Monday, February 22, 2010

मुंबई की महाभारत: दुर्योध्न, धृतराष्ट्र और गांधारी

नीरज नैयर

मुंबई में महाभारत का नया अध्याय शुरू हो गया है, इस बार दुर्योध्न के रूप में बाल ठाकरे ने री-एंट्री मारी है। इससे पहले उनके भतीजे राज ठाकरे इस किरदार में नजर आ चुके हैं। बीच-बीच में उध्दव ठाकरे भी खुद को दुर्योध्न साबित करने की कोशिशें करते रहते हैं, ये बात अलग है कि उन्हें उतनी पब्लिसिटी नहीं मिल पाती। देखा जाए तो मुंबई एक तरह से ठाकरे परिवार की रणभूमि हो गई है, कभी चाचा-भतीजा मिलकर गैरमराठियों के साथ पांडवाें जैसा बर्ताव करते हैं तो कभी आमने-सामने आकर अपनी शक्ति का अहसास कराते हैं। महाभारत में तो पांडवों के उध्दार के लिए श्रीकृष्ण मौजूद थे, मगर इस कलयुग में उत्तर भारतीयों की रक्षा के लिए कोई नहीं कृष्ण नहीं है। राय सरकार सबकुछ जानते हुए भी गांधारी की तरह आंखों पर पट्टी बांधकर बैठी है, और केंद्र सरकार ने धृतराष्ट्र का रूप अख्तियार कर लिया है। अब ऐसे में कौरवों की जीत होना स्वभाविक है, इसलिए वो हर बाजी जीतते जा रहे हैं। मुंबई की महाभारत में ताजा अध्याय शाहरुख खान के उस बयान को लेकर सुर्खियों में आया जिसमें उन्होंने पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ियों के आईपीएल में न चुने जाने पर दुख जाहिर किया। वैसे ये बात सोचने वाली है कि अगर शाहरुख को इतना ही दुख था तो उन्होंने अपनी टीम के लिए पाक खिलाड़ियों को क्यों नहीं चुना, चुन लेते तो इतना सब होता ही नहीं। खैर जो नियति में लिखा है वो तो होना ही है, नियति में लिखा था कि वृध्दावस्था में पहुंच चुके बाल ठाकरे युवा दुर्योध्न का किरदार निभाएंगे सो निभा रहे हैं। सीनियर दुर्योध्न को किसी शकुनी की जरूरत नहीं, वो अपने पासे खुद ही फेंकने में विश्वास रखते हैं। इसलिए उन्होंने शाहरुख के बयान के तुरंत बाद बिना कोई पल गंवाए भागवाधारी सैनिकों को उत्पात मचाने का आदेश दे डाला। हर बार की तरह सैनिकों ने कुछ कांच तोड़े, पोस्टर जलाए, नारेबाजी की और जता दिया कि कलयुग में सिर्फ कौरवों की चलती है। इस महाभारत में सबसे अनोखी और अच्छी घटना ये रही है कि गांधारी बनी राय सरकार ने पहली दफा दुर्योध्न के खिलाफ कदम उठाने का प्रयास किया, लेकिन अफसोस की बात ये रही कि उसका यह कदम अच्छाई-बुराई को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि राजनीतिक नफे-नुकसान का आकलन कर उठाया गया। एक फिल्म के लिए सरकार जितनी मशक्कत करती नजर आई, अगर उसका एक फीसदी भी उत्तरभारतीयों को राज के कहर से बचाने के लिए किया जाता तो निश्चित तौर पर जूनियर ठाकरे कभी दुर्योध्न जैसी हैसीयत हासिल नहीं कर पाता। जिस वक्त राज ठाकरे के गुंडे उत्तर भारतीयों, बिहारियों को चुन-चुनकर निशाना बना रहे थे, राय सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी थी। दरअसल भतीजे को ताकतवर बनाकर कांग्रेस और एनसीपी चाचा की राजनीतिक जमीन हथियाना चाहते थी और वो काफी हद तक उसमें कामयाब भी हुए। इस बार के विधानसभा चुनाव में शिवसेना को काफी नुकसान उठाना पड़ा, इस नुकसान के पीछे कांग्रेस-एनसीपी नहीं बल्कि राज ठाकरे की पार्टी मनसे रही। उसने शिवसेना के गढ़ माने जाने वाले इलाकों में सीट हासिल की। हालांकि राज को कोई यादा बड़ी सफलता नहीं मिल सकी, मगर उसने चाचा का खेल जरूर खराब कर दिया। कहा जा रहा है कि ठाकरे और शाहरुख के बीच के विवाद में राज के कूदने के पीछे भी कांग्रेस का हाथ है। ये सोच कर तााुब होता है कि एक राय सरकार के लिए लोगों की जान से यादा फिल्म की रिलीज महत्वपूर्ण हो सकती है। यदि सीनियर ठाकरे की जगह जूनियर ठाकरे ही दुर्योध्न की भूमिका में होते तो न तो धृतराष्ट्र अपनी आदत बदलता और न गंधारी आंखों से पट्टी हटाती। केंद्र सरकार ने भी इस बार मुंबई की महाभारत में यादा रुचि दिखाई, राहुल गांधी सीनियर दुर्योध्न की धमकी को हवा में उड़ाते हुए मुंबई में जमकर घूमें। उन्होंने एटीएम से पैसे निकाले, लोकल ट्रेन में सफर किया और देशवासियों को बताने का प्रयास किया कि मुंबई सबकी है। दूसरे दिन मुल्क भर के मीडिया ने उन्हें अर्जुन की संज्ञा दे डाली, उनके ट्रेन के सफर को चक्रव्यूह तोड़ने जैसा करार दिया। मुंबई सबकी है राहुल इस बात को आसानी से कह सकते हैं, राहुल क्या एक आम आदमी भी इतनी सुरक्षा के बीच सीना चौड़ाकर दंभ से कह सकता है कि मुंबई उसकी जागीर है। क्या कांग्रेस का यह अर्जुन आम उत्तर भारतियों की तरह मुंबई जाकर इस तरह की बातें कर सकता है, शायद नहीं। शाहरुख खान को कांग्रेस का करीबी माना जाता है, और कांग्रेस इस कोशिश में भी लगी है कि बॉलिवुड के नायक को बॉक्स आफिस की जगह सियासत के अखाड़े में कैश करवाया जाए। इसलिए उनकी फिल्म को आम आदमी से यादा सुरक्षा मिलनी ही थी। राय के मुख्यमंत्री अशोक चाह्वाण खुद इस मामले को बारीकि से देख रहे थे, फिल्म के प्रदर्शन में बाधा बनने वालों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किए जाने की चेतावनी दी गई थी। अब ऐसे में फिल्म को धमाकेदार शुरूआत मिलना जायज है। टिकट खिड़की पर माई नेम इज खान की सफलता को मीडिया में ठाकरे की हार के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, महाभारत में दुर्योध्न की हार में धृतराष्ट्र की कोई भूमिका नहीं थी लेकिन कलयुग में धृतराष्ट्र और गांधारी ने मिलकर दुर्योध्न को शिकस्त दी है। इसलिए ये खबर बनती है, मगर इस खबर के बनने के पीछे की कहानी को प्रमुखता देना भी मीडिया का कर्तव्य बनता है। हर कोई ठाकरे बनाम शाहरुख की जंग के उतार-चढ़ाव को दिखाता रहा, पढ़ाता रहा लेकिन किसी ने राय और केंद्र सरकार के हृदय परिवर्तन पर फोकस करने की जरूरत नहीं समझी। यह भी खबर बननी चाहिए थी कि जो सरकार बेकसूर लोगों को प्रताड़ित होते देख सकती है, वह फिल्म के पोस्टर फड़ते क्यों नहीं देख पाई। अगर सत्ता में बैठे लोग कानून व्यवस्था दुरुस्त रखने को इतनी ही तवाो देते हैं तो उन्हें राज ठाकरे को भी रोकना चाहिए था, उसे भी नकेल पहनानी चाहिए थी। यह निहायत ही शर्मनाक है राजनीतिज्ञ भोले-भाले लोगों के शव पर बैठकर राजनीति कर रहे हैं। महाभारत के इस अध्याय ने न सिर्फ धृतराष्ट्र और गांधारी बने बैठी सरकारों की असलीयत उजागर की है, बल्कि मीडिया की पथभ्रमिता पर भी प्रकाश डाला है। यह हर मायने में अच्छी बात है कि सरकार ने ठाकरे के मंसूबों को चकनाचूर कर दिया, लेकिन यह और भी अच्छी होती अगर राज के संबंध में भी ऐसे ही कदम उठाए होते। महज राजनीतिक हित साधने के लिए राज ठाकरे को खुलेआम कुछ भी करने की आजादी देना कहां तक जायज है। यह सवाल सरकार से पूछे ही जाने चाहिए।

मुंबई की महाभारत: दुर्योध्न, धृतराष्ट्र और गांधारी

नीरज नैयर

मुंबई में महाभारत का नया अध्याय शुरू हो गया है, इस बार दुर्योध्न के रूप में बाल ठाकरे ने री-एंट्री मारी है। इससे पहले उनके भतीजे राज ठाकरे इस किरदार में नजर आ चुके हैं। बीच-बीच में उध्दव ठाकरे भी खुद को दुर्योध्न साबित करने की कोशिशें करते रहते हैं, ये बात अलग है कि उन्हें उतनी पब्लिसिटी नहीं मिल पाती। देखा जाए तो मुंबई एक तरह से ठाकरे परिवार की रणभूमि हो गई है, कभी चाचा-भतीजा मिलकर गैरमराठियों के साथ पांडवाें जैसा बर्ताव करते हैं तो कभी आमने-सामने आकर अपनी शक्ति का अहसास कराते हैं।

महाभारत में तो पांडवों के उध्दार के लिए श्रीकृष्ण मौजूद थे, मगर इस कलयुग में उत्तर भारतीयों की रक्षा के लिए कोई नहीं कृष्ण नहीं है। राय सरकार सबकुछ जानते हुए भी गांधारी की तरह आंखों पर पट्टी बांधकर बैठी है, और केंद्र सरकार ने धृतराष्ट्र का रूप अख्तियार कर लिया है। अब ऐसे में कौरवों की जीत होना स्वभाविक है, इसलिए वो हर बाजी जीतते जा रहे हैं।

मुंबई की महाभारत में ताजा अध्याय शाहरुख खान के उस बयान को लेकर सुर्खियों में आया जिसमें उन्होंने पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ियों के आईपीएल में न चुने जाने पर दुख जाहिर किया। वैसे ये बात सोचने वाली है कि अगर शाहरुख को इतना ही दुख था तो उन्होंने अपनी टीम के लिए पाक खिलाड़ियों को क्यों नहीं चुना, चुन लेते तो इतना सब होता ही नहीं। खैर जो नियति में लिखा है वो तो होना ही है, नियति में लिखा था कि वृध्दावस्था में पहुंच चुके बाल ठाकरे युवा दुर्योध्न का किरदार निभाएंगे सो निभा रहे हैं। सीनियर दुर्योध्न को किसी शकुनी की जरूरत नहीं, वो अपने पासे खुद ही फेंकने में विश्वास रखते हैं। इसलिए उन्होंने शाहरुख के बयान के तुरंत बाद बिना कोई पल गंवाए भागवाधारी सैनिकों को उत्पात मचाने का आदेश दे डाला। हर बार की तरह सैनिकों ने कुछ कांच तोड़े, पोस्टर जलाए, नारेबाजी की और जता दिया कि कलयुग में सिर्फ कौरवों की चलती है। इस महाभारत में सबसे अनोखी और अच्छी घटना ये रही है कि गांधारी बनी राय सरकार ने पहली दफा दुर्योध्न के खिलाफ कदम उठाने का प्रयास किया, लेकिन अफसोस की बात ये रही कि उसका यह कदम अच्छाई-बुराई को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि राजनीतिक नफे-नुकसान का आकलन कर उठाया गया।

एक फिल्म के लिए सरकार जितनी मशक्कत करती नजर आई, अगर उसका एक फीसदी भी उत्तरभारतीयों को राज के कहर से बचाने के लिए किया जाता तो निश्चित तौर पर जूनियर ठाकरे कभी दुर्योध्न जैसी हैसीयत हासिल नहीं कर पाता। जिस वक्त राज ठाकरे के गुंडे उत्तर भारतीयों, बिहारियों को चुन-चुनकर निशाना बना रहे थे, राय सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी थी। दरअसल भतीजे को ताकतवर बनाकर कांग्रेस और एनसीपी चाचा की राजनीतिक जमीन हथियाना चाहते थी और वो काफी हद तक उसमें कामयाब भी हुए। इस बार के विधानसभा चुनाव में शिवसेना को काफी नुकसान उठाना पड़ा, इस नुकसान के पीछे कांग्रेस-एनसीपी नहीं बल्कि राज ठाकरे की पार्टी मनसे रही। उसने शिवसेना के गढ़ माने जाने वाले इलाकों में सीट हासिल की। हालांकि राज को कोई यादा बड़ी सफलता नहीं मिल सकी, मगर उसने चाचा का खेल जरूर खराब कर दिया। कहा जा रहा है कि ठाकरे और शाहरुख के बीच के विवाद में राज के कूदने के पीछे भी कांग्रेस का हाथ है। ये सोच कर तााुब होता है कि एक राय सरकार के लिए लोगों की जान से यादा फिल्म की रिलीज महत्वपूर्ण हो सकती है। यदि सीनियर ठाकरे की जगह जूनियर ठाकरे ही दुर्योध्न की भूमिका में होते तो न तो धृतराष्ट्र अपनी आदत बदलता और न गंधारी आंखों से पट्टी हटाती। केंद्र सरकार ने भी इस बार मुंबई की महाभारत में यादा रुचि दिखाई, राहुल गांधी सीनियर दुर्योध्न की धमकी को हवा में उड़ाते हुए मुंबई में जमकर घूमें। उन्होंने एटीएम से पैसे निकाले, लोकल ट्रेन में सफर किया और देशवासियों को बताने का प्रयास किया कि मुंबई सबकी है। दूसरे दिन मुल्क भर के मीडिया ने उन्हें अर्जुन की संज्ञा दे डाली, उनके ट्रेन के सफर को चक्रव्यूह तोड़ने जैसा करार दिया। मुंबई सबकी है राहुल इस बात को आसानी से कह सकते हैं, राहुल क्या एक आम आदमी भी इतनी सुरक्षा के बीच सीना चौड़ाकर दंभ से कह सकता है कि मुंबई उसकी जागीर है। क्या कांग्रेस का यह अर्जुन आम उत्तर भारतियों की तरह मुंबई जाकर इस तरह की बातें कर सकता है, शायद नहीं। शाहरुख खान को कांग्रेस का करीबी माना जाता है, और कांग्रेस इस कोशिश में भी लगी है कि बॉलिवुड के नायक को बॉक्स आफिस की जगह सियासत के अखाड़े में कैश करवाया जाए। इसलिए उनकी फिल्म को आम आदमी से यादा सुरक्षा मिलनी ही थी। राय के मुख्यमंत्री अशोक चाह्वाण खुद इस मामले को बारीकि से देख रहे थे, फिल्म के प्रदर्शन में बाधा बनने वालों के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किए जाने की चेतावनी दी गई थी। अब ऐसे में फिल्म को धमाकेदार शुरूआत मिलना जायज है। टिकट खिड़की पर माई नेम इज खान की सफलता को मीडिया में ठाकरे की हार के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, महाभारत में दुर्योध्न की हार में धृतराष्ट्र की कोई भूमिका नहीं थी लेकिन कलयुग में धृतराष्ट्र और गांधारी ने मिलकर दुर्योध्न को शिकस्त दी है। इसलिए ये खबर बनती है, मगर इस खबर के बनने के पीछे की कहानी को प्रमुखता देना भी मीडिया का कर्तव्य बनता है। हर कोई ठाकरे बनाम शाहरुख की जंग के उतार-चढ़ाव को दिखाता रहा, पढ़ाता रहा लेकिन किसी ने राय और केंद्र सरकार के हृदय परिवर्तन पर फोकस करने की जरूरत नहीं समझी। यह भी खबर बननी चाहिए थी कि जो सरकार बेकसूर लोगों को प्रताड़ित होते देख सकती है, वह फिल्म के पोस्टर फड़ते क्यों नहीं देख पाई। अगर सत्ता में बैठे लोग कानून व्यवस्था दुरुस्त रखने को इतनी ही तवाो देते हैं तो उन्हें राज ठाकरे को भी रोकना चाहिए था, उसे भी नकेल पहनानी चाहिए थी। यह निहायत ही शर्मनाक है राजनीतिज्ञ भोले-भाले लोगों के शव पर बैठकर राजनीति कर रहे हैं। महाभारत के इस अध्याय ने न सिर्फ धृतराष्ट्र और गांधारी बने बैठी सरकारों की असलीयत उजागर की है, बल्कि मीडिया की पथभ्रमिता पर भी प्रकाश डाला है। यह हर मायने में अच्छी बात है कि सरकार ने ठाकरे के मंसूबों को चकनाचूर कर दिया, लेकिन यह और भी अच्छी होती अगर राज के संबंध में भी ऐसे ही कदम उठाए होते। महज राजनीतिक हित साधने के लिए राज ठाकरे को खुलेआम कुछ भी करने की आजादी देना कहां तक जायज है। यह सवाल सरकार से पूछे ही जाने चाहिए।

Wednesday, February 10, 2010

इन बातों पर गौर करें गडकरी

नीरज नैयर
नितिन गडकरी के आने के बाद भाजपा में कुछ बदलाव महसूस किए जा रहे हैं, मसलन पार्टी अब संघवादी विचारधारा की तरफ पूरी तरह लौटने पर विचार कर रही है। उसे पर्यावरण की चिंता भी सताने लगी है, इंदौर में पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में यह चिंता साफ तौर पर देखी जा सकती है। अधिवेशन के दौरान 90 एकड़ में निर्मित कुशाभाऊ ठाकरे ग्राम में पेट्रोल-डीजल के वाहनों के इस्तेमाल पर रोक लगाई गई है। कुल मिलाकर इस अधिवेशन को इको फ्रेंडली अधिवेशन कहा जा सकता है, पार्टिजन के रुकने की व्यवस्था टेटों में की गई है,

हालांकि आम टेट से ये काफी अलग होंगे। इनमें अत्याधुनिक सुविधाओं की कोई कमी नहीं होगी। इस तरह के बदलाव से पार्टी अपनी बदलती छवि का संदेश जन-जन तक पहुंचाना चाहती है। देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी अगर पर्यावरण को लेकर जागरुकता का परिचय दे रही है तो ये बहुत ही अच्छी बात है। अब तक इस मुद्दे पर सिर्फ बातें ही होती रही हैं। मंत्रालयों में बैठकर बड़े-बड़े संदेश देने वाले नेताओं ने कभी इस दिशा में खुद को एक उदाहरण के तौर पर पेश करने की कोशिश नहीं की। उन्हें बस आम आदमी से सुख-सुविधाओं में कटौती का वचन चाहिए। अगर वो खुद आगे आकर अपनी सुविधाओं में कटौती का फैसला करते तो जनता का एक हिस्सा उनका अनुसरण करने पर विचार जरूर करता। भाजपा अध्यक्ष ने इस तरह की जो पहल की हो, उसे वो आगे भी बनाए रखें तो पार्टी कुछ न कुछ अटेंशन तो जरूर हासिल करेगी। मौजूदा वक्त में भाजपा की हालत समाजवादी पार्टी जैसी हो गई है, जिसे हर मोर्चे पर विफलता का सामना करना पड़ रहा है। लोकसभा चुनाव में भाजपा के पास जीतने के तमाम कारण थे, लेकिन फिर भी उसे शिकस्त का सामना करना पड़। मुंबई हमले के बाद आवाम में जो गुस्सा था उसे भाजपा कैश नहीं करवा सकी,

इसका कारण कुछ और नहीं बल्कि एक पार्टी के तौर पर उसकी खंडित छवि थी। एकजुटता पार्टी से एक-एक करके टूट चुकी है, हर कोई अपने ही हिसाब से चला जा रहा है। उमा भारती को अनुशासनहीनता के चलते पार्टी से बाहर किया गया था, अगर वैसी ही कार्रवाई दूसरों के खिलाफ की जाती तो अब तक पार्टी खाली हो गई होती। बड़े कद के नेता दो खेमों में विभाजित हैं, वो एक दूसरे को समझने और पार्टी हित के बारे में सोचने की शक्ति लगभग खो चुके हैं। राजनाथ सिहं जैसा मजबूत छवि वाला नेता भी विभाजन की दीवार को नहीं पाट पाया। अब ये दारोमदार सौम्य छवि वाले नितिन गडकरी पर है, गडकरी के लिए सबको पार्टी की छतरी के नीचे लेकर आना बहुत ही मुश्किल काम होगा। पर यदि वो ऐसा करने में कामयाब रहे तो भाजपा के दिन बहुरने में देर नहीं लगेगी। कांग्रेस चाहे लाख दावे करे मगर सच यही है कि जनता उसके शासनकाल में खुद को ठगा हुआ महसूस कर रही है। खासकर आम आदमी तो पूरी तरह से टूट चुका है। 'कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ' नारे की हवा तो यूपीए के पहले कार्यकाल में ही निकल गई थी, और रही सही कसर दोबारा सरकार बनने के बाद पूरी हो गई। महंगाई एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर मनमोहन सिंह से लेकर सोनिया गांधी तक नाकाम साबित हुए। जिस सरकार में अर्थशास्त्रियों की फौज हो, उसका बढ़ते दामों पर नियंत्रण न रहना दर्शाता है कि वो इस पर संजीदा नहीं है। है। यूपीए सरकार के पिछले पांच साल और अब के कुछ महीनों में महंगाई दर बेतहाश बढ़ी है, इसका कारण सरकार की गलत नीतियां रहीं। गलत समय पर गलत कदम उठाकर कांग्रेस नीत केंद्र सरकार ने आम आदमी का बोझ कम करने के बजाए उसपर इतना भार लाद दिया कि वो सीेधे खड़े होने का सपना भी न देख पाए। इतने सब के बाद भी सरकार के मंत्री ऊल-जुलूल बयानबाजी से बाज नहीं आते, जो खासकर कृषिमंत्री शरद पवार तो शायद ये भूल ही चुके हैं कि उलना काम क्या है। वो हर वक्त खिसियानी बिल्ली की तरह खंबा नोंचने को तैयार रहते हैं। कुछ वक्त पहले उन्होंने चीनी के बढ़ते दामों पर खीजते हुए कहा था कि 'मैं योतिषी नहीं हूं जो बता सकूं की चीनी के दाम कब नीचे आएंगे' और अब वो इसके लिए प्रधानमंत्री तक को दोषी ठहराने में लगे हैं। यूपीए सरकार ने अब तक पेट्रोलियम पध्दार्थों के दामों में कई बार वृध्दि की,

लेकिन दाल, आटा, सब्जी जैसी खाद्यय सामग्री के मूल्यों में अनावश्यक आई तेजी को कम करने के बारे में एक बार भी नहीं सोचा। सत्ता में आते ही कांग्रेस ने साफ कर दिया कि वो सब्सिडी को पूरी तरह खत्म करना चाहती है, मनमोहन सिंह ने कहा था कि सब्सिडी में खर्च की जाने वाली रकम को बच्चों की शिक्षा जैसे कामों पर लगाया जाएगा। पर शायद वो भूल गए कि अगर घर में खाने को ही नहीं होगा तो बच्चे क्या खाक तामील हासिल करेंगे। यदि भाजपा लोकसभा चुनाव के वक्त अंदरूनी कलह से नहीं गुजर रही होती तो उसकी जीत सुनिश्चित थी। हम एक ऐसे व्यक्ति को अपना नेता कैसे चुन सकते हैं जो अपने घर के झगड़ों ही नहीं सुलझा पा रहा। जनता के पास विकल्प बहुत सीमित हैं, या कहें कि उसके पास विकल्प हैं ही नहीं। गडकरी को इन मुद्दों पर गंभीरता से विचार करने और इनका हल खोजने की जरूरत है। कांग्रेस में भले ही युवाओं की टीम हो मगर भाजपा को युवा सोच पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है, सबसे पहले तो उसे युवाओं की भावनाओं को समझने और उसके अनुरूप काम करने की रणनीति पर विचार करना चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है कि जब गडकरी किसी युवा को सलाहकार के रूप में नियुक्त करें। मेंगलौर जैसी घटनाएं और वलेंटाइन डे के विरोध का तरीका भाजपा को युवाओं से दूर ले जाने में अहम किरदार निभाता है। यदि भाजपा अध्यक्ष गडकरी पार्टी की छवि को लेकर सर्वे कराएं तो सबसे यादा शिकायत युवाओं को इसी मुद्दे पर होगी। वैसे पार्टी के इतिहास के हिसाब से देखा जाए तो अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजने वाले गडकरी अभी खुद भी युवा हैं, पर फिर भी उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जो युवाओं से जुड़े मुद्दे की बारीकियों पर उनका ध्यान आकर्षित करा सके। राहुल गांधी इस वक्त सही काम कर रहे हैं, स्कूल-कॉलेजों में जाकर वो युवाओं को पार्टी का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित करने में लगे हैं। उनके इस अभियान का व्यापक असर भी देखने को मिल रहा है, मगर यह असर सार्थक परिणाम में तब तक तब्दील नहीं हो सकता जब तक कांग्रेस किसी ऐसे युवा को फ्रंट लाइन में नहीं लाती जिसको राजनीति विरासत में न मिली हो। अब तक कांग्रेस में जितने भी युवा हैं पार्टी में उनका दाखिला खुद के बल बूते नहीं हुआ। भाजपा कांग्रेस की इस कमजोरी को अपनी ताकत के रूप में अपना सकती है। नितिन गडकरी को पूरा फोकस युवाओं पर करना चाहिए, साथ ही उन्हेंं खुद को पार्टी से बड़ा समझने वाले नेताओं पर भी लगाम लगाने के बारे में सोचना चाहिए। अगर गडकरी ऐसा करने में सफल रहे तो भाजपा को पुरानी लय में वापस आने से कोई नहीं रोक सकता।