Sunday, December 26, 2010

सचिन की आलोचना और आलोचकों का तर्क

नीरज नैयर
सचिन तेंदुलकर एक ऐसा नाम है जिसके साथ तारीफों से यादा आलोचनाएं जुड़ती रहीं। सचिन जैसे-जैसे सफलता के शिखर पर चढ़ते गए आलोचना करने वालों के मुंह और चौड़े होते गए। अभी हाल ही में जब इस लिटिल मास्टर ने टेस्ट मैचों में शतकों का पचासा पूरा किया तब भी आलोचना करने वालों के मुंह बंद नहीं हुए। इस बार भी तर्क वहीं पुराना था, सचिन महज रिकॉर्ड के लिए खेलते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि टीम इंडिया को दक्षिण अफ्रीका से पहले टेस्ट में पारी और 25 रनों से हार का सामना करना पड़ा। हालांकि टीम में 10 खिलाड़ी और भी थे, लेकिन उनके चलने न चलने पर किसी ने सवाल नहीं उठाया। वैसे सचिन पर सवाल उठाना उनकी विश्वसनीयता को और पुख्ता करता है। जिससे सबसे यादा उम्मीदें होती हैं, उसी से करिश्मे अपेक्षाएं की जाती हैं। मगर इसका ये मतलब नहीं होना चाहिए कि अपेक्षाओं के पूरा न होने की स्थिति में क्षमताओं पर ही संदेह प्रकट किया जाए। सचिन तेंदुलकर के हजारों-करोड़ों प्रशंसकों के साथ ऐसे लोगों की जमात भी कम नहीं है जो हर पल सवाल उठाते हैं कि सचिन अहम मौकों पर क्यों असफल हो जाते हैं। दरअसल सचिन आम इंसान न रहकर लोगों के लिए रन बनाने की मशीन बन गए हैं, और जब इस मशीन के बल्ले से रन नहीं निकलते तो आलोचनाओं का दौर शुरू हो जाता है। हालांकि आलोचना करने वालों के पास अपनी बातों को सही साबित करने का कोई ठोस आधार नहीं है।

चंद मौकों को छोड़ दिया जाए तो क्रिकेट की दुनिया ये भगवान हर मोड़ पर अपनी श्रेष्ठता सिध्द करता आया है। जो लोग ये बोलते हैं कि सचिन अहम मुकाबलों में कोई कमाल नहीं कर पाते, वो शायद इतिहास से अंजान है या फिर जानबूझ कर अंजान बने बैठे हैं। 1990-91 का एशिया कप, 1994-95 की विल्स वर्ल्ड सीरिज, 1997-1998 का कोका कोला कप, सिंगर-अकाई कप, इंडिपेंडस कप, 1998-99 की चैम्पियन्स ट्रॉफी, 2007-08 में खेली गई सीबी ट्राई सीरिज, कॉम्पैक कप और टाइटन कप के फाइनल में सचिन के शानदार प्रदर्शन को कैसे भूला जा सकता है। कोका कोला कप में तेंदुलकर ने 131 गेंदों में 134 रनों की पारी खेली थी, ऐसे ही अकाई कप में 128, चैम्पियंस ट्रॉफी में 121, सीबी ट्राई सीरिज में 117, कॉम्पैक कप में 138, इंडिपेंडस कप में 95, टाइटप कप में 67, विल्स सीरिज में 66 रन और एशिया कप के फाइनल में 70 गेंदों में 53 रन बनाए थे। कुछ ऐसे ही 1998 में खेले गए मिनी वर्ल्ड कप के क्वार्टर फाइनल में सचिन ने ऑस्ट्रेलिया के विरुध्द 141 रन और पांच विकेट लेकर टीम को जीत दिलाई थी। क्रिकेट देखने वाले हर शख्स को धूल भरी आंधी के बीच शारजहां कप का वो मैच जरूर याद होगा जिसमें तेंदुलकर ने 131 गेंदों में 141 रनों की तूफानी पारी खेलकर अपने बूते भारत को फाइनल में पहुंचाया।

इस मैच का सबसे अफसोसजनक हिस्सा था सचिन का आऊट होना, अफसोसजनक इसलिए क्योंकि लिटिल मास्टर के पवेलियन लौटने के बाद टीम के बाकी खिलाड़ी जीत के लिए चंद रन भी नहीं जुटा सके। इस मैच में सचिन को गिलक्रिस्ट ने विकेटों के पीछे लपका, लेकिन उन्होंने खुद ने इसकी अपील नहीं की और न ही अंपायर ने उन्हें आऊट दिया फिर भी खेल भावना का परिचय देते हुए सचिन स्वयं चले गए। यहां गौर करने वाली बात ये है कि अगर वो महज रिकॉर्ड के लिए खेलते तो क्या ऐसा कर पाते, जबकि वो 150 से महज 9 कदम दूर थे। 1999 में पाकिस्तान के खिलाफ टेस्ट मैच में सचिन ने कमर पर बर्फ का बैग लागाकर और दवाईयां खाकर मोर्चा संभाला, लेकिन जब वो आऊट हुए तो उनकी जमकर आलोचना की गई। क्योंकि हमारे दूसरे खिलाड़ी बचे हुए 16 रन भी नहीं बना सके। इसी तरह 2007 में वेस्टइंडीज के साथ मैच में 85 पर होने के बाद भी सचिन धोनी को स्ट्राइक देते रहे और आखिरी गेंद पर अपना शतक पूरा किया। क्या इतने सब के बाद भी कहा जा सकता है कि सचिन अहम मौकों पर असफल रहे या वो टीम के बजाए महज अपने रिकॉर्ड बनाने के लिए खेले। किसी गलती पर आलोचना करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन हर बात पर आलोचना एक तरह की बीमारी है। और भारत जहां क्रिकेट को धर्म के रूप में देखा जाता है, इस बीमारी से पीड़ितों की कोई कमी नहीं है। सचिन को अगर क्रिकेट का भगवान कहा जाता है तो इसके पीछे सिर्फ उनके रिकॉर्ड ही नहीं मैदान के अंदर और बाहर सौम्य, विनम्र एवं मृदुभाषी व्यक्ति की छवि भी है।

एक बात जो हर इंसान को उनसे सीखने की जरूरत है वो ये कि सचिन चुनौती और आलोचनाओं का जवाब मुंह से नहीं बल्कि अपने बल्ले से देना पसंद करते है। उनके प्रदर्शन के आगे कोई भी आलोचना यादा देर तक नहीं टिक सकती। बीच में एक वक्त ऐसा भी आया जब अलोचकों ने उन्हें क्रिकेट से सन्यास लेने तक का मशवरा दे डाला, लेकिन सचिन ने बिना बोले इन सबका का जवाब बेहतरीन अंजाद में दिया। सचिन में एक अजीब सी जीवटता है जो उन्हें दूसरों के अलग बनाती है, और शायद उनकी सफलता की वजह है। सचिन आज भी जब क्रीज पर उतरते हैं तो उनके लिए व्यक्तिगत रिकॉर्ड से यादा तिरंगे की शान बनाए रखना यादा मायने रखता है। वो सचिन तेंदुलकर ही थे जिन्होंने अपने व्यक्तिगत दर्द को दरकिनार करते हुए पिछले विश्व कप में भारत की झोली में कई जीतें डाली। अगर सचिन महज अपने लिए खेलते तो पितृशोक की खबर सुनने के बाद विश्व कप छोड़कर भारत लौट आते। मुझे और मेरे जैसे बहुत से लोगों को सचिन और उनका खेल पसंद है, लेकिन इसे अंधभक्ति नहीं कहा जा सकता। सचिन आज जिस मुकाम पर हैं वो उन्होंने खुद ही हासिल किया है, उन्हें यदि क्रिकेट का भगवान कहा जाता है तो वो जगह उन्होंने कई साल मैदान पर पसीना बहाकर कमाई है। क्रिकेट की दुनिया में भारत ने जो ऊंचाईयां छुई हैं उनमें सचिन का योगदान सबसे यादा है। सचिन रमेश तेंदुलकर की आलोचना करने वाले आखिर कैसे इन तथ्यों को नजरअंदाज कर सकते हैं, कैसे।

Tuesday, December 14, 2010

जांच क्या कि हंगामा हो गया

नीजर नैयर
अमेरिकी हवाई अड्डे पर भारतीय राजदूत मीरा शंकर की तलाशी क्या हुई दिल्ली में बैठे राजनीतिक दलों को हो-हल्ला मचाने का मौका मिल गया। भाजपा ने तो लगे हाथ रैली भी निकाल डाली। सियासी पार्टियां इस मुद्दे पर भी सरकार को घेर रही हैं, जैसे सरकार ने खुद अमेरिकी अधिकारियों से कहा हो कि मीरा की तलाशी ली जाए। हां, वो इस बात पर जरूर सरकार को घेर सकती हैं कि केंद्र सरकार अमेरिका से किस लहजे में नाराजगी व्यक्त करती है। वैसे प्रकरण के सामने आने के तुरंत बाद विदेशमंत्रालय ने थोड़ी बहुत गर्जना जरूर की, और इसका त्वरित असर भी देखने को मिला। अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने स्वयं खेद व्यक्त करते हुए भरोसा दिलाया कि इस घटना की पुर्नवृत्ति नहीं होगी। हालांकि, अमेरिका ने ये भी साफ किया कि जो कुछ भी हुआ वो कानून के मुताबिक हुआ। अमेरिका के ट्रांसपोर्ट सिक्यूरिटी असोसिएशन (टीएसए)के तहत राजनयिकों को तलाशी में छूट नहीं दी जाती। दरअसल मीरा शंकर ने भारतीय पारंपरिक परिधान यानी साड़ी पहनी हुई थी, और टीएसए के मुताबिक तलाशी के कारणों में ढेर सारे कपड़े पहनना भी शामिल है। अब ऐसे देखा जाए तो साड़ी और बुर्के में फर्क केवल इतना ही है कि एक में चेहरा दिखता है और दूसरे में नहीं। मीरा शंकर के साथ जो गलत हुआ वो ये कि राजनयिक जैसे ओदे पर होने के बाद भी पारदर्शी बाक्स में ले जाकर उनकी हाथों से तलाशी ली गई। जबकि एयरपोर्ट अधिकारियों को दिए दिशा-निर्देशों में यह साफ किया गया है कि यदि कोई यात्री सबके सामने तलाशी नहीं देना चाहता तो उसकी जांच गोपनीय तौर पर होनी चाहिए। मीरा कुमार के साथ दूसरे कुछ अधिकारी भी, लेकिन उन्हें भी अनसुना कर दिया गया। वैसे ये कोई पहला मौका नहीं, जब अमेरिका में उच्च दर्जा प्राप्त भारतीयों को इस तरह की जांच से गुजरना पड़ा हो। पिछले साल बॉलिवुड स्टार शाहरुख खान को न्यूयार्क के लिबर्टी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सिर्फ इसलिए रोककर पूछताछ की गई, क्योंकि उनके नाम के आगे खान जुड़ा था। इसी साल नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल से शिकागो के ओ हेयर अड्डे पर पूछताछ की गई।

इस पूछताछ की वजह इतनी थी उनका नाम और जन्मतिथि उस शख्स से मेल खा रही थी, जो अमेरिका की वॉच लिस्ट में था। इससे पीछे चलें तो राजग सरकार में रक्षामंत्री रहे जार्ज फर्नांडीस को भी अमेरिकी एयरपोर्ट पर तलाशी से गुजरना पड़ा था, और जैसा मुझे याद है उनके तो कपड़े उतरवाकर तलाशी ली गई थी। वो घटना निश्चित तौर पर अप्रत्याशित और चौंकाने वाली थी, एक रक्षामंत्री के साथ इस तरह का व्यावहार करना कहीं से उचित नहीं माना जा सकता। लेकिन इसके बाद की जो घटनाएं हैं, उन पर इतना हो-हल्ला मचाना बिल्कुल ही जायज नहीं लगता। शाहरुख खान को बेशक भारत में स्पेशल ट्रीटमेंट दिया जाता हो, उन्हेंसुरक्षा जांच जैसे झंझटों से मुक्त रखा जाता हो मगर दूसरे मुल्कों से तो ये अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वो भी वैसे ट्रीटमेंट दें। बॉलीवुड स्टार के लिए अमेरिका अपने सुरक्षा नियमों में तो बदलाव नहीं कर सकता। 911 के बाद अमेरिकी बहुत यादा सतर्क हो गए हैं, इसमें कोई दोराय नहीं कि इस सतर्कता से अमेरिकी आवाम को भी कई बार परेशानी का सामना करना पड़ता है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि उस एक आतंकी हमले के बाद दहशतगर्द अमेरिका की तरफ आंख उठाने तक ही हिमाकत नहीं कर पाए हैं। अमेरिका पर हमला करने वाले अल कायदा के आतंकवादी थे, जो मूलरूप से मुसलमान थे। इसलिए अगर किसी नाम के आगे खान जुड़ा देखकर वो अति सतर्क हो जाते हैं तो इस पर बवाल मचाने वाली क्या बात है। शाहरुख खान यदि इस घटना को सामान्य तौर पर लेते तो इतना हंगामा मचता ही नहीं। इसी तरह प्रफुल्ल पटेल की बात करें तो, वो गलतफहमी का शिकार हुए। अगर उनका नाम और जन्मतिथी किसी वांछित अपराधी से मेल खाता है और जांच अधिकारियों ने उनसे कुछ सवालात पूछ लिए तो मुझे नहीं लगता कि इसमें अपमान जैसी कोई बात है। उल्टा हमें इससे सीख लेना चाहिए कि अमेरिकी अधिकारी सुरक्षा के मुद्दे पर रुतबे के दबाव में नहीं आते। अब सवाल करने वाले पूछ सकते हैं कि क्या अमेरिकी नेताओं के साथ भी होता होगा, इसका जवाब काफी हद तक हां में है। अमेरिका में जिन लोगों को सुरक्षा जांच में छूट मिली है उनकी फेहरिस्त हमारी तरह इतनी लंबी नहीं है। हमारे यहां तो एक अदना सा नेता भी रुबाब झाड़ने से पीछे नहीं हटता।

दूसरी बात अपने देश के नेताओं को सब पहचानते हैं, अगर अमेरिकी अधिकारी अपने अफसरान को कुछ रियायत देते भी हैं तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। कायदे में होना यही चाहिए कि जब आम आदमी को सुरक्षा के झंझावत से गुजरना पड़ता है तो वीवीआई भी इंसान ही हैं। और वैसे भी सुरक्षा नियम सबको सुरक्षित रखने के लिए ही बनाए जाते हैं। भारतीयों में समस्या ये है कि ऊंचे पद पर पहुंचने के साथ ही उनका अहम ऊंचा उठने लगता है। भारत में उन्हें सुविधाएं मिलती हैं उनके वो आदी हो जाते हैं और जब उनसे आम इंसान की तरह व्यवहार किया जाता है तो उनके अहम को चोट लग जाती है। बड़क्पपन जैसी कोई चीज हमारे अंदर बची ही नहीं है, हमारे नेताओं को अभिनेताओं को कम से कम इस मामले में तो अमेरिकियों का कायल होना चाहिए कि उनकी प्राथमिकता में राष्ट्र सुरक्षा सबसे पहले है। इस मामले में पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का कोई जवाब नहीं, गत साल इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर अमेरिका की काँटिनेंटल एयरलाइंस के अधिकारियों ने कलाम साहब को जहाज में सवार होने से पहले पूरी सुरक्षा जांच से गुजारा। जबकि प्रोटोकाल के तहत भारत में उन्हें इस तरह की जांच से छूट मिली हुई है। इसके पीछे एयरलाइंस का तर्क था कि उन्हें आदेश हैं कि किसी को भी बिना तलाशी के सवार न होने दिया जाए।

इस तलाशी को लेकर एयरपोर्ट से संसद तक बहुत बवाल मचा, कई सांसदों ने तो उस एयरलाइंस का लाइसेंस तक रद्द करने की सिफारिश कर डाली। लेकिन कलाम साहब ने अपने मुंह से ऊफ तक नहीं किया। यह घटना 24 अप्रैल की थी, जबकि इसका खुलासा जुलाई में हुआ और वो किसी तीसरे ने इस पर प्रकाश डाला कलाम साहब ने नहीं। अफसोस की बात है कि हमारे नेता पूर्व राष्ट्रपति तक से प्रेरण नहीं ले सके। मीरा शंकर की जगह अगर अब्दुल कलाम होते तो गुस्से में ये नहीं बोलते कि अब यहां नहीं आएंगे। निश्चित तौर पर हर व्यक्ति एक जैसा नहीं हो सकता, लेकिन किसी दूसरे के अच्छे गुणों को तो ग्रहण किया ही जा सकता है। मीरा शंकर के मामले में जो गलत है केवल उसी पर विरोध जताया जाना चाहिए। सुरक्षा जांच से गुजरने में कोई बडा व्यक्ति छोटा नहीं हो जाता। सच कहा जाए तो हम भारतीयों को हर छोटी बात को खींचकर बड़ा करने की बीमारी है, फिर चाहे वही उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति हो या आम आदमी। जब तक हम जरूरी और गैर जरूरी में फर्क करना नहीं सीख लेते इस तरह की घटनाओं पर हो-हल्ला करते रहेंगे।

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जांच क्या कि हंगामा हो गया

नीजर नैयर
अमेरिकी हवाई अड्डे पर भारतीय राजदूत मीरा शंकर की तलाशी क्या हुई दिल्ली में बैठे राजनीतिक दलों को हो-हल्ला मचाने का मौका मिल गया। भाजपा ने तो लगे हाथ रैली भी निकाल डाली। सियासी पार्टियां इस मुद्दे पर भी सरकार को घेर रही हैं, जैसे सरकार ने खुद अमेरिकी अधिकारियों से कहा हो कि मीरा की तलाशी ली जाए। हां, वो इस बात पर जरूर सरकार को घेर सकती हैं कि केंद्र सरकार अमेरिका से किस लहजे में नाराजगी व्यक्त करती है। वैसे प्रकरण के सामने आने के तुरंत बाद विदेशमंत्रालय ने थोड़ी बहुत गर्जना जरूर की, और इसका त्वरित असर भी देखने को मिला। अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने स्वयं खेद व्यक्त करते हुए भरोसा दिलाया कि इस घटना की पुर्नवृत्ति नहीं होगी। हालांकि, अमेरिका ने ये भी साफ किया कि जो कुछ भी हुआ वो कानून के मुताबिक हुआ। अमेरिका के ट्रांसपोर्ट सिक्यूरिटी असोसिएशन (टीएसए)के तहत राजनयिकों को तलाशी में छूट नहीं दी जाती। दरअसल मीरा शंकर ने भारतीय पारंपरिक परिधान यानी साड़ी पहनी हुई थी, और टीएसए के मुताबिक तलाशी के कारणों में ढेर सारे कपड़े पहनना भी शामिल है। अब ऐसे देखा जाए तो साड़ी और बुर्के में फर्क केवल इतना ही है कि एक में चेहरा दिखता है और दूसरे में नहीं। मीरा शंकर के साथ जो गलत हुआ वो ये कि राजनयिक जैसे ओदे पर होने के बाद भी पारदर्शी बाक्स में ले जाकर उनकी हाथों से तलाशी ली गई। जबकि एयरपोर्ट अधिकारियों को दिए दिशा-निर्देशों में यह साफ किया गया है कि यदि कोई यात्री सबके सामने तलाशी नहीं देना चाहता तो उसकी जांच गोपनीय तौर पर होनी चाहिए। मीरा कुमार के साथ दूसरे कुछ अधिकारी भी, लेकिन उन्हें भी अनसुना कर दिया गया। वैसे ये कोई पहला मौका नहीं, जब अमेरिका में उच्च दर्जा प्राप्त भारतीयों को इस तरह की जांच से गुजरना पड़ा हो। पिछले साल बॉलिवुड स्टार शाहरुख खान को न्यूयार्क के लिबर्टी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सिर्फ इसलिए रोककर पूछताछ की गई, क्योंकि उनके नाम के आगे खान जुड़ा था। इसी साल नागरिक उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल से शिकागो के ओ हेयर अड्डे पर पूछताछ की गई।

इस पूछताछ की वजह इतनी थी उनका नाम और जन्मतिथि उस शख्स से मेल खा रही थी, जो अमेरिका की वॉच लिस्ट में था। इससे पीछे चलें तो राजग सरकार में रक्षामंत्री रहे जार्ज फर्नांडीस को भी अमेरिकी एयरपोर्ट पर तलाशी से गुजरना पड़ा था, और जैसा मुझे याद है उनके तो कपड़े उतरवाकर तलाशी ली गई थी। वो घटना निश्चित तौर पर अप्रत्याशित और चौंकाने वाली थी, एक रक्षामंत्री के साथ इस तरह का व्यावहार करना कहीं से उचित नहीं माना जा सकता। लेकिन इसके बाद की जो घटनाएं हैं, उन पर इतना हो-हल्ला मचाना बिल्कुल ही जायज नहीं लगता। शाहरुख खान को बेशक भारत में स्पेशल ट्रीटमेंट दिया जाता हो, उन्हेंसुरक्षा जांच जैसे झंझटों से मुक्त रखा जाता हो मगर दूसरे मुल्कों से तो ये अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वो भी वैसे ट्रीटमेंट दें। बॉलीवुड स्टार के लिए अमेरिका अपने सुरक्षा नियमों में तो बदलाव नहीं कर सकता। 911 के बाद अमेरिकी बहुत यादा सतर्क हो गए हैं, इसमें कोई दोराय नहीं कि इस सतर्कता से अमेरिकी आवाम को भी कई बार परेशानी का सामना करना पड़ता है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि उस एक आतंकी हमले के बाद दहशतगर्द अमेरिका की तरफ आंख उठाने तक ही हिमाकत नहीं कर पाए हैं। अमेरिका पर हमला करने वाले अल कायदा के आतंकवादी थे, जो मूलरूप से मुसलमान थे। इसलिए अगर किसी नाम के आगे खान जुड़ा देखकर वो अति सतर्क हो जाते हैं तो इस पर बवाल मचाने वाली क्या बात है। शाहरुख खान यदि इस घटना को सामान्य तौर पर लेते तो इतना हंगामा मचता ही नहीं। इसी तरह प्रफुल्ल पटेल की बात करें तो, वो गलतफहमी का शिकार हुए। अगर उनका नाम और जन्मतिथी किसी वांछित अपराधी से मेल खाता है और जांच अधिकारियों ने उनसे कुछ सवालात पूछ लिए तो मुझे नहीं लगता कि इसमें अपमान जैसी कोई बात है। उल्टा हमें इससे सीख लेना चाहिए कि अमेरिकी अधिकारी सुरक्षा के मुद्दे पर रुतबे के दबाव में नहीं आते। अब सवाल करने वाले पूछ सकते हैं कि क्या अमेरिकी नेताओं के साथ भी होता होगा, इसका जवाब काफी हद तक हां में है। अमेरिका में जिन लोगों को सुरक्षा जांच में छूट मिली है उनकी फेहरिस्त हमारी तरह इतनी लंबी नहीं है। हमारे यहां तो एक अदना सा नेता भी रुबाब झाड़ने से पीछे नहीं हटता।

दूसरी बात अपने देश के नेताओं को सब पहचानते हैं, अगर अमेरिकी अधिकारी अपने अफसरान को कुछ रियायत देते भी हैं तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। कायदे में होना यही चाहिए कि जब आम आदमी को सुरक्षा के झंझावत से गुजरना पड़ता है तो वीवीआई भी इंसान ही हैं। और वैसे भी सुरक्षा नियम सबको सुरक्षित रखने के लिए ही बनाए जाते हैं। भारतीयों में समस्या ये है कि ऊंचे पद पर पहुंचने के साथ ही उनका अहम ऊंचा उठने लगता है। भारत में उन्हें सुविधाएं मिलती हैं उनके वो आदी हो जाते हैं और जब उनसे आम इंसान की तरह व्यवहार किया जाता है तो उनके अहम को चोट लग जाती है। बड़क्पपन जैसी कोई चीज हमारे अंदर बची ही नहीं है, हमारे नेताओं को अभिनेताओं को कम से कम इस मामले में तो अमेरिकियों का कायल होना चाहिए कि उनकी प्राथमिकता में राष्ट्र सुरक्षा सबसे पहले है। इस मामले में पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का कोई जवाब नहीं, गत साल इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर अमेरिका की काँटिनेंटल एयरलाइंस के अधिकारियों ने कलाम साहब को जहाज में सवार होने से पहले पूरी सुरक्षा जांच से गुजारा। जबकि प्रोटोकाल के तहत भारत में उन्हें इस तरह की जांच से छूट मिली हुई है। इसके पीछे एयरलाइंस का तर्क था कि उन्हें आदेश हैं कि किसी को भी बिना तलाशी के सवार न होने दिया जाए।

इस तलाशी को लेकर एयरपोर्ट से संसद तक बहुत बवाल मचा, कई सांसदों ने तो उस एयरलाइंस का लाइसेंस तक रद्द करने की सिफारिश कर डाली। लेकिन कलाम साहब ने अपने मुंह से ऊफ तक नहीं किया। यह घटना 24 अप्रैल की थी, जबकि इसका खुलासा जुलाई में हुआ और वो किसी तीसरे ने इस पर प्रकाश डाला कलाम साहब ने नहीं। अफसोस की बात है कि हमारे नेता पूर्व राष्ट्रपति तक से प्रेरण नहीं ले सके। मीरा शंकर की जगह अगर अब्दुल कलाम होते तो गुस्से में ये नहीं बोलते कि अब यहां नहीं आएंगे। निश्चित तौर पर हर व्यक्ति एक जैसा नहीं हो सकता, लेकिन किसी दूसरे के अच्छे गुणों को तो ग्रहण किया ही जा सकता है। मीरा शंकर के मामले में जो गलत है केवल उसी पर विरोध जताया जाना चाहिए। सुरक्षा जांच से गुजरने में कोई बडा व्यक्ति छोटा नहीं हो जाता। सच कहा जाए तो हम भारतीयों को हर छोटी बात को खींचकर बड़ा करने की बीमारी है, फिर चाहे वही उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति हो या आम आदमी। जब तक हम जरूरी और गैर जरूरी में फर्क करना नहीं सीख लेते इस तरह की घटनाओं पर हो-हल्ला करते रहेंगे।

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Wednesday, December 8, 2010

जेपीसी पर हंगामे का औचित्य

नीरज नैयर
आधुनिकता की सियासत ने राजनीति के मूल्य ही बदलकर रख दिए हैं। कभी गंभीर बहस और लोकहित के फैसलों के लिए पहचाने जाने वाले लोकतंत्र के मंदिर आज अखाड़े में तब्दील हो चुके हैं। बात चाहे संसद की हो या विधानसभाओं की सियासी पार्टियों को एक दूसरे को नीचा दिखाने की इससे मुफीद ागह कोई नहीं लगती। संसद का शीतकालीन सत्र सरकार और विपक्ष की नोंकझोंक की भेंट चढ़ा जा रहा है। जब तक ये लेख प्रकाशित होगा और कुछ दिन हंगामे पर कुर्बान हो चुके होंगे। शीतकालीन सत्र 9 नवंबर से शुरू हुआ था, लोकसभा में पहले दिन जरूर कुछ काम हुआ मगर रायसभा तो पहले दिन से ही नहीं चल पाई। मौजूदा स्थिति ये है कि सत्र समाप्त होने में चंद दिन ही बचे हैं और हंगामा चरम पर है। दरअसल विपक्ष स्पेक्ट्रम और दूसरे तमाम घोटालों की जांच संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी से कराने पर अड़ा है, लेकिन सरकार इसके सख्त खिलाफ है। सरकार का तर्क है कि जब जांच सीबीआई कर रही है तो फिर जेपीसी गठन का सवाल ही नहीं बनता। जेपीसी गठन का सवाल है या नहीं, सवाल ये नहीं है असल सवाल ये है कि आखिर इसको लेकर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है। विपक्ष क्यों इतना उतारू है और सरकार क्यों इससे इतना बच रही है। ऐसा नहीं है कि इससे पहले कभी जेपीसी का गठन किया ही नहीं गया। संसदीय इतिहास में अब तक चार बार जेपीसी जांच हो चुकी है।

सबसे पहले बोफोर्स कांड को लेकर विपक्ष के लगभग 45 दिनों तक संसद में हंगामे के परिणाम स्वरूप संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया था। इसके बाद हर्षद मेहता कांड की जांच जेपीसी से कराई गई, इस मामले में जेपीसी गठन के लिए 17 दिनों तक संसद में गतिरोध बरकरार रहा। केतन मेहता मामले में भी तकरीबन 14 दिनों के हंगामें के बाद जेपीसी जांच को मंजूरी मिल सकी। चौथी जेपीसी शीतलपेय पेप्सी-कोला में कीटनाशकों की रिपोर्ट आने के बाद सरकार ने गठित की। जेपीसी गठन दो तरह से किया जाता है, या तो एक सदन इसका प्रस्ताव रखे और दूसरा उस पर सहमति जताए। या फिर दोनों सदनों के अध्यक्ष आपस में मिलकर इसका फैसला लें। जेपीसी में कितने सदस्य होंगे इसके लिए कोई संख्या निर्धारित नहीं की गई है। हां, इतना जरूर है कि इस समिति में लोकसभा सदस्यों की संख्या रायसभा सदस्यों से दोगुनी होती है। यानी अगर रायसभा के 5 सदस्य समिति का हिस्सा हैं तो लोकसभा सदस्यों की संख्या 10 होगी। जेपीसी के पास जांच के पूरे अधिकार होते हैं, वो मामले की रिपोर्ट तलब कर सकती है। इस संबंध में पूछताछ के लिए सम्मन जारी कर सकती है, सम्मान की तामील न होने पर संबंधित व्यक्ति पर सदन की अवेहलना के तहत कार्रवाई कर सकती है। जेपीसी जांच में एक अच्छी बात सब यही है कि उसे अपनी कार्रवाई के लिए किसी अनुमति का इंतजार नहीं करना पड़ता। इसके अलावा शायद ही कोई फायदा होता हो, क्योंकि अगर होता तो एक न एक मामले में तो दोषियों को सजा मिल गई होती। बोफोर्स कांड में जेपीसी ने 26 अप्रैल 1986 में अपनी रिपोर्ट सौंपी, लेकिन विपक्ष ने इसके विरोध में बायकॉट किया। कुल मिलाकर नतीजा रहा, सिफर। ऐसे ही हर्षद मेहता कांड में न तो जेपीसी की सारी सिफारिशों को ही माना गया और न ही सरकार ने उन्हें कार्यान्वित किया। कुछ इसी तरह केतन मेहता मामले में भी हुआ, 2002 में सौंपी गई जेपीसी रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। कोला-पेप्सी कांड की जांच के लिए शरद पवार की अध्यक्षता में बनाई गई संयुक्त जांच समिति ने चार फरवरी 2004 को सदन में रखी अपनी रिपोर्ट में शीतलपेय में कीटनाशकों की पुष्टि की मगर उसे सरकार ने कितनी गंभीरता से लिया सब जानते हैं। जेपीसी की सबसे बड़ी खामी ये है कि इसकी जांच सार्वजनिक नहीं होती, जबकि कई मुल्कों में इसमें पारदर्शिता बरती जाती है।

विपक्ष में बैठे दल को जांच के लिए जेपीसी सबसे भरोसेमंद लगती है और सरकार हमेशा से इससे बचना चाहती है। यहां गौर करने वाली बात ये है कि क्या जेपीसी इतनी सक्षम होती है कि बड़े से बड़े घोटालों की पेचीदगी को समझ सके। जेपीसी में महज अलग-अलग दल के राजनीतिक लोगों का जमावड़ा होता है, और हमारी नेताओं की काबलियत जगजाहिर है। जो काम सीबीआई या दूसरी जांच एजेंसी के वो अधिकारी कर सकते हैं जिनका काम ही बड़े से बड़े घोटालों में सिर खपाना, क्या वो हमारे नेता कर सकते हैं। निश्चित तौर पर इसके यादातर जवाब नहीं में मिलेंगे। दरअसल जेपीसी के माध्यम से खुद को पाकसाफ बताने वाले दलों को आरोपों में घिरी पार्टी के अंदरूनी हालात का काफी अच्छे से जायजा लेने का मौका मिल जाता है। और ऐसे में आर्थिक और राजनीतिक हितों के सधने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। जेपीसी का अब तक का इतिहास बिल्कुल भी अच्छा नहीं रहा है तो फिर विपक्ष का इसके लिए अड़ियल रुख अख्तियार करना समझ से बाहर है, ऐसे ही सरकार का अपने फैसले पर अडिग हो जाना भी आश्चर्यचिकत करने वाला है। सरकार जेपीसी की कीमत पर संसद का कीमती वक्त बर्बाद करे जा रही है। सदन की कार्यवाही पर खर्च होने वाला एक-एक पैसा जनता की जेब से आता है, लेकिन सदन में हंगामा करने वालों को इससे कोई सरोकार नहीं। अच्छा होता अगर सरकार संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराने की विपक्ष की मांग को मानकर जनता के सामने अच्छा उदाहरण पेश करती। मौजूदा वक्त में सदन की कार्यवाही बाधित करने के लिए जनता की नजरों में जितना दोषी विपक्ष है उतना ही सत्तापक्ष भी है। ऐसा लगता है जैसे विपक्ष और सरकार मिलकर अरबों के घोटालों का टैक्स जनता के वसूलने का मन बना चुके हैं। स्पेक्ट्रम आदि घोटालों में जितनी रकम जानी थी वो जा चुकी और सब जानते हैं कि दोषियों का बाल भी बांका होने वाला नहीं है, ऐसे जेपीसी को लेकर संसद में जारी गतिरोध जनता के लिए कोड़ में खाज के समान है।