Monday, December 26, 2011
असहमति का ये अंदाज कितना जायज
नीरज नैयर
मानसिक दीवालियापन क्या होता है, ये कांंग्रेसी नेता बहुत अच्छे से समझते हैं। यूं तो लगभग हर राजनीतिज्ञ कभी न कभी इस स्थिति से गुजरता है लेकिन जिस तरह से कांग्रेसी अन्ना हजारे के खिलाफ अपशब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं उससे कांग्रेस के बिगड़ते मानसिक संतुलन का आभास स्वत: ही हो जाता है। पहले दिग्विजय सिंह अन्ना के खिलाफ आगे आए, फिर कमान मनीष तिवारी ने संभाली अब केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद जहर उगल रहे हैं। बीते कुछ दिनों में ही बेनी प्रसाद कई बार अन्ना पर हमला बोल चुके हैं, इन हमलों के लिए उन्होंने जिन शब्दों का इस्तेमाल किया वो गंदी राजनीति के परिचायक हैं। बेनी ने अन्ना को पागल बूढ़े से लेकर भगोड़ा फौजी तक कह डाला, अफसोस की बात तो ये है कि उन्हें इसका कोई पछतावा भी नहीं है। उल्टा दिन ब दिन उनके शब्दों का स्तर और गिरता जा रहा है। बेनी का निजी जीवन कैसा रहा ये अलग बात है, लेकिन एक केंद्रीय मंत्री के तौर पर इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल कहां तक जायज है ये सवाल कांग्रेस से पूछा जाना चाहिए। बेहद अफसोस की बात है कि हमारे देश में सरकार या सांसदों के खिलाफ आम आदमी के शब्दों को विशेषाधिकार हनन मान लिया जाता है, लेकिन सांसद या सरकार में बैठे नेताओं को कुछ भी बोलने की आजादी है। क्या आम आदमी का कोई विशेषाधिकार नहीं है, क्या इज्जत और सम्मान पर महज माननीयों का कॉपीराइट है? मतभिन्नता अलग बात है, किसी की बातों-विचारों से असहमत हुआ जा सकता है। लेकिन इस असहमति को अपशब्दों में बयां करना कितना उचित है।
गली-मोहल्ले के मवाली से तो उम्मीद नहीं की जा सकती कि वो सभ्य व्यक्ति की तरह पेश आए। महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग एवं बुद्धिजीवियों से ही ऐसी अपेक्षा होती है, लेकिन इनका नैतिक और वैचारिक पतन निश्चित तौर पर चिंता का विषय है। बेनी प्रसाद की बदजुबानी की असल वजह, अन्ना द्वारा राहुल का विरोध है। लोकपाल बिल पर अन्ना ने राहुल को सीधे तौर पर टारगेट किया, इसे लेकर ही बेनी सरीखे कांग्रेसी मर्यादाओं को तार-तार करने पर तुले हैं। अन्ना ने साफ, सरल , स्पष्ट और सभ्य शब्दों में राहुल को कमजोर लोकपाल के लिए जिम्मेदार ठहराया, लेकिन वो अपनी मर्यादा नहीं भूले। उन्होंने मनमोहन सिंह या किसी दूसरे मंत्री को भी कठघरे में खड़ा किया तो शब्दों के इस्तेमाल में सतर्कता बरती, मगर कांग्रेस नेता शुरूआत से ही बदजुबानी और बेहयाई की हदें पार करते आ रहे हैं। सबसे ज्यादा ताज्जुब की बात तो ये है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी अपने नेताओं के इस आचरण को उनकी निजी राय बताकर पल्ला झाड़ लेती है। क्या बेनी, दिग्गी और तिवारी का विषवैमन उनकी निजी राय है, अगर है, तो क्या कांग्रेस को उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं करनी चाहिए। जुबान कभी-कभी फिसलती है, पर जिस तरह से दिग्गी, बेनी बोलते आए हैं उसे जुबान फिसलना नहीं जुबान की खाज मिटाना कहा जाएगा। कांग्रेस अलाकमान की खामोशी से साफ जाहिर होता है कि असहमति के इस अंदाज को उसका समर्थन है। बेनी अन्ना को फौज का भगोड़ा बताते हैं, लेकिन अपनी पृष्ठिभूमि में झांकने की हिम्मत नहीं करते। बेनी और उनके बेटे पर हत्या के प्रयास का मामला चल रहा है, तो क्या उन्हें अपराधी कहकर संबोधित नहीं किया जाना चाहिए।
बेनी और दिग्गी अन्ना को संघ का एजेंट बताने पर तुले हैं, दिग्गी ने तो एक समाचार पत्र में छपी खबर का हवाला देते हुए अपने आरोपों को सच साबित करने की कोशिश की है। इस तस्वीर में अन्ना संघ पदाधिकारी नानाजी के साथ नजर आ रहे हैं, लेकिन एक तस्वीर ऐसी भी है जिसमें दिग्विजय खुद नानाजी के साथ हैं। मगर उनके और कांग्रेस के लिए दोनों के मायने बिल्कुल अलग हैं। यदि वो तस्वीर अन्ना और संघ के रिश्तों को उजागर करती है तो फिर दिग्गी खुद भी संघ के एजेंट हुए। दरअसल, कांग्रेस ये साबित करना चाहती है कि अन्ना भाजपा और संघ के इशारे पर उसे निशाना बना रहे हैं। इस कोशिश में वो इतना रम गई है कि सही- गलत में अंतर भी नजर नहीं आ रहा है। अलबत्ता तो किसी के साथ खड़े होने या मुलाकात करने से उनके बीच में संबंध स्थापित नहीं हो जाता और यदि अन्ना का संघ से जुड़ाव रहा भी है तो इसमें हो-हल्ले वाली बात क्या है। संघ को तो कांग्रेसी ऐसे प्रचारित करते हैं जैसे वो कोई आतंकवादी संगठन हो। गनीमत है कि सरकार या कांग्रेसियों को अन्ना के किसी पाकिस्तानी से बातचीत/ मुलाकात के सबूत नहीं मिले, वरना उन्हें देशद्रोही भी करार दे दिया जाता। अलग-अलग विचारधाराओं के राजनेता खुद भी जब किसी समारोह में मिलते हैं तो खिलखिलाकर बातें करते हैं, तो क्या वो एक-दूसरे के एजेंट हो गए। तमाम मंत्री, नेता नरेंद्र मोदी के गले लगते हैं, ऐसे में तो उन्हें भी गुजरात दंगों का गुनाहगार ठहराया जाना चाहिए। पीडीपी प्रमुख मेहबूबा मु$फ्ती ने सरकारी बैठक में मोदी की तारीफों के पुल बांधें थे, सरकार के पास इसके रिकॉर्ड भी मौजूद हैं। फिर क्यों नहीं उनके खिलाफ जांच शुरू कराई जाती।
इस बात को कांग्रेस भी अच्छे से जानती है कि उसके नेता जिन तथ्यों को आधार बनाकर अन्ना संघ में तार जोडऩे में लगे हैं, उनमें कोई दम नहीं। लेकिन चूंकि अन्ना को बदनाम करना है, इसलिए कोशिशों को परवान चढ़ाया जा रहा है। अन्ना के पहले आंदोलन के वक्त भी सरकार ने उन्हें गलत साबित करने के लिए सारे रिकॉर्ड खंगाल डाले, मगर उसे ऐसा कुछ भी नहीं मिला जिसे अन्ना के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सके। तब भी अन्ना के लिए भगोड़ा जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया, मगर सेना ने ऐसे आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया। बावजूद इसके बेनी प्रसाद फिर से अन्ना पर उंगली उठा रहे हैं, कांग्रेस अगर समझती है कि इस तरह की ओछी राजनीति से वो जनता का समर्थन प्राप्त कर लेगी तो ये उसकी भूल है। जनता इस बात को बखूबी जानती है कि सरकार की स्थिति खिसयानी बिल्ली जैसी है, वो खंबा नोचेगी ही। इसलिए बेहतर होगा कि कांग्रेस अन्ना पर कीचछ उछालने के बजाए सहमति का रास्ता खोजे। बड़ी से बड़ी मुश्किल संवाद के रास्ते हल की जा सकती है। टीम अन्ना बातचीत की मेज पर आने को तैयार है, सरकार को भी अपना अहंकार छोड़कर आगे बढऩा चाहिए।
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