Wednesday, December 9, 2009

बढ़ती महंगाई के दोषी हम खुद हैं

नीरज नैयर
कुछ दिन पहले एक हिंदी अखबार में मनमोहन सिंह को लेकर एक कार्टन छपा था, उस कार्टून में दिखाया गया था कि जनता महंगाई से त्रस्त होकर मनमोहन सिंह के पीछे भाग रही है और श्री सिंह उनसे बचने के लिए कोपनहेगन जाने वाले जहाज की तरफ सरपट दौड़े जा रहे हैं। हकीकत भी काफी हद तक ऐसी ही है, महंगाई का बोझ जनता पर हर दिन बढ़ता जा रहा है और सरकार पूरी तरह से सरेंडर किए हुए है। पिछले दो हफ्ते में ही मुद्रास्फीति की दर ने जबरदस्त छलांग लगाई, अब तक आंकडे भी गवाही देने लगे हैं कि दाम बेलगाम घोड़े की मानिंद भागे जा रहे हैं। कल तक सरकार के पास कहने को था कि उनके प्रयासों की बदौलत महंगाई दर नीचे आ रही है, मगर अब ऐसा कुछ नहीं है। बावजूद इसके सरकारी मशीनरी आवश्यक वस्तुओं के आसमान छूते दामों को नीचे उतारने के लिए कोई प्रयास नहीं कर रही। चंद रोज पूर्व संसद में महंगाई के मुद्दे पर जिस तरह से विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी झुझलाहट भरे जवाब दे रहे थे उससे साफ हो गया था कि सरकार को बढ़ते दामों को थामने का कोई ख्याल नहीं। पूरी तरह से नाकाम साबित हुए कृषिमंत्री तो अब भी यही कह रहे हैं कि सबकुछ ठीक हो रहा है,


उन्होंने संसद में अपने घंटा भर लंबे जवाब में बस इतना भर कहा कि कुछ चीजों की आपूर्ति सुधर रही है और राय सरकारों जमाखोरी के खिलाफ सख्ती बरतें, तो हालात धीरे-धीरे सुधरने लगेंगे। केंद्र सरकार का यह बहुत पुराना जुमला है, जब कभी महंगाई बढ़ती है तो केंद्र रायों पर जमाखोरी का आरोप लगाकर अपना पल्ला झाड लेता है। मगर सच्चाई केवल इतनी नहीं है, जमाखोरी हर जगह है। पर असल समस्या महंगाई थामने के लिए आवश्यक कदम उठाने की है, यदि ये ही काम ठंग से नहीं किया गया तो फिर स्थिति सुधरने की आस कैसे पाली जा सकती है। दरअसल मनमोहन सरकार में अर्थशास्त्रियों की लंबी-चौड़ी टीम महज विकास दर पर नजरें गड़ाए हुए है,


उसे इस बात से कोई सरोकार नहीं कि आम आदमी को दो वक्त की रोटी नसीब हो रही है या नहीं, उसका काम महज इतनाभर है कि जीडीपी सात का आंकड़ा कैसे छूए। जीडीपी में मजबूती की खबरों पर सरकार के वाशिंदे बकायदा जश् मनाते हैं, लेकिन आम आदमी के घर में चल रहा मातम उन्हें दिखलाई नहीं देता, स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी नहीं। राजग सरकार के कार्यकाल के वक्त जब सिर्फ प्याज के मूल्यों में बेतहाशा वृध्दि हुई थी तब कांग्रेस ने उसे मुद्दा बनाकर राजनीति रोटियां सेंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, लेकिन आज जब उसके कार्यकाल में ही महंगाई बेकाबू हुए जा रही है तो उसने जुबान पर ताला लगा रखा है। महंगाई को लेकर सरकार का जिस तरह का रुख है उसके जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि हम खुद हैं, यूपीए अपने पहले टर्म में इस मुद्दे पर नाकाम साबित हुई थी,


बावजूद इसके जनता ने उसे न केवल जिताया बल्कि पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में पहुंचा दिया। इसके पीछे भले ही उसके जो भी सोच रही हो मगर आज उसी सोच का खामियाजा पूरा देश भुगत रहा है। जिस तरह से महंगाई का चक्का घूम रहा था, जिस तेजी से देश में धमाके हो रहे थे और जिस तरह के विरोधी स्वर लोगों के मुंह से फूट रहे थे उससे तो यही प्रतीत हो रहा था कि इस बार जनता बदलाव चाहती है. लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजों ने साफ कर दिया है कि हमारे देश की जनता को बदलाव पसंद नहीं। जब हर छोटी अवधि के बाद पेट्रो पदार्थों के मूल्यों में आग लगाई जा रही थी तो 2004 में हाथ का साथ देने वाले भी अपनी गलती पर पछता रहे थे बावजूद इसके कांग्रेस को जनादेश मिल गया. अब इसे क्या कहें, जनता की लाचारी, मजबूरी या बेवकूफी.


लाचारी या मजबूरी तो इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसके पास विकल्प मौजूद था. उसके पास कांग्रेस या बसपा में से किसी एक को चुनने की मजबूरी नहीं थी. भाजपा एक मजबूत विकल्प के रूप में मैदान में थी, भाजपा देश के लिए कोई नई नहीं है, 14वीं लोकसभा में उसने जो शासन चलाया था उसे कांग्रेस के शासन से हर मायने में बेहतर कहा जा सकता है. यूपीए सरकार ने जिन उपलब्धियों को अपना बताकर जनता से वोट मांगे उनकी नीव अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में ही रखी गई थी. फिर चाहे वह परमाणु करार, सेतु समुद्रम योजना हो या फिर राष्ट्रीय राजमार्ग योजना. लोकसभा चुनाव के वक्त भाजपा ने जिन मुद्दों को सामने रखा वो हर लिहाज से कांग्रेस की अपेक्षा मजबूत थे. विदेशों में काले धन की बात पहले भाजपा ने उठाई और जब मामला रंग पकड़ता गया तो कांग्रेस भी इसके प्रति प्रतिबध्दता जताने लगी. ये बात सही है कि भाजपा ने कुछ ऐसे मुद्दे भी छेड़े जिनको पचाना मुमकिन नहीं थे जैसे राम मंदिर मुद्दा. इसके साथ ही कंधमाल और मंगलूरु में जो कुछ हुआ उससे भी भाजपा की छवि खासी प्रभावित हुई. अगर भाजपा चुनाव से पूर्व पुनऱ् राम मंदिर निर्माण की बात नहीं करती और कंधमाल, मंगलूरु जैसी घटनाएं नहीं होती तो शायद उसके लिए स्थिति इतनी बुरी नहीं होती. मगर फिर भी बीते कुछ सालों में जिस तरह से आम आदमी के मुंह से निवाला छिना है उसके आगे ऐसी घटनाएं कहीं नहीं ठहरती. भले ही कांग्रेस ने चुनाव से पहले महंगाई की रफ्तार को आंकड़ों के जाल में उलझाकर गिराने में कामयाबी हासिल की लेकिन हकीकत यही थी कि आवश्यक वस्तुओं के दाम तब भी आसमान छू रहे हैं, और अब भी, उनके नीचे उतरने की कोई संभावना दिखलाई नहीं देती.


कांग्रेस खुद को आम आदमी के हितैषी के रूप में पेश करती आयी है मगर उसकी नीतियां हमेशा से आम आदमी विरोधी रहीं. आंतरिक सुरक्षा को ही लें तो कांग्रेस नीत सरकार इस मोर्चे पर पूरी तरह विफल रही, 2004 में उसके सत्ता संभालने के बाद से 2009 में लोकसभा चुनाव तक करीब 3000 आतंकवादी घटनाएं हुई जिनमें तकरीबन 4000 निदोर्षों को जान गंवानी पड़ी. मुंबई हमले के बाद तो यह साफ हो गया था कि सुरक्षा के मानदंडों को लेकर सरकार की नीतियां कितनी लचर हैं. भाजपा से कुछ लोग इसलिए नाता नहीं जोड़ना चाहते कि वो सेकुलर नहीं है, पर कांग्रेस ने जिस तरह के फैसले लिए क्या उसे सेकुलर सोच का परिणाम कहा जा सकता है. कांग्रेस सरकार ने वोट बैंक की खातिर मदरसों को सीबीएसई बोर्ड के बराबर खड़ा करने का दांव चला, मतलब मदरसे में पढ़ने वाले उसी जमात में खड़े हो सकेंगे जिसमें उच्च तालीम हासिल करने वाले खड़े होते हैं. उन्हें नौकरी पाने के लिए किसी दूसरी डिग्री की जरूरत नहीं पड़ेगी. कांग्रेस सरकार ने धर्म विशेष के छात्रों को करीब 25 लाख की छात्रवृत्ति प्रदान की, क्या इसे सेकुलरवाद कहा जा सकता है, क्या दूसरे धर्मो के गरीब बच्चों को इसकी जरूरत नहीं होती.


और वो भी तब जब गरीबी रेख से नीचे जीवन यापन करने वालों की तादाद में कांग्रेस के कार्यकाल में 20 प्रतिशत की वृध्दि हुई हो. कांग्रेस नीत यूपीए के सत्ता में आने से पूर्व यानी 2004-2005 में यह आंकड़ा 270 मिलियन था लेकिन अब 55 मिलियन के आस-पास है. पिछले पांच सालों के दरम्यां आंध्र प्रदेश के 36000 हिंदू मंदिरों में से 28000 को बंद कराया जा चुका है, क्या ये सेकुलरवार है. जब दूसरे धर्मो के लोगों को धर्म प्रचार की पूरी आजादी दी जाती है तो फिर हिंदुओं के साथ ऐसा बर्ताव क्यों, शायद इसलिए कि कांग्रेस उसे भाजपा का वोट बैंक समझती है. यहां बात सिर्फ हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई की नहीं है. यहां बात है इक्विलिटी यानी समानता की. सभी धर्मों के लोगों को समान नजरीए से क्यों नहीं देखा जाता. शायद इन सब सवालातों और सोच को घर रखकर जनता ने इस बार वोट दिया और इसका पछतावा भी उन्हें जल्द ही महसूस होगा, क्योंकि जो पार्टी समानता के सिध्दातों के विपरीत अपनों को लाभान्वित करने की नीतियों पर अमल करती है उसके साथ सफर करना हमेशा ही कष्टदायी रहता है, इसका मुजायरा अब तक हो ही चुका है. महंगाई कम करने को लेकर सरकार की प्रतिबध्दता अब तो उसकी बातों में भी नजर नहीं आती। इसी वजह से उसके वरिष्ठ मंत्री बचकाने बयानबाजी करते हैं, कभी शरद पवार कहते हैं कि दाम नीचे आ रहे हैं तो कभी ्रणव मुखर्जी मूल्यवृध्दि को मौसमी तेजी का परिणाम बताते हैं, वो यहां तक कहते हैं कि यह कोई खास बात नहीं। सच यही है कि सरकार के पास महंगाई को नीचे लाने के बारे में सोचने का भी वक्त नहीं है, वह सिर्फ बयानबाजी करके अपनीे नाकामयाबी को छिपाने के प्रयास में लगी है। लेकिन इसके लिए उसे दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि दोषी हम खुद हैं।