Friday, June 19, 2009

ड्रेस कोड लागू करना गुनाह तो नहीं

नीरज नैयर
हाल ही में मैंने अमर उजाला में प्रकाशित एक समाज सेविका का लेख पड़ा जिसमें उन्होंने पुरुषों के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए ड्रैस कोड की जमकर मुखालफत की. उनकीनजर में कॉलेजों में पढ़ने वाली लड़कियों के लिए ड्रेस कोड लागू करना समाज का तालिबानिकरण करने जैसा है. मोहतरमा उत्तर प्रदेश के कानपुर जिले के चार कॉलेजों में छात्राओं को जींस-टॉप पहनने पर लगाई गई पाबंदी से काफी आहत थीं, कॉलेज प्रशासन ने महिला शिक्षकों को भी स्लीवलेस परिधान न पहनकर आने को कहा है. एक महिला होने के नाते उनके इस तरह के तेवर लाजमी हैं.

तमाम अधिकारों के बावजूद आज भी महिलाएं खुद को वंचित तबके का समझती हैं उन्हें लगता है कि उन्हें वैसी स्वतंत्रता नहीं मिल पाई है जैसी किसी पुरुष के पास होती है, जबकि हकीकत इससे कहीं जुदा है. थोड़ा पीछे नजरें घुमाकर देखने से ही ज्ञात हो जाएगा कि कल की और आज की नारी में, उसके रहन-सहन में और उसकी आजादी में कितना बदलाव आया है. आज महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं, हर क्षेत्र में उन्हें पुरुषों के समान अवसर दिए जा रहे हैं. ऐसे में ड्रैस कोड जैसे फैसलों को तालिबानी मानसिकता कैसे करार दिया जा सकता है. बल्कि ये तो वो फैसले हैं जो अमीरी-गरीबी के कारण उपजने वालीर् ईष्या, कुंठा की भावना को दूर करते हैं. अगर सब एक जैसी पोशाक पहनकर आएंगे तो सस्ती-महंगी, अच्छी-बुरी का फर्क ही नहीं रह जाएगा. जब टॉप मोस्ट बिजनिस स्कूल्स ड्रेस कोड लागू कर सकते हैं तो फिर कॉलेज स्तर पर इसे लागू करने में इतना हंगामा क्यों मचाया जाता है. बेंगलुरु स्थित प्रख्यात क्राइस्ट यूनिवर्सटी में पढ़ने वाली छात्राओं को तो हॉस्टल से भी जींस-टीशर्ट या स्पीवलेस पहनकर बाहर निकलने की इजाजत नहीं है. कॉलेज में लड़कियों को सिर्फ सलवार-सूट पहनना पड़ता है, ऐसा ही सूरते हाल देश के अन्य प्रोफेश्ल कॉलेजों का भी है. वहां पढ़ने वाले छात्र-छत्राओं ने तो कभी इसके खिलाफ आवाज बुलंद नहीं की, क्योंकि वो वहां केवल शिक्षा अर्जित करने के लिए गये हैं. कोई माने या न माने मगर सच यही है कि आज कॉलेज शिक्षा के केंद्र की जगह फैशन का अखाड़ा बन गये हैं, दिल्ली विश्वविद्यालय इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं. यहां पढ़ने आनी वाली युवतियां ऐसी-ऐसी पोशाकें पहनकर आती हैं कि एक बारगी तो बॉलीवुड में काम करने वाली बालाएं भी असल जिंदगी में उन्हें देखकर शर्मसार हो जाएं.

स्कूल-कॉलेजों की बात तो छोड़िए आम जीवन में ही मॉर्डन बनने के नाम पर जो पहनावा अपनाया जा रहा है वो शालीनता की परिभाषा के इर्द-गिर्द भी नहीं ठहरता. चुस्त जींस, चुस्त टीशर्ट और उनके बीच में से झलकता पेट आज का फैशन सिंबल है. कमर से करीब दो-तीन उंगल नीचे जींस बांधना यौवन में निखार का पैमाना माना जाता है. यह बात सही है कि सबको अपनी तरह से जिंदगी जीने की स्वतंत्रता है, हमारा संविधान इसकी पूरी इजाजत देता है लेकिन फैशन के नाम पर फूखड़ता और अंगप्रदर्शन कहां तक जायज है. जो लोग कहते हैं कि बलात्कार जैसे मामलों को पहनावे से जोड़कर नहीं देखना चाहिए वो बिल्कुल ठीक हैं, बलात्कार जैसे विचार केवल घृणित दिमाग की उपज ही हो सकते हैं लेकिन कहीं न कहीं भड़काऊ परिधानों की उस उपज को उग्रता में परिवर्तित करने की भूमिका से भी इंकार नहीं किया जा सकता. ऐसे लोग टीवी पर जो कुछ देखते हैं उसका सजीव चित्रण उन्हें अपने आस-पास ही हो जाता है, जो कुंठा उनके मन में काफी वक्त से कुंचाले मार रही थी उसका प्रभाव तेज हो जाता है और वो किसी ऐसे काम को अंजाम दे बैठते हैं जिसके लिए उन्हें फांसी पर भी लटकाया जाए तो कम है. कहने का मतलब यह कतई नहीं कि महिलाएं पसंदीदा परिधान पहनना ही छोड़ दें, बिल्कुल पहनें लेकिन अगर उसमें शालीनता और सभ्यता दिखाई दे तो बुराई क्या है.

णड्रेस कोड लागू करनाा या महिलाओं को संजीगदी भरे पहनावे की नसीहत देना तालिबानिकरण नहीं हो सकता, तालिबान के राज में महिलाओं को ऐसी जिंदगी जीनी पड़ती थी जिसकी कल्पना भी हमारा समाज नहीं कर सकता. आज भी अफगानिस्तान में तालिबान के डर से महिलाएं किसी पुरुष का हाथ थामकर अपने प्यार का इजहार नहीं कर सकती, अपनी पसंद की पोशाक नहीं पहन सकती, खुलकर अपनी बात नहीं कह सकतीं. पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान की स्वात घाटी से भी तालिबान की महिलाओं पर बंदिशें लगाने की खबरें अक्सर आती रहती हैं. ईरान में तो कपड़े पहनने की तरीके को लेकर कानून इतने सख्त हैं कि उनका उल्लघंन करने वाली महिलाओं को जुर्माना अदा करना पड़ता है. कुछ वक्त पहले वहां पुलिस ने यह सुनिश्चित करने के लिए अभियान चलाया था कि महिलाएं हिजाब ठीक तरह से पहने.ईरान की राजधानी तेहरान की सड़कों पर इस अभियान को लागू कराने के लिए करीब 200 अतिरिक्त पुलिस अधिकारी लगाए गये. जो महिला छोटे जैकेट, पतले हिजाब या फिर ऐसे पोशाक पहनते देखी गईं जिनमें उनका पैर दिखता हो, उन पर 55 डॉलर तक का जुर्माना लगाया गया. इसके उलट भारत में महिलाओं को अपने निर्णय खुद लेने की आजादी है, सिर उठाकर चलने का अधिकार है, क्या यह समाज के तालिबानिकरण में बदलाव के संकेत हैं, शायद नहीं. जो लोग अब भी ढिंढोरा पीट रहे हैं कि महिलाओं के साथ अन्याय हो रहा है, उन्हें आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया जा रहा है उन्हें चंद मिनट शांति से बैठकर पुर्नविचार करने की जरूरत है. ड्रैस कोड लागू करना या न करना यह कॉलेज प्रशासन का अपना निजी फैसला है, और जो सही मायनों में वहां पढ़ने जाते हैं वो कभी इसका विरोध नहीं करेंगे. यह वक्त इस तरह के फैसलों पर सवालात करने के बजाए गौर फरमाने का है कि आखिर ऐसी नौबत आई ही क्यों. खूबसूरती हमेशा सादगी में ही होती है, अगर युवतियों को यह बात समझ में आ जाए तो इतना बखेड़ा खड़ा ही क्यों हो.

Tuesday, June 16, 2009

कश्मीर पर यह नासमझी क्यों

नीरज नैयर
अमेरिकी नेतृत्व की पाक पसंदगी का पैमाना इस कदर भर गया है कि उसके राजनेता-अधिकारी अब हमारे पड़ोसी मुल्क के नुमाइंदों की तरह यादा पेश आने लगे हैं, अमेरिकी विदेश उप मंत्री विलियम बर्न्स के बयान से तो यही प्रतीत होता है. बर्न्स ने अपनी भारत यात्रा के दौरानबहुत कुछ ऐसा कहा जिसकी उम्मीद नई दिल्ली ने भी नहीं की होगी. अमेरिकी मंत्री ने भारत को पाक के साथ बिना शर्त बातचीत की समझाइश तो दी ही साथ ही कश्मीर पर यह कहते हुए नया शिगूफा छोड़ दिया कि समस्या के समाधान के लिए कश्मीरियों की इच्छा का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. कश्मीर भले ही भारत-पाक का आपसी मसला हो मगर उसमें अमेरिका की दखलंदाजी हमेशा से ही रही है, इसका एक कारणदोनों देशों का बार-बार अमेरिका पर निर्भरता जाहिर करना भी है. पाकिस्तान शुरू से अमेरिका के सहारे कश्मीर फतेह की नापाक कोशिशों को अंजाम देता रहा है और भारत महज जुबानजमाखर्ची के वाशिंगटन को अब तक कोई सख्त संदेश देने में नाकाम रहा है. बर्न्स के मौजूदा बयान पर भी भारतीय नेतृत्व ने कोई ऐसी प्रतिक्रिया नहीं दी जिससे अमेरिका को भविष्य के लिए सबक मिल सके. बराक हुसैन ओबामा के सत्ता संभालने से पहले ही यह स्पष्ट हो गया था कि कश्मीर पर उनका रुख पाक के पक्ष में ही जाएगा, ओबामा ने चुनाव प्रचार के दौरान ही कश्मीर के समाधान के लिए एक विशेष दूत नियुक्त करने की बात कही थी और वो अब इसी दिशा में बढ़ते दिखाई
दे रहे हैं.

कश्मीर को लेकर पाक की पैंतरेबाजी को ऐसे कथित बुध्दिजीवियों के कथनों से भी बल मिला है जो घाटी को आजाद रूप में देखने की हसरत रखते हैं. प्रख्यात लेखिका अरुन्धति राय भी ऐसे ही बुध्दिजीवियों की जमात में शामिल हैं. कुछ वक्त पूर्व जब कश्मीर में आजादी की मांग को लेकर प्रदर्शन चल रहे थे उस वक्त आउटलुक में उनका एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने कश्मीर को स्वतंत्र करने पर बल दिया था. उनका मानना था कि घाटी में जो आक्रोश व्याप्त है वो केवल अलगाववादियों की ही देन नहीं बल्कि आम कश्मीरियों का वो गुस्सा है जो कई वर्षों से भारतीय प्रशासन के खिलाफ पनप रहा है. उनके मुताबिक कश्मीरियों में अब यह धारणा घर कर चुकी है कि उनका हित भारत से अलग होने में ही है. अरुन्धति राय ने महज बुजुर्गों-नौजवानों और महिलाओं की भीड़ से निकलकर आ रहे भारत विरोधी नारों से यह अंदाजा लगा लिया कि घाटी का आवाम 1947 की तरह ही स्वतंत्रता के लिए आंदोलित है. पर वो शायद भूल गईं कि भीड़ में शामिल होने वाले हर शख्स का उद्देश्य उसकी अगुवाई करने वाले से मेल खाए ऐसा जरूरी नहीं होता. राम मंदिर आंदोलन के वक्त सैंकड़ों लोग भीड़ का हिस्सा बने पर क्या सभी मस्जिद तोड़ना चाहते थे, अगर ऐसा होता तो शायद एक भी मस्जिद आज सुरक्षित नहीं बचती. राजनेताओं की रैलियों में हजारों लोग बढ़-चढ़कर सम्मलित होते हैं तो यह मान लिया जाए कि सब एक ही विचारधारा से हैं, अगर ऐसा होता तो भीड़ ही जीत का आधार मानी जाती. भीड़ का हिस्सा बनना महज क्षणिक भर का जोश मात्र भी हो सकता है, जिसका नशा पलभर में ही काफुर हो जाता है. लिहाजा प्रदर्शन करने वालों की तादाद देखकर यह समझ लेना कि पूरी की पूरी जमात ही इसमें शामिल है, सरासर ग़लत है. लालचौक से लेकर सोनमर्ग-गुलमर्ग तक पत्रकार और आम पर्यटक की तरह जब मैने लोगों के दिलों को टटोलने की कोशिश की तो मुझे कहीं से भी उनके भीतर दबे हुए उस गुस्से का अहसास नहीं हुआ जिसका जिक्र अरुन्धति राय ने किया था. जहां तक बात रही थोड़ी बहुत शिकन की तो वह मुल्क के हर नागरिक के चेहरे पर किसी न किसी बात को लेकर दिखाई पड़ ही जाती है. कश्मीर को विशेष राय का दर्जा मिला हुआ है, केंद्र में आने वाली हर सरकार के एजेंडे में कश्मीर सबसे ऊपर होता है. हर साल एक मोटी रकम घाटी के विकास के लिए स्वीकृत की जाती है.

इतने सब के बाद भी अलग होने की भावना कैसे जागृत हो सकती है, दरअसल पाक की जुबान बोलने वाले हुर्रियत जैसे संगठन कश्मीरियों को लंबे वक्त से बरगलाने में लगे हैं, वह उन्हें सुनहरे सपने दिखाकर अपनी तरफ करने की कोशिश करते हैं, मगर आम कश्मीरियों को शायद इस बात का इल्म है कि अगर भारत से अलग हुए तो उनका हाल भी पाक अधिकृत कश्मीर में रहने वाले उनके भाई-बंधुओं की माफिक हो जाएगा. यही वजह है कि आजादी की मांग वाले प्रदर्शन यदा-कदा ही होते हैं, अगर ऐसा नहीं होता तो घाटी हर रोज शोर में डूबी रहती. इस लिहाज से देखा जाए तो न तो अमेरिका और न ही कथित बुध्दजीवियों के लिए यह तर्कसंगत है कि वो कश्मीर पर भारत के रुख को कमजोर करने की कोशिश करें, खासकर अमेरिका के लिए तो बिल्कुल नहीं. ओबामा खुद को बड़ा साबित करने की चाह में उसी स्टैंड पर कायम हैं जिसपर पूर्ववर्ती अमेरिकी शासक चलते रहे हैं. 1947-48 में भारत और पाकिस्तान के बीच जम्मू कश्मीर मुद्दे पर पहला युध्द हुआ था जिसके बाद संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में युध्दविराम समझौता हुआ. इसके तहत एक युध्दविराम सीमा रेखा तय हुई, जिसके मुताबिक जम्मू कश्मीर का लगभग एक तिहाई हिस्सा पाकिस्तान के पास रहा जिसे पाकिस्तान आज़ाद कश्मीर कहते हैं. और लगभग दो तिहाई हिस्सा भारत के पास है जिसमें जम्मू, कश्मीर घाटी और लद्दाख शामिल हैं. 1972 के युध्द के बाद हुए शिमला समझौते के तहत युध्दविराम रेखा को नियंत्रण रेखा का नाम दिया गया. हालाकि भारत पूरे जम्मू कश्मीर को अपना हिस्सा बताता है, लेकिन कुछ पर्यवेक्षक यह भी कहते हैं कि वह कुछ बदलावों के साथ नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में स्वीकार करने के पक्ष में है. अमेरिका और ब्रिटेन भी नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने के हिमायती रहे. पर पाकिस्तान इसका विरोध करता है क्योंकि नियंत्रण रेखा को अंतरराष्ट्रीय सीमा बनाने से मुस्लिम-बहुल कश्मीर घाटी भी भारत के ही पास रह जाएगी.

अमेरिका ने कश्मीर में पूर्णरूप से 1950 के दौरान ही दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया था, और 1990 तक आते-आते उसमें पाक की हिमायती का पक्ष साफ-साफ दिखाई देने लगा. अमेरिका कहीं न कहीं ये चाहता है कि कश्मीर को स्वतंत्र घोषित कर दिया जाए ताकि वो अफगानिस्तान और इराक की तरह अपनी सेना को वहां बैठाकर एशिया में मौजूदगी दर्ज करवा सके, शायद इसी लिए उसके दिल में कश्मीरियों के प्रति दर्द उमड़ रहा है. अमेरिका के इस तरह के हिमायत भरे कदम पाकिस्तान और कश्मीर में बैठे उसके खिदमतगारों के लिए पावर बूस्टर का काम करते हैं. इसलिए भारत सरकार को अमेरिकी दबाव में आकर नासमझ व्यवहार करने की बजाए बर्न्स के बयानों की गंभीरता को भांपते हुए माकूल जवाब देने की दिशा में कदम उठाना चाहिए.

Friday, June 12, 2009

धोनी को ले न डूबे सफलता का नशा

नीरज नैयर
कहते हैं सफलता एक ऐसा नशा है जिसका असर तब तक नहीं उतरता जब तक कामयाबी की रफ्तार मंद नहीं पड़ती. ऐसे लोग बिरले ही होते हैं जो इस नशे की खुमारी को खुद पर हावी नहीं होने देते. मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर भी ऐसे ही लोगों की जमात का हिस्सा हैं, सचिन ने कामयाबी के इतने शिखर छूए हैं कि कोई और वहां तक पहुंचने की कल्पना भी नहीं कर सकता.

सचिन ने न केवल क्रिकेट को जीया बल्कि उसे नई दिशा भी प्रदान की, दुनिया में शायद ही कोई ऐसा खिलाड़ी हो जिसने मैदान पर लिटिल मास्टर की क्रूरता और मैदान के बाहर उनकी उदारता, जिंदादिली और सबको खुश रखने की भावना को महसूस न किया हो. सचिन ही एक ऐसे खिलाड़ी हैं जिन्होंने खेल के मैदान पर भले ही बहुतरे दुश्मन बनाएं हों मगर असल जिंदगी में उनके रिश्ते सभी के साथ एक जैसे रहे. सचिन तेंदुलकर की खेल के प्रति प्रतिबध्दता और सर्मपण का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अपने पिता के देहांत के वक्त भी उन्होंने वर्ल्डकप में टीम को अकेला छोड़कर मुंबई वापस लौटना मुनासिब नहीं समझा. बावजूद इसके इस महान खिलाड़ी को आलोचनाओं के कटु अनुभवों का सामना करना पड़ा, उन्हें ढलती उम्र का हवाला देकर क्रिकेट को अलविदा कहने की सलाह तक दी गई लेकिन टूटने के बजाए सचिन ने खुद को संगठित कर पुराने रूप में पेश किया और आलोचकों को पुन: सोचने पर मजबूर कर दिया.

एक ऐसे खिलाड़ी के टीम में शामिल होने के बाद भी टीम का युवा नेतृत्व अहंकार और अहम के अंधेरे में खुद को डुबोए हुए है. कप्तान के रूप में मिल रही सफलता का नशा महेंद्र सिंह धोनी के सिर चढ़कर बोल रहा है, उन्हें अपने सामने शायद कोई और दिखाई ही नहीं पड़ रहा. वीरेंद्र सहवाग की ट्वेटी-20 वर्ल्ड कप से बिना खेले वापसी को इस नजरीए से देखा जा सकता है. सहवाग से उनके विवाद की खबरें कुछ वक्त से लगातार छन-छनकर बाहर आ रही थी, हालांकि धोनी ने इसका बराबर खंडन किया. अपनी बात को सही साबित करने के लिए वो पूरी टीम को लेकर प्रेस कांफ्रेंस में भी जा पहुंचे. लेकिन जिस तरह का रुख उन्होंने सहवाग की वापसी के बाद खबरनवीसों के समक्ष प्रदर्शित किया वह वाकई चौकाने वाला और शक-शुबहा को सच की तरफ मोड़ने वाला दिखाई पड़ता है. सहवाग की फिटनेस के बारे में जानकारी देने के लिए बुलाई गई प्रेस कॉफ्रेंस में मीडिया के तीखे सवालों से धोनी आपा खो बैठे. धोनी और मीडिया के बीच जमकर नोंक-झोंक हुई. धोनी के इस अंदाज ने कई वरिष्ठ पत्रकारों को भी हैरान कर दिया. दरअसल पूरा विवाद इस बात पर बढ़ा जब कोलकाता के एक अखबार में धोनी के हवाले से ये खबर छपी कि सहवाग की फिटनेस को लेकर धोनी का बयान जानबूझकर विरोधी टीम को गच्चा देने के लिए था. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब धोनी ने मीडिया को गलत साबित करने के लिए ऐसे कदम उठाए हों. वह हमेशा से ही अपनी द्वंद्वता का प्रदर्शन करते रहे हैं. सहवाग तो फिर भी टीम के उपकप्तान हैं, धोनी ने तो टीम इंडिया को नए मुकाम पर पहुंचाने वाले और उसे ढृढता प्रदान करने वाले सचिन तेंदुलकर को भी निशाना बनाने की कोशिशें की. उन्होंने सीनियर खिलाड़ियों की आड़ में सचिन पर बार-बार कटाक्ष किए, उनके खेल पर उंगली उठाई. पर उन्हें टीम से डिगा नहीं सके.

अगर आपको कैप्टन बनने से पहले धोनी की प्रेस कांफ्रेंस याद हों तो आपको यह भी याद होगा कि उनका स्वभाव मौजूदा वक्त से कितना जुदा था. ये बात सही है कि जिम्मेदारी और अनुभव बढ़ने के साथ-साथ बदालव आते हैं, और बदलाव जरूरी भी लेकिन केवल तभी तक जब तक वो सही दिशा में हो रहे हों. बीते कुछ वक्त में टीम इंडिया ने जिस तरह से बुलंदियों को छुआ है, उससे धोनी बिन पंख आसमान में उड़ने लगे हैं. उन्हें लगने लगा है कि जैसे उनके बिना टीम इंडिया अपंग हो जाएगी, उनके अंदर अतिआत्मविश्वास के साथ-साथ यह भावना भी घर करने लगी है कि उनकी पदवी को कोई हिला नहीं सकता. आईपीएल के दौरान एक और खबर चर्चा में रही जिसने धोनी के व्यक्तित्व में आए नकारात्मक बदलाव को लोगों के सामने पहुंचाया. आम लोगों की तरह बॉलीवुड शहंशाह अमिताभ बच्चन ने भी धोनी को शुभकामना संदेश भेजा लेकिन जब भारतीय कप्तान की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई तो विचलित अमिताभ ने जॉन इब्राहिम से इसका जिक्र किया.

ऐसे ही आगे बढ़ते-बढ़ते यह बात मीडिया तक पहुंची और मीडिया ने तपाक से धोनी से सवाल कर डाला मगर धोनी ने शालीनता का परिचय दिए बगैर बड़े ही रुखे स्वभाव में जवाब देने से साफ इंकार कर दिया. हो सकता है कि धोनी व्यस्त्तम दिनचर्या के चलते अमिताभ का संदेश नहीं देख पाए हों, या उन्हें जवाब देने का वक्त ही नहीं मिला हो पर मीडिया के माध्यम से तो वह अमिताभ तक अपनी बात पहुंचा ही सकते थे. अंहकार का अंत केवल अंधकार में ही होता है, धोनी शायद यह बात भूल गये हैं. धोनी की माफिक ही पूर्व कप्तान सौरव गांगुली भी सफलता के नशे में मदमस्त होकर सबकुछ भूल गये थे, उनके बयानों में भी अहम झलकने लगा था. उन्होंने भी सचिन को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने की कोशिश की थी. सचिन को दोहरे शतक से महज चंद कदम दूर रोकने के लिए उन्होंने जिस तरह से राहुल द्रविड़ को मोहरा बनाया था उसने सबको चौंकाकर रख्र दिया था. संभवत: यह पहला मौका था जब सचिन ने अपने दिल की बात कहने के लिए सार्वजनिक मंच का इस्तेमाल किया हो. और आज उनका हाल सबके समाने है. जिस तरह से क्रिकेट के चाहने वाले धोनी के बिना टीम की कल्पना भी नहीं करना चाहते ठीक वैसी ही स्थिति सौरव गांगुली की भी थी मगर फिर भी उन्हें बेआबरू होकर टीम से बाहर जाना पड़ा. बंगाल टाइगर का तमगा लगाने वाले इस खिलाड़ी को आम खिलाड़ियों की तरह टीम में जगह बनाने के लिए मशक्कत करनी पड़ी लेकिन आज भी यह तय नहीं है कि वो खेलेंगे या नहीं. सफलता के घोड़े बेलगाम होते हैं, इनकी सवारी करने वाले को लगाम कसना आना चाहिए, अगर वक्त रहते धोनी लगाम कसना सीख गये तो शायद वो उस लायक तो बन ही जाएंगे कि सचिन के आस-पास खड़े हो सकें अन्यथा उनका भगवान ही मालिक है.