नीरज नैयर
चुनावी समर में वादे, घोषणाएं और सौगातों की बरसात न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता. सत्तासीन सरकार की दरयादिली चुनाव के वक्त ही नजर आती है. किसानों के कर्ज माफी, वेतन आयोग की सिफारिशों को मंजूरी और अभी हाल ही में सरकारी उपक्रमों के कर्मचारियों के वेतन में भारी-भरकम वृद्धि केंद्र सरकार की पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और आने वाले लोकसभा चुनाव में हित साधने की कवायद का ही हिस्सा है. लेकिन इस कवायद में आम जनता की अनदेखी का सिलसिला भी बदस्तूर जारी है.
महंगाई के आंकड़े खुद ब खुद राजनीति के शिकार होने की दास्तां बयां कर रहे हैं. जो मुद्रास्फीति चांद के पार जाने को आमादा थी वो चुनाव आते ही यकायक पाताल की तरफ कैसे जाने लगी यह सोचने का विषय है. वैसे सोचने का विषय न भी होता अगर बढ़े हुए दाम भी महंगाई दर के साथ नीचे आ जाते, पर अफसोस की ऐसा कुछ होता दिखाई नहीं दे रहा. अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में लगी आग और कंपनियों को हो रहे वित्तीय घाटे का हवाला देते हुए केंद्र सरकार कई बार पेट्रोल-डीजल के दामों में अप्रत्याशित वृद्धि कर चुकी है. लेकिन अब जब कच्चा तेल 45 डॉलर प्रति बैरल पर सिमट गया है तब भी सरकार मूल्यों में कमी करके जनता के भार को हल्का करने की जहमत नहीं उठा रही. जब सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह स्वयं कह चुके हैं कि दाम नहीं घटेंगे तो फिर आम जनता को अपने चुनावी तोहफे की बांट जोहना छोड़ देना चाहिए. इसी साल 11 जुलाई को अंतरराष्ट्रीय तेल बाजार में कच्चे तेल की कीमत 147.27 डॉलर प्रति बैरल पहुंच गई थी, इसके बाद सरकार ने मजबूरी प्रकट करते हुए पेट्रोल-डीजल के मूल्यों में बढ़ोतरी का ऐलान किया था. सरकार ने तर्क दिया गया था कि घाटा इतना बढ़ गया है कि कीमतें थाम पाना असंभव है. सरकार की योजना तो मार्च 2009 तक हर महीने पेट्रोल की कीमत में प्रति लीटर ढाई रुपये और डीजल में 2010 तक 75 पैसे वृध्दि की थी मगर वो उसमें सफल नहीं हो पाई.
बीच में भी जब तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 65 डॉलर प्रति बैरल के नीचे पहुंच गई तब भी दाम घटाने की खबरों का सरकार ने खंडन किया था. तब कहा गया कि अभी पुराना घाटा ही पूरा किया जा सका है. यह भी कहा गया था कि तेल कंपनियां वास्तविक लाभ की स्थिति में तब आएंगी, जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत 60 डॉलर पर पहुंच जाएगी, लेकिन अब तो कच्चा तेल सरकार द्वारा बताई गई कीमत से काफी नीचे आ गया है लेकिन केंद्र को अब भी परेशानी हो रही है. सरकार को डर है कि तेल की कीमत में फिर उछाल आ सकता है जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में माना जा रहा है कि आने वाले दिनों मे कीमतें और नीचे जाएंगी. दुनिया भर में छाई आर्थिक मंदी से पूर्व यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि कच्चे तेल की कीमतें 200 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं. लेकिन मौजूदा दौर में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता. अमेरिका और यूरोपीय बाजारों में आर्थिक मंदी के चलते तेल की मांग घटने से ही कीमतों में गिरावट का रुख है और तेल उत्पाद देश पहले ही उत्पादन बढ़ा चुके हैं. दुनिया भर के तमाम विशेषज्ञ भी कह चुके हैं कि हाल-फिलहाल मंदी के महमानव से छुटकारा नहीं मिलने वाला ऐसे में तेल की कीमतों में इजाफा होने की बात बेमानी है.
दरअसल सरकार का सारा ध्यान इस बात लोक-लुभावन घोषणाएं करके अपने पक्ष में माहौल बनाने पर है. इसलिए उसने विधानसभा चुनावों से ऐन पहले सरकारी उपक्रमों के कर्मचारियों के वेतनमानों में 300 फीसदी तक की बढाेतरी की है. तेल की राजनीति हमारे देश में शुरू से ही होती रही है. एनडीए सरकार के कार्यकाल में भी कीमतों के घोड़े खूब दौड़ाए गये थे लेकिन गनीमत यह रहती थी कि सरकार ने रोलबैक का प्रावधान भी खोल रखा था. ममता बनर्जी के तीखे विरोध के बाद अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को एक बार कदम कुछ वापस खींचने पड़े थे. सरकारें हमेशा तेल पर नुकसान का रोना रोती रहती हैं जबकि कहा जा रहा है कि एक लीटर पेट्रोल में उसे दस रुपये से ज्यादा का मुनाफा होता है. टैक्स की मार भी हमारे देश में सबसे ज्यादा है जिसके चलते तेल उत्पादों की कीमतें अन्य देशों के मुकाबले ऊंची रहती हैं. मौजूदा हालात में जहां चीन ने पेट्रोल-डीजल कीमतों में कुछ कमी कर दी हमारी सरकार अत्याधिक मुनाफा कमाकर अपने चुनावी हित साधने में लगी है.
नीरज नैयर
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