Sunday, July 19, 2009

उन सवालों के जवाब आज भी मिलना बाकी हैं

नीरज नैयर

ऐसे ही अखबार पढ़ते-पढ़ते एक बहुत पुराना किस्सा याद आ गया. जो दर्दनाक तो था ही, अपने पीछे कुछ ऐसे सवालातक भी छोड़ गया था जिनके जवाब मिलना अभी बाकी हैं. बात सर्दियों के दिनों की है, हाड़कंपा देने वाली ठंड में जब कोहरे की चादर शाम से ही छाने लगती थी तो लोग जल्द ही अपने घरों में कैद हो जाया करते थे, उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ, हमारे घर से तीन-चार घर छोड़कर एक परिवार रहा करता था, जिसमें तीन बच्चे भी थे, वो बच्चे कभी-कभीर हमारे साथ क्रिकेट खेलने आ जाया करते थे. हमारे देश में क्रिकेट और शराब दो ही ऐसी चीज हैं जो अंजानों को भी दोस्त बना देती हैं. इस संबंध में तो हरिवंश राय बच्चन ने लिखा भी है कि मंदिर-मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला.

कुछ दिनों से वो बच्चे न तो हमारे साथ खेलने आए और न ही दिखाई दिए, हमने सोचा कि शायद कहीं बाहर गये होंगे. उनके घर वालों से इतनी अच्छी जान पहचान थी नहीं सो जाकर पता करना मुनासिब नहीं समझा. इन दिनों कई बार उनके घर कुछ हट्टे-कट्टे लोगों को आते और उनके पिताजी को गिड़गिड़ाते देखा, एक-आद बार तो उनके आस-पड़ोसी भी बीच-बचाव करते दिखाई दिए. मामला पूरी तरह तो समझ में नहीं आया लेकिन इतना जरूर पता चल गया कि कुछ गड़बड़ तो जरूर है. कुछ दिन ऐसे ही निकल गये, पढ़ाई को लेकर घरवालों की डांट के चक्कर में क्रिकेट से भी थोड़े दिनों तक नाता तोड़ना पड़ा, उस वक्त हमें लगता था कि ऐसा हमारे साथ ही क्यों होता है, बाद में पता चला कि अमूमन हर बच्चे की यही कहानी है. पढ़ने-लिखने में शुरू से ही कुछ खास मन नहीं लगता था, हां इतना अवश्य पढ़ लिया करते थे कि फेल होने की नौबत न आए. फर्स्ट क्लास या टॉप मारने के सपने हमारे घर वालों ने भले ही देखें हो मगर हमने कभी उस ओर गौर भी नहीं किया. क्रिकेट खेलते-खेलते सुबह जल्दी उठने की आदत लग चुकी थी इसलिए घरवालों ने वो समय पढ़ाई के लिए निर्धारित कर दिया. उनका मानना था कि सुबह-सुबह का याद किया दिमाग से नहीं निकला. कुछ हद तक शायद वो सही भी थे, सुबह-सुबह जितना क्रिकेट खेला वो दिमाग में इस कदर रच-बस गया था कि पढ़ते-पढ़ते भी स्ट्रोक खेलने की प्रैक्टिस कर लिया करते थे. शाम को दोस्तों की चौपाल हुआ करती थी जिसमें सभी अपना-अपना दुखड़ा रोया करते थे, दरअसल सुबह-सुबह क्रिकेट खेलने का जो मजा था वो किसी और वक्त नहीं मिल सकता था, घूप खिलने के बाद रजाईयों में दुबके बैठे लोग पार्क में धूप सेंकने को आ जाया करते थे, जिनमें अधिकतर बुजुर्ग होते थे और उन्हें समझाना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात होती है.

गेंद अगर पास से निकल भी जाए तो हंगामा खड़ा कर दिया करते हैं. और घर के बाहर यानी सड़क पर अंटियों का जमघट, स्वेटर बुनते-बुनते दूसरों की बुराई करना और हमें धमकाते रहना कि गेंद इधर आई तो खैर नहीं. इन सब के बीच क्रिकेट खेला भी जाता तो कैसे, हमारे ठीक पड़ोस में एक अम्मी जी रहा करती थीं जिनकी आदतों से उनके घर के बच्चे भी आजिज आ चुके थे, शायद इसीलिए बच्चा पार्टी ने उनका नाम छिपकली रखा था. उन्हें हमारा अपने ही घर में खेलना भी पसंद नहीं था, उनके विरोध को दरकिनार करके अगर हम खेलने की कोशिश भी करते तो उनकी रनिंग कमेंट्री शुरू हो जाया करती थी. हमारी बॉल के दिवार फंलागने का उन्हें बेसर्बी से इंतजार रहता था ताकिबॉल रखकर वो हमारा खेल बंद करवां सकतीं. उन दिनों जैसे-तैसे पैसे मिलाकर बॉल खरीदकर लाया करते थे और अम्मीजी थी उन्हें दबाकर हमें आर्थिक रूप से कंगाल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती थीं. इतने सालों बाद आज भी वो बिल्कुल वैसी ही तंदरुस्त रखी हैं, उनकी जुबान की धार अब भी कायम है, हां ये बात अलग है कि अब उन्हें इतना चीखने और बॉल हथियाने का मौका नहीं मिलता क्योंकि बच्चे आजकल टीवी या इंटरनेट से ही चिपके रहते हैं. खैर हमारी चौपाल में यह फैसला हुआ कि सब अपने-अपने घरवालों को पढ़ाई का समय थोड़ा खिसकाने को कहेंगे और अगर बात नहीं बनी तो, अपने गुस्से का थोड़ा-थोड़ा इजहार करेंगे. अब पता नहीं हमारे फैसले की खबर घरवालों तक पहुंच गई या उन्हें हमारे हाल पर तरस आ गया कि उन्होंने हमें सुबह क्रिकेट खेलने की इजाजत दे दी. जिन एक-दो दोस्तों के घरवाले नहीं माने थे उन्हें हमने हाथ-पैर जोड़कर मना ही लिया. 

जब क्रिकेट की बात शुरू हुई तो हमें उन बच्चों का भी ख्याल आया जो काफी वक्त से दिखाई नहीं दिए थे, हमने तय किया कि रात को ही सब मिलकर उनके घर चलेंगे, जैसा कि पहले से तय था हम पांच लोग करीब 8:30-900 के बीच उनके घर पहुंचे, चूंकि सर्दियों के दिन थे इसकरके आस-पड़ोस में कोई चहल-पहल नहीं थी, सब अपने घर में दुबके बैठे थे, बस उनके टीवी की आवाज खामोशी को चीरते हुए बाहर तक आ रही थी. हम उन बच्चों के घर का गेट खोलकर अंदर दाखिल हुए, हम घंटी बजाते इससे पहले किसी के रोने की आवाज सुन हमने आने हाथ खींच लिए. समझ नहीं आ रहा था कि घंटी बजाए या वापस लौट चलें. थोड़ी देर इसी उलझन में रहने के बाद हम सबने कल आकर बात करने का फैसला लिया और अपने-अपने घर चले आए. सुबह जब क्रिकेट खेलने के बाद हम वापस लौटे तो उनके घर पर बहुत भीड़ लगी थी, एक एम्बुलेंस और पुलिस की दो गाड़िया भी वहां खड़ी हुई थी. लोग आपस में बातें कर रहे थे, हम भी भीड़ के बीच में जाकर जानने की कोशिश करने लगे कि आखिर हुआ क्या है. थोड़ी ही देर में हमें सबकुछ समझ में आ गया, उन दोनों बच्चों की मौत हो चुकी थी और उनकी मां की भी. उनके पिताजी को अस्पताल में भर्ती कराया गया था क्योंकि सांसे अब तक चल रही थी. ये मामला सामुहिक आत्महत्या का था, सबने जहर मिला खाना खाया था. पुलिस को घर से एक पत्र मिला था जिसमें आत्महत्या के कारणों का जिक्र कुछ यूं किया गया था, आर्थिक स्थिति खराब हो जाने और देनदारों के तकाजे से व्यथित होकर हम मौत को गले गला रहे हैं, हमारे पास इसके अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है. घर पहले ही गिरवी रखा हुआ है, अब और कुछ रखने के लिए है नहीं, जेब में आखिरी 50 रुपए बचे थे जिससे खाना और जहर खरीद लिया. 

हम अपने बच्चों को यूं दर-दर की ठोकरें खाने के लिए नहीं छोड़ सकते इसलिए उन्हें भी साथ ले जा रहे हैं. उस वक्त हमें लगा कि अगर हम कल थोड़ी हिम्मत दिखा देते तो शायद ये नौबत ही नहीं आती. उस दिन के बाद कुछ दिनों तक हमने क्रिकेट नहीं खेला, शायद हम सदमे में थे. फिर पता चला कि उन बच्चों के पिताजी जो जिंदा बच गये थे को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है. उन पर मुकदमा चलाया जाएगा और हो सकता है कि उन्हें जेल भी जाना पड़ा. सुनकर बहुत ही अजीत लगा, जो व्यक्ति पहले से ही इतना दुखी हो उसको और दुख देना कहां का कानून है. उन्होंने जिस स्थिति में वो कदम उठाया वो सब जानते हैं, उन्होंने खुद भी जहर खाया था पर वो बच गये, उन्हें अपने आप में कैसे महसूस हो रहा होगा ये शायद कोई और नहीं समझ सकता.

मन में कई तरह के सवाल और गुस्सा लिए हम घर के सामने ही रहने वाले एक अंकल के पास गये, वो पहले पुलिस में ही थे. उन्होंने हमारे गुस्से को शांत करने की बहुत कोशिश की. उन्होंने बताया कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 309 के तहत आत्महत्या की कोशिश करने वाले व्यक्ति को दंडित करने का प्रावधान है. कानून में ऐसा करने वाले व्यक्ति को गुनाहगार माना जाता है, उसे अधिकतम एक साल तक की सजा भुगतनी पड़ सकती है और जुर्माना भी हो सकता है. हम उनके जवाबों से बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं थे या कहें कि हम जानते-बूझते भी संतुष्ट होना नहीं चाहते थे क्योंकि हम ये स्वीकार नहीं पा रहे थे कि आखिर मौत की दहलीज पर जाकर लौटने वाले को हमारे देश का कानून सबकुछ जानते हुए भी कैसे सजा सुना सकता है. वो सवाल तो बचपन में उठे थे वो आज भी वैसे ही सामने खड़े हैं. आत्महत्या जैसा फैसला कोई भी इंसान अपनी खुशी से नहीं उठता, वो इस स्थिति तक तब पहुंचता है जब बाकी सारे दरवाजे उसके लिए बंद हो चुके होते हैं. वो इतना टूट चुका होता है कि जिंदा रहना उसके लिए मौत से भी बदतर बन जाता है. जीवन से पराजित ऐसे अभागे व्यक्ति को सहानुभूति सलाह मशविरे और उचित उपचार की जरूरत है या जेल की. कम से कम अब तो इस सवाल का जवाब खोजा जाना चाहिए. जो व्यक्ति आत्महत्या का प्रयासकरने के कारण पीड़ा और अपमान झेल चुका है उसे कानून के जरिए दंड़ित करना क्रूरता से यादा कुछ नहीं.