Thursday, July 28, 2011

महंगाई के नाम पर फिर ब्याज का बोझ



नीरज नैयर
महंगाई अब ऐसा विषय हो गई है जिसपर बहस का कोई मतलब नहीं निकलता। जिस तरह एक मूक-बाघिर इंसान के सामने लाख चीखो-चिल्लाओ उस पर कोई असर नहीं होता ठीक वैसे ही सरकार के सिर पर भी जूं रेंगना बंद हो गया है। शायद यही वजह है कि विपक्षी दल भी थोड़े-बहुत हल्ले के बाद खामोश हो जाते हैं। उन्हें भी लगने लगा है कि गले पर जोर डालने का कोई फायदा नहीं। महंगाई के मोर्चे पर किसी भी सरकार की इतनी बुरी स्थिति पहले कभी देखने को नहीं मिली। पूर्ववर्ती राजग सरकार के कार्यकाल में भी कई दफा आवश्यक वस्तुओं के दाम आसमान पर पहुंचे, लेकिन थोड़े वक्त में नीचे आने की प्रक्रिया भी शुरू हुई। लेकिन मौजूदा वक्त में तो दाम आसमान से अंतरिक्ष में जा पहुंचे हैं। ऐसा लगता है, जैसे सरकार के पास चढ़ते दामों पर काबू पाने के लिए कोई नीति ही नहीं है, सिवाए रिजर्व बैंक के। पिछले 11 महीनों में रिजर्व बैंक 16 बार ब्याज दरों में इजाफा कर चुका है। अभी हाल ही में उसने सीधे आधा प्रतिशत की बढ़ोतरी की है, ये बढ़ोतरी कुछ हद तक पेट्रोल के दामों में एकमुश्त की गई पांच रुपए की वृद्धि के समान है। ये तो सब जानते थे कि रिजर्व बैंक एक बार फिर महंगाई के नाम पर आम जनता की जेब ढीली करेगा, मगर एक साथ आधा फीसदी बढ़ोतरी के बारे में किसी ने नहीं सोचा था। इस आधे प्रतिशत का बोझ क्या होता है, ये सिर्फ उसे वहन करने वाला ही बता सकता है। सरकार और केंद्रीय बैंक के लिए तो ये महज एक छोटा सा आंकड़ा है। तमाम अर्थशास्त्री रिजर्व बैंक के रास्ते महंगाई पर नियंत्रण की रणनीति पर विश्वास रखते हैं, खासकर सरकार में शामिल आंकड़ेबाजों के लिए तो यह रणनीति घर में लगे पेड़ की तरह हो गई जिसके फल तोडऩे से पहले तनिक भी सोचना नहीं पड़ता।

ब्याज दर में वृद्धि से बैंकों को रिजर्व बैंक से मिलने वाला कर्ज महंगा हो जाता है और वो इसका बोझ अपने ग्राहकों पर डालने में जरा सी भी देर नहीं करते। रेपो या रिवर्स रेपा दर बढ़ाने के पीछे गणित ये लगाया जाता है कि कर्ज महंगा होने से लोगों की परचेजिंग पावर घटेगी, जिससे बाजार में मांग कम होगी और मांग और उपलब्धता के बीच की खाई को पाटा जा सकेगा। नतीजतन चढ़ते दामों पर ब्रेक लगेगा। किसी भी वस्तु की कीमतों में इजाफा उसकी उपलब्धता या उत्पादकता पर निर्भर होता है, यदि बाजार में मांग ज्यादा है और स्टाक कम तो निश्चित तौर पर उसके दाम बढ़ेंगे। वैसे भी आजकल लोन सुविधा ने आम आदमी को भी बड़े-बड़े सपने देखना सिखा दिया है। लोन धीमे जहर की तरह है जो किश्तों में अपन असर दिखाता है, इससे हर कोई वाखिफ है मगर फिर भी लोग इसे चखना चाहते हैं क्योंकि उनके पास एकमुश्त रकम नहीं होती। मौजूदा वक्त में टीवी से लेकर घर तक सबकुछ किश्तों पर उपलब्ध है, इन किश्तों की बदौलत आम आदमी भी काफी हद तक संपन्न नजर आने लगा है। अर्थशास्त्रियों को आम आदमी की बस यही संपन्नता चुभ रही है, उन्हें लगता है कि कर्ज महंगा करने से आम इंसान बड़े-बड़े सपने साकार करने की कोशिश नहीं करेगा और संपन्नता को अमीरों के लिए ही छोड़ देगा। कागजी तौर पर मांग और उपलब्धता की खाई पाटकर महंगाई की लगाम कसने की यह रणनीति बहुत असरकारक प्रतीत होती है, लेकिन हकीकत शायद इससे कोसों दूर है। अगर ऐसा न होता तो रिजर्व बैंक को हर थोड़े अंतराल में जनता की जेब काटने की जरूरत ही न पड़ती। ये बात सही है कि इस तरह की नीतियों के परिणाम तात्कालिक तौर पर सामने नहीं आते, लेकिन ब्याज दरों में वृद्धि की ये प्रक्रिया भी काफी लंबे वक्त से चल रही है। रिजर्व बैंक पिछले 11 महीनों से कर्ज महंगा किए जा रहा है, और 11 महीने कोई छोटी अवधि नहीं होती। इस फैसले का वास्तव में यदि महंगाई पर कोई असर दिखाई देता तो कम से कम आम आदमी को एक मोर्चे पर तो कुछ राहत मिलती।

बार-बार ब्याज बढ़ोतरी से तो उसके लिए जिंदगी और भी ज्यादा मुश्किल हो गई है। एक तरफ वो पेट भरने की जुगत करे तो दूसरी ओर किश्त चुकाने की। इन दोनों के बीच में तालमेल बिठाते-बिठाते ही बेचारे का दम निकला जा रहा है। महंगाई थामने के दूसरे भी उपाए हैं, लेकिन सरकार उनको अपनाने के बजाए रिजर्व बैंक के रास्ते आर्थिक मजबूती के अपने एजेंडे को पूरा करने में लगी है। लोगों ने अगर किश्तों के सहारे बड़े-बड़े सपने देखना सीखा है तो उसके गुनाहगार वो खुद नहीं सरकार और स्वयं रिजर्व बैंक हैं। पहले तो लोन को इतना सरल बनाया गया कि आम इंसान को यह बोझ भी हलका लगने लगा और जब इस हल्के बोझ के सहारे उसने सपनों को पूरा करने की दिशा में कदम बढ़ाया तो ब्याज दरें बढ़ाकर उसके पैरों में जंजीरें लगा दी गईं। ब्याज दरों में इजाफा करके रिजर्व बैंक सस्ते लोन का रास्ता संकरा करना चाहता है, लेकिन उसकी इस चाहत में वो लोग भी मारे जाते हैं जो पहले से ही इस रास्ते पर निकल चुके हैं। मसलन, 20 हजार मासिक की तनख्वाह वाले व्यक्ति ने हिसाब-किताब लगाकर घर का सपना पूरा करने के लिए जिस वक्त होम लोन लिया। उस वक्त उसे 5000 प्रति माह की किश्त भरनी पड़ी। इस पांच हजार के लिए उसने अपनी जरूरतों में कटौती करना शुरू कर दिया, लेकिन बार-बार बढ़ती ब्याज दरों से पांच हजार का आंकड़ा धीरे-धीरे ऊपर चढ़ता गया। नतीजतन उसकी जरूरतों का दायरा और सिमट गया। लेकिन इस दायरे को इंसान एक हद तक ही सिमटा सकता है, इसके बाद उसके लिए लोन बंद करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं होगा। मगर लोन बीच में बंद करने का मतलब है, अब तक अपना पेट काट-काटकर जितना भी उसने बैंक को दिया वो सब पानी में चला गया।

सरकार ब्याज बढ़ाकर लोन को काफी हद तक साहूकारों से मिलने वाला कर्ज बना रही है, जिसका ब्याज हर दिन बढ़ता रहता है और अंत में उसे चुका पाने में असमर्थ व्यक्ति को मौत की छुटकारा नजर आती है। लोन प्रक्रिया अगर कड़ी करनी ही है तो ऐसे प्रावधान किए जाएं कि पुराने ग्राहकों पर इसका बोझ न पड़े और अगर पड़ता भी है तो उसका प्रतिशत काफी कम हो। नए ग्राहकों को अगर लोन की किश्तें ज्यादा लगेंगी तो वो खुद इससे पूरी बना लेगा, लेकिन जो पहले ही लोन ले चुका है उसके पास ऐसा कोई विकल्पनहीं है। रिजर्व बैंक को धड़ाधड़ ब्याज दरें बढ़ाने से पहले इस दिशा में भी सोचने की जरूरत है। साहूकार की जिस प्रथा से देश ने बाहर निकलना सीखा है, सरकार और रिजर्व बैंक की नीतियां उसे वहीं वापस लिए जा रही हैं। बेहतर होगा कि सरकार महंगाई के नाम पर आम आदमी की परेशानियों में इजाफा करने के बजाए कोई दूसरा रास्ता निकाले।

Sunday, July 24, 2011

सलवा जुडूम बंद होने के मायने



नीरज नैयर
सलवा जुडूम पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उन आदिवासियों के भविष्य पर सवाल खड़ा हो गया है जो सालों तक बंदूक उठाए नक्सलियों का सामना करते रहे। अब न तो उनके पास बंदूकें रहेंगी और न ही राज्य सरकार की तरफ से मिलने वाली मदद। मदद के नाम पर वैसे तो उन्हें कुछ खास नहीं मिलता था, लेकिन जो थोड़ा बहुत मिल रहा था अब उसका रास्ता भी बंद हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सलवा जुडूम को असंवैधानिक करार देते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है कि आप आदिवासियों को भर्ती कर सकते हैं, लेकिन उन्हें हथियार नहीं दे सकते। सर्वाच्च न्यायालय और कुछ गैर सरकारी संगठनों को लगता है कि सलवा जुडूम की आड़ में मासूम आदिवासियों का शोषण हो रहा है। उन्हें जबरन बंदूक थमाकर नक्सलियों के आगे फेंका जाता है। सलवा जुडूम के कार्यकर्ताओं पर बलात्कार जैसे कई संगीन आरोप भी लगे हैं। यह आंदोलन मूलत: आम आदिवासियों द्वारा माओवादियों के जुल्मो-सितम से आजिज आने के बाद शुरू किया गया। लेकिन बाद में राज्य सरकार की तरफ से इसे मदद मिलने लगी। सलवा जुडूम में शामिल लड़ाके स्थानीय पुलिस के साथ मिलकर अपने दुश्मनों से मोर्चा लेने लगे। इन लड़ाकों ने कई मोर्चों पर नक्सलियों को मात भी दी। मगर लगातार लग रहे आरोपों ने इस अभियान की धार को कुंद कर दिया। सलवा जुडूम और इस पर हुए बवाल को विस्तार से समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे चलना होगा। सलवा जुडूम बस्तर की गोंडी बोली से उपजा शब्द है।

इसमें सलवा का अर्थ शांति और जुडूम का अर्थ एकत्र होना है। यानी इसका शाब्दिक अर्थ हुआ शांति अभियान। इस आंदोलन की असल शुरूआत छत्तीसगढ़ के बीजापुर से 2005 में हुई। महज थोड़े से वक्त में यह आंदोलन जंगल में आग की तरह फैल गया, नक्सलियों के सताए आम आदिवासी बड़ी तादाद में इससे जुड़ते चले गए। पेशे से शिक्षक मधुकर राव को इस आंदोलन का जनक माना जाता है। मधुकर इस बात को अच्छे से जानते थे कि नक्सली आदिवासियों के हितैषी नहीं। इसलिए उन्होंने लोगों को संगठित करके नक्सलियों से मुकाबले के लिए आदिवासियों की फौज खड़ी की। शुरूआत के दौर में सलवा जुडूम को मिली सफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि खुलकर इसकी मुखालफत करने वाले भी बाद में आंदोलन से जुड़ते गए। न केवल आदिवासी बल्कि राजनीतिज्ञों ने भी इस में भागीदारी निभाई। कांग्रेस नेता और तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा सहित दोनों प्रमुख पार्टियों के कई नेताओं ने माओवादियों से मुकाबला करने वालों का समर्थन किया। सलवा जुडूम को इतने व्यापक जनसमर्थन के चलते स्थानीय पुलिस-प्रशासन ने इसमें शामिल लोगों की सुरक्षा का जिम्मा खुद उठाना शुरू कर दिया। आदिवासियों के लिए कैंप तैयार किए गए, ताकि नक्सलियों के प्रतिशोध से उन्हें बचाया जा सके। इन कैंपों में एक रुपय की दर से प्रत्येक व्यक्ति को अनाज उपलब्ध कराया जाने लगा। नक्सलियों से सीधे मोर्चा लेने वालों को एसपीओ नाम दिया गया, मतलब स्पेशल पुलिस ऑफिसर। इन्हें 2100 रुपए की आर्थिक सहायता भी दी जाने लगी, जिसे बाद में बढ़ाकर 3000 कर दिया। इस आंदोलन पर भले ही कितनी भी उंगलियां उठी हों लेकिन इसके अमल में आने के बाद नक्सलियों का संघर्ष ज्यादा बढ़ा और पुलिस के हाथ भी मजबूत हुए। इस आंदोलन की बदौलत ही छत्तीसगढ़ में पुलिस की पहुंच बढ़ी है। पहले 157 ग्राम पंचायतों में से केवल 70 में ही पुलिस का वजूद था, मगर आज यह संख्या बढ़कर 100 हो गई है। बासगुड़ा और लिंगागिरि आदि कई ऐसे गांव हैं जहां नक्सलियों की मजबूत पकड़ ढीली हुई है। एसपीओ ने माओवादियों को हर कदम पर चुनौती पेश की, यही कारण रहा कि उन्हें बड़े हमलों का भी शिकर होना पड़ा। सलवा जुडूम शुरू होने के तकरीबन एक साल बाद नक्सलियों ने 2006 में कोंटा से लौट रहे लगभग 33 सलवा जुडूम कार्यकर्ताओं को मौत के घाट उतार दिया। इसके एक महीने बाद फिर नक्सलियों ने हमला किया जिसमें 13 कार्यकर्ता मारे गए। इसके बाद तो जैसे हमलों की झड़ी लग गई।

अगर नक्सली सलवा जुडूम को अपने लिए खतरे के तौर पर नहीं देखते तो क्या ऐसे हमले संभव थे? जाहिर तौर पर नहीं। भले ही इस आंदोलन में शामिल कुछ लोगों ने नक्सलियों के पद-चिन्हों पर चलने का प्रयास किया। लेकिन इसके लिए पूरे के पूरे आंदोलन पर उंगली नहीं उठाई जानी चाहिए थी। सलवा जुडूम को बदनाम करने के पीछे माओवादियों का भी बहुत बड़ा हाथ हो सकता है, माओवादी अच्छे से जानते हैं कि अपने विरोधियों को रास्ते से कैसे हटाया जाता है। अब वो जमाना नहीं रहा, जब नक्सली आम आदिवासियों के संरक्षक की भूमिका निभाते थे। नक्सल आंदोलन अब महज अपने स्वार्थों की पूर्ति तक सिमट कर रह गया है, इस बात की संभावना बेहद ज्यादा है कि नक्सलियों ने खुद आदिवासियों पर जुल्म ढाय हों और बाद में इल्जाम एसपीओ पर मढ़ दिया गया। ये बात सही है कि इस आंदोलन में बिना प्रशिक्षण के आदिवासियों को नक्सलियों से मुकाबले को तैयार किया जा रहा था, इस तरह उनकी जान हरपल जोखिम में थी। लेकिन बिना हथियार उठाए भी क्या वो सुरक्षित महसूस कर सकते हैं, इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए था। जलवा जुडूम से जुडऩे के बाद आदिवासियों को केवल नक्सलियों के प्रतिशोध का सामना करना पड़ता था, मगर इससे दूर रहने की स्थिति उनके लिए ज्यादा खतरनाक थी। पुलिस नक्सलियों के शक में उनका उत्पीडऩ करती थी और नक्सली मुखबिर के शक में । सलवा जुडुम को बंद करने के बजाए उसके अंदर की खामियों को दूर करने के बारे में सोचा जाने की जरूरत थी। आम आदिवासी जो अपनों पर हुए अत्याचारों का बदला लेने के लिए हथियार उठाना चाहते, उन्हें बकायदा प्रशिक्षण के साथ पुलिस के सहयोग के लिए शामिल किया जा सकता था। सलवा जुडूम अगर वास्तव में शोषण का एक जरिया होता तो दूसरे राज्य इसका अनुसरण नहीं करते। पश्चिम बंगाल और उडीसा में आदिवासी सलवा जुडूम की तर्ज पर आंदोलन कर रहे हैं।

पश्चिम बंगाल में तो उन्हें कुछ राजनीतिक व्यक्तियों का भी समर्थन प्राप्त है। सलवा जुडूम के बंद होने से नक्सलियों के हौसले और बुलंद होंगे, जो आदिवासी सुरक्षाबलों के सहयोग की भावना रखते थे वो भी इस भावना को जाहिर करने में कतराएंगे। सबसे बड़ी समस्या तो उन लोगों के सामने खड़ी है जो कल तक बंदूक और सरकारी सहयोग के बल पर नक्सलियों को ललकारते रहे। उनकी सुरक्षा अब कौन करेगा? हथियार छिनने के बाद अब वो स्वयं की सुरक्षा की स्थिति में बिल्कुल नहीं हैं। कुल मिलाकर सलवा जुडूम के अंत से उन आम आदिवासियों को ही परेशानियों का सामना करना पड़ेगा जिनके नाम पर इसे बंद किया गया।

Friday, July 1, 2011

एक चोर तो दूसरा शरीफ कैसे



नीरज नैयर
चोर को चोर कहने में भले ही चोर को बुरा लगे मगर इसमें गलत कुछ भी नहीं। लेकिन यदि एक चोर को चोर कहा जाए और दूसरे पर उंगली भी न उठाई जाए तो पहले चोर को चोट पहुंचना लाजमी है। उत्तर प्रदेश की स्थिति भी पहले चोर की माफिक हो गई है, और इसकी वजह है मीडिया। मीडिया में आजकल उत्तर प्रदेश छाया हुआ है, कानून व्यवस्था पर सवाल उठाती खबरें तकरीबन हर रोज देखने-सुनने में आ जाती हैं। पिछले कुछ दिनों से बलात्कार के मामलों पर मीडिया वाले ज्यादा नजर गड़ाए हुए हैं। ऐसा लगता है जैसे उनकी मंशा यूपी को रेप कैपिटल करार देने की है। वैसे जिस तरह से एक के बाद एक बलात्कार के मामले सामने आ रहे हैं वो वाकई चिंताजनक है और पुलिस प्रशासन को कटघरे में खड़ा करते हैं। महज चंद घंटों में चार-पांच घटनाएं छोटी बात नहीं है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस तरह की घटनाएं केवल यूपी तक ही सीमित हैँ। दूसरे राज्यों में नाबालिगों को हवस का शिकार बनाया जा रहा है, अभी हाल ही में मुंबई में एक दिन में दो रेप के मामले सामने आए। दो अलग-अलग जगह एक नाबालिग और एक विधवा को शिकार बनाया गया। लेकिन इस पर मीडिया में कोई हो-हल्ला नहीं मचा। न तो खबरिया चैनलों ने इन घटनाओं को तवज्जो दी और न ही अखबारों ने इन्हें प्रकाशित करने की जहमत उठाई। अपराध तो अपराध है फिर चाहे वो यूपी में हो या महाराष्ट्र में। अगर मीडिया यूपी के जंगलराज को जंगल में आग की तरह फैलते दिखा सकती है तो उसे दूसरे राज्यों में बढ़ते अपराध को भी उसी तरह से देखना चाहिए। इस बात में कोई दो राय नहीं कि उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था के हाल अच्छे नहीं हैं। सत्ता में बैठी पार्टी के सदस्य और विधायकों की जुर्म में हिस्सेदारी भी सामने आ रही है। चंद रोज पहले एक बीएसपी विधायक की गाड़ी में सवार लोगों ने युवतियों से बलात्कार का प्रयास किया। हालांकि पुलिस ने इसमें कार्रवाई की लेकिन कार्रवाई सजा तक पहुंचेगी इसमें अभी भी संशय बना हुआ है। बांदा रेप कांड, इंजीनयिर हत्या कांड की असलियत हर कोई जानता था। लेकिन फिर भी इसका ये मतलब नहीं कि अपराध अकेले उत्तर प्रदेेश में ही होते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने जनवरी में जो आंकड़े जारी किए थे उनके मुताबिक मध्यप्रदेश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाला इंदौर इस मामले में देश में सबसे अव्वल रहा। इंदौर के बाद भोपाल और फिर जयपुर अपराध के पायदान पर रहे। जहां तक दिल्ली की बात है तो पूरे देश में हुए बलात्कार की घटनाओं में उसके कोटे में एक चौथाई आए। इसी तरह अपहरण के एक तिहाई मामले दिल्ली के खाते में गए। दहेज हत्या और छेड़छाड़ में भी देश की राजधानी का दबदबा रहा। उत्तर प्रदेश इस सूची में इन सब शहरों से नीचे रहा, महिलाओं के साथ अपराध के मामले में यूपी को 26वां स्थान मिला। फिर भी मीडिया यूपी को अपराधियों का गढ़ साबित करने से नहीं चूकता। 2011 के शुरूआती चार महीनों में ही केरला में 357 रेप के मामले सामने आ चुके हैं, यानी एक दिन में तीन से ज्यादा बलात्कार। बावजूद इसके खबरचियों का ध्यान इस ओर नहीं गया।

यूपी के साथ अक्सर ऐसा होता है कि उससे जुड़ी छोटी से छोटी खबर को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है लेकिन दूसरे राज्यों की बड़ी से बड़ी घटना को भी मामूली करार दिया जाता है। उत्तर प्रदेश को लेकर जिस तरह का रुख मीडिया ने अपना रखा है उससे तो यही लगता है कि वो एंटी यूपी मिशन पर है। दरअसल, अगले साल यूपी में विधानसभा चुनाव होने हैं, इसलिए विपक्षी दल खासतौर पर कांग्रेस राज्य में माया विरोधी हवा को और तेज करना चाहते हैं इसलिए मीडिया के राजनीतिक करण से इंकार नहीं किया जा सकता। वैसे भी आज के वक्त में मीडिया की विश्वासनीयता बची ही कहां है। सब जानते हैं कि खबर के लिए कैसे पूरी की पूरी कहानी खुद ही रच दी जाती है। राहुल गांधी ने जब भट्टा परसौल में बलात्कार और हत्याओं के आरोप लगाए तो मीडिया वालों के लिए यही सच हो गया। चैनल से लेकर अखबार तक मायाराज को जंगलराज से भी बदतर बताया गया, लेकिन ये जानने की कोशिश नहीं की गई कि आखिर आरोपों में कितनी सच्चाई है। अब जब ये साफ हो गया है कि भटट परसौल पर राहुल गांधी के आरोप निराधार थे तो खबर गढऩे वाले खामोश बैठे हैं। अब न उन गांवों में कैमरे दिखाई देते हैं और न कलम थामे पत्रकार। जो मीडिया पूर्व राष्ट्रपति की मौत की झूठी खबर फैला दे और माफी भी न मांगे उसकी विश्वसनीयता क्या होगी ये बताने की शायद जरूरत नहीं। हाल ही में एक टीवी चैनल के पत्रकार के साथ पुलिस की बदसलूकी के बाद तो खबर्ची जमात माया सरकार के खिलाफ खुलकर सड़क पर उतर आई है। प्रदर्शन हो रहे हैं, नारे लगाए जा रहे हैं। इस बहती गंगा में कांग्रेस और सपा भी हाथ धोने में लगे हैं। इस बात की पूरी संभावना है कि आने वाले दिनों में मिशन एंटी यूपी में कुछ और नई कडिय़ा देखने-सुनने में आएं।

ऐसा नहीं है कि मीडिया के निशाने पर यूपी केवल मायावती के शासनकाल में ही आया है, मुलायम सिंह जब मुख्यमंत्री थे तब भी उत्तर प्रदेश की गिनती सबसे बुरे राज्यों में होती थी। तब नेता-अपराधी गठजोड़ और अब की तरह अपराध खबरनवीसों के सबसे प्रिय मुद्दे थे। मायावती के आने के बाद उत्तर प्रदेश में कुछ खास बदलाव नहीं हुआ है, खासकर जनता की मूलभूत जरूरतें वैसे की वैसी हैं। न मुलायम ने उन पर ध्यान दिया और न मायावती दे रही हैं, लेकिन मीडिया में कभी भी यूपी की मूल समस्या को जगह नहीं मिली। जब खबर आती है, अपराध से जुड़ी हुई आती है, अगर मीडिया आम आदमी से जुड़े दूसरे जरूरी मुद्दों को भी इसी प्रमुखता से उठाता तो शायद बिजली-पानी के लिए तरस रही यूपी की जनता को थोड़ी बहुत राहत मिल गई होती। लेकिन मीडिया तो मीडिया ठहरी, उसके लिए केवल वो ही खबरें मतलब रखती हैं जो उसके फायदा का अहसास करा सकें। अपराध के ग्राफ को खुलकर प्रचारित-प्रसारित करने से उन्हें चुप रहने के ऐवज में कुछ न कुछ जरूर मिल जाएगा। अगर यहां से नहीं मिला तो दूसरे दल भी हैं जो मायावती के सिंहासन को हिलाकर अपनी दाल गलते देखना चाहते हैं। ऐसे में खबरगढऩे वालों की तो चांदी ही चांदी है। उत्तर प्रदेश की जनता शायद खुद भी महसूस कर रही होगी कि मायावती की विदाई का वक्त आ गया है, उसने बसपा से जो अपेक्षाएं की थीं वो उस पर खरी नहीं उतर पाई, मगर सिर्फ और सिर्फ यूपी पर ही मीडिया वाले कीचड़ उछालें ये उन्हें भी मंजूर नहीं होगा। बेहतर होगा यदि एक चोर को चोर कहा जाए तो दूसरे को भी इसी नजर से देखा जाए।