नीरज नैयर
आधुनिकता की सियासत ने राजनीति के मूल्य ही बदलकर रख दिए हैं। कभी गंभीर बहस और लोकहित के फैसलों के लिए पहचाने जाने वाले लोकतंत्र के मंदिर आज अखाड़े में तब्दील हो चुके हैं। बात चाहे संसद की हो या विधानसभाओं की सियासी पार्टियों को एक दूसरे को नीचा दिखाने की इससे मुफीद ागह कोई नहीं लगती। संसद का शीतकालीन सत्र सरकार और विपक्ष की नोंकझोंक की भेंट चढ़ा जा रहा है। जब तक ये लेख प्रकाशित होगा और कुछ दिन हंगामे पर कुर्बान हो चुके होंगे। शीतकालीन सत्र 9 नवंबर से शुरू हुआ था, लोकसभा में पहले दिन जरूर कुछ काम हुआ मगर रायसभा तो पहले दिन से ही नहीं चल पाई। मौजूदा स्थिति ये है कि सत्र समाप्त होने में चंद दिन ही बचे हैं और हंगामा चरम पर है। दरअसल विपक्ष स्पेक्ट्रम और दूसरे तमाम घोटालों की जांच संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी से कराने पर अड़ा है, लेकिन सरकार इसके सख्त खिलाफ है। सरकार का तर्क है कि जब जांच सीबीआई कर रही है तो फिर जेपीसी गठन का सवाल ही नहीं बनता। जेपीसी गठन का सवाल है या नहीं, सवाल ये नहीं है असल सवाल ये है कि आखिर इसको लेकर इतना बवाल क्यों मचाया जा रहा है। विपक्ष क्यों इतना उतारू है और सरकार क्यों इससे इतना बच रही है। ऐसा नहीं है कि इससे पहले कभी जेपीसी का गठन किया ही नहीं गया। संसदीय इतिहास में अब तक चार बार जेपीसी जांच हो चुकी है।
सबसे पहले बोफोर्स कांड को लेकर विपक्ष के लगभग 45 दिनों तक संसद में हंगामे के परिणाम स्वरूप संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया गया था। इसके बाद हर्षद मेहता कांड की जांच जेपीसी से कराई गई, इस मामले में जेपीसी गठन के लिए 17 दिनों तक संसद में गतिरोध बरकरार रहा। केतन मेहता मामले में भी तकरीबन 14 दिनों के हंगामें के बाद जेपीसी जांच को मंजूरी मिल सकी। चौथी जेपीसी शीतलपेय पेप्सी-कोला में कीटनाशकों की रिपोर्ट आने के बाद सरकार ने गठित की। जेपीसी गठन दो तरह से किया जाता है, या तो एक सदन इसका प्रस्ताव रखे और दूसरा उस पर सहमति जताए। या फिर दोनों सदनों के अध्यक्ष आपस में मिलकर इसका फैसला लें। जेपीसी में कितने सदस्य होंगे इसके लिए कोई संख्या निर्धारित नहीं की गई है। हां, इतना जरूर है कि इस समिति में लोकसभा सदस्यों की संख्या रायसभा सदस्यों से दोगुनी होती है। यानी अगर रायसभा के 5 सदस्य समिति का हिस्सा हैं तो लोकसभा सदस्यों की संख्या 10 होगी। जेपीसी के पास जांच के पूरे अधिकार होते हैं, वो मामले की रिपोर्ट तलब कर सकती है। इस संबंध में पूछताछ के लिए सम्मन जारी कर सकती है, सम्मान की तामील न होने पर संबंधित व्यक्ति पर सदन की अवेहलना के तहत कार्रवाई कर सकती है। जेपीसी जांच में एक अच्छी बात सब यही है कि उसे अपनी कार्रवाई के लिए किसी अनुमति का इंतजार नहीं करना पड़ता। इसके अलावा शायद ही कोई फायदा होता हो, क्योंकि अगर होता तो एक न एक मामले में तो दोषियों को सजा मिल गई होती। बोफोर्स कांड में जेपीसी ने 26 अप्रैल 1986 में अपनी रिपोर्ट सौंपी, लेकिन विपक्ष ने इसके विरोध में बायकॉट किया। कुल मिलाकर नतीजा रहा, सिफर। ऐसे ही हर्षद मेहता कांड में न तो जेपीसी की सारी सिफारिशों को ही माना गया और न ही सरकार ने उन्हें कार्यान्वित किया। कुछ इसी तरह केतन मेहता मामले में भी हुआ, 2002 में सौंपी गई जेपीसी रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। कोला-पेप्सी कांड की जांच के लिए शरद पवार की अध्यक्षता में बनाई गई संयुक्त जांच समिति ने चार फरवरी 2004 को सदन में रखी अपनी रिपोर्ट में शीतलपेय में कीटनाशकों की पुष्टि की मगर उसे सरकार ने कितनी गंभीरता से लिया सब जानते हैं। जेपीसी की सबसे बड़ी खामी ये है कि इसकी जांच सार्वजनिक नहीं होती, जबकि कई मुल्कों में इसमें पारदर्शिता बरती जाती है।
विपक्ष में बैठे दल को जांच के लिए जेपीसी सबसे भरोसेमंद लगती है और सरकार हमेशा से इससे बचना चाहती है। यहां गौर करने वाली बात ये है कि क्या जेपीसी इतनी सक्षम होती है कि बड़े से बड़े घोटालों की पेचीदगी को समझ सके। जेपीसी में महज अलग-अलग दल के राजनीतिक लोगों का जमावड़ा होता है, और हमारी नेताओं की काबलियत जगजाहिर है। जो काम सीबीआई या दूसरी जांच एजेंसी के वो अधिकारी कर सकते हैं जिनका काम ही बड़े से बड़े घोटालों में सिर खपाना, क्या वो हमारे नेता कर सकते हैं। निश्चित तौर पर इसके यादातर जवाब नहीं में मिलेंगे। दरअसल जेपीसी के माध्यम से खुद को पाकसाफ बताने वाले दलों को आरोपों में घिरी पार्टी के अंदरूनी हालात का काफी अच्छे से जायजा लेने का मौका मिल जाता है। और ऐसे में आर्थिक और राजनीतिक हितों के सधने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। जेपीसी का अब तक का इतिहास बिल्कुल भी अच्छा नहीं रहा है तो फिर विपक्ष का इसके लिए अड़ियल रुख अख्तियार करना समझ से बाहर है, ऐसे ही सरकार का अपने फैसले पर अडिग हो जाना भी आश्चर्यचिकत करने वाला है। सरकार जेपीसी की कीमत पर संसद का कीमती वक्त बर्बाद करे जा रही है। सदन की कार्यवाही पर खर्च होने वाला एक-एक पैसा जनता की जेब से आता है, लेकिन सदन में हंगामा करने वालों को इससे कोई सरोकार नहीं। अच्छा होता अगर सरकार संयुक्त संसदीय समिति से जांच कराने की विपक्ष की मांग को मानकर जनता के सामने अच्छा उदाहरण पेश करती। मौजूदा वक्त में सदन की कार्यवाही बाधित करने के लिए जनता की नजरों में जितना दोषी विपक्ष है उतना ही सत्तापक्ष भी है। ऐसा लगता है जैसे विपक्ष और सरकार मिलकर अरबों के घोटालों का टैक्स जनता के वसूलने का मन बना चुके हैं। स्पेक्ट्रम आदि घोटालों में जितनी रकम जानी थी वो जा चुकी और सब जानते हैं कि दोषियों का बाल भी बांका होने वाला नहीं है, ऐसे जेपीसी को लेकर संसद में जारी गतिरोध जनता के लिए कोड़ में खाज के समान है।