Thursday, August 13, 2009

महात्मा गांधी, हिंदी और हॉकी में समानता

नीरज नैयर
महात्मा गांधी, हिंदी और हॉकी में एक समानता है, वो ये कि तीनों को ही राष्ट्रीयता से जोड़ा गया है, जैसे महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता का दर्जा दिया गया है, हिंदी को राष्ट्रभाषा और हॉकी को राष्ट्रीय खेल का. पर गौर करने वाली बात ये है कि बावजूद इसके तीनों को वो सम्मान अब तक नहीं मिल पाया है जिसके वो हकदार हैं.

महात्मा गांधी ने मुल्क को आजादी दिलाने के लिए क्या कुछ नहीं किया, दोहराने की शायद जरूरत नहीं. उन्हें एक ऐसे योध्दा के रूप में जाना जाता है जिसने शस्त्र उठाए बिना ही दुश्मन को मैदान छोड़ने पर मजबूर कर दिया. उनके अहिंसक प्रयासों को भारत ही नहीं वरन पूरे विश्व में सराहा जाता है. हालांकि ये बात सही है कि उनके विचारों और सिध्दाताें से कुछ लोग हमेशा असहमत रहे मगर बापू के समर्थन में खड़े होने वाली हजारों की भीड़ ने कभी उन्हें तवाो नहीं दी. पर आज उनके लिए मन में श्रध्दा का भाव रखने वालों को उंगलियों पर गिना जा सकता है. सरकार को भी उनकी याद महज दो अक्टूबर को ही आती है. इसी दिन पार्कों, चौराहों पर धूंल फांक रहीं बापू की प्रतिमाओं को नहलाया-धुलाया जाता है, माल्यार्पण किया जाता है और फिर साल भर के लिए ऐसे ही छोड़ दिया जाता है. देश के राजनीतिज्ञ महात्मा गांधी को नाटकबाज कहकर संबोधित करते हैं. क्या यह आचरण किसी महापुरुष को दिए गये सम्मान का परिचायक है. यदि महात्मा गांधी के नाम के आगे राष्ट्रपिता नहीं जुडा होता तो ऐसे वक्तव्य और उदासीनता फिर भी एकबारगी ना चाहते हुए भी हजम की जा सकती थी. क्योंकि हमारे देश में महापुरुषों के साथ ऐसा ही सलूक किया जाता है. मगर जहां राष्ट्रीयता की बात आती है वहां वाजिब सम्मान तो दिया ही जाना चाहिए.

ऐसा ही हाल हिंदी का भी है, उसे हमारी राष्ट्रभाषा कहा जाता है. कहा जाता है इसलिए कह सकते हैं क्योंकि राष्ट्रीय दर्जे जैसी कोई बात यहां दिखाई नहीं देती. ऐसे मुल्क में जहां हिंदी भाषियों की तादाद सबसे यादा है, वहां अंग्रेजी को सर्वोच्च स्थान पर बैठाया जाता है. आम बोलचाल में भी हिंदी अब पिछड़ती जा रही है. सबसे ताुब की बात को ये है कि जिस सरकार पर हिंदी को मजबूत करने का जिम्मा है वो ही इसे कमजोर बनाने में जुटी है. सरकारी स्तर पर हिंदी को प्रोत्साहित किए जाने वाले कागजी प्रयास भी अब बंद से हो गये हैं. सरकारी कार्यालयों में हिंदी में हर कार्य संभव, हर संभव कार्य हिंदी में जैसी तख्तियां लगाकर फर्ज की इतिश्री कर ली गई है. आलम ये हो चला है कि देश की संसद में भी हिंदी की पूछपरख नहीं है. बहुसंख्य हिंदी आबादी का प्रतिनिधित्वकरने वाले प्रतिनिधि भी राष्ट्रभाषा के इस्तेमाल को तौहीन समझते हैं. अभी कुछ ही रोज पहले जब सदन में चर्चा के दौरान केंद्रीय पर्यावरणमंत्री जयराम रमेश को समाजवादी प्रमुख मुलायम सिंह ने यह याद दिलाया कि वो लंदन की नहीं भारत की संसद में बोल रहे हैं तो उन्होंने अंग्रेजी के बजाए हिंदी में बोलना बेहतर समझा मगर जब बात मेनका गांधी पर आई तो उन्होंने दो टूक शब्दों में हिंदी में बोलने से इंकार कर दिया. अंग्रेजी मौजूदा दौर की जरूरत है इस सच्चाई से मुंह नहीं फेरा जा सकता, पर जहां इसके बिना भी काम चल सकता है वहां तो कम से कम राष्ट्रभाषा के प्रयोग में शर्म महसूस नहीं होनी चाहिए. कुछ एक रायों को छोड़कर बाकी सब जगह के लोग हिंदी समझ-बोल लेते हैं उसके बाद भी संसद में पहुंचने वाले हमारे अधिकतर सांसद अंग्रेजी का मोह नहीं त्याग पाते. इसी वजह से हिंदी भाषी सांसदों के बारे में कहा जाता है कि उन्हें तो हिंदी की बीमारी है. अगर हिंदी को देश में बीमारी के रूप में देखा जाता है तो फिर इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा देने का क्या मतलब, इससे अच्छा तो यही होता कि हिंदी को भी क्षेत्रीय भाषाओं की श्रेणी में रखा जाता. तब शायद इसके तिरस्कार पर यूं मन भारी नहीं होता.

राष्ट्रीयता की तीसरी कड़ी यानी राष्ट्रीयखेल हॉकी भी कुछ अच्छी स्थिति में नहीं है. इसे भी राष्ट्र से जुड़ने की कीमत चुकानी पड़ रही है. इस खेल और इससे जुड़े खिलाड़ियों के साथ हमेशा से ही भेदभाव किया जाता है. उन्हें ना तो राष्ट्रखेल से जुड़ा होने जैसा सम्मान मिल पाता है और ना ही उतनी शौहरत जितनी क्रिकेट में शुरूआती स्तर पर ही मिल जाती है. हॉकी का आज कोई माई-बाप नहीं है. ग्वास्कर, ब्रैडमैन, कपिल देव का नाम अब भी बच्चा-बच्चा बखूबी जानता है मगर ध्यानचंद, केडी सिंह बाबू, अशोक कुमार जैसे नाम अनसुने-अंजाने बनकर रह गए हैं. सही मायनों में देखा जाए तो हॉकी आज गली-मोहल्लों तक ही सीमित रह गई है. चंद रोज पहले पुणे हवाई अड्डे पर हॉकी टीम के खिलाड़ियों के साथ जो बर्ताव हुआ और कुछ वक्त पहले ऑस्ट्रेलिया में उन्हें जो जलालत झेलनी पड़ी, क्या उसके बाद भी हॉकी को राष्ट्र खेल कहा जाना चाहिए. ये बात सही है कि देश में क्रिकेट के चाहने वाले आधिक हैं, हॉकी देखना कम ही लोगों को रास आता है पर इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है. हॉकी अपने आप ही तो रसातल में नहीं चली गई, जाहिर है राष्ट्रीयखेल को प्रोत्साहित करने की जिम्मेदारी उठाने वालों ने हाथ पर हाथ धरे रहने के सिवा कुछ नहीं किया. यदि हॉकी को यूं मरने के लिए नहीं छोड़ा गया होता तो संभवत: आज यह इतनी दयनीय स्थिति में नहीं होती. राष्ट्रपिता, राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीयखेल के साथ हमारे देश में जो कुछ हो रहा है उसे देखकर तो यही लगता है कि अगर इनके आगे राष्ट्रीय नहीं लगा होता तो शायद ये यादा सम्मान पा रहे होते.

Sunday, August 2, 2009

हाशमी साहब मकान के लिए मुस्लिम कार्ड क्यों खेला

नीरज नैयर
बॉलीवुड स्टार इमरान हाशमी आजकल सुर्खियों में हैं, वैसे तो अपनी सीरियल किसर की छवि के चलते वो हमेशा ही छाए रहते हैं लेकिन इस बार मामला थोड़ा पेचीदा है. जनाब आशियाना ढूंढ रहे हैं और जिस घर पर उनका दिल अटक गया है वो उन्हें मिल नहीं रहा. ऐसा तो अक्सर आम लोगों के साथ भी होता रहता पर इमरान का आरोप है कि चूंकि वो मुस्लिम हैं, इसलिए उन्हें वो घर नहीं दिया जा रहा है. हाशमी साहब राय के अल्पसंख्यक आयोग में भी शिकायत कर चुके हैं और उन्होंने सोसाइटी के पदाधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है.

हालांकि उनका ये आरोप शायद ही किसी के गले उतरे, इतना बड़ा स्टार, जिसे लाखों लोग पहचानते हों, उसके साथ फोटो खिंचवाना चाहते हों, हाथ मिलाना चाहते हों वो अगर किसी सोसाइटी में रहने की इच्छा जताता है तो ये मुश्किल ही है कोई इस पर आपत्ति करे. और गर कोई आपत्ति करता भी है तो इसके पीछे घर लेने वाले की व्यक्तिगत छवि उसका चालचलन आदि जैसी सामान्य वजह हो सकती हैं. अमूमन अच्छी सोसाइटी में किसी को घर देने से पहले ये सब देखा जाता है. और वैसे भी घर देना न देना सोसाइटी का अपना निजी फैसला है, अगर उन्हें नहीं लगता कि किसी बड़े स्टार का यहां रहना उनके लिए सुविधाजनक होगा तो उन्हें मना करने का पूरा अधिकार है. जिस तरह की भाषा इमरान हाशमी बोल रहे हैं वह अल्पसंख्यक समुदाय के आम लोगों के मुंह से अक्सर सुनते रहते हैं लेकिन बॉलीवुड अभिनेता के मुंह ये सब सुनना थोड़ा अजीब लगता है.
इमरान की तरह कुछ और स्टार भी हैं जो इस तरह के आरोप लगाते रहे हैं, सैफ अली खान ने भी कुछ वक्त पहले कहा था कि मुस्लिम होने की वजह से घर नहीं मिलता, इसीलिए किसी दिक्कत से बचने के लिए मैं सीधा एक मुस्लिम बिल्डर के पास चला गया. सैफ ये भी मानते हैं कि मुंबई में सांप्रदायिक अलगाव एक हकीकत है, और यह समस्या सिर्फ बिल्डिंग सोसायटीज तक ही सीमित नहीं है बल्कि यहां के पूरे समाज में है. यह सभी को पता है कि मुंबई के जुहू और बांद्रा के इलाकों में जमीन और मकान मुसलमानों को नहीं बेचे जाते. मुझे देखकर आश्चर्य होता है कि कुछ लोगों के लिए धर्म कितना मायने रखता है और धर्म को लेकर लोग कितने कट्टर हैं. सच्चाई यह है कि एक गंदी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है और यही बात इस्लाम पर लागू होती है. सिने अदाकारा एवं समाज सेविका शबाना आजमी ने भी ऐसे ही आरोप लगाए थे, इसके अलावा कई अन्य स्टार भी हैं जो खुद को मुस्लिम होने की वजह से प्रताड़ित महसूस करते हैं. ये बात सही है कि मुंबई के अंधेरी और बांद्रा इलाकों में मुस्लिम कलाकारों को घर खरीदने में हमेशा से दिक्कतें आती रही हैं, कहा जाता है कि सोफी चौधरी को तो मकान खोजने में दो साल लग गए थे, इस दौरान कई बार ऐसा हुआ था कि डील तकरीबन फाइनल हो चुकी थी लेकिन डीलर को जैसे ही पता चला कि सोफी मुस्लिम हैं डील कैंसल हो गई. अरबाज अली खान को बांद्रा के पेरी क्रॉस रोड पर मकान देने से मना कर दिया गया था, इसी तरह से जीनत अमान को जुहू में मकान खरीदने के लिए तकरीबन तीन महीने तक जूझना पड़ा. लेकिन ये भी सही है कि शाहरुख, सलमान जैसे अल्पसंख्य समुदाय से जुड़े कई स्टार बड़े आराम से बिना किसी दिक्कत के साथ मुंबई में रह रहे हैं.

बात थोड़ी चुबने वाली जरूर है पर सच है कि मुस्लिम समुदाय खुद को अपने से अलग समझने की मानसिकता से ग्रस्त है. अगर उनके साथ कुछ गलत होता भी है तो उन्हें यही लगता है कि जाति-धर्म के आधार पर उनके साथ ऐसा हो रहा है, जबकि ऐसा नहीं है. जहां तक घर देने या न देने की बात है तो इस परेशानी से सबको एक न एक दिन दो चार होना पड़ता है, मैं यहां अपनी ही आपबीती का जिक्र करना चाहता हूं, भोपाल जब मैं नौकरी के सिलसिले में गया तो एक अदद कमरा ढूंढने में ही दिन में तारे नजर आ गए. अकेले लड़के को घर देने से यादातर ने साफ मना कर दिया. एक-दो जगह बात बनी भी तो मेरा प्रोफेशन आड़े आ गया. पत्रकारिता से ताल्लुक होने के चलते सबकुछ तय होने के बाद भी गोल-मटोल जवाब देकर चलता कर दिया गया. एक महाश्य से जब मैने फोन पर उनके फ्लैट के संबंध में बात की तो उन्होंने किराया वगैराह सब बता दिया पर जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं पत्रकार हूं तो घर की कटी बिजली, टूट-फूट की दुहाई देकर कुछ महीने बाद के लिए मामला लटका दिया. बहरहाल किसी न किसी तरह बाद में घर मिल ही गया, पर सोचने वाली बात है कि मैं मुसलमान तो नहीं था फिर मेरे साथ भी ऐसा क्यों हुआ. जायज सी बात है ये एक आम समस्या है, सबकुछ मकान मालिक पर निर्भर करता है, यदि उसे लगता है कि फिल्म स्टार, पत्रकार आदि के साथ वो तालमेल बिठा लेगा तो कोई दिक्कत नहीं, यहां मुस्लिम होने या ना होने की बात कहां से आ गई. हाशमी साहब और उनके जैसे कलाकारों से मेरा यही निवेदन है कि हर इक बात को जाति-धर्म के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए. और भी लोग हैं, जिन्हें परेशानी होती है पर वो तो कभी इस आधार पर रोना नहीं रोया करते.