती को भी किसी रानी की तरह पेश किया जा रहा होता। फिलहाल तो मीडिया ने उनकी छवि खलनायिका जैसी बना दी है। भट्टर परसौल को लेकर राहुल गांधी के दावों की हवा निकलने के बाद भी मायाराज को हिटलरशाही करार दिया गया। भूमि अधिग्रहण को लेकर यूपी सरकार की नीतियों पर प्रहार किया गया, खबरिया चैनलों ने तो घंटों इस मुद्दे के सहारे निकाल दिए। अभी हाल ही में बलात्कार के मामलों को लेकर भी ऐसा दर्शाया गया, जैसे इस तरह के कृत्य कहीं और होते ही न हों। खैर, ये मीडिया है जो चाहे कर सकता है। जो मीडिया जिंदा को मुर्दा बता दे और माफी भी न मांगे, उसकी तारीफ के लिए शब्द खोजे से भी न मिलेंगे। फिलहाल तो खबरिया बाजार में धोनी एंड कंपनी छायी हुई है, लेकिन नाकारात्मक कारणों से। इंगलैंड की फर्राटा पिचों पर भारतीय खिलाडिय़ों के समर्पण की दास्तान हर चैनल की बड़ी खबर है, चैनल के साथ-साथ अखबार वाले भी आलोचनाओं के शब्दों से खिलाडिय़ों की आरती उतार रहे हैं। वैसे कुछ हद तक इसमें कोई बुराई भी नहीं है। हमारे विश्वविजेता ऐसे खेल रहे हैं, जैसे गल्ली-मोहल्ले में बच्चे खेला करते हैं।

बच्चे भी एक बार के लिए इस बड़े-बड़े नाम वाली टीम से अच्छा खेल लेते हों। क्योंकि उनका पूरा ध्यान सिर्फ खेल पर होता है, जबकि हमारे क्रिकेटरों के पास विज्ञापनों की शूटिंग से लेकर रैंप पर चलने जैसे सैंकड़ों काम होते हैं। लाड्र्स पर खेले गए ऐतिहासिक मैच में हमारे धुरंधर ताश के पत्तों की तरह बिखर गए, इस बिखरने को वार्मअप माना गया। अक्सर टीम इंडिया की तुलना अमिताभ बच्चन से की जाती है, जिस तरह बिग-बी गुजरे जमाने में पहले मार खाते थे फिर मार खिलाते थे उसी तरह टीम इंडिया पहला मैच हारने के बाद वापसी करती है। ऐसी आम धारणा बन गई है। किसी भी हिंदुस्तानी से पूछो, वो यही कहेगा कि अगले मैच में हमारे खिलाड़ी जान लगा देंगे। कई मौकों पर ऐसा हुआ भी है, लेकिन इंगलैंड के सामने ये धारणा गलत साबित हुई। जिन गलतियों के चलते पहले मैंच में मुंह की खानी पड़ी, दूसरे मैच में उन गलतियों का प्रतिशत पहले से भी ज्यादा रहा। थोड़ी-बहुत जो इज्जत बची वो सिर्फ राहुल द्रविड़ की वजह से, वही राहुल द्रविड़ जिन्हें मौजूदा टीम के कुछ खिलाड़ी विदा होते देखना चाहते हैं। क्रिकेट के तमाम प्रशंसक भी इस दीवार को नगर निगम द्वारा खड़ी की गई जर्जर दीवार की तरह देखने लगे थे, लेकिन राहुल ने साबित किया कि दीवार में सीमेंट और बालू का बेजोड़ मिश्रण है। दोनों मैचों में उन्होंने शतक जमाए, टेंटब्रिज में तो वो मात्र ऐसे खिलाड़ी थे जो आखिरी तक संघर्ष करते नजर आए। हांलाकि सचिन तेंदुलकर ने भी अद़र्धशतक जमाया, लेकिन उसकी तुलना राहुल की पारी से नहीं की जा सकती। अ्रगर दूसरे छोर से विकेट गिरने का सिलसिला जारी न होता तो निश्चित तौर पर टीम एक सम्मानजनक बढ़त ले सकती थी। इन दो मैचों में सबसे ज्यादा खराब प्रदर्शन किसी का रहा तो वो कप्तान धोनी का। उन्हें देखकर ऐसा महसूस ही नहीं हुआ कि वो विकेट पर टिकने के इरादे से आए हैं। सही मायनों में कहा जाए तो उन्होंने बल्ला थामकर क्रीज तक आने की महज रस्मअदायगी की। टेंटब्रिज में जब भारत को उनसे बड़ी और लंबी पारी खेलने की उम्मीद थी, तब कप्तान साहब बिना खाता खोले ही पवैलियन लौट गए। सबसे ज्यादा हैरानी की बात तो ये है कि हार के लिए अपने प्रदर्शन को जिम्मेदार ठहराने के बजाए उन्होंने थकान का तर्क दिया।

धोनी का कहना है कि अत्याधिक दौरों के चलते थकान खिलाडिय़ों की क्षमताओं पर हावी हो रही है। इसमें कोई दोराय नहीं कि विश्वकप के बाद से हमारे खिलाड़ी लगातार खेले जा रहे हैं, ऐसे में थकावट होना स्वाभिक है। लेकिन इस थकावट का असल स्त्रोत दौरे नहीं बल्कि आईपीएल है। वल्र्ड कप जीतने के बाद खिलाड़ी चाहते तो आराम कर सकते थे, किसी ने उनके सिर पर बंदूक नहीं तानी थी कि उन्हें खेलना ही पड़ा। तकरीबन दो महीने तक चले आईपीएल में टीम इंडिया के धुरंधरों ने धना-धना रन बरसाए। तब उन्हें थकावट महसूस नहीं हुई, मगर जब बात वेस्टइंडीज जाने की हुई तो सचिन सहित कई खिलाडिय़ों को काम आराम याद आ गया। इसलिए धोनी महाश्य अपनी नाकामी का ढीकरा थकान पर नहीं फोड़ सकते। लचर प्रदर्शन के लिए उन्हें स्वयं जिम्मेदारी लेनी होगी। बतौर कप्तान धोनी के इस तरह के बयान दूसरे खिलाडिय़ों को भी अपनी नाकामी छिपाने का मौका देने वाले साबित होंगे। आज कप्तान ये बोल रहा है, कल बाकी खिलाड़ी भी यही राग गाएंगे। बेतहर तो ये होता कि धोनी सहजता से खामियों को स्वीकारते। खैर, अब वापस मीडिया के रुख पर चलते हैं। धोनी एंड कंपनी की हार का सबसे गहरा सदमा शायद मीडिया को लगा है और इस सदमे से निकलने के लिए वो टीम इंडिया के कथित धुरंधरों को खलनायक बताने में लगी है। यहां सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि जो खिलाड़ी कल तक मीडिया के लिए हीरो की तरह थे, जिनके नाम पर घंटों तक दर्शकों-पाठकों को झिलाया जाता रहा, क्या एक-दो हार से वो इतने बुरे हो गए कि उन्हें खलनायक साबित किया जा रहा है। अव्वल तो मीडिया को किसी का गुणगान करने से पहले थोड़ा-बहुत सोच विचार करना चाहिए, और अगर सोचने के लिए उसके पास भी दिमाग की कमी है तो कम से कम एकदम से किसी को इतना नीचे नहीं गिराना चाहिए।

कल तक मीडिया की नजरों में धोनी दुनिया के सबसे सफलतम कप्तान थे, खबरिया बाजार उनकी मैनेजेंट पावर की तारीफों के पुल बांधा जा रहा है। विश्वविजेता बनने के बाद मीडिया वालों ने लेडी लक यानी साक्षी की धोनी की लाइफ में इंट्री से पड़े प्रभावों तक को सबके सामने सुना-दिखा डाला। टॉक शो आयोजित कर धोनी की काबलियत के बारे में चर्चाएं की गईं, उन्हें भारतीय किक्रेट का सबसे अनमोल सितारा बनाया गया। लेकिन जैसे ही उनकी नाकामयाबी का दौर शुरू हुआ, मीडिया का मिजाज ही बदल गया। हकीकत ये है कि मीडिया ने ही खिलाडिय़ों को खिलाड़ी नहीं रहने दिया। उसने खिलाडिय़ों का गुणगान कर उन्हें इतनी ऊंचाई पर बैठा दिया जहां से क्रिकेट पर ध्यान केंद्रीय करना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है। मीडिया अगर रंक को राजा और राजा को रंक बनाने की मानसिकता से बाहर निकल जाए तो शायद बाकी चीजों के साथ क्रिकेट का भी कुछ भला हो सके। फिलहाल तो धोनी एंड कंपनी की असफलताओं की कहानी कुछ और वक्त तक हमसबको बोर करती रहेंगी।