Sunday, June 26, 2011

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास


सरकार चाहती तो टाल सकती थी मूल्यवृद्धि

नीरज नैयर
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास, कई दिनों तक कानी कुतिया, सोई उनके पास। मौजूदा वक्त में आम जनता पर बाबा नागार्जुन का ये कटाक्ष बिल्कुल सटीक बैठता है। दिन ब दिन बढ़ती महंगाई ने चूल्हे की आंच को तो हल्का किया ही है साथ ही आटा-दाल पीसने वाली चक्की की रफ्तार भी मंद पड़़ गई है। आलम ये है कि जब तक लोग चढ़ती कीमतों के साथ खुद को ढाल पाते हैं तब तक महंगाई एक और पायदान ऊपर चढ़ जाती है। अभी कुछ वक्त पहले ही पेट्रोल के दाम में एकमुश्त पांच रुपए की बढ़ोतरी की गई थी, इस इजाफे से गडबड़ाए बजट को आम आदमी संभाल पाता इससे पहले सरकार ने उसके मुंह से निवाला छीनने का बंदोबस्त कर डाला। डीजल में 3, रसोई गैस में 50 और केरोसिन में 2 रुपए की बढ़ोतरी की गई है। पेट्रोल के दाम बढऩे का असर कहीं न कहीं सीमित होता है, लेकिन ये बढ़ोतरी आम जनता के लिए कोढ़ में खाज साबित होगी। रसोई गैस के दाम में सीधे 50 रुपए बढऩे का मतलब है मासिक बजट में 100 से 200 रुपए का इजाफा, बात अगर यहां तक ही रहती तो भी एक बार काम चल सकता था मगर डीजल की कीमत में वृद्धि से पूरे के पूरे बजट का खाका ही दोबारा तैयार करना होगा। सरकार के इस कदम के तुरंत बाद ट्रक ऑपरेटरों ने मालभाड़े में 8 से 9 फीसदी इजाफे का ऐलान कर दिया है, यानी आने वाले चंद दिनों में ही खाने-पीने की हर वस्तुओं के दाम अंतरिक्ष में होंगे, आसमान पर तो पहले से ही हैं। डीजल के दाम में बढ़ोतरी से महंगाई में पांच गुना तक इजाफा होता है, हमारे देश में ईंधन की जितनी खपत होती है उसमें 40 फीसदी हिस्सा डीजल का है। पेट्रोल की हिस्सेदारी तो महज 10 प्रतिशत है। सरकार ने इससे पहले 25 जून 2010 को डीजल के दाम 2, गैस के 35 और केरोसिन कीमत में 3 रुपए प्रति लीटर की बढ़ोतरी की थी, इस लिहाज से देखा जाए तो सरकार ने पूरे एक साल बाद जनता का बोझ बढ़ाने वाला कदम उठाया। लेकिन इस एक साल में उसकी गलत नीतियां हर रोज जनता के गले पर आरी चलाती रहीं।

10-12 रुपए किलो में बिकने वाली सब्जियां 80-90 रुपए किलो के भाव तक पहुंच गईं, दाल ने तो ऐसा रंग दिखाया कि आम आदमी उसका असल रंग तक भूल गया। इसलिए मूल्यवृद्धि पर वक्त के अंतराल के सरकारी तर्कों को स्वीकार नहीं किया जा सकता। सामान्य तौर पर यदि आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं चल रही हो तो इंसान अपनी सुख-सुविधाओं में कटौती करता है ताकि उसकी जरूरतों की गाड़ी चलती रही, लेकिन सरकार इससे बिल्कुल उलट ट्रैक पर चल रही है। अपनी सुख-सुविधाओं और ठाठ-बाट में कमी करने के बजाए वो जनता की मूलभूत जरूरतों में भी कटौती करने पर उतारू है। अगर मूल्यवृद्धि इतनी ही जरूरी थी तो सरकार को पेट्रोलियम उत्पादों पर लगने वाले करों को बिल्कुल खत्म कर देना चाहिए था। ये अच्छी बात है कि उसने एक्साइज और कस्टम ड्यूटी कम की है, लेकिन ये कमी मूल्यवृद्धि से पैदा हुई खाई को पाटने में कारगर नहीं है। हमारे देश में पेट्रोलियम उत्पादों पर पहले केंद्र सरकार तरह-तरह के टैक्स लगाती है और इसके बाद राज्य सरकारें करों के फेर में आम जनता का तेल निकाल देती हैं। अनुमान के तौर पर एक लीटर पेट्रोल पर सरकार 14.35 रु पए एक्साइट ड्यूटी, 2.65 रुपए कस्टम (कमी से पहले तक), 7.05 रुपए वैट, 1 रुपए एजुकेशन सेस और करीब 3.08 रुपए अन्य कर लगाती है, इस तरह एक लीटर पेट्रोल पर तकरीबन 28.13 रुपए टैक्स के होते हैं। इसमें राज्यों के करों का आंकड़ा शामिल नहीं है। आमतौर पर सरकार हर बार दाम बढ़ाने के बाद राज्यों से अपने खजाने में कमी की उम्मीद करती है, इस बार भी उसने राज्यों से करों में कमी करने को कहा है। कायदे में तो महंगाई पर हो-हल्ला करने वाले राज्यों को भी जनता के प्रति संवेदनशील बनते हुए उसका बोझ कम करने के लिए आगे आना चाहिए, लेकिन वो इसे पूरी तरह केंद्र की जिम्मेदारी समझते हैं। वैसे काफी हद तक ये गलत भी नहीं है, क्योकि हमेशा बड़ों से ही बलिदान की अपेक्षा की जाती है। पर फिर भी कहीं न कहीं उन्हें ममता बनर्जी से सीख लेने की जरूरत है, ममता ने पश्चिम बंगाल की जनता का बोझ हल्का करने के लिए रसोई गैस पर लगने वाले सैस को कम किया है।

इससे राज्य की जनता को मौजूदा मूल्यवृद्धि में 16 रुपए की राहत मिली है। पेट्रोल पर सबसे ज्यादा कर आंध्र प्रदेश में लगता है, इसकी दर यहां 33 प्रतिशत है। इसके बाद दूसरा नंबर तमिलनाडु का है, यहां सरकार नागरिकों पर 30 फीसदी अतिरिक्त बोझ डालती है। ऐसे ही केरल में 29.1 और पश्चिम बंगाल में 25 फीसदी टैक्स पेट्रोल पर वसूला जाता है। मध्यप्रदेश सरकार पेट्रोल पर 28.75 और डीजल पर 23 फीसदी टैक्स लगाती है। इस मामले में पांडेचरी सबसे नीचे है, यहां पट्रोल पर केवल 15 प्रतिशत कर है, जबकि हरियाण और पंजाब डीजल पर कर लगाने के मामले में सबसे पीछे हैं। हरियाणा सरकार ने अब टैक्स का बोझ थोड़ा और कम कर दिया है। वैसे सरकार अगर चाहती तो डीजल की कीमत में इजाफे को टाल सकती थी, क्योंकि जिस कच्चे तेल की कीमत को आधार बनाकर दाम बढ़ाए गए उसमें नरमी का रुख था और नरमी का प्रतिशत और बढऩे की पूरी संभावना थी। अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम मूल्यवृद्धि से 48 घंटे पहले नीचे आए थे। सरकार ने वैसे भी टैक्सों में कमी करके तेल कंपनियों के फायदे का रास्ता साफ किया ही था, ऐसे में वो कपंनियों को साफ तौर पर कह सकती थी कि महंगाई के दौर में दाम बढ़ाने के लिए उन्हें थोड़ा इंतजार करना होगा। मगर, उसने जनता से ज्यादा तेल कंपनियों के कथित नुकसान को तरजीह दी,कथित इसलिए क्योंकि बैलेंसशीट में हर साल बढ़-चढ़कर मुनाफा दर्शाया जा रहा है। वित्तीय वर्ष 2008-09 में एचपीसीएल का मुनाफा 574.5 करोड़ पहुंचा था। कुछ इसी तरह इंडियन ऑयल ने 2009-10 में 5556.77 करोड़ और भारत पेट्रोलियम ने 5015.5 मुनाफा कमाया। इसके बाद भी कंपनियों की तरफ से घाटे का रोना रोया जाता रहता है। दरअसल इसे नुकसान नहीं बल्कि अंडररिकवरी कहा जा सकता है। यानी मुनाफे के एक अनुमानित आंकड़े से कम की प्राप्ति। तेल कंपनियां जितने मुनाफे का गणित लगा रही हैं, उन्हें उससे कम मिल रहा है। जिसे नुकसान के तौर पर प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है। सरकार भी खुद आगे बढ़कर कह रही है कि कंपनियों के नुकसान की भरपाई के लिए दाम बढ़ाना मजबूरी थी।

मजबूरी जैसा शब्द आम आदमी के मुंह से तो अच्छा लगता है, लेकिन सरकार जब मजबूरी की बात करने लगे तो उसकी क्षमताओं पर उंगली उठना लाजमी है। बात केवल दाम बढ़ाने की नहीं है, सरकार की नीतियों की भी है। सरकार ने ऐसी नीतियां बना रखी हैं, जिसमें आम जनता के हित के लिए कुछ नहीं। कच्चे तेल के बढ़ते दामों का हवाला देकर पेट्रोल-डीजल की कीमतों में इजाफा तो किया जाता है, लेकिन उसमें नरमी आने का फायदा जनता को नहीं मिलता। जबकि चीन जैसे दूसरे देशों में दोनों बातों का ख्याल रखा जाता है। कम से कम मौजूदा वक्त में तो सरकार को इस वृद्धि से बचना चाहिए था, अगर दाम बढ़ाने ही थे तो पहले महंगाई को कुछ कम करने के बारे में सोचना चाहिए था। एक तरफ सरकार महंगाई पर चिंता के आंसू बहाती है और दूसरी तरफ उसे भड़काने का इंतजाम करती है, इससे तो यही लगता है कि वो आम जनता के प्रति पूरी तरह से संवेदनशून्य हो चुकी है।

Monday, June 13, 2011

नौ दिन में क्या से क्या हो गया योगी



चलिए बाबा का अनशन आखिरकार खत्म हो गया। पिछले नौ दिनों से बाबा के हठ ने बेफिजूल में सरकार को टेंशन दे रखी थी। बेफिजूल इसलिए क्योंकि सरकार बखूबी जानती थी कि इस हठ से होना-हवाना कुछ नहीं है, फिर भी जनता कहीं भावुक न हो जाए ये सोच-सोच कर उसे टेंशन हो रही थी। वैसे खबरनवीसों को छोड़कर बाकी लोगाबाग भी टेंशन में थे, क्योंकि बाबा के अलावा कुछ देखने-सुनने को मिलता ही नहीं था। चाहे अखबार के पन्ने पलटना हो या टीवी के चैनल बदलना हर तरफ बाबा ही बाबा थे। बाबा लंबे समय तक खबरों में लीड करते रहे, और उम्मीद है कि आगे में सुर्खियों में छाय रहेंगे। वो इसलिए कि सरकार अब टेंशन का बदला लेने पर उतारू हो चुकी है। सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग बाबा की कुंडली खंगालने में लगे हैं, यानी टेंशन लेने की बारी अब बाबा की है। वैसे बाबा के टेंशन का स्तर सरकार के टेंशन से ज्यादा होगा, योगगुरु के पास योग संपदा के अलावा भी बहुत कुछ है। बाबा का अरबों को साम्राज्य है, विदेशों में आइलैंड हैं, ऐसे में पाई-पाई का हिसाब देते-देते मासपेशियां खिंच जाएंगी। तमाम टेंशनों के बावजूद, एक तरह से ये अच्छा हुआ कि बाबा को आंदोलन का चस्का लगा। इस चस्के में उनके योग की जांच पड़ताल भी हो गई। देश से लेकर विदेशों तक योग का डंका बजाने वाले बाबा 200 साल तक जीने का दावा करते रहे, महीनों तक अनशन की रट लगाते रहे। लेकिन नौ दिन चला अढाई कोस की तरह महज नौ दिनों में ही ये योगी पस्त हो गया।

इतना पस्त हो गया कि शक्ल मुरझाए हुए छुआरे माफिक हो गई। नौदुर्गे के व्रत में कई आम लोग लॉंग के जोड़े पर ही नौ दिन गुजार देते हैं, मगर असाध्य बीमारियों का रामबाण इलाज बताने वाले रामदेव अपने योग से अपना भला भी नहीं कर सके। फिलहाल तो बाबा नौ दिनों की कमी पूरी करने में जुटे हैं, एक-दो दिन में चेहरे पर पुरानी रंगत लौट ही आएगी। लेकिन पुराने भक्त लौटेंगे या नहीं ये सबसे बड़ा सवाल है और ये सवाल बाबा को भी खाए जा रहा होगा। कहतें हैं ज्यादा चतुराई भी कभी-कभी भारी पड़ जाती है, बेचारे बाबा भी चतुराई में मारे गए। अच्छी-भलि सरकार शीर्षासन करने लगी थी, मगर बाबा मेक इट लार्ज का ख्वाब पाले हुए थे। और अब खुद झुकासन की मुद्रा में हैं। बाबा को अनशन की प्रेरणा जरूर अन्ना से मिली मगर उसका क्लाइमैक्स बिल्कुल बॉलीवुड की मसाला फिल्मों की तरह रहा। रात के अंधेरे में डाकुओं की एंट्री, राबिन हुड टाइप हीरो का अपने समर्थकों की आड़ में भागना लेकिन पकड़े जाना। कुछ अलग था तो बस इतना कि यहां डाकुओं की जगह पुलिस थी। वैसे हमारी पुलिस डाकुओं से कम भी नहीं है, वो कानून तोड़कर लोगों की तुड़ाई किया करते थे ये कानून के साथ लोगों को तोडऩे में विश्वास रखती है। बाबा की अनशन रूपी नौटंकी में सबसे दिलचस्प सीन रहा, योगगुरु का स्त्री के वेष में आना। ऐसा अक्सर गोविंदा की फिल्मों में देखने को मिलता था। गोविंदा को ये महारथ हासिल थी कि लड़की बनकर वो लड़की के अंकल को पटाता और लड़का बनकर लड़की को। लेकिन बाबा एक पुलिस को नहीं पटा पाए। हालांकि पटाना आसान भी नहीं था, एकाध पुलिसवाला होता तो ले-देकर पटा भी लिया जाता, पर रामलीला में लीला करने के लिए 10 हजार खाकीवर्दी वाले मौजूद थे। बाबा के साथ बालाकृष्ण भी भागे, शायद बलाकृष्ण को भागने की अच्छी आदत है इसीलिए बाबा रूप बदलकर भी धरे गए, लेकिन बाबा का बाला पुलिस को चकमा देने में कामयाब रहा। कुछ दिनों तक ढुंढाई मची, पर जैसे ही बात नेपाल तक गई बाला प्रकट हो गए।

खबरचियोंं को देखते ही आंखों से आंसू टपकाए और एक स्क्रिप्ट पढ़ डाली। बाला का रोना अनशन का सीक्वल था, पहले बाबा के आंसू गिरे और फिर उनके सहयोगी के। वैसे रोने-धोने के सीन की अपेक्षा जनता ने भी नहीं की होगी। योगी से सबको धमेंद्र या सनी देओल के हैंडपंप उखाडऩे जैसे आचरण की उम्मीद थी, मगर बाबा श्वेत-श्याम जमाने की अदाकारा निरुपमा रॉय साबित हुए जिन्हें ज्यादातर लोगों ने कभी हंसते हुए नहीं देखा होगा। मां का किरदार एक तरह से निरुपमा रॉय का पेटेंट था, उनके अलावा मां बनने वाली दूसरी अभिनेत्रियां मां लगती ही नहीं थीं। इस पर्दे की मां को तो चंद पलों के लिए सिनेमाघरों में बैठे दर्शकों की सहानभति मिल जाती थी, मगर हमारे योगी महाराज को वो भी नसीब नहीं हुई। बाबा के आंसूओं को देख केवल उन्हीं के आंसू निकले या जबरदस्ती निकाले जो बस बाबा में ही रम गए हैं। 196 घंटों के इस एपीसोड के अंत के पीछे मान-मनौव्वल को प्रमुख वजह माना जा रहा है, आर्ट ऑफ लिविंग श्रीश्री रविशंकर सहित संतों, नेताओं और बाबा के सैंकड़ों समर्थकों के हठ से बाबा अपना हठ छोडऩे को मजबूर हुए। अगर ऐसे ही मजबूर वो थोड़ा सा पहले हो गए होते तो न रामलीला मैदान में पुलिस की लीला होती और न यूं अस्पताल में पड़े रहना पड़ता। वैसे बाबा की मजबूरी के पीछे मान-मनौव्वल के अलावा भी एक कारण है, वो है सरकार से मिलने वाली टेंशन का टेंशन। योगी को आभास हो चला था कि हठी सरकार पिघलने वाली नहीं है, जो मीडिया कल तक उनके सत्याग्रह को नए भारत के उदय के रूप में प्रचारित कर रहा था उसने भी पलटी मार ली है। इसलिए हठी के आगे हठ करने से कोई फायदा नहीं।

जितना ज्यादा हठ होगा उतना ही ज्यादा सरकार और मीडिया वार करते जाएंगे। सरकार तो सरकार ठहरी जिससे दुश्मनी ठान ली उसे सड़क पर लाकर ही मानती है। फिल्म सरकार में जब सरकार यानी अमिताभ बच्चन पूरी गुंडा बिरादरी में भारी पड़ता है तो फिर यहां तो पूरी की पूरी फौज है। प्रणब, चिदंबरम, सिब्बल, सहाय और खुद मनमोहन सिंह। मनमोहन जितने मनमोहनी लगते हैं असल में उतने हैं नहीं। ऊपर से सॉफ्ट और अंदर से हार्ड (कड़क) तभी तो पिटाई जैसे कड़े फैसले चंद घंटों में कर लेते हैं और बाद में अफसोस जताकर अपने सॉफ्ट होने का परिचय देते हैं। महंगाई को ही लें, मनमोहन सिंह कई बार चढ़ते दामों पर चिंता जता चुके हैं, लेकिन फिर भी तेल कंपनियों को पेट्रोल के दाम बढ़ाने की छूट दिए जा रहे हैं। ऐसे में बाबा को छोडऩे का तो सवाल ही नहीं बनता। खैर ये तो सरकार की सरकारियत ठहरी, जहां तक बात मीडिया के बाबा का बैंड बजाने की कवायद की है तो वो इस कला में माहिर है। वो भी पुलिस की तरह लेन-देन में विश्वास रखती है। कुछ मिला तो नायक नहीं तो खलनायक। बाबा को महिमामंडित करके सरकार से बैर लेने के खतरे के आकलन के बाद खबरनवीसों पर से पलभर में ही बाबा प्रेम उतर गया। फिलहाल तो बाबा अपने भविष्य को लेकर चिंता में हैं, और ये चिंता कहीं उनकी चंचलता न हर ले इस बात की टेंशन उन्हें हमेशा रहेगी।

Saturday, June 11, 2011

हुसैन के समर्थन से पहले जरा सोचें



नीरज नैयर
मशहूर चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन 9 जून को दुनिया से विदा हो गए। उनकी मौत की खबर ने संपूर्ण कला जगत को स्तब्ध कर दिया। मकबूल साहब बेशक 2006 में भारत से नाता तोड़कर कतर के हो गए थे, लेकिन उनके कद्रदानों की सूची यहां दिन ब दिन लंबी होती गई। कला और संगीत ऐसे हैं जिन्हें सीमाओं के बंधन में नहीं बांधा जा सकता। मकबूल जब कतर में बैठे-बैठे कूचीं चलाते तो रंगों की सुगंध भारत तक महसूस होती। बहुत थोड़े से वक्त में हुसैन साहब एक बहुत बड़ी शख्सियत बन गए। भारत में रहते वक्त भी उनकी कला की विदेशों तक चर्चा होती। एक चित्रकार के तौर पर उनका कोई सानी नहीं था, इसीलिए उन्हें हिंदुस्तान का पिकासो कहा जाता है। कहने वाले कहते हैं कि हुसैन साहब की खींची हुईं रेखाएं बेजान कलाकृति में भी जान डाल देती थीं। उनके जाने के बाद अब उनकी चित्रकारी और उनसे जुड़े विवादों को लेकर चर्चा शुरू हो गई है। अक्सर किसी के जाने के बाद ही उसके जीवन को फिर से रेखांकित करने की कवायद शुरू होती है। अगर गुजरने वाला कोई बड़ी शख्सियत हो तो तमाम लेखक-पत्रकार उनसे जुड़ी बातों को शब्दों में पिरोने में जुट जाते हैं। जो नहीं जानते थे, वो भी अच्छाइयां-बुराईयां गिनाने लगते हैं। ऐसे ही एक प्रतिष्ठित अखबार में किसी लेखक का लेख पढऩे को मिला। लेख में हुसैन साहब की कला की जितनी तारीफ की गई, उससे ज्यादा उन लोगों को कोसा गया जो उनकी चित्रकारी को अश£ीलता की नजरों से देखा करते हैं।

मकबूल फिदा हुसैन के माधुरी प्रेम के साथ-साथ उनकी चर्चा हिंदू अराध्यों की नगन तस्वीरें बनाने के लिए भी होती रही। लेकिन इन लेखक साहिब को इसमें कुछ भी अश£ील और असभ्य नहीं लगा। इस नहीं लगने के पीछे उन्होंने कई तर्क भी दिए। मसलन, जब मां काली की प्रतिमा को अश£ील नहीं माना जाता, शिवलिंग की पूजा-अर्चना करने वालों के मन में उसे लेकर कोई गलत विचार नहीं पनपता तो हुसैन की रेखाओं को नगनता कैसे कहा जा सकता है। इसका मैं एक बहुत सीधा सा जवाब देना चाहूंगा, श्रीकृष्ण का चरित्र और उनकी चंचलता से सब वाकिफ हैं। श्रीकृष्ण जिस राधा से प्रेम करते थे उसके अलावा उनकी कई अन्य गोपियां भी थीं। जिनके साथ उनकी अल्पविकसित या कह सकते हैं संक्षिप्त प्रेम लीलाएं चलीं, जिसे आज के जमाने में फल्र्ट कहा जाता है। वो साक्षात भगवान थे, इसलिए उन्होंने जो कुछ किया वो स्वीकार्य हो गया, लेकिन मौजूदा वक्त में यदि कोई उनका अनुसरण करे तो क्या अच्छी निगाहों से देखा जाएगा? क्या समाज में उसकी वही प्रतिष्ठा होगी जो राम की होती है? शायद नहीं, क्योंकि लोग भगवान को उस रूप में स्वीकार सकते हैं लेकिन आम इंसान को नहीं। इसी तरह से शिवलिंग या काली की मूर्तिके पीछे जो कहानी है उसे चित्रों में उतारना भी स्वीकार योगय नहीं।

वैसे भी जिस काली की प्रतिमा का जिक्र लेखक महोदय ने किया है, शायद वो उससे इतने ज्यादा परिचित नहीं, या लिखने से उन्होंने पहले प्रतिमा पर गौर करने की जरूरत ही नहीं समझी। मंदिरों में लगी मां काली की प्रतिमा में ऐसा कुछ है ही नहीं जिसे अश£ीलता की श्रेणी में रखा जा सके, जबकि हुसैन की तस्वीरें रेखाओं में ही नगनता का चित्रण करती हैं। देवी-देवताओं के साथ-साथ हुसैन साहब ने भारत माता का भी बेहद अश£ील चित्रण किया। अगर यह महज कला थी तो उनके मन मेेंं कभी इस्लाम या दूसरे धर्मों की भावानाओं से खेलने का ख्याल क्यों नहीं आया। एक कलाकार धर्म-जात के बंधन से मुक्त होता है, और उसकी सोच भी मुक्त होनी चाहिए। लेकिन हुसैन के साथ ऐसा नहीं था, इसलिए उनकी कूंची सिर्फ हिंदू आस्था के साथ खिलवाड़ करती रही। इस प्रसिद्ध चित्रकार ने सीता और बजरंग बली को जिस रूप में प्रदर्शित किया, वैसा शायद हम-आप सोच भी नहीं सकते। मशाल थामे बजरंग बली पहाड़ लांघे जा रहे हैं और सीता नगन अवस्था में उनकी पूंछ से लिपटी हुई हैं। हिंदुओं के प्रति हुसैन की अश£ीलता महज भगवानों के चित्रण तक ही सीमित नहीं रही, उन्होंने आम इंसानों की छवि को भी उसी रूप में उकेरा। मकबूल साहब की एक पेंटिंग में चोटी धारी पंडित को पूरी तरह निवस्त्र दिखाया गया जबकि पास खड़ा पठान या मौलवी पूरे कपड़ों में हैं। क्या एक समुदाय से जुड़े लोगों और अराध्यों को बिन कपड़ों के कैनवस पर उकेरना ही चित्रकारी है? लेखक महोदय कहते हैं कि हुसैन की तस्वीरों पर बवाल की सबसे बड़ी वजह उनका मुस्लिम होना रहा, दूसरे कलाकारों ने भी ऐसा ही चित्रण किया मगर उनके खिलाफ कभी गुस्सा नहीं पनपा। वैसे लेखक की इस बात में नया कुछ भी नहीं है, हमारे देश में हर बात पर धर्म-समाज की दुहाई देने की परंपरा बन गई है। बॉलिवुड के नामी सितारेां को अगर मकान नहीं मिलता तो उसके लिए मुस्लिम होने का रोना रोते हैं, आजमगढ़ से जब कोई पकड़ा जाता है तो अल्पसंख्कों के प्रति अत्याचार की बाते कहीं जाती है। मैं यहां बस कहना चाहूंगा कि गलत, गलत होता है फिर चाहे वो हिदू करे या मुस्लिम।

जहां तक बात अश£ली चित्रण करने वाले कलाकारों के खिलाफ आक्रोश की है तो शायद लेखक महोदय कुछ वक्त पहले पणजी में हुए हंगामे को भूल चुके हैं। जेवियर रिसर्च इंस्ट्टीयूट में एक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था, जिसमें हिंदू देवताओं की कुछ आपत्तिजनक पेंटिंगस भी प्रदर्शन के लिए रखी गई। हिंदूवादी संगठनों ने इस बात पर इतना बवाल मचाया कि उन कलाकृतियों को प्रदर्शनी से हटाना पड़ा। अपनी बात को सही साबित करने के लिए लेखक महोदय एक और तर्क देते हैं, उनका कहना है कि मकबूल फिदा हुसैन ने पैगंबर साहब या किसी दूसरे मुस्लिम धर्मावलंबी का चित्रण इसलिए नहीं किया क्योंकि इस्लाम में चित्र या मूर्ति बनाने की मनाही है, लेकिन हिंदू धर्म में ऐसी कोई मनाही नहीं। इस तर्क का तो यही मतलब निकलता है कि अगर हिंदू मूर्ति उपासक हैं तो उनके खिलाफ किसी भी हद तक जाने की इजाजत है। पैगंबर साहब या अल्लाह की बात तो छोडि़ए हुसैन ने जब कभी मुस्लिम महिलाओं का चित्रण किया, इस बात का ख्याल रखा कि वो बुर्के में हों। हुसैन की चित्रकारी का अगर विरोध होता है तो उसके वाजिब कारण भी हैं, यदि उनकी कूंची सभी के लिए बराबर भाव रखती तो शायद उन्हें देश छोड़कर जाने की जरूरत नहीं पड़ती। इसमें कोई दो राय नहीं कि वो एक बेहतरीन कलाकार थे, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने लोगों की धार्मिक भावनाओं को बार-बार आहत किया। 1990 में पहली बार धार्मिक भवनााओं को भड़काने वाले उनके चित्र आम जनता के सामने आए, इसके बाद 6 जनवरी 2006 को एक पत्रिका में भारत माता को लेकर उनकी अभद्र पेंटिंग प्रकाशित हुई। हुसैन ने बवाल के बाद माफी मांगी और चित्र वापस लेने का वादा भी किया, मगर वादा निभाया नहीं। थोड़े वक्त बाद ही उनकी आधिकारिक वेबसाइट पर यह तस्वीर चस्पा कर दी गई। क्या इससे ये पता नहीं चलता कि उनका इरादा जानबूझकर समुदाय विशेष को आहत करने का था। लेखक महोदय मेरा आपसे बस यही निवेदन है कि हुसैन की नगनता के समर्थन में तर्क देने से पहले जरा तथ्यों पर भी गौर फरमा लेना चाहिए।

बाबा पर लाठी और गिलानी पर प्यार?

बाबा रामदेव के खिलाफ कार्रवाई को लेकर अब ये सवाल उठने लगे हैं कि क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोगों को अपनी बात कहने का भी हक नहीं है। बाबा अपनी मांगों के साथ शांतिपूर्ण तरीके से अनशन कर रहे थे, उनके मंच से न भड़काऊ भाषण दिए गए और न ही सरकार के खिलाफ किसी युध्द का शंखनाद किया गया। फिर भी उनके समर्थकों पर लाठियां बरसाईं गईं, ऐसा बर्ताव किया गया जैसे वो देश के दुश्मन हों। दिल्ली के रामलीला मैदान पर शनिवार की रात जो कुछ भी हुआ, वैसा अक्सर चीन या म्यांमार जैसे मुल्कों में देखने को मिलता है, जहां लोकतंत्र नाम की कोई चीज नहीं। इस कार्रवाई के बाद अब तमाम तर्क दिए जा रहे हैं, पुलिस बाबा की जान को खतरा बताते हुए अपनी बर्बरता को जायज ठहरा रही है और कल तक बाबा के सामने शीर्षासन करने वाले मंत्री ये बताने में लगे हैं कि अनुमति योग शिविर की ली गई थी अनशन की नहीं। इन तर्कों को स्वीकार भी लिया जाए तो भी जो किया गया क्या वो जायज है? सरकार के इस दमनकारी कदम ने उसकी दोहरी मानसिकता को भी उजागर किया है।

कुछ वक्त पहले हुर्रियत कांफ्रेंस के नेता सैयद अली शाह गिलानी ने दिल्ली में खड़े होकर देश के खिलाफ आग उगली, उनके साथ अरुंधति राय भी मौजूद थी। लेकिन सरकार ने उन पर कोई कार्रवाई नहीं की। अगर बाबा को बगैर अनुमति के अनशन करने पर लाठियां मिल सकती हैं तो गिलानी-अरुंधति पर विषवैमन करने के लिए देशद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं चल सकता। जिस कानून का हवाला देकर बाबा के आंदोलन का दमन किया गया, उसी में भड़काऊ भाषणों की सजा का भी उल्लेख है। यदि कानून सबके लिए बराबर है तो ऐसा होते दिखना भी चाहिए। सरकार अब बाबा में खामियां ढू्रढने में लगी है, उनसे आय के स्रोत पूछे जा रहे हैं, आयकर का हिसाब मांगा जा रहा है। ये साबित किया जा रहा है कि बाबा जैसे दिखते हैं, वैसे हैं नहीं। संभव है कि आने वाले दिनों में रामदेव पर कई मामलों में जांच कराई जाए, उन्हें अदालतों के चक्कर लगाने पड़े। लेकिन फिर भी सरकार ये सिद्द नहीं कर पाएगी कि उसने रात के अंधेरे में जो किया सही किया। बाबा की मांगे जायज-नाजायज हो सकती हैं, मगर उनके अनशन पर बैठने को नाजायज कैसे ठहराया जा सकता है। बाबा ने कालेधन के अलावा जो मांगे सरकार के सामने रखीं, उनमें से यादातर शायद आम जनता के भी गले नहीं उतर रही हों पर फिर भी वो ऐसी किसी कार्रवाई का समर्थन हरगिज नहीं करेगी। सबसे पहले तो लोग यही नहीं समझ पा रहे हैं कि सरकार पहले बाबा के कदमों में क्यों बिछ गई, और बिछ गई तो फिर एकाएक ऐसा क्या हुआ की बाबा उसे दुश्मन लगने लगे। सरकार का कहना है कि बाबा रामदेव ने समझौते के तहत अनशन समाप्ति की घोषणा नहीं की, इसलिए उसे कार्रवाई करनी पड़ी। अगर ऐसा था तब भी सरकार को लोगों को भरोसे में लेकर कार्रवाई को अंजाम देना चाहिए था।

सरकार के इस कदम का सीधा सा यही मतलब निकलता है कि वो अपने खिलाफ आवाज उठने वाली हर आवाज को कुचलना जानती है। कुछ ऐसा ही 1976 में संपूर्ण क्रांति के वक्त हुआ था, जब जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से घबराई इंदिरा गांधी सरकार ने आंदोलन कुचलने के लिए बर्बर तरीका अपनाया था। उस वक्त शायद इंदिरा गांधी ने नहीं सोचा होगा कि इसकी कीमत उन्हें सत्ता खोकर चुकानी होगी, लेकिन ऐसा हुआ। आपातकाल की मार ने इंदिरा गांधी को घर बैठने को मजबूर कर दिया। ये बात बिल्कुल सही है कि बाबा के आंदोलन की तुलना जेपी आंदोलन से नहीं की जा सकती, मगर बर्बरता की सजा देना जनता के हाथ में है और वो कब इतिहास दोहरा दे नहीं कहा जा सकता। अनशन से पहले केंद्र सरकार और बाबा के रिश्तों में मधुरता का दौर भी था। बाबा को आश्रम के लिए जमीन उपलब्ध कराने में सरकार की अहम भूमिका रही, लेकिन जब बाबा कालेधन जैसे मुद्दों पर प्रखर हुए तो वो सरकार की आंखों में चुभने लगे। सरकार को अब याद आ रहा है कि स्वामी रामदेव कितनी कंपनियों के मालिक हैं, उनकी अथाह संपत्ति का राज क्या है। उनकी दवाओं पर लगे आरोपों में कितनी सच्चाई आदि.. आदि..। राजनीतिज्ञों को जनता जितनी भोली लगती है, वो उतनी है नहीं। लोगों अच्छे से जानते हैं कि सरकार जो कुछ भी कर रही है वो बदले की भावना से कर रही है। ऐसे में अगर बाबा पर लगे आरोपों में रत्ती भर भी हकीकत सामने आती है तो भी सहानभूति की लहर बाबा के पक्ष में ही होगी। ये बात वास्तव में सोचने वाली है कि आखिर छोटी सी अवधि में रामदेव ने इतना बडा साम्राय कैसे खड़ा कर लिया। मौजूदा वक्त में बाबा 34 कंपनियों के मालिक हैं, वो चाटर्ड प्लेन से नीचे कदम नहीं रखते। अपनी स्वाभिमान यात्रा के बाद मध्यप्रदेश से दिल्ली की यात्रा उन्होंने अपने विशेष विमान से ही की थी। विदेशों में बाबा की संपत्ति है, उनका कारोबार अरबों में हैं। जिस मुकाम पर पहुंचने में लोगों की पूरी जिंदगी निकल जाती है, बाबा वहां तक पलक-झपकते ही पहुंच गए। लेकिन ये सबकुछ जितना चौंकाने वाला लगता है, उससे काफी यादा चौंकाने वाला है सरकार का रवैया।

सीबीआई, आयकर विभाग या प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियां ऐसे मामलों पर बारीकि से नजर रखती हैं तो फिर उन्हें बाबा की शौहरत-दौलत के बढ़ते ग्राफ पर कभी संशय क्यों नहीं हुआ। इसका सीधा सा जवाब है कि सरकार को उस वक्त बाबा खतरे के रूप में नहीं दिखते होंगे। मगर अब अन्ना हजारे द्वारा जलाई गई भ्रष्टाचार की अलख से बाबा भी प्रभावित हो चुके हैं। लिहाजा उनके विरोधी तेवर सत्ता की चूलें हिलाने का आभास दिलाने लगे हैं। इसलिए अब सरकार को वो दुश्मन नजर आते हैं। मुमकिन है थोड़े वक्त के बाद देश को हिलाने वाला ये मुद्दा ठंडा पड़ जाए, ये भी मुमकिन है कानूनी कार्रवाई के भय से बाबा समझौते की राह पर लौट आएं, लेकिन सरकार के इस दोहरे चरित्र का खामियाजा उसे नहीं उठाना पड़ेगा इसे विश्वास के साथ मुमकिन है नहीं कहा जा सकता।

अगर सरकार बाबा की चिट्टी सार्वजनिक करने के बाद चुपचाप बैठकर तमाशा देखती तो बिना कुछ किए ही उसका काम हो जाता। चिट्ठी सामने आने के बाद लोगों को लगने लगा था कि अनशन महज दिखावा है, ये खुद बाबा की छवि के लिए ही नुकसानदायक होता, लेकिन पुलिसिया अत्याचार का हुक्म देकर सरकार ने एक तरह से अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया है। और इस बर्बर कृत्य के लिए उसे कभी माफ नहीं किया जा सकता।