Thursday, June 24, 2010

काश मैं गैस पीड़ित होता

नीरज नैयर
कुछ दिनों के शोर के बाद भोपाल में खामोशी है। गैस त्रासदी पर अदालत के फैसले से उठा तूफान मुआवजे के मरहम के बाद अब थम गया है। मंत्री समूह (जीओएम) ने पीड़ितों के लिए 1332 करोड़ रुपए राहत की सिफारिश की है। इनमें मृतकों के लिए मुआवजा राशि बढ़ाकर दस लाख की गई है, इसका भुगतान पूर्व में दिए जा चुके दो लाख साठ हजार रुपए काट कर किया जाएगा। साथ ही स्थाई रूप से विकलांगों के लिए पांच लाख, आंशिक विकलांगों के लिए एक लाख और कैंसर आदि गंभीर बीमारियों से पीड़ितों के लिए दो लाख मुआवजे का प्रस्ताव रखा गया है।

जीओएम द्वारा प्रधानमंत्री को सौंपी गई रिपोर्ट में कुछ और भी सिफारिशें की गई हैं लेकिन हर किसी का ध्यान केवल मुआवजे पर है। इंसाफ की लड़ाई का दंभ करने वाले मुआवजे को ही इंसाफ मानकर चल रहे हैं। स्थानीय अखबारात धन्यवाद संदेश प्रकाशित कर इसे अपनी जीत बताने में लगे हैं। हर कोई खुश है, 25 साल पहले मिले जख्मों की शिकन तक किसी के चेहरे पर दिखाई नहीं देती। कोई घर खरीदने के सपने बुन रहा है तो कोई चमचमाती गाड़ी का शौक पाले हुए है। महंगाई के इस दौर में मुआवजे की घोषणा उन लोगों के लिए संजीवनी साबित हुई है जिनका नाम हताहतों की सूची में शामिल है। लेकिन जो लोग छूट गए हैं उनके चेहरे पर मायूसी साफ देखी जा सकती है। उन्हें इस बात का मलाल है कि वो गैस पीड़ित क्यों नहीं हैं।

2-3 दिसंबर 1984 की रात जो कुछ भी हुआ उसका हिस्सा कोई नहीं बनना चाहेगा, ये बात बिल्कुल सही है मगर उसके नाम पर जो कुछ लोगों को मिला है वो दूसरों के लिए मलाल की वजह जरूर बन रहा है। पीड़ितों की आड़ में उन लोगों की भी जेबें भरी गईं जिनका गैस त्रासदी से दूर-दूर का नाता नही रहा। क्या नेता, क्या अफसर और क्या आंदोलनकारी हर किसी ने विश्व की इस भीषणम घटना से पैसा बनाया। शहर के लोग भी इस बात को मानते हैं कि राहत की खुराक से उन लोगों तक के पेट भरे गए जो कभी प्रभावित हुए ही नहीं। उस दौर के एक वकील जो अब पेशे से पत्रकार हैं, बताते हैं कि 3-3 हजार में एफीडेविट बनवाकर फर्जी लोगों को पीड़ित बनवाने का गोरखधंधा खूब फला-फूला। वकीलों ने भी दोनों हाथों से बटोरा और नेताओं एवं अफसरों ने भी। वो कहते हैं कि मेरे पास भी कई ऐसे लोग आए जो खुद को पीड़ितों की सूची में शामिल करवाने के ऐवज में मुआवजे की आधी रकम तक देने को तैयार थे। नए भोपाल में नाई का काम करने वाले शकील भी बखूबी बयां करते हैं कि कैसे उनके आस-पड़ोसियों ने खुद को गैस पीड़ित बनाया। ऐसे तमाम मामले होंगे जिनमें शर्तों के आधार पर मुआवजे की बंदरबांट हुई हो। सही मायनों में देखा जाए तो इस पूरे मामले में लड़ाई केवल मुआवजे को लेकर ही चली आ रही है। पीड़ितों के हितैषी मानेजाने वाले संगठन सालों से मुआवजे का रोना रोते रहे हैं।

गैस त्रासदी की बरसी पर हर साल दिल्ली में होने वाले प्रदर्शन सरकार को ये याद दिलाने के लिए किए जाते रहे कि यूनियन कार्बाइड द्वारा तय किए गए मुआवजे की रकम अभी बाकी है। अगर सच में गुनाहगारों को सजा देना यादा अहम होता तो महज मुआवजे की राशि बढ़ाए जाने पर यूं खुशी भरी खामोशी नहीं छाई होती। 25 साल कोई छोटी अवधि नहीं होती, इतने लंबे वक्त में यादे तक धुंधली पड़ जाती हैं लेकिन गैस पीड़ितों के जख्म अब तक नहीं भरे हैं और शायद कभी भरने वाले भी नहीं हैं। इस मुआवजे की रकम के खत्म होते ही इंसाफ की लड़ाई के नारे फिर बुलंद हो जाएंगे। ये लड़ाई कुछ लोगों के लिए कमाई का जरिया बन गई है, इसलिए वो कभी इसे खत्म नहीं होने देंगे। सबको पता है कि न एंडरसन कभी भारत आ पाएगा और न ही दोषियों को सजा सुनाई जा सकेगी।

अगर अदालत भारतीय आरोपियों को 2-2 की जगह 10-10 साल की सजा भी सुनाती तो भी आंदोलन होना तय था। 1996 में ही ये बात साफ हो गई थी कि जिन धाराओं में आरोप तय किए गए हैं उनके मुताबिक मामूली सजा ही होगी। तो फिर इतना हो-हल्ला क्याें मचाया गया। दरअसल इस फैसले ने मुआवजे की चाह रखने वालों के लिए आंदोलन की एक नई जमीन तैयार की, सहानभूति की ऐसी लहर चली कि देशभर में पीड़ितों के हक में आवाजें उठने लगीं। कहीं कैंडल मार्च हुए तो कहीं हस्ताक्षर अभियान चलाए गए। मीडिया ने भी प्रदर्शनकारियों का पूरा साथ दिया। घंटों-घंटों तक स्पेशल एपीसोड दिखाए गए, पुरानी कतरनों को फिर से प्रकाशित किया गया। और अंत में सबकुछ मुआवजे पर जाकर खत्म हो गया। लेकिन किसी ने भी तस्वीर का दूसरा पहलू प्रस्तुत करने की जहमत नहीं उठाई। अगर भोपालवासियों का दिल ही टटोला जाता तो बंदरबांट के कई किस्से सामने आ गए होते।

ये हकीकत है कि जो वास्तव में गैस का शिकार बने वो सरकारी निकम्मेपन के चलते तिल-तिलकर मरते रहे, न तो उन्हें आर्थिक सहायता मिली और न ही उचित इलाज। जिस भोपाल मैमोरियल अस्पताल को गैस पीड़ितों के लिए खड़ा किया गया वहां उन्हें चूहे-बिल्लियों की तरह इस्तेमाल किया गया। तत्कालीन राय और केंद्र सरकारें अमेरिकी रुतबे के आगे एंडरसन के गुनाह को कम करती रहीं। जिसे जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए थे, उसे इात के साथ सरकारी उड़न खटोले में देश से विदा किया गया। लेकिन इतने सालों के बाद गड़े मुर्दे उखाड़कर इंसाफ-इंसाफ चिल्लाने को क्या सही कहा जा सकता है। जो राजनीतिक दल, सामाजिक संगठन और मीडिया आज पीड़ितों की आवाज बनने का दावा कर रहे हैं वो कल तक चुपचाप सबकुछ क्यों देखते रहे। जायज सी बात उनके लिए स्वयं के हित यादा मायने रखते हैं, कल तक ये मुद्दा निर्जीव था मगर आज सबको इसमें फायदा ही फायदा नजर आ रहा है।

इसलिए हर कोई पीड़ितों को इंसाफ दिलाना चाहता है। मैं निजी तौर पर पीड़ितों को मुआवजा दिए जाने के विरोध में बिल्कुल नहीं हू, जिन लोगों ने उस भयानक त्रासदी को करीब से देखा है, उसकी भयावहता को महसूस किया है उन्हें सहायता मिलनी ही चाहिए। लेकिन केवल उन्हीं को जो वास्तव में इसके हकदार हैं। ऐसी त्रासदी को कुछ लोगों के लिए धन उगाही का माध्यम बनने देना उस वक्त बरती गईं लापरवाहियों जितना बड़ा ही अपराध है। मौजूदा वक्त में जरूरत है एक ऐसी व्यवस्था कायम करने की जहां भोपाल गैस कांड की पुनर्रावृत्ति रोकने के तमाम उपाए मौजूद हों, अगर ऐसा हो सका तो शायद फिर किसी को इस बात का मलाल नहीं होगा कि वो पीड़ित क्यों नहीं है। है।