Saturday, October 4, 2008

बिल चुकाने के पैसे नहीं किस बात का राष्ट्रीय खेल

नीरज नैयरजब केपीएस गिल को आईएचएफ से बाहर का रास्ता दिखाया गया तो पूरे देश के हॉकी प्रेमियों में जश् का माहौल था. उम्मीदें लगाई जा रही थीं कि हॉकी अब फिर से अपने पैरों पर खड़े हो सकेगी. मैदानों में लगने वाला खिलाड़ियों का जमावड़ा इस बात की गवाही दे रहा था कि क्रिकेट के काले बादलों ने भले ही हॉकी को कुछ देर के लिए ढक लिया हो मगर उसकी चमक आज भी कायम है. पर अब लगता है कि वो जोश, वो जुनून, वो स्टिक के सहारे दुनिया जीतने का जज्बा सब बेकार है. सच तो यह है कि इस मुल्क में न तो हॉकी का उद्धार हो सकता है और न इससे ताल्लुकात रखने वालों का. अप्रैल-मई में ऑस्ट्रेलिया में जो कुछ भी हुआ उसके बाद शायद ही कोई हॉकी में अपना भविष्य देखना चाहेगा. पूरे देश के लिए इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है कि टीम के पास खाने का बिल चुकाने तक के पैसे नहीं थे. वो तो भला हो उस भारतीय मूल के व्यक्ति का जिसने बिल चुकाकर विदेशी सरजमीं पर देश की इात को तार-तार होने से बचा लिया. लेकिन अब वो बेचारा खुद अपनी 7.2 लाख की भारी-भरकम रकम वापस लेने के लिए दर-दर भटक रहा है.

इसे हॉकी और उसके प्रेमियों के प्रति उदासीनता ही कहा जाएगा कि आईएचएफ से लेकर खेल मंत्रालय तक देश की लाज रखने वाले की सुनने को तैयार नहीं है. छह महीने गुजर जाने के बाद भी उसे रकम नहीं लौटाई गई है. ओलंपिक में क्वालीफाई न कर पाना भले ही भारतीय हॉकी के इतिहास का सबसे काला दिन हो मगर इस वाक्य के बाद अब यह उम्मीद लगाना बेमानी होगा की हॉकी का स्वर्णिम युग कभी लौट के आएगा. हॉकी अब पूरी तरह से खत्म हो गई है. इसको बचाने के लिए अब कोई आगे नहीं आने वाला. किसी जमाने में हिटलर तक को मोहित करने वाली भारतीय हॉकी की सफलता के दौर में इसके पास बहुत माई-बाप थे, लेकिन आज ऐसा कुछ नहीं है. ग्वास्कर, ब्रैडमैन, कपिल देव का नाम अब भी लोगों की जुंबा पर हैं मगर ध्यानचंद, केडी सिंह बाबू, अशोक कुमार को लोगों ने कब का भुला दिया. आलम यह है कि हॉकी आज केवल गली-मोहल्लों का खेल बनकर ही रह गई है. हॉकी को रसातल में ले जाने का जिम्मा भले ही हॉकी फेडरेशन का हो, लेकिन कुछ बातें हैं, जिन पर गौर करें, तो हॉकी में फैली हताशा समझी जा सकती है. इसकी एक वजह तो क्रिकेट का ब्रांड बनना या उसका एकाधिकार ही है. हॉकी में 1975 की पराजय के दस साल के भीतर क्रिकेट भारत में ब्रांड बनने लगा था. यह जानकर हैरत होती है कि वर्ष 1983 की विजेता टीम की अगवानी और सम्मान कार्यक्रम कराने के लिए लता मंगेशकर ने बीसीसीआई के लिए पैसे जुटाए थे, क्योंकि क्रिकेट को भारत सरकार से वित्तीय सहायता नहीं मिलती थी और बीसीसीआई के पास इतने पैसे नहीं थे. मगर अब क्रिकेटरों के लिए करोड़ों की बोली लग रही है. जो शाहरुख खान चक दे इंडिया में हॉकी के दीवाने दिखाए थे वो असल जिंदगी में क्रिकेट खरीद रहे हैं. जो मां-बाप यह नहीं चाहते कि उनका बच्चा हॉकी में समय बर्बाद करे वो बिल्कुल सही हैं. क्रिकेट में पैसा है, शौहरत है, सम्मान है. पर हॉकी में क्या है. न पैसा, न शौहरत और न ही सम्मान.

टीम इंडिया जब कोई टूर्नामेंट जीतकर आती है तो उसके स्वागत में पलक पांवड़े बिछाए जाते हैं मगर जब हॉकी खिलाड़ी जीतकर आते हैं तो उनके स्वागत के लिए भी कोई आना गंवारा नहीं समझता. जब सरकार खुद राष्ट्रीय खेल को दफन करने पर अमादा हो तो फिर किसी और को दोष देने से क्या फायदा. देश में अब तक सरकार स्पोट्र्स कल्चर बनाने में नाकाम रही है. नेशनल स्पोट्र्स पॉलिसी की बातें भी धूल फांक रही हैं, जिससे तहत ग्रामीण स्तर पर खेलों को पहुंचाकर प्रतिभा खोजने का लक्ष्य रखा गया था. इसके अलावा सबसे बड़ी बात तो यह है कि देश में हॉकी के लिए पर्याप्त मैदान तक नहीं है. स्कूल और कॉलेज की हॉकी आज भी घास पर खेली जाती है. ऐसे में एस्ट्रो टर्फ की रफ्तार से खिलाड़ी कैसे तालमेल बिठा सकते हैं. देश भर में लगभग एक दर्जन मैदान में ही एस्ट्रो टर्फ बिछी है और रही सही कसर सरकार ने पिछले साल हॉकी को अपनी प्राथमिक सूची से हटाकर कर दी है. आखिरी बार हम वर्ष 1975 में क्वालालंपुर में घास के मैदान पर विश्व चैंपियन बने थे. और मॉस्को में पॉलीग्रास पर ताकतवर मुल्कों की गैरमौजूदगी में हमने ओलंपिक जीता था. सरकार शायद समझती है कि कमजोर कंधों को सहारे की जरूरत नहीं होती तभी तो दमतोड़ रही हॉकी के साथ ऐसा सौतेला बर्ताव किया जा रहा है. यह हॉकी खिलाड़ियों की बदकिस्तमी है कि राष्ट्रीय खेल से जुड़े होने के बाद भी उन्हें इस तरह की जलालत अमूमन झेलनी पड़ती है.
चाहे कोई लाख दिलासे दे मगर कड़वी सच्चाई यही है कि स्टिक के जादूगर ध्यानचंद के सपनों का अब अंत हो चुका है. अगर ध्यानचंद आज होते तो शायद इस घटना के बाद वो भी अपनी हॉकी को एक ऐसे खूंटे पर टांग देते जहां से उसे चाहकर भी उतारना मुमकिन नहीं होता. ओलंपिक में अभिनव बिंद्रा और विजेंद्र के पदक जीतने के बाद अभी जरूर अन्य खेलों को प्रोत्साहन देने की बड़ी-बड़ी बातें की जा रही हैं मगर वक्त गुजरते ही यह बातें हॉकी की तरह धीरे-धीरे दम तोड़ देंगी. क्रिकेट के अलावा हमारे देश में किसी और खेल का कोई स्थान नहीं यह बात अब हमें समझ लेनी चाहिए, हमें भूल जाना चाहिए राष्ट्रीय खेल भी कुछ होता है शायद तब ऐसे वाक्यों पर न शर्म से आंखें झुकेंगी और न दिल रोएगा.
नीरज नैयर9893121591