Sunday, November 6, 2011

बेहयाई न पालो मनमोहनजी जनता भी ऐसे ही पेश आएगी



नीरज नैयर
सरकार के मुखिया कहते हैं कि महंगाई बढऩे की वजह आम आदमी है, यानी वो आम आदमी जिसके वोटों के बल पर कांग्रेस सत्ता में आई और मनमोहन पीएम बने खुद ही महंगाई बढ़ा रहा है और खुद ही आंसू बहा रहा है। बकौल मनमोहन, लोग पहले के मुकाबले ज्यादा कमाने लगे हैं, ज्यादा कमा रहे हैं इसलिए ज्यादा खा रहे हैं नतीजतन महंगाई बढ़ रही है। कल तक सीधे साधे अर्थशास्त्री के तौर पर पहचाने जाने वाले मनमोहन इतने बेहया हो गए हैं कि इसे भी सरकार की उपलब्धि बता रहे हैं। उनको लगता है कि सरकार की सामाजिक सुधारों वाली योजनाओं के बल पर ही गरीबों के हाथ में पैसा आने लगा है। इस बयान के बाद तो गुस्से से ज्यादा सरकार के इस मुखिया की अक्ल पर तरस आती है, कमाई बढ़ी है और निश्चित तौर पर बढ़ी है, लेकिन किसकी। हर आदमी को तो महंगाई भत्ता नहीं मिलता, सरकारी मुलाजिमों को वोट की चाह में सरकार महंगाई से मुकाबले के लिए कुछ ताकत दे देती है मगर बाकी का क्या। उन बेचारों को तो जितनी कमाई है उसी में काम चलाना है, और वैसे भी एक औसत आम आदमी की तनख्वाह में सालाना कितना इजाफा होता है, ये बात अब अच्छे से जानते हैं।

दरअसल बेशर्मी की चादर ओढ़ चुके मनमोहन और उनके मंत्रियों के लिए महंगाई डायन अब भी फिल्मों तक ही सीमित है, गाड़ी पर लाल बत्ती लगने के बाद से उन्होंने बाजार का हाल जानना ही बंद कर दिया होगा। फिर उन्हें चढ़ती कीमतों से मायूस होते आम आदमी की मुझाई सूरत भला क्या नजर आएगी। मनमोहन खुद किसी प्राइवेट नौकरी से घर की गाड़ी चला रहे होते तो उन्हें आटे-दाल के भाव पता चलते, लेकिन अफसोस कि ऐसी स्थिति कभी आने वाली नहीं है। दूसरी बार सत्ता संभालने के बाद यूपीए सरकार का पूरा कुनबा लगता है अपने घर भरने में ही लगा हुआ है, यदि ऐसा न होता तो पूरी सरकार में कोई एक तो अपनी गलतियों को स्वीकारता। सोनिया गांधी, राहुल गांधी से लेकर शरद पवार, प्रणब मुखर्जी और मनमोहन सिंह तक सब अपनी नाकामयाबियों के लिए कभी मौसम तो कभी आम आदमी की संपन्नता को दोष देते रहे हैं। पिछले मौसम में कहा गया, बादलों की बेरुखी ने महंगाई को आग लगाई और अब जनता की आमदनी पर नजरें गढ़ाई जा रही हैं। चंद रोज पहले कांग्रेस के भावी प्रधानमंत्री ने महंगाई के लिए गठबंधन की मजबूरी का रोना रोया था, रोना रोते-रोते अपनी बात साबित करने के लिए वो इंदिरा गांधी के कार्यकाल तक पहुंच गए थे। वो ये बताना चाहते थे कि उस वक्त एक पार्टी का राज होने के चलते कीमतें आसमान नहीं जमीं पर थीं, लेकिन बेचारे राहुल शायद भूल गए हैं कि उनकी दादी के शासनकाल में महंगाई और भ्रष्टाचार का आलम मौजूदा सरकार जैसा ही था। तभी तो 'देखो इंदिरा का खेल, खा गई राशन, पी गई तेलÓ जैसे नारों की गूंज कांग्रेस नेतृत्व की परेशानी बन गई थी। महंगाई और भ्रष्टाचार रोकने के लिए यूपीए सरकार ने सिर्फ और सिर्फ वादे किए, ठीक ऐसे ही वादे उसके नेताओं ने चुनावी संग्राम के वक्त जनता के आगे हाथ जोड़कर किए थे।

कांग्रेस नीत गठबंधन ने जब सत्ता संभाली महंगाई का मिजाज इतना तल्ख नहीं था, हालांकि राजग के कार्यकाल में भी प्याज ने आंसू निकाले मगर हालत बेकाबू जैसे फिर भी नहीं थे। आटे-दाल से लेकर फल-सब्जियों तक आज सबकुछ आम आदमी की पहुंच से दूर होता जा रहा है। दूध जैसे पद्धार्थ की कीमत ही चार सालों में सौ प्रतिशत बढ़ी है, जबकि इन्हीं चार सालों में इसके उत्पादन में चार प्रतिशत का इजाफा हुआ है। चार साल पहले जो घी 150-160 के आसपास था, आज 300 रुपए प्रति किलो के करीब बिक रहा है। आमतौर पर माना जाता है कि सर्दियों के वक्त सब्जियों के दाम नीचे आ जाते हैं, लेकिन इस बार पूरी सर्दियां प्याज और टमाटर के दाम सुनते-सुनते ही निकल गईं, प्याज की कीमतों के लिए सरकार ने नासिक में होने वाली बरसात को दोषी बताया। जबकि वहां के किसानों तक ने बारिश के नुकसान को इतना बड़ा मानने से मना कर दिया था। जब भी महंगाई की बात आती है सरकार उत्पादकता और मांग के अंतर का रोना रोने लगती है, पर हकीकत में उचित भंडारण के अभाव में हर साल लाखों टन अनाज, फल-सब्जियां सड़ जाती हैं।

सरकार खुद भी सालाना 58 हजार करोड़ रुपए का अनाज बर्बाद होने की बात स्वीकार चुकी है। ऐसे में कम उत्पादन का सवाल ही ऐसे उठता है, साफ है कि सरकार के मुखिया और उनके मंत्रियों की दिलचस्पी वातानुकूलित कमरों से बाहर निकलकर हालात का पता लगाने में बिल्कुल भी नहीं है। जिसके जैसे मन में आ रहा है, वो वैसे ही नीतियों-नियमों को तोड़मरोड़कर अपनी सेहत सुधारने में लगा है। पिछले साल जब चीनी की कीमतें सारे रिकॉर्ड तोडऩे पर अमादा थीं, तब ही सरकार की धन्ना सेठों का फायदा पहुंचाने वाली नीति उजागर हो गई थी। गन्ने की उपज सामान्य होने के बावजूद 12 रुपए की दर से तकरीबन 48000 टन चीनी का निर्यात किया गया। जब बाजार में चीनी की किल्लत से दाम आसमान पर पहुंचने लगे और विपक्ष हो-हल्ला करने लगा तब सरकार ने चीनी के आयात का फैसला लिया। ये आयात 27 रुपय प्रति किलो के हिसाब से किया गया। यानी जो चीनी हम सस्ते में दूसरे मुल्कों को दे रहे थे उसकी ही हमने दोगुने से ज्यादा कीमत चुकाई। प्याज के मामले में भी सरकार ने ऐसा ही किया, पहले पाकिस्तान आदि को भर-भर के प्याज पहुंचाई गई और बाद में उन्हीं से आयात करनी पड़ी। सरकार में बैठने वालों से ज्यादा अक्ल तो एक गृहणी में होती है, उसे पता होता है कि कौन सा सामान कब तक खत्म हो सकता है। बिन बुलाए मेहमानों की आवभगत के बावजूद वो घर की गाड़ी पटरी से उतरने नहीं देती, लेकिन अर्थशास्त्री कहलाने वाले मनमोहन और उनके दूसरे साथी इतना भी हिसाब नहीं रख सके कि अपना हिस्सा दूसरों को देने से कहीं हम खुद ही भूखे न रह जाएं। आयात-निर्यात के खेल में सरकार उन सालों की कसर पूरी कर रही है जो उसने सत्ता में आने के इंतजार में गुजारे। किसी भूखे को अगर खाना मिल जाए तो वो पेट भरने के बाद भी उसे तब तक खाता रहता है जब तक कि खाना खत्म न हो जाए, मनमोहन सरकार का हाल भी कुछ ऐसा ही लग रहा है। शायद उसे लगने लगा है कि भ्रष्टाचार और महंगाई के विस्फोटों के बाद उसका पुन: सत्ता में लौटना मुमकिन नहीं इसलिए जितना बटोर सकते हो बटोर लो। जिस सरकार को आम आदमी के लिए दी जाने वाली सब्सिडी ही बोझ लग रही हो, उसके खुद के मंत्री करोड़ों के घोटाले कर रहे हैं। यह मानना बहुत मुश्किल है कि इन घोटालों में वो बड़े-बड़े नाम शामिल नहीं होंगे जो कार्रवाई का ढोंग रच रहे हैं। कॉमनवेल्थ के करप्शन किंग कलमाड़ी और स्पेक्ट्रम के करप्ट राजा क्या अकेले बिना ऊपर वालों को विश्वास में लिए इतना बड़ा खेल कर सकते हैं, सोचने में ही अटपटा लगता है। कलमाड़ी तो साफ-साफ कह चुके हैं कि उन्होंने जो कुछ भी किया अकेले नहीं किया, फैसले सब मिल बैठकर लिया करते थे। सरदारजी और सोनिया गांधी जनता को बेवकूफ समझ रहे हैं, एक घोटालों और महंगाई पर बेहयाई वाले बयानों का समर्थन करता है तो दूसरा चिंता जताकर गंभीर होने का ढोंग। मगर दोनों शायद भूल गए हैं कि जल्द ही उन्हें फिर से हाथ जोड़कर वोट के लिए दर-दर भटकना पड़ेगा, और तब शायद जनता भी उनसे ऐसे ही पेश आए जैसा कि वो सत्ता में आने के बाद आते रहे हैं।