किसी भी नए प्रोडेक्ट का भविष्य क्या होगा यह काफी हद तक उसकी एडवरटाइजिंग पॉलिसी पर निर्भर करता है. यदिएडवरटाइजमेंट लोगों के दिलों-दिमाग पर छाने में कामयाब रहा तो प्रोडेक्ट की कामयाबी निश्चित है. यही वजह है कि आजकल कंपनियां अच्छे विज्ञापन की चाहत में पानी की तरह पैसा बहाने से भी गुरेज नहीं करतीं. जहां तक उपभोक्ता की बात है तो उसके फैसले भी काफी हद तक विज्ञापन पर टिके होते हैं, लोग ऐड देखते हैं, उनसे प्रेरित होते हैं और अगले दिन प्रोडेक्ट घर ले आते हैं. लुकलुभावन विज्ञापन से प्रभावित होने से लेकर उत्पाद के खरीदने तक कंयुमर विश्वास की इसडोर में बंध जाता है कि जैसा दिखाया गया है वैसा तो होगा ही.
लेकिन अक्सर दिखाने और होने में जमीन आसमान का अंतर होता है. प्रोडेक्ट को जिस तरह से प्रचारित-प्रसारित किया जाता है, उपयोग के वक्त वो इतना असरकारी साबित नहीं होता. इस बारे में अगर एक सर्वे कराया जाए तो अधिकतर लोगों की राय भी यही होगी. आजकल एक्स इफेक्ट केविज्ञापन टीवी पर बहुत छाए हुए हैं, खासकर युवा वर्ग में इसका काफी क्रेज है. द एक्स इफेक्ट प्रोडेक्ट की प्रमोशन पॉलिसी भी केवल युवावर्ग को आकर्षिक करने की है. इसलिए विज्ञापन के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गई है कि इस प्रोडेक्ट के इस्तेमाल से लड़कियां खुद ब खुद आपके पास खिचीं आएंगी, यानी एक्स इफेक्ट के उत्पाद लगाओ और प्लेबॉय बन जाओ. न जाने कितने युवाओं ने इस विज्ञापन से प्रेरित होकर प्रोडेक्ट खरीदा होगा. ऐसा ही एक और विज्ञापन पिछले कुछ दिनों से आना शुरू हुआ है, जिसमें छत पर कपड़े उठाने आई एक युवती सिर्फ इसलिए मदहोश हो जाती है क्योंकि पास की छत पर बैठे युवक ने मनमोहक खुशबू वाला डियोडरेंट लगाया था. इस तरह के विज्ञापनों की तादाद दिन ब दिन बढ़ती जा रही है, कारण इनसे जुड़े उत्पादों की आपार सफलता.
लोग अति महंगे होने के बावजूद इस तरह के प्रोडेक्ट खरीदना पसंद करते हैं जो पल में दुनिया बदलने के ख्वाब दिखाते हैं. विज्ञापन कपंनिया इसके लिए फिल्म स्टार को हायर करती हैं, क्योंकि अपने पसंदीदा और चहेते स्टार की रिकमनडेशन को लोग नकार नहीं पाते. उन्हें लगता है कि अगर जॉन इब्राहिम या ऐशवर्या राय किसी फेयरनेस क्रीम का ऐड कर रहे हैं तो उसमें कुछ न कुछ तो सच्चाई होगी. मगर हकीकत ये है कि विज्ञापनों में आने वाले स्टार निजी जिंदगी में शायद ही कभी उन प्रोडेक्ट को प्रयोग में लाते हों. अभी हाल ही में जिस तरह से एक युवक ने एक प्रतिष्ठित कंपनी की एडवरटाइजिंग पॉलिसी को कोर्ट में चुनौती दी उसके बाद ऐड सेंसरशिप कड़ाई से लागू करने की जरूरत महसूस होने लगी है. दिल्ली के रहने वाले 26 वर्षीय वैभव बेदी पिछले काफी समय से एक्स के प्रोडेक्ट इस्तेमाल कर रहे थे, मगर वो किसी भी लड़की को प्रभावित करने में असफल रहे, बकौल वैभव मैं कॉलेज के वक्त से इसे प्रयोग कर रहा हूं, करीब सात साल तक एक्स प्रोडेक्ट के इस्तेमाल के बाद भी मुझे वैसे परिणाम देखने को नहीं मिले जैसे इसके विज्ञापनों में दिखाए जाते हैं. वैभव ने अब तक इस्तेमाल में लाए सारे एक्स प्रोडेक्ट के खाली डिब्बों को कोर्ट के समक्ष पेश करके उनकी लेबौरट्री जांच की मांग की है. वह इस तरह की एडवरटाइजिंग पॉलिसी को अपने मानसिक उत्पीड़न का कारण मानते हैं. एक्स के विज्ञापन की हू ब हू नकल करने के लिए वैभव बेदी एक्स डियोडरेंट लगाकर अपनी मेड के आगे निवस्त्र तक हो गये लेकिन बदले में उन्हें मार खानी पड़ी. कहने वाले इसे वैभव का पागलपन कह सकते हैं लेकिन इस पागलपन ने उस सच से अवगत कराया है जिस पर अक्सर हमारा ध्यान नहीं जाता.
लोग उत्पाद के संतोषजनक न होने की दशा में भी शांत रहना ही मुनासिब समझते हैं, संभवत: इससे उत्पाद को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाली विज्ञापन एजेंसियों के हौसले और बढ़ जाते हैं. क्या इस बात पर गौर करने की जरूरत नहीं है कि जो कुछ ऐड में दिखाया जा रहा है वैसा वास्तव में होता भी है या नहीं. अगर विज्ञापन में एक्स इफेक्ट लगाने के बाद लड़कियां अपने आप खिंची आती हैं तो रियल लाइफ में भी ऐसा होना चाहिए. कायदे में इस तरह के विज्ञापनों पर रोक लगनी चाहिए जो जादुई करिश्मे की बात करते हैं. मौजूदा वक्त में तो ऐसा लगता है जैसा टीवी पर प्रसारित होने वाले विज्ञापनों को लेकर कोई दिशा-निर्देश हैं ही नहीं. अधिकतर विज्ञापनों में अशीलता का पुट इतना यादा है कि परिवार के साथ बैठकर देखना भी मुश्किल हो जाता है. सरकार इस मामले पर अब तक खामोशी अख्तियार किए ही बैठी है, कुछ वक्त पुरुष अंडरगारमेंट के एक निहायत ही भद्दे विज्ञापन पर णरोक जरूर लगाई गई थी लेकिन वो भी अब नए रूप में सामने आ गया है.
जिस तरह से फिल्मों में अशीलता रोकने के लिए सेंसरबोर्ड है और वो अपनी कैंची चलाने में बिल्कुल नरमी नहीं बरतता उसी तरह विज्ञापनों को लेकर भी कुछ कड़े कदम उठाए जाने की जरूरत है. खासकर इस बात पर यादा जोर दिए जाने की आवश्यकता है कोई भी कंपनी अपने उत्पाद के प्रोमोशन के लिए इस तरह के हथकंडे न अपनाए जिन पर खरा उतरना उसके खुद के लिए मुमकिन न हो. एडवरटाइजिंग एजेंसियों के लिए लक्ष्मण रेखा खींची जाना बेहद जरूरी है ताकि वैभव बेदी जैसे मामले सामने आने की नौबत ही न आए. वैभव ने एक तरह से जागरुकता का परिचय दिया है. अगर बाकी लोग भी केवल मनमकोस कर रहने की आदत से बाहर निकलकर आवाज बुलंद करें तो शायद झूठे विज्ञापनों के सहारे मुनाफा कमाने की आस कंपनियों को खासी भारी पड़े. वैभव के मामले में संबंधित कंपनी को नोटिस भी जारी किया गया है, और कंपनी फिलहाल चुप्पी साधे हुए है. हवा का रुख पूरी तरह से कंपनी के विपरीत है, हो सकता है वो ऊल-जुलूल तर्क देकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश भी करे. मगर उसकी दलीलों का कोर्ट पर कितना असर पड़ता है, यह देखने वाली बात होगी. समझदारी इसी में है कि महज विज्ञापनों को देखकर उत्पाद की गुणवत्ता और उसके प्रभाव के बारे में राय कायम नहीं करनी चाहिए.