Saturday, January 16, 2010

कब उगेगा उम्मीद का सूरज

नीरज नैयर
भारत में एक काम जो सबसे मुश्किल है, वो है लोगों को उनका कर्तव्य याद दिलाना। उन्हें ये समझाना कि क्या करना चाहिए, क्या नहीं। डू और डू नॉट की लंबी चौडी लिस्ट होने के बाद भी लोग गफलत में रहते हैं। इस गफलत का कारण खुद उनकी सोच और वो आदत है जो उन्हें कुछ करने नहीं देती। जो काम नियमों के खिलाफ है उसे करने में तो लोगों को चमत्कारिक सुख की अनुभूति होती है, उन्हें लगता है जैसे उन्होंने दुश्मन के खेमे में जाकर कोई जीत हासिल की हो। ट्रैफिक नियमों को इसके सबसे उपयुक्त उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है। वाहन चलाने वाले इक्का-दुक्क लोग ही इनका पालन करने में विश्वास रखते हैं, और वो भी तब जब यातायात पुलिस का जवान आसपास कहीं दिखाई दे रहा हो। वरना क्या रेड लाइट, क्या स्टाप लाइन और क्या नो एंट्री। मेरे एक मित्र हैं, जिन्होंने ट्रैफिक नियमों की घाियां उड़ाने में शायद ही कोई कसर छोड़ी हो। उनका मानना है कि नियम तो होते ही तोड़ने के लिए हैं। एक-दो बार बेचारे यातायाता पुलिस के हत्थे चढ़े भी तो अपने पद का रुबाब दिखाकर पाक-साफ निकल आए। वो भी पत्रकारिता से जुडे हैं, और पत्रकार बनने के बाद जैसे नियमों को ताक पर रखने का लाइसेंस मिल जाता है। ऐसे कितने मीडिया वाले होंगे जो दोपहिया वाहन पर चलते वक्त हेलमेट का प्रयोग करते हों, फिर रेड लाइट आदि की तो बात करना ही बेकार है। गाड़ी पर प्रेस लिखवाने मात्र से ही एक अदृश्य शक्ति का संचार होता है, जिसका मुजायरा किसी चौराहे आदि पर अमूमन देखने को मिल जाया करता है। वैसे इस 'प्रेस' नामक शस्त्र का इस्तेमाल महज इससे जुड़ा व्यक्ति ही नहीं करता, उसके परिवारवाले और मित्र मंडली के लिए भी यह कवज साबित होता है। कहीं नियम तोड़ते पकड़े गए तो फट से फोन लगाकर खाकी वर्दीधारी को थमा दिया। ये स्थिति किसी एक शहर या राय की नहीं, कमोबश पूरे मुल्क में यही आलम है। आम जनता को ही लीजिए जहां नो पार्किंग का बोर्ड लगा होगा, गाड़ी वहीं टिकाना इात का विषय बन जाता है। अपने घर में साफ-सफाई करके कूड़ा दूसरे के घर के सामने फेंकना हम भारतीयों का शगल है। पर्यावरण का ख्याल हमने शायद ही कभी किया हो, हां आजकल के बच्चे जरूर ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर जागरुकता फैलाने की कोशिशों में लगे हैं। चंद हफ्ते पहले कुंभकरणी नींद में सोई जनता को जगाने के लिए भोपाल में बच्चों ने पर्यावरण रैली निकाली थी। रैली का प्रतिनिधित्व कर रहीं छात्रा शान और उनके सहयोगियों ने पर्यावरण सुरक्षा के तमाम संदेश दिए लेकिन बाल मन से निकले इन संदेशों पर कितना गौर फरमाया जाएगा ये सब जानते हैं। लोगों को लगता है कि इस तरह की रैलियां महज रस्मआदायगी है मगर वो इनके पीछे के महत्व को नहीं समझ पाते। ये कहना गलत नहीं होगा कि आज देश, समाज और पृथ्वी के प्रति कर्तव्य और जिम्मेदारी का जो थोड़ा बहुत भाव जीवित है, वो सिर्फ बच्चों में है। शायद इसलिए ही वो तरह-तरह से हमें जागरुक करने का प्रयास करते रहते हैं। दरअसल समाज के एक बड़े तबके के अंदर यह सोच घर कर गई है कि 'मेरे अकेले के करने से क्या होगा', ऐसे लोगों के लिए बूंद-बूंद से घड़ा भरने की प्रचलित कहावत एक सीख है मगर कोई इसमें विश्वास करने की पहल नहीं करना चाहता। यही वजह है कि सामजिक कर्तव्य और जिम्मेदारियों के मामले में हमारा दामन खाली का खाली है। ऐसे ही खाली लोगों के लिए मध्यप्रदेश सरकार ने कुछ कठोर कदम उठाने का मन बनाया है, मसलन शहर में गंदगी फैलाने वालों पर दंड का प्रावधान किया गया है। सार्वजनिक स्थानों पर थूकने पर 100, पेशाब करने पर 250, शौच करने पर 500, अधिसूचित क्षेत्र के बाहर पशुपालन करने पर 1000, सार्वजनिक स्थानों पर रासायनिक अपशिष्ट डालने पर 1000 रुपए जुर्माना वसूला जाएगा। इसके साथ ही नागरिक कर्तव्य चार्टर भी जारी किया गया है, जिसमें स्वयं एवं आस-पास के क्षेत्र की साफ सफाई का समुचित ध्यान रखना, पर्यावरण का पूरा ध्यान रखना, पानी का अनुकूलन उपयोग करना, यातायात नियमों का पालन करना , पार्किंग के लिए नियत स्थल का ही उपयोग करना, सार्वजनिक स्थल एवं शासकीय संपत्तियों पर हो रहे अतिक्रमण की समय पर सूचना देना आदि शामिल हैं। देखा जाए तो यह बहुत ही अच्छी पहल है, लेकिन व्यवहारिक रूप में इसका सफल होना बहुत मुश्किल है। सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान करना पूरी तरह से प्रतिबंधित है, बावजूद इसके धुएं के छल्ले उड़ते देखे जा सकते हैं। कानून के अमल में आने के बाद से अब तक बहुत कम ही ऐसे मामले होंगे जिनमें किसी को दंडित किया गया हो। इस तरह की पहल हमारे देश में महज फाइलों तक ही सिमट कर रह जाती हैं। शुरूआती सख्ती के बाद न तो सरकारी स्तर पर कुछ किया जाता है और न ही लोगों को अपनी जिम्मेदारी का अहसास होता है। हर साल आस्था के नाम पर बड़े पैमाने पर नदी, तालाब और समुद्र को प्रदूषित किया जाता है। यह जानते-समझते हुए भी कि प्रतिमाओं के विसर्जन का पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है, हम अपनी धुन से बाहर निकलना नहीं चाहते। तमाम संगठनों ने इसके प्रति जागरुकता फैलाने का प्रयास किया मगर उनके प्रयास कितना रंग लाए हैं इसका अंदाजा हमें दूर्गा पूजा और गणेश चतुर्थी के वक्त हो ही जाता है। ऐसे मामलों में बात फिर वहीं आकर रुक जाती है कि 'मेरे अकेले के करने से क्या होगा'। वैसे हम भारतीयों की एक और आदत है, हमेशा प्रशासन, सरकार और मुल्क को कोसते रहना। मसलन कोई गलत काम हो रहा है तो 'भारत में तो यही सब रह गया है', कहीं गंदगी पड़ी है तो 'प्रशासन नकारा हो गया है', कहीं कुछ ठीक नहीं हो रहा तो 'ये देश कभी सुधर ही नहीं सकता, 'यहां की पुलिस निक्कमी है', 'यहां विदेशों जैसी सुंदरता कभी हो ही नहीं सकती' आदि.. आदि। लेकिन ऐसी बातें करते वक्त हम भूल जाते हैं कि दूसरे देशों में नागरिकों मेंअपने मुल्क को बेहतर बनाने की जो उमंग है, हममें उसका अभाव है। और हम उसे पैदा करना भी नहीं चाहते, क्योंकि अपने कर्तव्य, जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाकर जीना हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया है। इसलिए मध्यप्रदेश सरकार की अनोखी पहल का भविष्य वर्तमान से धुंधला ही नजर आ रहा है। पर यदि सरकार ने अपनी आदत के विपरीत रुख अपनाया तो शायद कुछ परिवर्तन देखने को मिल सकें। मगर इसे अमल में लाने से पहले कुछ बुनियादी बातों पर गौर करने की जरूरत है, जैसे सार्वजनिक जगहों पर पेशाब और शौच जैसी समस्याओं पर महज दंड लगाकर उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। इसके लिए पहले ऐसी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए कि किसी को ऐसा करने पर मजबूर न होना पड़े। वैसे जिस दिन भारतीय अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्यों का समझना सीख लेंगे उस दिन ऐसे प्रावधानों की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी, लेकिन उम्मीद का वो सूरज कब उगेगा इस बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है।