नीरज नैयर
मुंबई में आतंकवाद की धुंध छटने के baad हर किसी की जुबान पर बस एक ही नाम है राज ठाकरे. हर कोई बस यही जानना चाहता है कि मराठी हितों की दुहाई देने वाला यह मराठी मानुस आखिर तीन दिनों तक किस बिल में छिपा रहा. जब आतंकवादी मराठियों के खून से होली खेल रहे थे तब राज और उसकी बहादुर सेना मर्दानगी त्यागकर हाथों में चूड़ियां पहने क्यों बैठी रही. अगर राज और उसके गुंडे मराठियों के सच्चे पैरोकार थे तो उन्हें सड़कों पर गोलियां बरसा रहे आतंकियों से लोहा लेना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, जब जान पर बन आई तो सारी मराठीगिरी पल भर में ही काफूर हो गई.
जिस मुंबई में हमेशा कभी दक्षिण भारतीयों के नाम पर तो कभी उत्तर भारतीयों के नाम पर नफरत का जहर घोला जाता रहा है उसी मुंबई को बचाने के लिए सेना और एनएसजी के कमांडो ने बिना कुछ सोच-विचारे जान की बाजी लगा दी क्यों? क्योंकि वह जानते हैं कि मुंबई भी उसी देश का हिस्सा है जिसमें यूपी और बिहार आते हैं. लेकिन राज ठाकरे जैसी संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों के दिमाग में यह बात आसानी से नहीं आएगी. राज ठाकरे ने यह ऐलान किया था कि वो किसी भी उत्तर भारतीय को महाराष्ट्र में नहीं घुसने देंगे तो फिर उन्होंने कमांडो से उनकी जात-पात जाने बगैर मुंबई में कैसे उतरने दिया. राज को चाहिए था कि वो पहले उत्तर भारतीय कमांडो की पहचान करते, फिर उनके साथ भी वैसा ही सुलूक करते जैसा वो आमजन के साथ करते आए हैं. लेकिन राज ने ऐसा कुछ नहीं किया. दरअसल राज जैसे लोग कुछ करने के काबिल भी नहीं हैं. वैमनस्य फैलाते-फैलाते वह खुद ऐसी गंदी दीवार में परिवर्तित हो गये हैं जिस पर थूकना भी कोई पसंद नहीं करता. मुंबई भले ही आज आतंकी हमले को लेकर चर्चा में है, पूरा देश मारे गये लोगों के गम में सिसकियां भर रहा है लेकिन कुछ वक्त पहले तक मुंबई अपनी नपुंसकता छिपाने के लिए मर्दानगी का भौंडा प्रदर्शन करने वाले राज ठाकरे की ज्यादतियों को लेकर सुर्खियों में थी. राज के पालतू , लोगों को बीच सड़क पर मार रहे थे, सरकारी संपत्ति को स्वाहा कर रहे थे और सरकार कह रही थी कि बच्चा बस थोड़ा सा बिगड़ गया है.
राज डंके की चोट पर चुन-चुनकर निर्दोष उत्तर भारतीयों पर हमले कर रहे थे लेकिन राज्य सरकार खामोश थी और केंद्र सरकार को इस ओर देखना भी मंजूर नहीं था. राजनीतिक अकर्मण्यता और खुद को बचाने की राजनीति के चलते ही राज जैसे लोगों का हौसला आज बुलंदी पर है. वरना क्या मजाल की एक अदना सा बौराया हुआ युवक 100-200 निठल्लों को लेकर पूरी सरकारी मिशनरी को जाम करने की हिम्मत दिखा सके. आज हालात यह हो गये हैं कि मुंबई में बसने वाला जो गैरमराठी कभी अपनेपन के साथ समुद्र के किनारे, सड़कों पर बेखौफ होकर टहला करता था वो आज घर से बाहर निकलने में भी घबराने लगा है. सबसे अजीब बात तो यह है कि राज के इस असभ्य तौर-तरीके पर राजनीतिक वर्ग के साथ-साथ सभ्य समाज भी मौन धारण किए हुए है. शायद सभी राज के लिए इस कहावत को चरितार्थ करते हैं कि पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं किया जाता.
वैसे ऐसा नहीं है कि केवल राज ठाकरे ही क्षेत्रवाद और जात-पात के नाम पर घिनौना खेल खेलने में लगे हैं या मुंबई ही अकेली इस आग में जल रही है. असम भी कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रहा है और तमिलनाडु भी ऐसी लपटों से झुलस चुका है. मुंबई में करीब 40 साल पहले बाल ठाकरे ने भी मराठी माणुस का पत्ता खेलकर नफरत की सियासत से अपना घर सींचने की कोशिश की थी. उनकी बनाई शिवसेना ने हर वो काम किया था जो देश की एकता और अखंडता पर चोट करने वाला था. बस फर्क सिर्फ इतना था कि उस वक्त उनके निशाने पर दक्षिण भारतीय थे और आज उनके भतीजे के निशाने पर उत्तर भारतीय. 2006 में राज ने जब चाचा का दामन छोड़ा था तो बाल ठाकरे ने उन्हें बिना पतवार की नाव करार दिया था लेकिन आज राज उनसे आगे निकलने की होड़ में लगे और काफी हद तक निकल भी गये हैं. राज को मराठियों का काफी हद तक समर्थन मिल रहा है. पढ़े-लिखे लोग हालांकि राज के हिंसात्मक रवैये की निंदा जरूर कर रहे हैं मगर सिध्दांतत: वो राज से सहमत हैं. वो कहीं न कहीं समझते हैं कि बाहरी लोगों के आने से उनके अधिकारों में कटौती हुई है जबकि यह तर्कसंगत नहीं है. महाराष्ट्र में अब भी सबसे ज्यादा नौकरियां मराठियों के पास हैं.
हाल ही में सार्वजनिक हुई एक रिपोर्ट में इस बात की पुष्टि की गई है. लेकिन राज को ऐसी रिपोर्टों से कोई मतलब नहीं उन्हें मतलब है तो केवल इस बात से कि कैसे चुनाव से पहले मराठी वोट बैंक को अपने पक्ष में किया जाए, कैसे बाल ठाकरे को नीचा दिखाया जाए और कैसे मराठियों का देवता बना जाए. राज जो भी कर रहे हैं उसका गुस्सा कई बार देश के अन्य राज्यों में दिखलाई पड़ चुका है. गैर-मराठी मराठियों से नफरत करने लगे हैं, उन्हें अपना दुश्मन समझने लगे हैं. बिहार में जब मराठी पर्यटकों को पुलिस सुरक्षा में सीमा से बाहर तक छोड़ा गया, उनसे हिंदी में बात करने को कहा गया, पारंपरिक वेशभूषा न पहनने की हिदायत दी गई तो समझ आ जाना चाहिए कि नफरत अब महाराष्ट्र तक ही सीमित नहीं रही. लोग राज से ज्यादा राज्य सरकार से खफा हैं. उन्हें लग रहा है कि सरकार खुद गैरमराठियों को बाहर करवाना चाहती है, इसलिए राज के खिलाफ कदम नहीं उठाए जा रहे हैं. उन पर केवल मामूली धाराएं लगाई जा रही हैं, ताकि आसानी से उन्हें बेल मिल जाए.
राज जब गिरफ्तार किए जाते हैं तो किसी अपराधी की तरह नहीं बल्कि किसी महाराजा की तरह जिनके साथ सैकड़ों सैनिक चल रहे होते हैं. अदालत से बाहर निकलने पर उनका बर्ताव किसी राजा से कम नहीं होता, पुलिस अधिकारी खुद उनकी कार का दरवाजा खोलते हैं, उन्हें सुलूट मारते हैं. यह सुनिश्चित करते हैं कि उन्हें कोई असुविधा न हो. पूरा सरकारी तंत्र राज के इर्द-गिर्द दिखाई पड़ता है ऐसे में उत्तर भारतीयों की आवाज किस को सुनाई दे सकती है. मुंबई हमले के तुरंत बाद एक हिंदीभाषी पत्रकार को इतना मारना कि उसकी टांग टूट जाए, रीढ़ की हड्डी में गंभीर चोटें आ जाएं, खून रोकने के लिए कई टांके लगाने पड़ें तो राज के मानसिक दिवालिएपन का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकात है. राज भले ही तीन दिनों तक चूहा बने किसी बलि में छिपे रहे मगर अब फिर वो पागल कुत्ते की तरह गैरमराठियों को काटेंगे, सरकारी बाशिंदे फिर उन्हें पुचकारेंगे और फिर मुंबई नफरत की हिंसा में सुर्खियों बटोरती रहेगी.
नीरज नैयर
9893121591
Wednesday, December 3, 2008
हमने अमेरिका से कुछ क्यों नहीं सीखा
नीरज नैयर
मुंबई में जो कुछ भी हुआ उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता. आतंकवादी समुद्र के रास्ते प्रवेश करते हैं, सड़कों पर अंधाधुंध गोलियां चलाते हैं, धमाके करते हैं. स्टेशन पर, अस्पताल में कहर बरपाते हैं और आसानी से ताज-ओबरॉय और नरीमन हाउस पर कब्जा कर लेते हैं और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होती. कहते हैं मुंबई कभी थमती नहीं, लेकिन गुरुवार 27 नवंबर को मुंबई थमी-थमी नजर आई. स्कूल-कॉलेज पूरी तरह बंद रहे, सड़कों पर सन्नाटा पसरा रहा. लोग अपनों की खैरियत की दुआएं करते रहे. तीन दिन तक आतंकवादी खूनी खेल खेलते रहे और सरकार शब्दों की आड़ में अपनी नपुंसकता छुपाने की कोशिश करती रही.
दिल्ली धमाकों के बाद से ही ऐसी आशंका जताई जा रही थी कि आतंकी मुंबई को निशाना बना सकते हैं बावजूद इसके लापरवाही बरती गई. गृहमंत्री कपड़ों की चमकार में उलझे रहे और खुफिया एजेंसियां खामोशी की चादर ताने सोती रहीं. इस वीभत्स हमले ने मुंबई पुलिस और स्थानीय खुफिया तंत्र की मर्दानगी की हकीकत भी सामने ला दी है. कहा जा रहा है कि आतंकवादी करीब दो महीने तक नरीमन हाउस इलाके में रहकर अपनी तैयारियों को अंजाम देते रहे मगर तेज तर्रार कही जाने वाले एटीएस और हमेशा सजग रहने का दावा करने वाली पुलिस को पता ही नहीं चला. और तो और पुलिस को कोलाबा-कफरोड़ के मच्छी नगर समुद्र तट पर अंजान लोगों की मौजूदगी की खबर भी दी गई, लेकिन नाकारान यहां भी हावी रहा. अगर पुलिस उस खबर को गंभीरता से लेती तो शायद तस्वीर इतनी खौफनाक नहीं होती. मुंबई पर हमला देश पर सबसे बड़ा हमला है. आतंकियों ने गुपचुप बम धमाके करके कायरता नहीं दिखाई बल्कि सामने आकर फिल्मी अंदाज में नापाक इरादों को अंजाम दिया. यह अपने आप में एक बहुत बड़ा सवाल है कि आखिर आतंकी इतने बड़े हमले की साजिश के लिए साजो-सामान कैसे जुटाते रहे, इसे स्थानीय तंत्र की विफलता के साथ-साथ कहीं न कहीं इससे उसकी संलिप्तता के तौर पर भी देखा जाना चाहिए.
सरकार को अब यह स्वाकीर कर लेना चाहिए कि न तो उनका गृहमंत्री किसी काम का है और न ही इतना लंबा-चौड़ा खुफिया तंत्र. सितंबर में दिल्ली के हुए बम धमाकों के बाद कैबिनेट की विशेष बैठक में पाटिल ने खुफिया तंत्र को मजबूत करने के लिए एक विशेष योजना पेश की थी पर शायद उस पर काम करना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा. पिछले तीन सालों में विभिन्न आतंकी घटनाओं में तीन हजार निर्दोष लोग मारे जा चुके हैं और करीब 1185 सुरक्षा जवान शहीद हो चुके हैं लेकिन अब तक कोई ऐसी रणनीति नहीं बनाई गई जो आतंक फैलाने वालों को माकूल जवाब दे सके. भारत में दुनिया भर के मुकाबले खुफिया सूचनाएं जुटाने वाली सबसे ज्यादा एजेंसियां मौजूद हैं इसके बाद भी आतंकी अपनी मनमर्जी के मुताबिक मासूमों की बलि चढ़ा रहे हैं. जयपुर, बेंगलुरू, अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली, असम और अब मुंबई में जेहादी आतंकवाद का जो खौफजदा मंजर देखने को मिला है, उसके बाद देश को चलाने और आतंकवाद पर सियासत करने वालों के सिर शर्म से झुक जाने चाहिए. अमेरिका से परमाणु करार पर जश् मनाने वालों को इस बात पर भी गौर करना चाहिए था कि आखिर अमेरिका में 911 के बाद कोई आतंकी हमला क्यों नहीं हुआ. जबकि इस्लामी कट्टरपंथ में भारत से ज्यादा अमेरिका के दुश्मन शुमार हैं. अमेरिका ओसामा बिन लादेन के निशाने पर है बावजूद इसके वहां के बाशिंदे इस इत्मिनान के साथ सोते हैं कि 911 की पुनरावृत्ति नहीं होगी. ऐसा इसलिए क्योंकि वहां पर आतंकवाद के नाम पर सियासत के बजाय आतंकवादियों को सिसकियां भरने पर मजबूर करने की रणनीति पर काम किया जाता है. वहां राष्ट्रीय सुरक्षा को धर्म और संप्रदाय, समुदाय के नजरिये से नहीं देखा जाता. 911 के बाद आतंकवाद से लड़ाई के लिए अमेरिका ने खास रणनीति बनाई थी, जिसमें फौजी हमले के साथ-साथ आतंकवादियों के धन स्त्रोत को सुखाना प्रमुख था. हालांकि फौज कार्रवाई को लेकर उसे आलोचना का सामना करना पड़ा था.
इसके साथ ही खुफिया संस्थाओं सीआईए और एफबीआई को ज्यादा अधिकार दिए गये. आंतरिक और सीमा सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय खुफिया निदेशक का एक पद निर्मित किया गया, जिसका काम सभी खुफिया एजेंसियों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष से राष्ट्रपति को अवगत कराना है. नेशनल काउंटर-टेररिम सेंटर नाम की एक राष्ट्रीय संस्था खड़ी की गई, जिसका काम सभी खुफिया सूचनाओं की लगातार स्कैनिंग करके काम की सूचनाओं को क्रमबध्द रूप देना है. डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्युरिटी नाम से बाकायदा आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय खड़ा किया गया, जिसका काम सभी रायों की पुलिस और कोस्टल गार्ड के बीच तालमेल बिठाना है. अमेरिका में भी यह काम आसान नहीं था लेकिन वहां की सरकार ने आतंकवाद को कुचलने की प्रतिबध्ता पर किसी को हावी नहीं होने दिया. हमारे यहां सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्यों पर है, केंद्र और राज्यों में अलग-अलग सरकार होने की वजह से आतंकवाद पर भी सियासत में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती. ऊपर से खुफिया एजेंसियां भी एक दूसरे को तवाो देने की आदत अब तक नहीं सीख पाई हैं. रॉ की सूचना को आईबी तवाो नहीं देती और आईबी की सूचना को राज्य के खुफिया तंत्र हवा में उड़ा देते हैं.
आतंकवादियों के वित्तीय स्त्रोतों को सुखाने की दिशा में भी कोई खास काम नहीं किया गया है. कुछ वक्त पहले ही खबर आई थी कि शेयर बाजार में आतंकवादियों का पैसा लगा है. बावजूद इसके सरकार ना-नुकुर करती रही मगर पर्याप्त कदम नहीं उठाए गये और अब आतंकवाद का मुंह-तोड़ जवाब देने की बातें कही जा रही हैं. कहा जा रहा है कि आतंकवादी भारत के हौसले को नहीं डिगा पाएंगे. ऑपरेशन पूरा होने पर जय-जयकार के नारे लगाए जा रहे हैं. खुशियां मनाई जा रही हैं लेकिन इस बात का भरोसा नहीं दिलाया जा रहा है कि अब ऐसे हमले नहीं होंगे. साफ है कि सरकार महज कुछ दिनों की जुबानी कसरत की अपनी आदत को दोहरा रही है.
नीरज नैयर
9893121591
मुंबई में जो कुछ भी हुआ उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता. आतंकवादी समुद्र के रास्ते प्रवेश करते हैं, सड़कों पर अंधाधुंध गोलियां चलाते हैं, धमाके करते हैं. स्टेशन पर, अस्पताल में कहर बरपाते हैं और आसानी से ताज-ओबरॉय और नरीमन हाउस पर कब्जा कर लेते हैं और किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होती. कहते हैं मुंबई कभी थमती नहीं, लेकिन गुरुवार 27 नवंबर को मुंबई थमी-थमी नजर आई. स्कूल-कॉलेज पूरी तरह बंद रहे, सड़कों पर सन्नाटा पसरा रहा. लोग अपनों की खैरियत की दुआएं करते रहे. तीन दिन तक आतंकवादी खूनी खेल खेलते रहे और सरकार शब्दों की आड़ में अपनी नपुंसकता छुपाने की कोशिश करती रही.
दिल्ली धमाकों के बाद से ही ऐसी आशंका जताई जा रही थी कि आतंकी मुंबई को निशाना बना सकते हैं बावजूद इसके लापरवाही बरती गई. गृहमंत्री कपड़ों की चमकार में उलझे रहे और खुफिया एजेंसियां खामोशी की चादर ताने सोती रहीं. इस वीभत्स हमले ने मुंबई पुलिस और स्थानीय खुफिया तंत्र की मर्दानगी की हकीकत भी सामने ला दी है. कहा जा रहा है कि आतंकवादी करीब दो महीने तक नरीमन हाउस इलाके में रहकर अपनी तैयारियों को अंजाम देते रहे मगर तेज तर्रार कही जाने वाले एटीएस और हमेशा सजग रहने का दावा करने वाली पुलिस को पता ही नहीं चला. और तो और पुलिस को कोलाबा-कफरोड़ के मच्छी नगर समुद्र तट पर अंजान लोगों की मौजूदगी की खबर भी दी गई, लेकिन नाकारान यहां भी हावी रहा. अगर पुलिस उस खबर को गंभीरता से लेती तो शायद तस्वीर इतनी खौफनाक नहीं होती. मुंबई पर हमला देश पर सबसे बड़ा हमला है. आतंकियों ने गुपचुप बम धमाके करके कायरता नहीं दिखाई बल्कि सामने आकर फिल्मी अंदाज में नापाक इरादों को अंजाम दिया. यह अपने आप में एक बहुत बड़ा सवाल है कि आखिर आतंकी इतने बड़े हमले की साजिश के लिए साजो-सामान कैसे जुटाते रहे, इसे स्थानीय तंत्र की विफलता के साथ-साथ कहीं न कहीं इससे उसकी संलिप्तता के तौर पर भी देखा जाना चाहिए.
सरकार को अब यह स्वाकीर कर लेना चाहिए कि न तो उनका गृहमंत्री किसी काम का है और न ही इतना लंबा-चौड़ा खुफिया तंत्र. सितंबर में दिल्ली के हुए बम धमाकों के बाद कैबिनेट की विशेष बैठक में पाटिल ने खुफिया तंत्र को मजबूत करने के लिए एक विशेष योजना पेश की थी पर शायद उस पर काम करना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा. पिछले तीन सालों में विभिन्न आतंकी घटनाओं में तीन हजार निर्दोष लोग मारे जा चुके हैं और करीब 1185 सुरक्षा जवान शहीद हो चुके हैं लेकिन अब तक कोई ऐसी रणनीति नहीं बनाई गई जो आतंक फैलाने वालों को माकूल जवाब दे सके. भारत में दुनिया भर के मुकाबले खुफिया सूचनाएं जुटाने वाली सबसे ज्यादा एजेंसियां मौजूद हैं इसके बाद भी आतंकी अपनी मनमर्जी के मुताबिक मासूमों की बलि चढ़ा रहे हैं. जयपुर, बेंगलुरू, अहमदाबाद, सूरत, दिल्ली, असम और अब मुंबई में जेहादी आतंकवाद का जो खौफजदा मंजर देखने को मिला है, उसके बाद देश को चलाने और आतंकवाद पर सियासत करने वालों के सिर शर्म से झुक जाने चाहिए. अमेरिका से परमाणु करार पर जश् मनाने वालों को इस बात पर भी गौर करना चाहिए था कि आखिर अमेरिका में 911 के बाद कोई आतंकी हमला क्यों नहीं हुआ. जबकि इस्लामी कट्टरपंथ में भारत से ज्यादा अमेरिका के दुश्मन शुमार हैं. अमेरिका ओसामा बिन लादेन के निशाने पर है बावजूद इसके वहां के बाशिंदे इस इत्मिनान के साथ सोते हैं कि 911 की पुनरावृत्ति नहीं होगी. ऐसा इसलिए क्योंकि वहां पर आतंकवाद के नाम पर सियासत के बजाय आतंकवादियों को सिसकियां भरने पर मजबूर करने की रणनीति पर काम किया जाता है. वहां राष्ट्रीय सुरक्षा को धर्म और संप्रदाय, समुदाय के नजरिये से नहीं देखा जाता. 911 के बाद आतंकवाद से लड़ाई के लिए अमेरिका ने खास रणनीति बनाई थी, जिसमें फौजी हमले के साथ-साथ आतंकवादियों के धन स्त्रोत को सुखाना प्रमुख था. हालांकि फौज कार्रवाई को लेकर उसे आलोचना का सामना करना पड़ा था.
इसके साथ ही खुफिया संस्थाओं सीआईए और एफबीआई को ज्यादा अधिकार दिए गये. आंतरिक और सीमा सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय खुफिया निदेशक का एक पद निर्मित किया गया, जिसका काम सभी खुफिया एजेंसियों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष से राष्ट्रपति को अवगत कराना है. नेशनल काउंटर-टेररिम सेंटर नाम की एक राष्ट्रीय संस्था खड़ी की गई, जिसका काम सभी खुफिया सूचनाओं की लगातार स्कैनिंग करके काम की सूचनाओं को क्रमबध्द रूप देना है. डिपार्टमेंट ऑफ होमलैंड सिक्युरिटी नाम से बाकायदा आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय खड़ा किया गया, जिसका काम सभी रायों की पुलिस और कोस्टल गार्ड के बीच तालमेल बिठाना है. अमेरिका में भी यह काम आसान नहीं था लेकिन वहां की सरकार ने आतंकवाद को कुचलने की प्रतिबध्ता पर किसी को हावी नहीं होने दिया. हमारे यहां सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्यों पर है, केंद्र और राज्यों में अलग-अलग सरकार होने की वजह से आतंकवाद पर भी सियासत में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती. ऊपर से खुफिया एजेंसियां भी एक दूसरे को तवाो देने की आदत अब तक नहीं सीख पाई हैं. रॉ की सूचना को आईबी तवाो नहीं देती और आईबी की सूचना को राज्य के खुफिया तंत्र हवा में उड़ा देते हैं.
आतंकवादियों के वित्तीय स्त्रोतों को सुखाने की दिशा में भी कोई खास काम नहीं किया गया है. कुछ वक्त पहले ही खबर आई थी कि शेयर बाजार में आतंकवादियों का पैसा लगा है. बावजूद इसके सरकार ना-नुकुर करती रही मगर पर्याप्त कदम नहीं उठाए गये और अब आतंकवाद का मुंह-तोड़ जवाब देने की बातें कही जा रही हैं. कहा जा रहा है कि आतंकवादी भारत के हौसले को नहीं डिगा पाएंगे. ऑपरेशन पूरा होने पर जय-जयकार के नारे लगाए जा रहे हैं. खुशियां मनाई जा रही हैं लेकिन इस बात का भरोसा नहीं दिलाया जा रहा है कि अब ऐसे हमले नहीं होंगे. साफ है कि सरकार महज कुछ दिनों की जुबानी कसरत की अपनी आदत को दोहरा रही है.
नीरज नैयर
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