Monday, August 4, 2008

िक स क ाम क ा खुफिया तंत्र

बेंगलुरु और अहमदाबाद धमा क ों से उठे विश्वसनीयता पर सवाल

नीरज नैयर
बेंगलुरु और अहमदाबाद में हुए श्रंखलाबद्ध धमाकों के बाद पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है. सियासी दल जहां आतंकवाद की आग में राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे हैं वहीं खुफिया एजेंसियों की विश्वसनीयता पर भी उंगलिया उठने लगी हैं.महज दो दिन में 29 धमाकों के बाद इस सवाल का जवाब ढूढ़ना आवश्यक हो गया है कि आखिर हमारा खुफिया तंत्र कर क्या रहा है. अन्य देशों केमुकाबले खुफिया सूचनाएं जुटाने वाली एजेंसियां भारत में सबसे ज्यादा हैं. जिन पर अरबों रुपए पानी की तरह बहाया जाता है, बावजूद इसके खुफिया तंत्र इतना जर्जर बना हुआ है किआंतकी बड़ी आसानी से अपना काम कर जाते हैं और किसी को कानों-कान खबर भी नहीं होती. खुफिया एजेंसियों की नाकामियों की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त देखकर तो यही लगता है जैसे नौसिखियों के कंधों पर देश की सुरक्षा का जिम्मा हो. खुफिया एजेंसियों द्वारा समय-समय पर जारी की जाने वाली चेतावनी मौसम विभाग की भविष्यवाणियों की तरह ही हो गई है, जिसको न तो संबंधित अधिकारी ही गंभीरता से लेते हैं और न आम आदमी. एजेंसियां बिना किसी सटीक जानकारी के आतंकी हमलों की सूचना वक्त दर वक्त इसलिए उछालती रहती हैं ताकि अनहोनी होने पर वो यह कहकर अपना पल्ला झाड़ सकें कि हमने तो पहले ही आगाह किया था. यूपी, आंध्रप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक और अब गुजरात में हुए धमाके इस बात का सुबूत हैं कि हमारा खुफिया तंत्र कितनी सक्रीयता से काम कर रहा हैं. इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आई बी भारत की सबसे पुरानी खुफिया एजेंसी है. 1933 में ब्रिटिश शासनकाल के दौरान अस्तित्व में आई आईबी की कमान आजादी के बाद संजीवनी पिल्लई ने पहले भारतीय निदेशक के रूप में संभाली. तब से अब तक आईबी देश की सुरक्षा से जुड़ी आंतरिक सूचनाओं को जुटाने का काम कर रही है. आईबी में भारतीय पुलिस सेवा और आर्मी के तेज-तर्रार अफसरों को शामिल किया जाता है. बावजूद इसके सटीक सूचनाओं के मामले में इसका दामन खाली ही रहा है.


कुछ ऐसा ही हाल देश की पहली विदेशी खुफिया एजेंसी रिसर्च एनालिसिस विंग यानी रॉ और अन्य एजेंसियों का है. अंतरराष्ट्रीय जासूसी के लिए इंदिरा गांधी सरकार ने 1968 में रॉ का गठन किया. जाने-माने खुफिया अधिकारी आर.एन.कॉव को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई. कॉव के जामने में रॉ ने कई उल्लेखनीय काम किए. दुनिया में इसकी तुलना केजीबी, सीआईए और मोसाद जैसे खुफिया संगठनों में की जाने लगी. लेकिन 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने रॉ को लगभग ठप कर दिया. विदेशों में इसके दफ्तर बंद कर दिए गये, बजट भी बहुत कम कर दिया गया. ऐसा इसलिए क्योंकि देसाई रॉ को इंदिरा गांधी का वफादार संगठन मानते थे. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी के कार्यकाल में भी रॉ को खासी तवाो दी गई.लेकिन बाद की सरकारों ने इसे अपनी प्राथमिकता से निकाल दिया. रॉ की विफलता का दूसरा प्रमुख कारण अधिकारियों का काम के प्रति घटता रुझान भी है. रॉ से जुड़े कुछ अधिकारी स्वयं इस बात को स्वीकारते हैं कि अधिकतर अफसर विदेशों में महज मौज-मस्ती के लिए ही तैनाती करवाते हैं. हाल ही के दिनों में रॉ अधिकारियों की विदेशों में हुस्न के जाल में फंसकर सूचनाएं लीक करने की ढेरों खबरें सामने आई हैं. नेपाल चुनाव के संबंध में भी जांच एजेंसी की नाकामी उजागर हो चुकी है. जयपुर बम धमाकों के वक्त राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार एम.के. नारायण ने भी यह स्वीकारोति की थी कि पूरा खुफिया तंत्र विफल हो गया है. नारायण के बयान को लेकर काफी हो-हल्ला हुआ था. खुफिया तंत्र को मजबूत करने की बातें भी हुर्इं थी मगर हकीकत सबके सामने है. खुफिया एजेंसियों की विफलता की कहानी कोई नई नहीं है, आजादी के बाद से ही ये सिलसिला चला आ रहा है. महात्मा गांधी की हत्या को भी खुफिया एजेंसियों के उन एजेंटों की नाकामी के रूप में देखा गया जो कट्टर हिंदूवादियों पर नजर रख रहे थे. इंदिरा गांधी की हत्या की साजिश तो दिल्ली में ही बनती रही लेकिन खुफिया एजेंसियों को इसकी भनक भी नहीं लगी. राजीव गांधी की हत्या की आशंका की सूचना इस्त्राइली सूत्रों के जरिए फिलिस्तीनी नेता यासिर अराफात ने खुद पत्र लिखकर दी थी, तब भी एजेंसियों ने सरकार को नहीं चेताया. इसी तरह पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या नरसिंह राव सरकार के कार्यकाल में खुफिया एजेंसियोंकी सबसे बड़ी नाकामी मानी जाती है. ऐसे ही कारगिल घुसपैठ, कंधार विमान अपहरण कांड और संसद पर हमला पूरे खुफिया तंत्र की पोल खोलने के लिए काफी है. इसके साथ ही आतंकवादियों के बेखौफ वारदातों को अंजाम देने की एकऔर प्रमुख वजह घटिया पुलिस तंत्र भी है. राज्य सरकारें पुलिस को दुरुस्त करने के नाम पर महज खानापूर्ती के अलावा कुछ नहीं करतीं. पुलिस आधुनिकीकरण के नाम पर सालाना एक हजार करोड़ रुपये खर्च होते हैं बावजूद इसके आतंकी घटनाओं पर लगाम लगाने में पुलिस पूरी तरह नाकाम साबित हो रही है. राज्य सरकारें आधुनिकीकरण की योजना को आगे बढ़ाने की बजाए केंद्र से मिले पैसे का भी पूरा सदुपयोग नहीं कर पा रही ह्रै.




पिछले कुछ वर्षों के दौरान केंद्र से मिले लगभग सात हजार करोड़ रुपये में से डेढ़ हजार करोड़ रुपये बिना खर्च के पड़े हैं. केंद्रीय गृह मंत्रालय वर्ष 2005 से आधुनिकीकरण के लिए जम्मू-कश्मीर व पूर्वोत्तर राज्यों पूरा धन देता है. जबकि बाकी राज्यों को 75 फीसदी धन ही देता है. लेकिन राज्यों को अपने हिस्से का यह 25 फीसदी पैसा जुटाना भारी पड़ रहा है. यही वजह है कि लगभग हर साल इस योजना का बड़ा हिस्सा खर्च नहीं हो पाता है. पुलिस के आधुनिकीकरण के लिए केन्द्र वैसे तो वर्ष 1960 से राज्यों को पैसा देता रहा है. तब केंद्र और राज्य 50:50 फीसदी खर्च वहन करते थे. लेकिन वर्ष 2005 में इसमें संशोधन करके केन्द्र ने अपना हिस्सा 75 फीसदी कर दिया. इस पर भी ज्यादातर राज्य पैसे की कमी का रोना रोते रहते हैं. केन्द्र लगातार कहता रहा है कि राज्यों को अपने यहां 500 लोगों पर एक पुलिस जवान का औसत बनाने के लिए पुलिस की संख्या बढ़ानी चाहिए. अभी यह औसत 699 लोगों पर एक पुलिस जवान ही है. केन्द्र ने वर्ष 2001-02 से 2007-08 तक राज्यों को इस योजना के तहत 6385.23 करोड़ रुपये दिये. लेकिन लगभग सभी राज्य सरकारें अपने हिस्से का पूरा पैसे का उपयोग नहीं कर पाईं. वर्ष 2001 में 191.7 करोड़, 2002 में 277.38 करोड़, वर्ष 2003 में 140.09 करोड़ और वर्ष 2005 में 258.83 करोड़ तथा वर्ष 2006-07 में 335 करोड़ रुपये खर्च नहीं हो पाए. ऐसे में यह कैसे अपेक्षा कि जा सकती है कि आतंकवादी वारदातों पर लगाम लग पाएगी.


भारत क ा खुफिया तंत्र-रिसर्च एवं एनालिसिस विंग यानी रॉ
-इंटेलिजेंस ब्यूरो यानी आईबी
-ऑल इंडिया रेडियो मॉनिटरिंग सर्विस
-ज्वाइंट साइबर ब्यूरो
-सिग्नल्स इंटेलिजेंस निदेशालय
-एविएशन रिसर्च सेंटर
-डिफेंस इंटेलिजेंस एजेंसी
-डायरेक्ट्रेट ऑफ मिलिट्री इंटेलिजेंस
-डायरेक्ट्रेट ऑफ नेवेल इंटेलिजेंस
-डायरेक्ट्रेट ऑफ एअर इंटेलिजेंस

अन्य एजेंसियां-डायरेक्ट्रेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस
-एन्फोरर्समेंट डायरेक्ट्रेट
-केंद्रीय ब्यूरो अन्वेक्षण यानी सीबीआई
-नारकोटिक्स ब्रांच
-राज्यों की पुलिस की गुप्तचर शाखाएं.
एिअर इंटेलिजेंस

असफलता क ी प्रमुख घटननाएं-3 जनवरी, 1948, दिल्ली की प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी की हत्या.
-31 अक्टूबर, 1984, प्रधानमंत्री निवास के सुरक्षाकर्मियों में सेंध लगाकर इंदिरा गांधी की हत्या.
-दिल्ली में सांसद ललित माकन और महानगर पार्षद अर्जुन दास की खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा दिन दहाड़े हत्या.
-पंजाब में अकाली नेता संत हरचंद सिंह लोंगोंवाला की हत्या.
-तमिलनाडू के श्रीपेरुबुदूर में चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी की हत्या.
-छह दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस.
-पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की बम विस्फोट में हत्या.
-कारगिल में पाकिस्तान की घुसपैठ.
-दिल्ली में संसद और लाल किले पर हमला.
-जम्मू-कश्मीर विधानसभा और रघुनाथ मंदिर पर हमला.
-कंधार विमान अपहरण कांड.
-अहमदाबाद में अक्षरधाम मंदिर पर हमला.
-अयोध्या में आतंकवादी हमला.
-मुंबई में लोकल टे्रनों में सिलसिलेवार धमाके.
-दिल्ली में दीवाली से ठीक पहले बम धमाके.
-हैदराबाद और मालेगांव की मस्जिदों के पास धमाके.
-वाराणसी के संकट मोचन मंदिर में बम विस्फोट.
-जयपुर में सिलसिलेवार बम विस्फोट.


नीरज नैयर