नीरज नैयर
जैसे-तैसे जम्हूरियत के रास्ते पर आया पाकिस्तान फिर अस्थिरता के अंधेरे में डूबता दिखाई दे रहा है. नवाज और जरदारी के बेमेल गठबंधन के बेमेल फैसले ने इस विचारणीय प्रश को जन्म दिया है कि क्या मुशर्रफ को हटाने से पाक में राजनीतिक स्थायित्व कामय रह पाएगा? जनरल के जाने के चंद घंटे बाद ही जिस तरह की राजनीति उथल-पुथल और अराजकता पाक में उत्पन्न हुई है उससे यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि पाक का भविष्य्य कितना उज्वल होगा. जरदारी के मुशर्रफ का चोला पहनने की जल्दबाजी और बर्खास्त जजों की बहाली के मसले पर आनाकानी के चलते शरीफ ने गठबंधन की गांठ खोल दी हैं. शरीफ जजों की बहाली के मसले पर अड़े हुए थे जबकि जरदारी ऐसा कुछ नहीं करना चाहते. जरदारी को लगता है कि अगर पूर्व मुख्य न्यायाधीश इफ्तिकार मोहम्मद चौधरी को बहाल किया गया तो वह खुद भी शिकार बन सकते हैं. ज्यादा उम्मीद इस बात की है कि मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मुहम्मद चौधरी बहाल होकर आसिफ अलीजरदारी को मुशर्रफ के बनाए अधिनियम के तहत मिलने वाली छूट खत्म कर दें. जिसके बाद उनका बचना मुश्किल होगा. उन पर भष्टाचार के ढ़ेरों मामले थे जिन्हें समझौते के तहत जनरल ने खत्म कर दिए थे. ऐसे में सरकार भले ही न गिरे मगर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों छोरों पर अस्थिरता का संकट हमेशा बरकरार रहेगा, जो खुद पाकिस्तान और उसके पड़ोसी मुल्क यानी भारत के लिए किसी लिहाज से शुभ नहीं है।
इतिहास गवाह है कि जब भी पड़ोस में सियासी हलचल उठी है उसका सीधा असर हिंदुस्तान की हरियाली पर पड़ा है. मुशर्रफ के त्यागपत्र से पाकिस्तान में आईएसआई और कट्टरपंथियों का वहां की राजनीति में सीधा हस्तक्षेप होने की आशंका काफी हद तक बढ़ गई है. हो सकता है कि मुल्क के सियासी मामलों में फौज का दखल भी दोबारा शुरू हो जाए. जैसे कि जनरल जिया उल हक की विमान हादसे में मौत के बाद हुआ था. जिससे भीरत के साथ उसके रिश्तों में फिर से तल्खी लौट सकती है. कश्मीर मुद्दे और भारत के साथ रिश्तों को लेकर पाक की सरकार कट्टरपंथियों के दबाव में रहती है, लिहाजा कश्मीर पर पाकिस्तान कोई नई फुलझड़ी छोड़ सकता है. वैसे उसने इसकी पहल भी कर दी है. पाक संसद ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया है जिसमें कश्मीर में जनमत संग्रह करने की बात कही गई है. इसके साथ ही पाक एक समिति भी बनाने जा रहा है जिसका काम घाटी में मानवाधिकार उल्लंघन के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने पेश करना होगा. मतलब यह साफ है कि पाकिस्तान एक बार फिर कश्मीर को बर्निंग इश्यू बनाने जा रहा है. वो जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद को लेकर चल रहे महासंग्राम में गुपचुप तौर पर अपने हिस्सेदारी बढ़ाकर यह दिखाना चाहता है कि भारत सरकार के साथ कश्मीरियों का हित सुरक्षित नहीं है. अब तक कश्मीर पर गाड़ी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी मगर पाक के इस कदम के चलते उसका पटरी से उतरना तय है. कश्मीर मसले को जितना उछाला जाएगा, भारत पर उतना ही दबाव पड़ेगा. पाकिस्तान इस बात को बखूबी जानता है, इसलिए उसने मुशर्रफ की विदाई के तुरंत बाद अपना घर संभालने के बजाए कश्मीर पर टांग अड़ाना ज्यादा बेहतर समझा. मुशर्रफ ने भले ही कारगिल के जरिए भारत में सेंध लगाने की कोशिश की हो मगर इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके कार्यकाल में ही दोनों देश एक-दूसरे के करीब आने को बेकरार दिखे।
यह काबिले गौर है कि जनरल के शासन में 2004 के संघर्षविराम का एक बार भी उल्लंघन नहीं हुआ. जबकि लोकतांत्रिक सरकार बनने के बाद पाकिस्तानी फौज सीमा पर गोलीबारी करने को आतुर नजर आ रही है. पाकिस्तान हुक्मरानों की भारत के प्रति दिलचस्पी शुरू से ही रही है. 1971 की लड़ाई में मुंह की खाने के बाद जुल्फिकार अली भुट्टो ने कहा था कि बांग्लादेश हमारा आंतरिक मामला था और भारत ने इसमें हस्तक्षेप कर हमारी टांग काटी है. हम भारत का सिर काट कर ही दम लेंगे. तब से पाकिस्तान कश्मीर को भारत से छीनकर हमारा सर कलम करने की जद्दोजहद में लगा हुआ है. मुशर्रफ ने भी उसी परंपरा को आगे बढ़ाया. जम्हूरियत की बेटी कही जाने वाली बेनजीर भुट्टो की हत्या के बाद चुनी गई नवाज और जरदारी की गठबंधन सरकार को लेकर तमाम उम्मीदें पाली गईं थीं. कहा जा रहा था पाकिस्तान कश्मीर के समाधान की दिशा में कोई सार्थक पहल कर सकता है, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. उल्टा पाकिस्तान की नई सरकार ने भारत सिरदर्दी जरूर बढ़ा दी।
जयपुर धमाके, काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर हमला आदि कुछ ऐसी घटनाएं थी जिन्होंने अहसास दिलाया कि आईएसआई अब पहले से ज्यादा स्वतंत्र होकर काम कर रही है. भारत ने इस बात को बार-बार दोहराया कि काबुल धमाके में आईएसआई का हाथ है मगर पाक प्रधानमंत्री गिलानी से नवाज और जरदारी तक कोई इसे पचाने को तैयार नहीं है.ण मुशर्रफ ने जरूर आतंकवाद से लड़ाई को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया हो पर अमेरिका के दबाव के चलते उन्होंने कुछ हद तक अपने पाले हुए दहशतगर्दो को नियंत्रित करने का प्रयास किया. तमाम विरोध के बावजूद लाल मस्जिद पर हमला इसी का एक हिस्सा था. उन्होंने कुछ आतंकी संगठनों पर प्रतिबंध भी लगाया, लेकिन उनके जाने के बाद प्रतिबंधित गुट फिर से सक्रीय होने लगे हैं. लश्कर-ए-तोयबा के गैरकानूनी घोषित होने के बाद इसका नाम जमात उद दावा कर दिया गया. कराची में इसका दफ्तर भी बंद कर दिया गया. लेकिन अब उसे फिर से खोल दिया गया है. ऐसे ही जैश-ए-मोहम्मद भी फिर से हरकत में आ गया है. पाकिस्तान में महज कुछ दिनों में ही जो हालात उभर कर सामने आए हैं उसे देखने के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि मुशर्रफ के जाने का भारत पर कोई असर नहीं पड़ेगा. ऐसे वक्त में जब दोनों देश रिश्ते सुधारने की तरफ आगे बढ़ रहे थे जनरल का जाना भारत की परेशानियों में भी इजाफा कर सकता है