Saturday, November 27, 2010

ओबामा के दौरे से हमें क्या मिला?

नीरज नैयर
धन्यवाद और जयहिंद जैसे भारी-भरकम शब्द बोलकर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा अपने भारत दौरे को आशाओं के अनुरूप बनाने में सफल रहे। उनकी यात्रा का उद्देश्य मुख्यरूप से मंदी की मार झेल रहे अमेरिका के लिए संजीवीनी लाना था और अरबों के करार के रूप में उन्हें वो हासिल भी हो गया। ओबामा की यात्रा के पहले दिन ही भारतीय और अमेरिकी कंपनियों के बीच करीब 10 अरब डॉलर के बीस समझौते हुए। इन समझौतों के आकार लेने के बाद अमेरिका में 54 हजार नई नौकरियों के रास्ते खुलेंगे। ओबामा से भारत को जो मिला उसमें सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के समर्थन और प्रतिबंधित तकनीकों के निर्यात पर लगी पाबंदी से मुक्ति का आश्वासन इसके अलावा पाकिस्तान को थोड़ी बहुत फटकार। कुल मिलाकर कहा जाए तो भारत की झोली में केवल आवश्वासन ही आए, जहां तक बात पाकिस्तान को कोसने की है तो उसमें भी ओबामा ने कंजूसी से काम लिया। उन्होंने आतंकवाद के मुद्दे पर पाक के खिलाफ महज उतना ही बोला जितना इस्लामाबाद आसानी से हजम कर सके। अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो स्थिर और प्रगतिशील पाकिस्तान को भारत के हित में बता डाला। बकौल ओबामा पाक की स्थिरता सुनिश्चित करने में सबसे यादा दिलचस्पी किसी देश की हो सकती है तो वह भारत है। यदि पाकिस्तान अस्थिर है तो इसका सबसे अधिक नुकसान भारत को ही झेलना होता है। हालांकि संसद को संबोधित करते वक्त उन्होंने जरूर पाकिस्तान के खिलाफ कुछ एक बातें कहीं लेकिन उनमें कड़े शब्दों के इस्तेमाल जैसी कोई बात नजर नहीं आई।

सुरक्षा परिषद में भारत की दावेदारी और तकनीकों के निर्यात पर प्रतिबंध हटाने जैसे मुद्दों पर अमल की कोई समय सीमा नहीं है। वैसे भी सुरक्षा परिषद का विस्तार हाल-फिलहाल तो होने वाला नहीं है, ओबामा खुद भी जानते हैं कि यह रास्ता बहुत टेढ़ा है। शायद इसलिए ही उन्होंने खुलेतौर पर भारत के समर्थन की बात कही। ओबामा ने एक तरह से बुरे दौर से उभरने के लिए भारत का इस्तेमाल किया। तेजी से आगे बढ़ता भारत दुनिया के नक्शे पर एक बिजनेस हब के रूप में उभरा है, चीन से लेकर अमेरिका तक सबकी रुचि नई दिल्ली के साथ यादा से यादा व्यापार बढ़ाने की है। ओबामा भी इसी एजेंडे के साथ भारत आए, उन्होंने अपने एक बयान में कहा भी कि जब मैं वापस जाऊं तो अपने लोगों को बता सकूं की मैं उनके लिए क्या लेकर आया हूं। अपने इस दौरे में ओबामा ने जो एक अच्छी बात करी वो ये कि उन्होंने कश्मीर पर कोई बेफिजुल की बयानबाजी नहीं की, लेकिन सिर्फ इसलिए ओबामा के भारत दौरे को एतिहासिक बता देना नासमझी से यादा कुछ नहीं। ओबामा ने दोनों हाथों से भारत से बटोरा और बदले में आश्वासन थमा गए, बावजूद इसके उनकी यात्रा को भारत के लिए अहम बताने वालों की कमी नहीं है। सरकार का ऐसा करना तो समझ में आता है, मगर मीडिया का ओबामा के प्रति दीवानापन समझ से परे है। अमेरिकी राष्ट्रपति के आने से लेकर जाने तक मीडिया ने उन्हें एक नायक के रूप में पेश किया, देश भर के अखबारात ऐतिहासिक दौरे की खोखली उपलब्धियों से भरे रहे। मसलन, एक प्रमुख हिंदी दैनिक की सुर्खी थी- ओबामा ने किया निहाल। अखबार ने लिखा कि ओबामा ने सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट और पाकिस्तान से आतंकवादी ठिकाने खत्म करने की पैरवी कर खुश किया।

संसद में अपने प्रभावशाली संबोधन से ओबामा ने भारतीयों का दिल जीता। ऐसे ही एक दूसरे अखबार ने जय हिंद, भारत को ओबामा का सलाम नामक शीर्षक से लिखा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने रिश्तों को नई ऊंचाई की राह खोल दी है। एक अंग्रेजी दैनिक ने ओबामा की तारीफों के पुल बांधते हुए लिखा कि ओबामा ने भारत की स्थाई सदस्या की मांग का समर्थन करके सबको अचंभित कर दिया। ऐसा लग रहा था कि ओबामा की उंगलियों पर अंबेडकर और चांदनी चौक जैसी जगहें थीं। भारतीय मीडिया की यही सबसे बड़ी कमजोरी और लाचारी है कि वो भी अमेरिकी मेहमानों के सत्कार में सरकार की तरह पूरी तरह बिछ जाती है, उसे मुद्दों की गहराई में उतरने तक का ख्याल नहीं आता। शायद ही कोई ऐसा अखबार या टीवी चैनल रहा हो जिसने सरकार से ये पूछने की कोशिश की हो कि आखिर ओबामा के दौरे से भारत को सिवाए आश्वासनों के क्या मिला। पाकिस्तान और आतंकवाद पर ओबामा की अधखुली जुबान से साफ है कि ओबामा की नजर में नई दिल्ली से दोस्ती इस्लामाबाद की कीमत पर नहीं हो सकती। मुंबई हमलों के गुनाहगारों को सजा देने की बात करने वाले ओबामा अच्छे से जानते हैं कि पूरी साजिश पाकिस्तान में तैयार की गई। इसके बाद भी वो पाक पर दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का दबाव नहीं बना सके। अमेरिका को अफगानिस्तान में बने रहने के लिए पाक का साथ चाहिए, मौजूदा वक्त में पाकिस्तान उसका सबसे बड़ा रणनीतिक साझेदार है। जहां तक भारत का सवाल है तो अमेरिका की नजर में वो केवल आर्थिक जरूरतों को पूरा करने का एक जरिया मात्र है। ओबामा भारत से 54 हजार नौकरियों की जुगाड़ तो कर गए लेकिन उन्होंने आउटसोर्सिंग जैसे मुद्दे पर एक शब्द भी नहीं बोला और न ही हमने उनसे बोलने के लिए कहा। मीडिया ने भी ओबामा की खुमारी में इसे पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। जबकि कुछ वक्त पहले तक यही मीडिया इस खबर को बढ़ाचढाकर दिखा रहा था। ओबामा की आउटसोर्सिंग विरोधी मुहिम के चलते भारतीय आईटी सेक्टर को काफी नुकसान झेलना पड़ा है। इसके अलावा पाकिस्तान को बदस्तूर जारी अमेरिकी मदद के मुद्दे पर भी भारतीय नेतृत्व कड़ी नाराजगी जाहिर करने में लगभग नाकाम रहा।

ओबामा भारत आने से ठीक पहले ही पाकिस्तान की जेब भरके आए थे। दरअसल भारत की हालत काफी हद तक उन बादलों की तरह है जो गरजते बहुत हैं मगर बरसते नहीं। भारत कई मौकों पर पाक को अमेरिकी रसद पर एतराज जता चुका है, लेकिन जब ओबामा के सामने बैठकर उन्हें सही-गलत का अहसास कराने का मौका आया तो हम महज मेहमाननवाजी में ही उलझे रहे। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, इससे पहले भी कई बार भारतीय नेतृत्व और मीडिया अमेरिका से आने वाले अतिथियों के सम्मान में मूल मुद्दाें को दरकिनार कर चुके हैं। अमेरिकी आते हैं, सम्मान करवाते हैं, भारतीयों को अच्छी लगने वाली कुछ बातें बोलते हैं और अपने के लिए मुनाफे के समझौते कर चलते बनते हैं। बराक हुसैन ओबामा का भारत दौरा अगर किसी के लिए ऐतिहासिक कहा जा सकता है तो सिर्फ और सिर्फ अमेरिका के लिए। भारत की झोली पहले भी खाली थी और अब भी खाली है। ओबामा की यात्रा को भारत के लिए ऐतिहासिक बताने वालों को दिमाग पर थोड़ा सा जोर डालकर जरा सोचने की जरूरत है कि आखिर ओबामा भारत का आश्वासनों के सिवाए क्या देके गए।