Tuesday, August 16, 2011
संसद नहीं जनता सर्वोच्च
नीरज नैयर
अभी हाल ही में एक फिल्म देखी, इस फिल्म में हीरो को फंसाने के लिए पुलिस वाले तलाशी के नाम पर उसकी जेब में ड्रगस रख देते हैं और फिर उसी ड्रगस को दिखाकर उसे गिरफ्तार कर लेते हैं। अन्ना हजारे के साथ भी सरकार कुछ ऐसा ही करने की कोशिश कर रही है। छह साल पुराने मामले को उठाकर सरकार ये बताना चाहती है कि भ्रष्टाचार मिटाने की बात करने वाले अन्ना खुद भ्रष्टचार में लिप्त हैं। अन्ना की पीएम को चि_ी के दूसरे दिन जिस तरह से सरकार के तीन-तीन बड़े मंत्री और कांग्रेस ने हजारे पर हमला बोला उससे ये साफ होता है कि सरकार उन्हें फंसाना चाहती है। हालांकि उस स्थिति में नहीं है, जिस स्थिति में फिल्म के पुलिसवाले थे। फिल्म में हीरो अकेला था, लेकिन अन्ना के साथ पूरा देश खड़ा है। सिर्फ देश ही नहीं विदेशों में भी इस गांधीवदी नेता के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं। जिस जस्टिस सावंत की रिपोर्ट का हवाले देकर सरकार अन्ना को भ्रष्ट बताने में लगी है, उस रिपोर्ट पर अन्ना के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। अगर अन्ना हजारे भ्रष्ट थे तो कार्रवाई होनी चाहिए थी। दरअसल, अन्ना ने महाराष्ट्र सरकार के चार मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टचार के आरोप लगाए थे। इन आरोपों से तिलमिलाए एक मंत्री ने भी अन्ना पर यही आरोप लगाया। दोनों आरोपों की जांच के लिए जस्टिस सावंत की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति ने 2005 में विधानसभा को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट के आधार पर तीन मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा, मगर अन्ना के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसका सीधा सा मतलब निकलता है कि अन्ना पर लगे आरोपों का कोई आधार नहीं मिला होगा। वरना जो सरकार अपने तीन मंत्रियों को कुर्बान कर सकती है, भला क्या वो आरोप लगाने वाले अन्ना को बेदाग छोड़ सकती थी?
सरकार ने अन्ना के पिछले सारे रिकॉर्ड खंगाले यहां तक कि उनके सेना के दिनों की भी जानकारी जुटाई, लेकिन जब कुछ नहीं मिला तो उसने जस्टिस सावंत की रिपोर्ट को हथियार बनाया। संभव है आने वाले दिनों में सरकार अन्ना पर कुछ और गंभीर आरोप लगाए, इन आरोपों को साबित करने के लिए वो कुछ दलीलें भी पेश करे। सरकार के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है, वो सच को झूठ और झूठ को सच में बदल सकती है। अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों का हाल वो बाबा रामदेव की तरह कर देती है। कल तक बाबा पूरे जोश के साथ कालाधन वापस लाने की मांग किया करते, मगर अब ऐसे खामोश हैं जैसे उन्होंने ये मुद्दा कभी उठाया ही नहीं। इस खामोशी के पीछे उनकी भी मजबूरी है। सरकार ने कई एजेंसियों को बाबा के पीछे साय की तरह लगा दिया है, वो सांस भी लेते हैं तो सरकार को पता चल जाता है कि उनकी धड़कनें कितनी तेज चलीं। सरकार कहती है कि अन्ना और उनकी टीम की मांगे नाजायज हैं, उन्हें अनशन करने का हक नहीं। कानून जनप्रतिनिधि बनाते हैं, संसद सर्वोच्च है आदि. आदि। अगर अन्ना की मांगे नाजायज हैं तो सरकार पहले उनपर राजी कैसे हो गई। उसे अन्ना का अनशन तुड़वाने के लिए रजामंदी का दिखावा करना ही नहीं चाहिए था। देश का कोई भी नागरिक सरकार के इस तर्क से सहमत नहीं हो सकता, आखिर अन्ना की मांगों में ऐसा क्या है जो जायज नहीं।
सिविल सोसाइटी का जनलोकपाल बिल प्रधानमंत्री और न्यायापालिका को दायरे में रखने की मांग करता है, क्या ये नाजायज है। प्रधानमंत्री या जज कोई दूध के धुले नहीं होते, पैसा उनका ईमान भी ढिगा सकता है। ऐसे तमाम उदाहरण हमारे पास मौजूद हैं। राजीव गांधी से लेकर नरसिंहराव तक पर पीएम रखते वक्त आरोप लगे। सब्बरवाल से लेकर केजी बालकृष्णन तक ने चीफ जस्टिस रहते वक्त भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना किया। क्या ये आरोप ऐसे ही लग गए, कहीं न कहीं तो कुछ न कुछ गड़बड़ रहा होगा तभी इतने उच्च पदों पर विराजमान लोगों पर इतने गंभीर आरोप लगे। जहां भ्रष्टाचार है वहां लोकपाल को जांच करने की अनुमति क्यों नहीं दी जा सकती? जहां तक बात अन्ना को अनशन करने के हक की है तो ये देश के हर व्यक्ति का अधिकार है। संविधान में इसकी इजाजत दी गई है तो फिर सरकार इस अधिकार को कैसे छीन सकती है। गांधी जी ने भी अहिंसक तरीके से सत्याग्रह किया, अगर उस सत्याग्रह के लिए गांधी को पिता का दर्जा दिया जा सकता है तो अन्ना को कम से कम सम्मान के साथ अनशन करने का हक तो मिलना ही चाहिए। सरकार कहती है कि कानून बनाने का अधिकार जनप्रतिनिधियों को है और संसद सर्वोच्च है। इस बात में कोई दोराय नहीं कि कानून जनप्रतिनिधि ही बना सकते हैं, लेकिन वो जनप्रतिनिधि जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। जनता ने उन्हें ये अधिकार दिया है। और अगर जनता अधिकार दे सकती है तो उन अधिकारों के गलत इस्तेमाल का विरोध भी कर सकती है।
लोकतंत्र में संसद को सर्वोच्च नहीं कहा जा सकता, ये बात ब्रिटेन जैसे देशों पर लागू हो सकती है जहां राजा-रानी की भी सरकारी फैसलों में दखलंदाजी होती है। लेकिन भारत में नहीं। देश की जनता अपना प्रतिनिधित्व करने वालों को संसद भेजती है, वो प्रतिनिधि मिलकर संसद चलाते हैं तो संसद सर्वोच्च कैसे हो गई। सर्वोच्च संसद नहीं बल्कि जनता है, अगर जनता प्रतिनिधि न चुने तो संसद इस काम की। जनता को और अन्ना हजारे को इस बात का पूरा अधिकार है कि वो सरकार के कामकाज एवं नीतियों के खिलाफ सड़क पर उतरकर अनशन कर सकें। इस अधिकार को सरकार चाहकर भी नहीं छीन सकती। कहने को भारत में लोकतंत्र है, लेकिन जिस तरह से सरकार अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों को ठिकाने लगाने में लगी है उससे इस लोकतंत्र के मायने ही बदल गए हैं। हमने सिफ लोकतंत्र का चोला ओढ़ा है, अंदर से हमारी मानसिकता तानाशाही वाली है। चीन, म्यांमार और भारत में फर्क केवल इतना ही कि वहां सरकार की मुखालफत करने वालों को सबके सामने कुचलकर रख दिया जाता है जबकि हमारे यहां पर्दे के पीछे रहकर खेल खेला जाता है।
ऐसे लोकतंत्र से अच्छा है तानाशाही, कम से कम लोगों को इस बात का भ्रम तो नहीं रहेगा कि उन्हें आवाज उठाने का हक है। अन्ना हजारे जो कुछ भी कर रहे हैं, उससे भले ही भ्रष्टाचार पूरी तरह खत्म न हो, लेकिन इस पहल की जरूरत थी। सरकार को इस बात का आभास होना ही चाहिए कि जनता सर्वोच्च है और उसकी मर्जी भी कुछ मायने रखती है। सरकार हर वक्त जनता को नहीं हांक सकती, बात चाहे भ्रष्टाचार की हो या महंगाई की सरकार अपनी मनमर्जी के हिसाब से काम करती आई है और उसकी मनमर्जी का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। अन्ना आम जनता की आवाज बनकर उभरे हैं, इस आवाज को बुलंद रखना हमारी भी जिम्मेदारी है और इसे हजारे की मुहिम में शामिल होकर ही बुलंद रखा जा सकता है।
संसद नहीं जनता सर्वोच्च
नीरज नैयर
अभी हाल ही में एक फिल्म देखी, इस फिल्म में हीरो को फंसाने के लिए पुलिस वाले तलाशी के नाम पर उसकी जेब में ड्रगस रख देते हैं और फिर उसी ड्रगस को दिखाकर उसे गिरफ्तार कर लेते हैं। अन्ना हजारे के साथ भी सरकार कुछ ऐसा ही करने की कोशिश कर रही है। छह साल पुराने मामले को उठाकर सरकार ये बताना चाहती है कि भ्रष्टाचार मिटाने की बात करने वाले अन्ना खुद भ्रष्टचार में लिप्त हैं। अन्ना की पीएम को चि_ी के दूसरे दिन जिस तरह से सरकार के तीन-तीन बड़े मंत्री और कांग्रेस ने हजारे पर हमला बोला उससे ये साफ होता है कि सरकार उन्हें फंसाना चाहती है। हालांकि उस स्थिति में नहीं है, जिस स्थिति में फिल्म के पुलिसवाले थे। फिल्म में हीरो अकेला था, लेकिन अन्ना के साथ पूरा देश खड़ा है। सिर्फ देश ही नहीं विदेशों में भी इस गांधीवदी नेता के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं। जिस जस्टिस सावंत की रिपोर्ट का हवाले देकर सरकार अन्ना को भ्रष्ट बताने में लगी है, उस रिपोर्ट पर अन्ना के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। अगर अन्ना हजारे भ्रष्ट थे तो कार्रवाई होनी चाहिए थी। दरअसल, अन्ना ने महाराष्ट्र सरकार के चार मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टचार के आरोप लगाए थे। इन आरोपों से तिलमिलाए एक मंत्री ने भी अन्ना पर यही आरोप लगाया। दोनों आरोपों की जांच के लिए जस्टिस सावंत की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति ने 2005 में विधानसभा को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट के आधार पर तीन मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा, मगर अन्ना के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसका सीधा सा मतलब निकलता है कि अन्ना पर लगे आरोपों का कोई आधार नहीं मिला होगा। वरना जो सरकार अपने तीन मंत्रियों को कुर्बान कर सकती है, भला क्या वो आरोप लगाने वाले अन्ना को बेदाग छोड़ सकती थी?
सरकार ने अन्ना के पिछले सारे रिकॉर्ड खंगाले यहां तक कि उनके सेना के दिनों की भी जानकारी जुटाई, लेकिन जब कुछ नहीं मिला तो उसने जस्टिस सावंत की रिपोर्ट को हथियार बनाया। संभव है आने वाले दिनों में सरकार अन्ना पर कुछ और गंभीर आरोप लगाए, इन आरोपों को साबित करने के लिए वो कुछ दलीलें भी पेश करे। सरकार के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है, वो सच को झूठ और झूठ को सच में बदल सकती है। अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों का हाल वो बाबा रामदेव की तरह कर देती है। कल तक बाबा पूरे जोश के साथ कालाधन वापस लाने की मांग किया करते, मगर अब ऐसे खामोश हैं जैसे उन्होंने ये मुद्दा कभी उठाया ही नहीं। इस खामोशी के पीछे उनकी भी मजबूरी है। सरकार ने कई एजेंसियों को बाबा के पीछे साय की तरह लगा दिया है, वो सांस भी लेते हैं तो सरकार को पता चल जाता है कि उनकी धड़कनें कितनी तेज चलीं। सरकार कहती है कि अन्ना और उनकी टीम की मांगे नाजायज हैं, उन्हें अनशन करने का हक नहीं। कानून जनप्रतिनिधि बनाते हैं, संसद सर्वोच्च है आदि. आदि। अगर अन्ना की मांगे नाजायज हैं तो सरकार पहले उनपर राजी कैसे हो गई। उसे अन्ना का अनशन तुड़वाने के लिए रजामंदी का दिखावा करना ही नहीं चाहिए था। देश का कोई भी नागरिक सरकार के इस तर्क से सहमत नहीं हो सकता, आखिर अन्ना की मांगों में ऐसा क्या है जो जायज नहीं।
सिविल सोसाइटी का जनलोकपाल बिल प्रधानमंत्री और न्यायापालिका को दायरे में रखने की मांग करता है, क्या ये नाजायज है। प्रधानमंत्री या जज कोई दूध के धुले नहीं होते, पैसा उनका ईमान भी ढिगा सकता है। ऐसे तमाम उदाहरण हमारे पास मौजूद हैं। राजीव गांधी से लेकर नरसिंहराव तक पर पीएम रखते वक्त आरोप लगे। सब्बरवाल से लेकर केजी बालकृष्णन तक ने चीफ जस्टिस रहते वक्त भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना किया। क्या ये आरोप ऐसे ही लग गए, कहीं न कहीं तो कुछ न कुछ गड़बड़ रहा होगा तभी इतने उच्च पदों पर विराजमान लोगों पर इतने गंभीर आरोप लगे। जहां भ्रष्टाचार है वहां लोकपाल को जांच करने की अनुमति क्यों नहीं दी जा सकती? जहां तक बात अन्ना को अनशन करने के हक की है तो ये देश के हर व्यक्ति का अधिकार है। संविधान में इसकी इजाजत दी गई है तो फिर सरकार इस अधिकार को कैसे छीन सकती है। गांधी जी ने भी अहिंसक तरीके से सत्याग्रह किया, अगर उस सत्याग्रह के लिए गांधी को पिता का दर्जा दिया जा सकता है तो अन्ना को कम से कम सम्मान के साथ अनशन करने का हक तो मिलना ही चाहिए। सरकार कहती है कि कानून बनाने का अधिकार जनप्रतिनिधियों को है और संसद सर्वोच्च है। इस बात में कोई दोराय नहीं कि कानून जनप्रतिनिधि ही बना सकते हैं, लेकिन वो जनप्रतिनिधि जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। जनता ने उन्हें ये अधिकार दिया है। और अगर जनता अधिकार दे सकती है तो उन अधिकारों के गलत इस्तेमाल का विरोध भी कर सकती है।
लोकतंत्र में संसद को सर्वोच्च नहीं कहा जा सकता, ये बात ब्रिटेन जैसे देशों पर लागू हो सकती है जहां राजा-रानी की भी सरकारी फैसलों में दखलंदाजी होती है। लेकिन भारत में नहीं। देश की जनता अपना प्रतिनिधित्व करने वालों को संसद भेजती है, वो प्रतिनिधि मिलकर संसद चलाते हैं तो संसद सर्वोच्च कैसे हो गई। सर्वोच्च संसद नहीं बल्कि जनता है, अगर जनता प्रतिनिधि न चुने तो संसद इस काम की। जनता को और अन्ना हजारे को इस बात का पूरा अधिकार है कि वो सरकार के कामकाज एवं नीतियों के खिलाफ सड़क पर उतरकर अनशन कर सकें। इस अधिकार को सरकार चाहकर भी नहीं छीन सकती। कहने को भारत में लोकतंत्र है, लेकिन जिस तरह से सरकार अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों को ठिकाने लगाने में लगी है उससे इस लोकतंत्र के मायने ही बदल गए हैं। हमने सिफ लोकतंत्र का चोला ओढ़ा है, अंदर से हमारी मानसिकता तानाशाही वाली है। चीन, म्यांमार और भारत में फर्क केवल इतना ही कि वहां सरकार की मुखालफत करने वालों को सबके सामने कुचलकर रख दिया जाता है जबकि हमारे यहां पर्दे के पीछे रहकर खेल खेला जाता है।
ऐसे लोकतंत्र से अच्छा है तानाशाही, कम से कम लोगों को इस बात का भ्रम तो नहीं रहेगा कि उन्हें आवाज उठाने का हक है। अन्ना हजारे जो कुछ भी कर रहे हैं, उससे भले ही भ्रष्टाचार पूरी तरह खत्म न हो, लेकिन इस पहल की जरूरत थी। सरकार को इस बात का आभास होना ही चाहिए कि जनता सर्वोच्च है और उसकी मर्जी भी कुछ मायने रखती है। सरकार हर वक्त जनता को नहीं हांक सकती, बात चाहे भ्रष्टाचार की हो या महंगाई की सरकार अपनी मनमर्जी के हिसाब से काम करती आई है और उसकी मनमर्जी का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। अन्ना आम जनता की आवाज बनकर उभरे हैं, इस आवाज को बुलंद रखना हमारी भी जिम्मेदारी है और इसे हजारे की मुहिम में शामिल होकर ही बुलंद रखा जा सकता है।
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