Saturday, May 16, 2009

अब इन नतीजों को क्या कहें


नीरज नैयर
हम हिंदुस्तानियों की आदत कोठे पर बैठी उस तवायफ की माफिक है जो अपने पेशे को रोज गालियां देती है, मार खाती है, जिल्लत सहती है लेकिन कभी उसे छोड़ने का साहस नहीं दिखा पाती. तवायफ की मजबूरी तो फिर भी एक बारगी समझी जा सकती है कि उसके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है मगर इस देश की जनता के बारे में क्या कहें. जिस तरह से महंगाई का चक्का घूम रहा था, जिस तेजी से देश में धमाके हो रहे थे और जिस तरह के विरोधी स्वर लोगों के मुंह से फूट रहे थे उससे तो यही प्रतीत हो रहा था कि इस बार जनता बदलाव चाहती है. लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजों ने साफ कर दिया है कि हमारे देश की जनता भी उस तवायफ की ही तरह है. जब हर छोटी अवधि के बाद पेट्रो पदार्थों के मूल्यों में आग लगाई जा रही थी तो 2004 में हाथ का साथ देने वाले भी अपनी गलती पर पछता रहे थे बावजूद इसके कांग्रेस को जनादेश मिल गया. अब इसे क्या कहें, जनता की लाचारी, मजबूरी या बेवकूफी. लाचारी या मजबूरी तो इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसके पास विकल्प मौजूद था. उसके पास कांग्रेस या बसपा में से किसी एक को चुनने की मजबूरी नहीं थी. भाजपा एक मजबूत
विकल्प के रूप में मैदान में थी, भाजपा देश के लिए कोई नई नहीं है, 14वीं लोकसभा में उसने जो शासन चलाया था उसे कांग्रेस के शासन से हर मायने में बेहतर कहा जा सकता है. यूपीए सरकार ने जिन उपलब्धियों को अपना बताकर जनता से वोट मांगे उनकी नीव अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में ही रखी गई थी. फिर चाहे वह परमाणु करार, सेतु समुद्रम योजना हो या फिर राष्ट्रीय राजमार्ग योजना.

इस बार भी भाजपा ने जिन मुद्दों को सामने रखा वो हर लिहाज से कांग्रेस की अपेक्षा मजबूत थे. विदेशों में काले धन की बात पहले भाजपा ने उठाई और जब मामला रंग पकड़ता गया तो कांग्रेस भी इसके प्रति प्रतिबध्दता जताने लगी. ये बात सही है कि भाजपा ने कुछ ऐसे मुद्दे भी छेड़े जिनको पचाना मुमकिन नहीं थे जैसे राम मंदिर मुद्दा. इसके साथ ही कंधमाल और मंगलूरु में जो कुछ हुआ उससे भी भाजपा की छवि खासी प्रभावित हुई. अगर भाजपा चुनाव से पूर्व पुन: राम मंदिर निर्माण की बात नहीं करती और कंधमाल, मंगलूरु जैसी घटनाएं नहीं होती तो शायद उसके लिए स्थिति इतनी बुरी नहीं होती. मगर फिर भी बीते कुछ सालों में जिस तरह से आम आदमी के मुंह से निवाला छिना है उसके आगे ऐसी घटनाएं कहीं नहीं ठहरती. भले ही कांग्रेस ने चुनाव से पहले महंगाई की रफ्तार को आंकड़ों के जाल में उलझाकर गिराने में कामयाबी हासिल की लेकिन हकीकत यही है कि आवश्यक वस्तुओं के दाम अब भी आसमान छू रहे हैं, और उनके नीचे उतरने की कोई संभावना दिखलाई नहीं देती. कांग्रेस खुद को आम आदमी के हितैषी के रूप में पेश करती आयी है मगर उसकी नीतियां हमेशा से आम आदमी विरोधी रहीं. देश की आंतरिक सुरक्षा की अगर बात की जाए तो कांग्रेस नीत सरकार इस मोर्चे पर पूरी तरह विफल रही थी, 2004 में उसके सत्ता संभालने के बाद से 2009 में लोकसभा चुनाव तक करीब 3000 आतंकवादी घटनाएं हुई जिनमें तकरीबन 4000 निदोर्षों को जान गंवानी पड़ी. मुंबई हमले के बाद तो यह साफ हो गया था कि सुरक्षा के मानदंडों को लेकर सरकार की नीतियां कितनी लचर हैं. भाजपा से कुछ लोग इसलिए नाता नहीं जोड़ना चाहते कि वो सेकुलर नहीं है, पर कांग्रेस ने जिस तरह के फैसले लिए क्या उसे सेकुलर सोच का परिणाम कहा जा सकता है. कांग्रेस सरकार ने वोट बैंक की खातिर मदरसों को सीबीएसई बोर्ड के बराबर खड़ा करने का दांव चला, मतलब मदरसे में पढ़ने वाले उसी जमात में खड़े हो सकेंगे जिसमें उच्च तालीम हासिल करने वाले खड़े होते हैं. उन्हें नौकरी पाने के लिए किसी दूसरी डिग्री की जरूरत नहीं पड़ेगी. कांग्रेस सरकार ने धर्म विशेष के छात्रों को करीब 25 लाख की छात्रवृत्ति प्रदान की, क्या इसे सेकुलरवाद कहा जा सकता है, क्या दूसरे धर्मो के गरीब बच्चों को इसकी जरूरत नहीं होती. और वो भी तब जब गरीबी रेख से नीचे जीवन यापन करने वालों की तादाद में कांग्रेस के कार्यकाल में 20 प्रतिशत की वृध्दि हुई हो. कांग्रेस नीत यूपीए के सत्ता में आने से पूर्व यानी 2004-2005 में यह आंकड़ा 270 मिलियन था लेकिन अब 55 मिलियन के आस-पास है. पिछले पांच सालों के दरम्यां आंध्र प्रदेश के 36000 हिंदू मंदिरों में से 28000 को बंद कराया जा चुका है, क्या ये सेकुलरवार है. जब दूसरे धर्मो के लोगों को धर्म प्रचार की पूरी आजादी दी जाती है तो फिर हिंदुओं के साथ ऐसा बर्ताव क्यों, शायद इसलिए कि कांग्रेस उसे भाजपा का वोट बैंक समझती है. यहां बात सिर्फ हिंदू, मुस्लिम, सिख या ईसाई की नहीं है. यहां बात है इक्विलिटी यानी समानता की. सभी धर्मों के लोगों को समान नजरीए से क्यों नहीं देखा जाता. शायद इन सब सवालातों और सोच को घर रखकर जनता ने इस बार वोट दिया और इसका पछतावा भी उन्हें जल्द ही महसूस होगा, क्योंकि जो पार्टी समानता के सिध्दातों के विपरीत अपनों को लाभान्वित करने की नीतियों पर अमल करती है उसके साथ सफर करना हमेशा ही कष्टदायी रहता है, इसका मुजायरा अब तक हो ही चुका है. किसी भी देश की प्रगति आतंरिक मामलों के साथ-साथ इस बात पर भी निर्भर करती है कि उसकी विदेश नीति कैसी है,

इस मोर्चो पर भी कांग्रेस नीत सरकार पूरी तरह विफल रही. पड़ोसी मुल्कों से हमारे रिश्ते मधुर बनने के बजाए और तल्ख होते गये, चीन, म्यांमार, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल हर तरफ से हमारे खिलाफ आवाजें उठती रहीं. अब श्रीलंका भी तमिल संघर्ष में बार-बार भारत के हस्तक्षेप से हमारे विरोधियों की तरफ खिंचता दिखाई दे रहा है. कहते हैं लोकसभा चुनाव स्थानीय नहीं राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ा जाता है, पर अगर ऐसा होतो तो शायद इन सब मुद्दों पर गौर किया जाता. चुनाव के नतीजों से तो यही लग रहा है कि महंगाई, आतंकवाद जैसे मुद्दों से देश की जनता को कोई सरोकार नहीं. उसने पहले से ही तय किया हुआ था कि किसे वोट करना है फिर चाहे एक-एक निवाले के लिए उसे जंग ही क्यों न लड़नी पड़े. जिस तरह के हालात कांग्रेस नीत सरकार ने अब तक पैदा किए थे, उससे तो यही लगता है कि उसके पुन: सत्ता में लौटने से खाने के भी लाले पड़ने वाले हैं. सरकार बनने के थोड़े दिनों बाद फिर पेट्रोल के दाम बढ़ेंगे, फिर महंगाई सातवें आसमान पहुंचेगी और फिर जनता अपनी बेबकूफी पर आंसू बहाएगी. लेकिन पांच साल गुजरते-गुजरते वो फिर वही तवायफ बन जाएगी, जो रो सकती है, गालियां दे सकती है मगर अपना पेश नहीं छोड़ सकती.