शायद अब तो इस बात में कोई शक-शुबहा नहीं होना चाहिए कि हिलेरी क्लिंटन की भारत यात्रा दोस्ती बखारने के मकसद से नहीं बल्कि अमेरिकी हितों की पूर्ति के लिए उस पर दबाव बनाने के लिए थी। हालांकि उन्होंने सीधे तौर पर भारत से इसका इजहार नहीं किया लेकिन बातों ही बातें में साफ कर दिया कि अगर नई दिल्ली वाशिंगटन का कहा नहीं मानती है तो इसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ सकता है. ये तो पहले से ही माना जा रहा था कि हिलेरी का पूरा ध्यान अप्रसार संधि (एनपीटी) व व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि (सीटीबीटी)पर हस्ताक्षर के लिए भारत को राजी करने पर होगा. बावजूद इसके उनसे बड़ी-बड़ी उम्मीदें लगाई जा रही थी, एक वर्ग तो अब भी इस यात्रा को ऐतिहासिक बताने पर तुला है. हिलेरी ने रवानगी से पहले साफ कर दिया कि अगर सबकुछ नाभकीय संधि में मौजूद सुरक्षा मानकों के मुताबिक चलता है तो अमेरिका पूर्ण असैन्य परमाणु ऊर्जा सहयोग करने मेंकोई परेशानी नहीं है लेकिन अनाधिकृत और अनुचित तरीके से तकनीक के हस्तांतरण पर अमेरिका खामोश नहीं रहेगा। उनका ये बयान भारत को दबाव में लेने की रणनीति का हिस्सा है, इस तरह के बयान तभी दिए जाते हैं जब सामने वाले पर सीधे प्रहार किए बिना उसे अपने कब्जे में लाना हो.
भारत की छवि विश्व में किस तरह की है यह ओबामा प्रशासन को बताने की जरूरत नहीं, अनाधिकृत और अनुचित जैसे शब्दों का प्रयोग करते वक्त हिलेरी शायद भूल गई कि वो इस्लामाबाद में नहीं नई दिल्ली में खड़ी हैं. हिलेरी क्लिंटन ने इस मुद्दे पर भारत की सलाह मांगकर उसे और उलझाने की कोशिश की है, विदेशमंत्री एमएम कृष्णा और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के एनपीटी व सीटीबीटी पर राजी न होने पर हिलेरी ने यह पत्ता फेंका. उन्हें पता है कि भारत की तरफ से दी जाने वाली कोई भी सलाह अमेरिकी प्रशासन के दिमाग में चढ़ने वाली नहीं है, और ये बात भारत भी बखूबी जानता है. अमेरिकी विदेश मंत्री के ताजा बयान से यह तय है कि आने वाले दिनों में अमेरिका इस बाबत दबाव बनाएगा कि या तो भारत परमाणु ऊर्जा के दुरुपयोग को रोकने के बारे में कोई सार्थक उपाए सुझाए या फिर उसके कहे रास्ते पर आगे बढ़े. हाल ही में जी-8 देशों के गैरएनपीटी मुल्कों को संवेदनशील तकनीक ईएनआर मुहैया नहीं करवाने के फैसले के पीछे अमेरिका का बहुत बड़ा हाथ है. ओबामा ये कतई नहीं चाहते कि भारत इन संधियों पर हस्ताक्षर किए बिना मिलने वाली छूट कालाभ उठाए. हिलेरी की भारत यात्रा में जिन समझौतों पर बात बनी उसमें रक्षा,परमाणु सहयोग और अंतरिक्ष कार्यक्रम शामिल हैं. एंड यूजर समझौते पर सहमति बनने के बाद अब अमेरिकी कंपनियां संवेदनशील सैन्य साजो सामान और तकनीक भारत को बेच सकेंगी, इस एग्रीमेंट में पहले जो पेंच फंसा था वो इस बात को लेकर था कि अमेरिकी खेमा सालाना निरीक्षण की जिद पर अड़ा था और भारत इसका विरोध कर रहा था. इस समझौत के अमल में आने के बाद अमेरिकी प्रतिरक्षा कंपनियों के लिए करोड़ों के कारोबार के दरवाजे खुल गए हैं. जाहिर है जिस काम में अमेरिका को दोनों हाथों से पैसे बटोरने का मौका मिला उसकी राह में आने वाली बाधाएं वो सबसे पहले हटाएगा. क्या इन चंद समझौतों को कामयाबी या ऐतिहासिक करार दिया जाता है.
जिस परमाणु समझौते की बात की जा रही है उसपर अमेरिका उस पर अमेरिका की तिरछी नजरें हमेशा कायम रहेंगी. परमाणु ऊर्जा सहयोग संधि के दुरुपयोग की बात करके वो कभी अपने हाथ खींच सकता है. रक्षा समझौता उसके फायदे के लिए है, अगर हिलेरी न भी आतीं तो भी उसपर सहमति बन ही जाती. आतंकवाद के मुद्दे पर पाकिस्तान के खिलाफ ठोस रुख अख्तियार करने के बजाए हिलेरी ने गोल-मोल बयान देकर महज हमसे हमदर्दी जताने का ही प्रयास किया. भारत आने से पहले ही वो पाक को आश्वस्त कर आई थीं कि उसे चिंतित होने की जरूरत नहीं है. अमेरिका मौजूदा दौर में भारत के लिए अपने महत्वत्ता को भली-भांति समझता है, उसे पता है कि अगर भारत पर थोड़ा सा दबाव बनाए जाए तो वो उसके बताए मार्ग पर ही चलेगा. पाकिस्तान से वार्ता शुरू करने के मसले को इसके परिणाम के रूप में देखा जा सकता है. रूस में मनमोहन जरदारी मुलाकात भी अमेरिका के कहने पर ही हुई थी और शर्म अल शेख में मनमोहन सिंह और गिलानी का संयुक्त वक्तव्य भी वाशिंगटन की दखल का नतीजा था. जिसे प्रधानमंत्री को देश में बवाल मचने के बाद सुधारना पड़ा. अब भी भारत की तरफ से रह-रहकर पाकिस्तान से दोस्ती जैसे बयानात आते रहते हैं. बराक हुसैन ओबामा ने हिलेरी क्लिंटन को जिस उद्देश्य से भेजा था उसमें वो पूरी तरह सफल हुई हैं, भारत पर दबाव बनाने की दिशा में उन्होंने महत्वपूर्ण कदम आगे बढ़ाया है जिसे साल के अंत तक मनमोहन सिंह के अमेरिकी दौरे में अंतिम चरण में पहुंचा दिया जाएगा. लिहाजा हिलेरी की यात्रा और अमेरिका के साथ हुए समझौतों पर मुस्कुराने के बजाए बेहतर ये होगा कि इस बात आकलन किया जाए कि इस दौरे से हमें क्या हासिल हुआ.