नीरज नैयर
केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने प्लास्टिक पर प्रतिबंध के खिलाफ बयान देकर मधुमक्खी के छत्थे में हाथ डाल दिया है, उनके खिलाफ पर्यावरणविदों ने तो मोर्चा खोला ही है दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी आवाज बुलंद कर दी है. जयराम रमेश की दलील है कि अगर निर्धारित मानदंडों और तरीकों से प्लास्टिक की रीसाइक्लिंग की जाए तो पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचेगा. लेकिन अगर उसकी जगह कागज की थैलियों के प्रचलन ने जोर पकड़ा तो इसके लिए बड़े पैमाने पर पेड़ काटे जाएंगे जो पर्यावरण के लिए कहीं यादा घातक होगा, उनका यह भी तर्क है कि पूरी दुनिया में केवल भारत और बांग्लादेश में ही इसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा हुआ है. जबकि उनका विरोध करने वालों की अपनी दलीलें हैं, उनका कहना है कि प्लास्टिक में मौजूद पीवीसी भारी नुकसानदेह होता है, देश में ऐसी उन्नत प्रणाली भी नहीं है जो बेकार प्लास्टिक थैलियों को नियंत्रित कर सके. बेकार थैलियों ने शहरी जीवन को कई स्तरों पर प्रभावित किया है. यही नहीं, इसी के कारण यमुना का बुरा हाल हो गया है. रीसाइक्लिंग के लिए भी जरूरी संसाधन की कमी है एवं पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित कर्मचारी भी नहीं हैं, आदि, आदि.
इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि प्लास्टिक के दुष्प्रभाव गंभीर रूप में सामने आ रहे हैं. हिमालय की बर्फ से ढकीं चोटियां पर्वतरोहियों द्वारा छोड़े गये मलबों से पट रही हैं, गंगा-यमुना की हालात हमारे सामने है, यमुना ने तो तकरीबन दमतोड़ ही दिया और बाकि कुछ-एक दम तोड़ने के कगार पर हैं. हर साल न जाने कितने जानवर पॉलिथिन खाने से मारे जाते हैं. लेकिन सवाल से उठता है कि क्या हर समस्या का समाधान महज प्रतिबंध लगाना ही है. गौर करने वाली बात ये है कि अगर तमाम कोशिशों के बाद भी इस पर पूर्ण रूप से रोक नहीं लगाई जा सकी है तो सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि इसका संबंध लोगों की सुविधा से है और शायद वो अपनी सुविधाओं मे कटौती नहीं करना चाहते. बिना सोचे-विचारे किसी समस्या को यह कहकर की उसे खत्म नहीं किया जा सकता उसके कारक को ही खत्म कर देना कहां की बुध्दिमानी है. प्लास्टिक के अगर दुष्प्रभाव हैं तो उसके फायदे भी हैं, जिनको इसकी मुखालफत करने वाले भी झुठला नहीं सकते. सवाल प्लास्टिक या इसके इस्तेमाल को खत्म करने का नहीं बल्कि इसके वाजिब प्रयोग का है. अगर पर्यावरणमंत्री का तर्क लोगों को समझ नहीं आ रहा है तो यह तर्क कहां से समझने लायक है कि संसाधनों की कमी है इसलिए प्रतिबंध लगा दो. अगर संसाधन की कमी है तो उसे दूर करने के प्रयासों के बारे में आवाज बुलंद करने की जरूरत है ना कि प्लास्टिक पर रोक की.
कुछ साल पूर्व पर्यावरण मंत्रालय ने प्लास्टिक के कचरे को ठिकाने लगाने के उपाए सुझाने के लिए एक समिति घटित की थी जिसने अपने रिपोर्ट में इस बात पर बल दिया था कि प्लास्टिक की मोटाई 20 की जगह 100 माइक्रोन तय की जानी चाहिए, ताकि ज्यादा से ज्यादा प्लास्टिक को रीसाइकिल किया जा सके. मतलब समिति का भी यही मत था कि रीसाइक्लिंग पर जोर दिया जाए. रीसाइक्लिंग से समस्या काफी हद तक सुलझ सकती है इसमें कोई दोराए नहीं. प्लास्टिक का विरोध भले ही चरम पर क्यों न पहुंच गया हो मगर सही मायनाें में देखा जाए तो इसके बिना सुविधाजनक जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती. प्लास्टिक किसी भी अन्य विकल्प जैसे धातु, कांच या कागज आदि की तुलना में कहीं ज्यादा मुफीद है. आज साबुन, तेल,दूध आदि वस्तुओं की प्लास्टिज् पैकिंग की बदौलत ही इन्हें लाना-ले-जाना इतना आसान हो पाया है. प्लास्टिज् पैकिंग कार्बन डाई आक्साइड और ऑक्सीजन के अनुपात को संतुलित रखती है जिसकी वजह से लंबा सफर तय करने के बाद भी खाने-पीने की वस्तुएं ताजी और पौष्टिक बनी रहती हैं. किसी अन्य पैकिंग के साथ ऐसा मुमकिन नहीं हो सकता. इसके साथ ही वाहन उद्योग, हवाई जहाज, नौका, खेल, सिंचाई, खेती और चिकित्सा के उपकरण आदि जीवन के हर क्षेत्र में प्लास्टिकका ही बोलबाला है. भवन निर्माण से लेकर साज-साा तक प्लास्टिक का कोई सामी नहीं. प्लास्टिक के फायदों को नजरअंदाज कर इसके दुष्प्रभावों को सामने रखने वालों के लिए यहां इंडियन पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री के एक शोध का उल्लेख करना बेहद जरूरी है, बिजली की बचत में प्लास्टिक की भूमिका को दर्शाने के लिए किए गये इस शोध में कांच की बोतलोें के स्थान पर प्लास्टिक की बोतल के प्रयोग से 4 हजार मेगावाट बिजली की बचत हुई. जैसा की पर्यावरणवादी दलीलें देते रहे हैं, अगर प्लास्टिकपर पूर्णरूप प्रतिबंध लगा दिया जाए तो इसका सबसे विपरीत प्रभाव पर्यावरण पर ही पड़ेगा. पैकेजिंग उद्योग में लगभग 52 फीसदी इस्तेमाल प्लास्टिक का ही होता है. ऐसे में प्लास्टिकके बजाए अगर कागज का प्रयोग किया जाने लगे तो दस साल में बढ़े हुए तकरीबन 2 करोड़ पेड़ों को काटना होगा. वृक्षों की हमारे जीवन में क्या अहमियत है यह बताने की शायद जरूरत नहीं. वृक्ष न सिर्फ तापमान को नियंत्रित रखते हैं बल्कि वातावरण को स्वच्छ बनाने में भी अहम् किरदार निभाते हैं. पेड़ों द्वारा अधिक मात्रा में कार्बनडाई आक्साइड के अवशोषण और नमी बढ़ाने से वातावरण में शीतलता आती है. अब ऐसे में वृक्षों को काटने का परिणाम कितना भयानक होगा इसका अंदाजा खुद-ब-खुद लगाया जा सकता है. साथ ही कागज की पैकिंग प्लास्टिक के मुकाबले कई गुना महंगी साबित होगी और इसमें खाद्य पदार्थों के सड़ने आदि का खतरा भी बढ़ जाएगा. ऐसे ही लोगों तक पेयजल मुहैया कराने में प्लास्टिकका महत्वूर्ण योगदान है, जरा सोचें कि अगर पीवीसी पाइप ही न हो तो पानी कहां से आएगा. जूट की जगह प्लास्टिकके बोरों के उपयोग से 12000 करोड़ रुपए की बचत होती है. अब इतना जब जानने-समझने के बाद भी प्लास्टिक की उपयोगिता पर आंखें मूंदकर यह कहना कि यह कहना की यह जीवन के लिए घातक है तो, समझदारी नहीं नासमझी ही कहा जाएगा.
वैसे सही मायने में देखा जाए तो इस समस्या के विस्तार का सबसे प्रमुख और अहम् कारण हमारी सरकार का ढुलमुल रवैया है, पर्यावरणवादी भी मानते हैं कि सरकार को विदेशों से सबक लेना चाहिए, जहां निर्माता को ही उसके उत्पाद के तमाम पहलुओं केलिए जिम्मेदार माना जाता है. इसे निर्माता की जिम्मेदारी नाम दिया गया है. उत्पाद के कचरे को वापस लेकर रीसाइक्लिंग करने तक की पूरी जिम्मेदारी निर्माता की ही होती है. एकरिपोर्ट के मुताबिक कुल उत्पादित प्लास्टिक में से 45 फीसदी कचरा बन जाती है और महज 45 फीसदी ही रिसाइकिल हो पाती है. मतलब साफ है, हमारे देश में रीसाइक्लिंग का ग्राफ काफी नीचे है. प्लास्टिकको अगर अधिक से अधिक रीसाइक्लिंग योग्य बनाया जाए तो कचरे की समस्या अपने आप ही समाप्त हो जाएगी. लिहाजा जयराम रमेश ने जो कहा है उस पर हो-हल्ला करने के बजाए उसकी गहराई को समझने का प्रयास करना चाहिए.