Saturday, September 19, 2009

अफ्रीकी चीतों को क्या सुरक्षित रख पाएंगे हम

नीरज नैयर
अफ्रीकी चीतों के भारत में पुर्नवास की कवायदें तेज हो गई हैं, विशेषज्ञों ने उन स्थानों का चुनाव कर लिया है जहां इन्हें रखा जाना है. फिलहाल चीतों की सुरक्षा को लेकर मंथन का काम चल रहा है जो संभवत: जल्द ही पूरा हो जाएगा. करीब 40 अफ्रीकी चीते भारत लाने की योजना है, जिन्हें राजस्थान के नेशनल डेजर्ट पार्क जैसलमेर एवं बीकानेर के गजनेर, गुजरात के भाल, बनी-कच्छ तथा नारायण सरोवर, मध्य प्रदेश के कुनो-पालपुर, नरुनदेही और छत्तीसगढ़ के संजय-डिबरू नेशनल पार्क में रखा जाएगा. चीते को रहने के लिए कम से कम एक हजार वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र जरूरी होता है, इस हिसाब से बनी और कच्छ वन्यजीव अभयारण्य को प्राथमिकता दी जा सकती है क्योंकि इनका क्षेत्रफल बाकियों के मुकाबले यादा है. यह निहायत ही अच्छी बात है कि नये मेहमान को लाने से पहले उसकी हिफाजत और सहूलियत के लिए कसरत की जा रही है, सरकारी मशीनरी को ऐसी कसरत करते देखना सुखद है लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि क्या इस सारी कवायद से पुर्नवास के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है.


मौजूदा स्थिति को देखकर तो हां में जवाब देना बहुत मुश्किल है. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदरा गांधी ने जिम कार्बेट से बाघ संरक्षण परियोजना की शुरूआत की थी तब से आज तक बाघों के संरक्षण के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जा सके हैं, सरिस्का के बाघ वीहिन होने की खबर ने पूरे देश में प्रोजेक्ट टाइगर सवालिया निशान लगा दिया था, आनन-फानन में कमेटियां बनाई गईं, बाघ सरंक्षण को प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर रखा गया, बाघ फंड की राशि बढ़ा दी गई मगर हालात में सुधार नहीं लाया जा सका. न तो शिकारियों पर लगाम लग पाई और न ही संबंधित सरकारी विभागों को इतना मुस्तैद किया जा सका कि बाघों को बचाने में तत्परता दिखा सकें. सरकार की तरफ से बाघ सरंक्षण को भले ही कागजी तौर पर बड़ी-बड़ी रणनीतियां बनाई गईं हों मगर जिस तरह के परिणाम अब तक देखने को मिले हैं उससे तो यह प्रतीत होता है कि बाघों को खत्म होने से बचाना उसके लिए एक पार्ट टाइम काम जैसा बनकर रह गया है , जिसके पूरा होने न होने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता. इसका सबसे बड़ा कारण मंत्रालयों से लेकर विभागों तक ऐसे मौका परस्त लोगों की मौजूदगी है जिनके लिए बाघ और उनका सरंक्षण महज पैसा बटोरने का जरिया है. उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं कि बाघ बचें या विलुप्त हो जाएं.

जिन रायों में चीतों को रखने की बात हो रही है उनका खुद का पिछला रिकॉर्ड दागदार रहा है, खासकर राजस्थान और मध्यप्रदेश तो वन्यजीवों के सरंक्षण को लेकर बिल्कुल गंभीर नहीं रहे. देश में बाघों के सफाए की सबसे पहली खबर राजस्थान से ही आई थी. राजस्थान की तरह ही मध्यप्रदेश में भी सरकारी उदासीनता के चलते एक-एक करके बाघ खत्म होते गये. अभी हाल ही में बाघ सरंक्षण के नाम पर चल रहे नाटक का एक और सच सामने आया था, जिसमें मध्यप्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व में एक भी बाघ न होने का खुलासा किया गया था, यहां करीब पांच साल यहां 34 बाघ थे. पन्ना में बाघों की कमी की बातें काफी वक्त से उठ रहीं थी लेकिन सरकारी मशीनरी के नकारेपन ने उन पर गौर करना तक मुनासिब नहीं समझा. सरकार की तरफ से हर बार यही झूठ कहा जाता रहा कि बाघ यहां पूरी तरह सुरक्षित हैं, ताकि बाघ सरंक्षण के नाम पर मिलने वाली मोटी रकम को पचाया जा सके. पन्ना की तरह कान्हा का भी कुछ ऐसा ही हाल है, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 2002 में जो रिपोर्ट जारी की थी उसमें कान्हा में बाघों की संख्या 131 बताई गई थी लेकिन 2006-07 तक पहुंचते-पहुंचते यह आंकड़ा 89 तक सिमट गया और अब ऐसी आशंका है कि यहां भी यादा बाघ नहीं बचे हैं. बाघ संरक्षण के प्रति सराकर की उदासीनता का आलम ये रहा है कि यहां लंबे समय से खाली पड़े फारेस्ट रेंजर्स के 50 फीसदी पदाें को भरने का प्रयास ही नहीं किया गया. इस बात पर भी ध्यान देने की कोशिश नहीं की गई कि मौजूदा व्यवस्था कितनी चौकस है.


इन दोनों रायों के अलावा गुजरात और छत्तीसगढ़ में भी चीतों को सुरक्षित आशियाना नसीब हो पाएगा इस बात की संभावना काफी क्षीण हैं. नक्सल प्रभावित राय होने के चलते छत्तीसगढ़ के अभयारण्यों में चीतों के पुर्नवास की बात सोचना भी बेमानी होगा, करीब 34000 वर्ग किलोमीटर में फैले यहां के इंद्रावती टाइगर रिजर्व को कभी बाघों के संरक्षण के लिए उपयुक्त माना जाता था मगर अब यहां नक्सलवादियों का कब्जा है. हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि यहां शायद ही कोई बाघा बचा हो, जबकि 2001 की गणना के अनुसार यहां करीब 29 बाघ थे. नक्सलवादी यहां बड़ी आसानी से बाघों का शिकार कर रहे हैं और उन्हें रोकने वाला कोई नहीं, ऐसा नहीं है कि सबकुछ गुपचुप हो रहा है. वन अधिकारी इस बात को भली भांति जानते हैं मगर नक्सलवादियों का खौफ इस कदर है कि वो जंगल में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते. यह नक्सलवादियों के ही खौफ का असर था कि बाघों की ताजा गणना में राय के अभ्यारण्यों को शामिल नहीं किया गया था. अन्य नक्सल प्रभावित रायों की बात करें तों वहां भी ऐसे ही हालात हैं, उडीसा के सिमिलीपाल और बिहार-नेपाल सीमा से लगे वाल्मीकि टाइगर रिजर्वो का हाल बद से बदतर होता जा रहा है. सिमिलीपाल में 2001 में 99 बाघों की गणना कि गई थी पर अब केवल 20 बाघों के होने का ही अनुमान है. ऐसे ही वाल्मीकि में 2001 में 53 के मुकाबले अब सिर्फ 10 बाघ ही बचे हैं. नक्सली गतिविधियों के चलते इन रिजर्वो में संरक्षण अब नामुमकिन सा हो गया है. 1488 वर्ग किलोमीटर में फैले झारखंड की पलामू में 2001 की गणना के मुताबिक 32 बाघ पाए गये थे लेकिन अब इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता. गुजरात के रिजर्वों से भी जब तक बाघों के शिकार की खबरें आती रहती हैं. इसके साथ ही बाघों के सफाए का एक और प्रमुख कारण है अंधविश्वास. यह भावना प्रचुर मात्रा में जनमानस के मस्तिष्क में बैठा दी गई है कि बाघ के अंग विशेष से निर्मित दवाईयां यौन शक्ति बढ़ाने में कारगर हैं. बाघ, मॉनीटर छिपकलियों और भालू के गॉल ब्लेडर के साथ-साथ अब गौरेया का नाम इस कड़ी में जुड़ गया है. पेड़ों पर चहकती मिल जाने वाली गौरेया को पकड़कर कामोत्तेजक के रूप में बेचा जा रहा है. जिसकी वजह से इनके अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगा है.

बाघों के अलावा शिकारियों ने अब तेंदुओं को भी निशाना बनाना शुरू कर दिया है, 2008 में करीब 141 तेंदुओं का शिकार गया था जबकि 2007 में यह तादाद 124 थी. एक अनुमान के मुताबिक हर साल करीब 150-200 तेंदुए की खाली देश के विभिन्न हिस्सों से बरामद की जाती हैं. दरअसल बाघों की लगतार घटती संख्या से अब तेंदुए की हड्डियों को बाघों की हड्डियों के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. तेंदुए के अंगों का इस्तेमाल भी दवाओं के लिए किया जाता है जिनकी कीमत बहुत यादा होती है. साथ ही इनकी खोपडी अौर पंजों की भी मांग काफी है. चीन और दक्षिण पूर्व एशियाई देश इनके अवैध व्यापार के बडे क़ेंद्र हैं. तेंदुओं को वन्य जीव जंतु संरक्षण कानून 1972 में भी शामिल किया गया है जो उन्हें कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है लेकिन महज कागजों पर. वन्य जीव विशेषज्ञों की मानें तो तेंदुओं की हत्या की दर वर्तमान में बाघों से कहीं यादा है.अन्य पशु-पक्षियों की तरह गेंडे और हाथियों को भी उसके सींगों के लिए लगातार मारा जाता रहा है, गेंड़ों की तदाद तो पहले से ही कम थी अब हाथियों की संख्या में भी तेजी से कमी आ रही है. कुछ वक्त पहले अंग्र्रेजी समाचार पत्र ने इस संबंध में एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की थी, जिसमें बताया गया था कि हाथियों के बारे में भले ही बाघों जैसा ख्याल न आए लेकिन सच ये है कि इनकी संख्या भी घट रही है. कुल मिलाकर कहा जाए तो सरकार की गंभीरता जो उसके विचारों में झलकती है अगर उसका एक प्रतिशत भी काम में झलकता तो शायद चीतों को दूसरे मुल्कों से लाने के बारे में सोचना नहीं पड़ता. लिहाजा मौजूदा वक्त में ये बेहतर होगा कि सरकार चीतों को वहां सुकून से रहने दे और अपने घर में जितने बचे-कुचे वन्यप्राणी हैं उनकी सुरक्षा में मुस्तैदी दिखाए क्योंकि जैसे हालात है वैसे ही चलते रहे तो हमें आने वाले वक्त में न जाने और कितने जीवों को बाहर से लाना पड़ेगा.

Sunday, September 13, 2009

सोच-समझके करें निवेश

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नीरज नैयर
शेयर बाजार में पूंजी लगाने वालाें के लिए मौजूदा वक्त खुशनुमा कहा जा सकता है, सेंसेक्स और निफ्टी दोनों धीरे-धीरे ही सही पर ऊपर की तरफ बढ़ रहे हैं. मंगलवार यानी आठ सितंबर को बाजार खुलते ही सेंसेक्स और निफ्टी इस साल के अब तक के सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच गए, निफ्टी 38.40 अंकों की तेजी के साथ 4800 अंक पार कर गया, जबकि सेंसेक्स 122 की बढ़त लेता हुआ 16139.27 तक जा पहुंचा. बाजार में हर थोड़े अंतराल के बाद इस तरह की बढ़ोतरी निवेशकों का भरोसा कायम रखने के लिए जरूरी है. बाजार ने बीते कुछ समय में बहुत बुरा दौर देखा है, 21-22 हजार के आंकड़े को छूने के बाद जिस तरह से सेंसेक्स ने गोता लगाया था उससे काफी तादाद में निवेशक छिटककर बाजार से दूर चले गये लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता वह फिर लौटने लगे हैं. अब तक अपना हाथ रोककर बैठे नवागान्तुक भी शेयर बाजार के रुख से सहमत होकर निवेश करने लगे हैं, इसी का नतीजा है कि पिछले साल के मुकाबले बाजार इस बार यादा संभला नजर आ रहा है.

2008 में दिवाली के आस-पास बाजार में संन्नाटा पसरा था, लेकिन अब तक जो संकेत मिल रहे हैं उससे कहा जा सकता है कि इस बार की दिवाली अंधकारमय नहीं होगी. शेयर बाजार आज जिस 16 हजार की ऊंचाई पर है, इसका अधारा सही मायनों में देखा जाए तो 18 मई की बढ़त रही, भारतीय शेयर बाजारों के इतिहास में संभवत: पहला मौका था जब बार एक दिन में तीन बार सर्किट लगाए गये. शेयर बाजार में दस प्रतिशत से अधिक की वृध्दि आने पर सर्किट लगाया जाता है. बाजार खुलते ही अप्रत्याशित बढ़त के चलते कारोबार दो घंटे के लिए रोकना पड़ा था इसके बाद 11:55 पर दोबारा शुरू होते ही दोनों प्रमुख सूचकांकों में फिर जबरदस्त तेजी आई. दिन भर में बमुश्किल 10 मिनट की ट्रेडिंग के बाद कुल 17 प्रतिशत बढ़त के साथ कारोबार वहीं रोक देना पड़ा. सेंसेक्स 17.34 प्रतिशत अर्थात 2110.79 अंक उछलते हुए 14254.21 अंकों के स्तर पर जा पहुंचा. निफ्टी ने भी 17.64 फीसदी की बढ़त लेते हुए 4323.15 के स्तर तक दौड़ लगाई. सेंसेक्स में आई ऐतिहासिक तेजी ने निवेशकों को मात्र एक मिनट में 6.5 लाख करोड़ रुपए का फायदा पहुंचाया. हालांकि बाजार को 14000 से 16000 तक पहुंचने में करीब तीन माह का समय लगा जो एक-दो साल पूर्व की रफ्तार के मुकाबले काफी कम है, पर फिर भी यह बढ़त लंबे समय तक छाई खामोशी के गम को कुछ वक्त के लिए दूर करने के लिए काफी है. अगर हम अप्रत्याशित वृध्दि के दौर से पहले की बात करें तो बाजार कछुआ गति से ही बढ़ता था, न कभी उसमें इतना यादा उछाल आता था और न कभी इतनी गिरावट. मगर जब से शार्ट टर्म सट्टेबाजों ने बाजार में दिल खोलकर पैसा लगाना शुरू किया है बाजार में अस्थिरता का संकट अधिक मंडराने लगा है, अक्सर छोटे निवेशक मंदी के दौर में डूबने के डर से बाजार से निकलने की जल्दबाजी में धड़ाधड़ बिकवाली करके बाजार का बैंड बजा देते हैं.

शेयर बाजार का इतिहास रहा है कि जिसने भी बाजार में लंबा टिकने का साहस दिखाया है, मुनाफा भी उसी ने कमाया है. शर्ट टर्म सट्टेबाजों के अलावा बाजार में आने वाले अप्रत्याशित बदलाव का एक और प्रमुख कारण है विदेशी संस्थागत निवेश, विदेशी निवेशक भारतीय शेयर बाजार में मुनाफा कमाने के इरादे से दिलखोलकर निवेश करते हैं, और जब उन्हें घाटे की आशंका दिखलाई देती है तो फटाफट अपना बोरिया बिस्तर समेटकर बाजार को चौपट कर निकल जाते हैं. दरअसल भारतीय बाजार में विदेशी निवेश को लेकर हमारे यहां कोई गाइडलाइन निर्धारित नहीं है. समय-समय पर कई वित्तीय संस्थान और प्रख्यात उद्योगपति राहुल बजाज भी विदेशी निवेश पर नियंत्रण की बात कहते रहे हैं. कुछ वक्त पहले जब बाजार घड़ाम से गिरा था तब इस दिशा में कठोर कदम उठाने की बातें कही गई थी मगर इतना लंबा समय गुजरने के बाद भी ऐसी कोई खबर सुनने को नहीं मिली है.

सरकार इस बात पर खुश भले ही हो सकती है कि बाजार फिलहाल पल में तोला पल में माशा वाली स्थिति में नहीं है, लेकिन आर्थिक मंदी के दौर में जब दुनिया की सबसे मजबूत अर्थव्यवस्था यानी अमेरिकी दिवालियापन के हालात से गुजर रहा है, ऐसी स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती. असल तस्वीर तो तब नजर आएगी जब मंदी का भूत पूरी तरह से पीछा छोड़ देगा. अभी विदेशी निवेशक खुद घाटे में डूबे हुए हैं, और जब वो खुद को इससे उबरने के हालात में पाएंगे तभी भारत की तरफ रुख करने का साहस दिखा पाएंगे. वैसे देखा जाए तो हाल-फिलहाल का वक्त बाजार में पैसा इनवेस्ट करने के लिए सबसे माकूल है, पर फिर भी अंधाधुन हाथ आजमाने की आदत से अभी बचना चाहिए. बिना सोचे समझे और दूसरों की बातों में आकर पैसा फंसाने का निर्णय लेना जोखिम भरा साबित हो सकता है.

बाजार में यदि सही रणनीति एवं पर्याप्त अध्ययन के साथ उतरा जाए तो नुकसान की संभावना काफी कम रहती है. आजकल कुछ ऐसी वेबसाइट भी मौजूद हैं जो इस दिशा में सही मार्गदर्शन करती हैं, कुछ एक तो अपने गुणा-भाग के आधार पर निवेशकों को यह तक बता रही हैें कि किन शेयरों में निवेश करना फायदेमंद हो सकता है. बिजनेसदुनिया डॉट कॉम के आंकलन इस मामले में काफी सटीक जा रहे हैं. सोच-विचारकर निवेश करने वालों के लिए यह वेबसाइट सहायक सिध्द हो सकती है. फिर भी अंत में यह कहना उचित रहेगा कि किसी भी निर्णय तक पहुंचने से पहले अपने विवेक का इस्तेमाल जरूर करें.

Thursday, September 3, 2009

यहां से कितना आगे जाएगी फुटबॉल

नीरज नैयर
हमारी फुटबॉल टीम ने अपने से कहीं गुना ताकतवर सीरिया को हराकर लगातार दूसरी बार नेहरू कप अपने नाम कर लिया, यह अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण उपलब्धि है लेकिन इससे भी यादा महत्वपूर्ण है इस मैच को देखने उमड़ी भीड़. गौर करने वाली बात ये है कि लोगों का हुजूम पश्चिम बंगाल के किसी स्टेडियम में नहीं बल्कि दिल्ली के
आंबेडकर स्टेडियम में देखने को मिला. बंगाल में तो फुटबॉल के प्रति लोगों की दीवानगी जगजाहिर है, मगर दिल्ली में ऐसा नजारा देखना थोड़ा आर्श्च्रयजनक प्रतीत होता है.


स्टेडियम के भीतर-बाहर जमा भीड़ के कारण लोगों को अव्यवस्था की शिकायत करने का मौका भी मिला, अमूमन इस तरह की शिकायतें किसी क्रिकेट मैच के दौरान ही सुनने में आती हैं. पूरे मैच के दौरान दर्शक जिस तरह से भारतीय टीम की हौसला अफजाई कर रहे थे उसे देखकर कतई नहीं लग रहा था कि हमारे देश में फुटबॉल को दोयम दर्जे का खेल समझा जाता है. दोयम दर्जे का इसलिए कह सकते हैं क्योंकि इतने सालों बाद भी यह खेल घर की चारदीवारी से निकलकर अंतरराष्ट्रीय मंच पर पूरी तरह अपनी पहचान बनाने में कामयाब नहीं हो पाया है. फुटबॉल के हमारे देश में यूं अलग-थलग पड़े रहने के कई कारण हैं, जिनपर न तो कभी गौर किया गया और न ही कभी गौर करने की जरूरत समझी गई. यूं तो मौजूदा वक्त में कई क्लब मौजूद हैं जो फुटबॉल को जिंदा रखे हुए हैं लेकिन शायद ही लोगों ने जेसीटी फगवाड़ा और मोहन बगान के अलावा किसी तीसरे क्लब का नाम सुना हो.

कम ही लोग इस बात का जानते होंगे कि भारतीय टीम 1950 के वर्ल्ड कप के फाइनल में जगह बनाने में कामयाब हुई थी, 1951 एवं 1961 के एशियन खेलों में उसे गोल्ड मैडिल हासिल हुआ था, 1956 के मेलर्बोन ओलंपिक में वह चौथे स्थान पर रही, और 2007 में नेहरु कप पर कब्जे के बाद 2008 में उसने तजाकिस्तान को 4-1 से हराकर एफसी चैलेंज कप अपने नाम किया. पश्चिम बंगाल को छोड़ दिया जाए तो बमुश्किल एक-दो लोग ही ऐसे होंगे जो फुटबॉल टीम के खिलाड़ियों से परिचित हों. अकेले भाई चुंग भूटिया ही ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्हें यादातर लोग जानते हैं. पिछले दिनों एक टीवी कार्यक्रम में शिरकत करने से उनकी लोकप्रियता का ग्राफ जरूर थोड़ा बहुत बड़ा होगा. लेकिन इसको लेकर उन्हें क्लब के पदाधिकारियों की नाराजगी का भी सामना करना पड़ा. ये बात अलग है कि भाईचुंग ने दबने के बजाए खुलकर अपनी बात रखी और वह उल्टा दबाव बनाने में कामयाब भी रहे, मगर यह घटनाक्रम क्रिकेट और फुटबॉल के बीच के अंतर को बयां करने के लिए काफी है. क्रिकेटर प्रेक्टिस सेशन बीच में छोड़कर विज्ञापनों की शूटिंग में व्यस्त रहते हैं तो भी उनके खिलाफ कुछ नहीं किया जाता, शायद बोर्ड खुद भी खाओ और हमें भी खाने दो की पॉलिसी पर यकीन करता है. कायदे में तो किसी एक खेल की दूसरे के साथ तुलना कतई उचित नहीं है और ऐसा होना भी नहीं चाहिए लेकिन जिस तरह से क्रिकेट के बरगद तले बाकी खेलों की आहूति दी जा रही है उससे तुलनात्मक विश्लेषण की परंपरा का जन्म हुआ है.


क्रिकेट को लेकर हमारे देश में यह तर्क दिया जाता है कि ये खेल लोगों को सर्वाधिक पसंद है और वो इसके अलावा कुछ और देखना ही नहीं चाहते, अगर इस तर्क में तनिक भी सच्चाई होती तो अंबेडकर मैदान पर लोगों की हुजूम न उमड़ता. हकीकत ये है कि काफी हद तक लोग क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों का भी आनंद उठाना चाहते हैं लेकिन प्रोत्साहन की कमी से उन्हें क्रिकेट तक ही सीमित रहना पड़ता है. क्रिकेट के स्वरूप को बदलने और उसे अत्याधिक रोमांचित बनाने के लिए नित नए प्रयोग किए जाते हैं. इंडियान प्रीमियर लीग यानी आईपीएल बीसीसीआई का सफलतम प्रयोग है, हालांकि जी टीवी के मालिक सुभाष चंद्रा को इसका जन्मदाता कहा जाए तो कुछ गलत नहीं होगा. सबसे पहले सुभाष चंद्रा ने ही भारत के कैरीपैकर बनते हुए आईसीएल का ऐलान किया था लेकिन बीसीसीआई के पैंतरों के आगे उनकी यह पहल सफल नहीं हो पाई और ललित मोदी ने आईसीएल की तर्ज पर आईपीएल खड़ा कर डाला जो आज कॉर्पोरेट घरानों और खुद बोर्ड के लिए कमाई का सबसे बड़ा जरिया बन गया है. खिलाड़ी भी इसमें करोड़ों-अरबों के वारे-न्यारे कर रहे हैं.

बीसीसीआई के कहने पर ही दूसरे देशों के क्रिकेट बोर्ड ने आईसीएल को मान्यता नहीं दी और वह खडे होनेसे पहले ही लड़खड़ा गया. लेकिन इस तरह का प्रोत्साहन और प्रतिद्वंद्वता का नजारा फुटबॉल में राष्ट्रीय स्तर पर कभी देखने को नहीं मिला. क्रिकेटर जहां अलग-अलग रायों में विभाजित होने के बाद भी राष्ट्रीय स्तर पर एक टीम की तरह दिखाई पड़ते हैं, ऐसा फुटबॉल टीम को देखकर कतई प्रतीत नहीं होता. मौजूदा दौर में तो ऐसा लगता है जैसे फुटबॉल महज अलग-अलग क्लब का ही खेल बनकर रह गया है. जिसके प्रोत्साहन और सुधार का जिम्मा सिर्फ उन क्लबों पर ही है. अगर फुटबॉल फेडरेशन या खेल मंत्रालय इस खेल को राष्ट्रीय स्तरीय खेल की तरह लेते तो शायद इसको ऊपर उठाने के लिए कुछ न कुछ प्रयास जरूर किए जाते.