Monday, May 24, 2010

तांगे-रिक्शे पर बैन लगाकर क्या होगाU

नीरज नैयर
आर्थिक प्रगति की दौड़ में भागे जा रही दिल्ली में अब तांगे दिखाई नहीं देंगे। नई दिल्ली के बाद पुरानी दिल्ली में भी घोड़ा गाडियों पर प्रतिबंध लगाया गया है। वैसे तांगे वालों के पुर्नवास के लिए कुछ कदम जरूर उठाए गए हैं लेकिन वो कितने कारगर साबित होंगे इसका इल्म सरकार को भी बखूबी होगा। तांगे शायद सरकार को संपन्नता की चादर में पैबंद की माफिक लग रहे होंगे, घोड़े के टापों की अवाज उसके लिए सिरदर्द बन रही होगी, इसलिए शीला सरकार को प्रतिबंध के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं सूझा। घोड़ा गाड़ी पर बैन लगाने से महज तांगा चलाने वाले ही प्रभावित नहीं होंगे बल्कि घोड़े के पैरों में नाल लगाने वाले, चाबुक बनाने वाले, गाड़ी बनाने वाले जैसे लोगों को भी रोजगार के दूसरे विकल्प तलाशने होंगे। इसका सीधा सा मतलब है कि बेराजगारों की फेहरिस्त में कुछ लोग और शामिल हो जाएंगे। आधुनिक जमाने में जहां मेट्रो ट्रेन और ट्रांसपोर्ट के कई अन्य अत्याधुनिक साधन मौजूद हैं, तांगों को पुराना जरूर कहा जा सकता है मगर इनकी उपयोगिता पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। ये बेहद चिंतनीय विषय है कि एक तरफ तो हम जलवायु परिवर्तन के प्रति गंभीरता बरतने की बात करते हैं और दूसरी तरफ इको फ्रेंडली ट्रांसपोर्टेशन को हतोत्साहित करने में लगे हैं।

हो सकता है कि तंग गलियों में घोड़े गाड़ियों की आवाजाही से परेशानियां बढ़ जाती हों लेकिन इसका हल प्रतिबंध लगाकर तो नहीं निकाला जा सकता। तांगे या रिक्शे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कोई योगदान नहीं देते बावजूद इसके भी हम महज आधुनिक दिखने की धुन में प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। अत्याधुनिक तकनीक अपनाकर दुनिया के साथ कदम साथ कदम मिलना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उन पारंगत साधनों को प्रोत्साहित करना जो हमारे भविष्य को प्रभावित करते हैं। दिल्ली की तरह ही कुछ वक्त पहले कोलकाता की शान कहे जाने वाले रिक्शों पर प्रतिबंध लगया गया था, वो रिक्शे जो हजारों लोगों की जीविका का एकमात्र साधन थे। इस तरह के फैसले न केवल समाज के निचले तबके के प्रति सरकारों की गैरजिम्मेदाराना सोच को उजागर करते हैं बल्कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के हमारे दावों की हकीकत भी सामने लाते हैं। पर्यावरण मंत्रालय द्वारा हाल ही में पेश की गई रिपोर्ट के मुताबिक भारत में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 13 वर्ष की अवधि में करीब तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। रिपोर्ट में पर्यावरण के लिए घातक कही जाने वाली गैसों के उत्सर्जन में 1994 की तुलना में 2007 तक आए परिवर्तन का आंकलन है। हालांकि ये रफ्तार अमेरिका और चीन के मुकाबले काफी कम है। अमेरिका 20 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन करता है। 2005 में दुनिया का प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन 4.22 टन था जबकि भारत का औसत 1.2 टन है। पर फिर भी तीन फीसदी की बढ़ोत्तरी को कहीं न कहीं रणनीति पर पुनर्विचार के संकेत के रूप में देखा ही जाना चाहिए। ग्रीन हाउस गैसों को सीएफसी या क्लोरो फ्लोरो कार्बन भी कहते हैं। इनमें कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और वाष्प मौजूद रहते है। ये गैसें खतरनाक स्तर से वातावरण में बढ़ती जा रही हैं और इसका नतीजा ये हो रहा है कि ओजोन परत के छेद का दायरा लगातार फैल रहा है। ओजोन की परत ही सूरज और पृथ्वी के बीच एक कवच की तरह काम करती है। इस कवच के कमजोर पड़ने का मतलब है, पृथ्वी का सूरज की तरह तप जाना। मौजूदा वक्त में ही हम काफी हद तक उस स्थिति को महसूस कर रहे हैं।


इस साल गर्मी ने अप्रैल-मई में ही सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले हैं। अब जरा सोचिए कि अगर तापमान बढ़ने की रफ्तार कुछ यही रही तो आने वाले कुछ सालों में क्या दिन में घर से बाहर निकलना मुमकिन हो पाएगा। हो सकता है कि दिन में लगने वाले बाजार रात में लगे, लोग रात को शॉपिंग पर जाएं, दफ्तरों में काम रात में हो। यानी दिन रात बन जाए और रात दिन। ये बातें अभी सुनने में जरूर अजीब लग रही होंगी, लेकिन जितनी तेजी से मौसम में परिवर्तन हो रहा है, उसमे कुछ भी मुमकिन है। इसलिए विश्व के हर मुल्क को अपनी सुख-सुविधाओं में कटौती करने जैसे कदम उठाने होंगे। छोटे-छोटे प्रयासों से ही बड़ी-बड़ी योजनाओं को मूर्तरूप दिया जा सकता है। अगर अब भी हम विकसित और विकासशील के झगड़े में उलझकर एक-दूसरे पर उंगली उठाते रहेंगे तो हमारा आने वाला कल निश्चित ही अंधकार मे होगा। जलवायु परिवर्तन के खतरे को टालने का सबसे कारगर तरीका यही हो सकता है कि प्रदूषण के बढ़ते स्तर को कम किया जाए, और उसके लिए यातायात के परंपरागत साधनों को अपनाने में शर्म हरगिज महसूस नहीं होनी चाहिए। फिलीपिंस की राजधानी मनीला ने इस दिशा में एक अच्छी पहल की है, जिसपर विचार किया जा सकता है। मनीला प्रशासन ने बैटरी चलित बसों को पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन के काम में लगाया है और इसमें यात्रा बिल्कुल मुफ्त रखी गई है। ऐसा निजी वाहनों के प्रयोग में कमी लाने के उद्देश्य से किया गया है। सारा खर्चा प्रशासन खुद वहन कर रहा है। इस योजना के शुरू होने के बाद से काफी तादाद में लोगों ने दफ्तर आदि जाने के लिए निजी वाहनों का प्रयोग बंद कर दिया है। जरा अंदाजा लगाइए कि प्रतिदिन यदि 100 वाहन भी सड़क पर नहीं दौड़े तो पर्यावरण को कितना फायदा पहुंचा होगा।


भारत में तांगे-रिक्शे के रूप में अच्छे-खासे विकल्प मौजूद हैं मगर स्थानीय प्रशासन और राय सरकार दोनों ही आधुनिकता का चोला ओढ़ने पर आमादा हैं। यूएन की एक स्टडी रिपोर्ट में कुछ समय पूर्व ये खुलासा किया गया था कि आने वाले 20 से 30 साल में भारत जलवायु परिवर्तन से सबसे यादा प्रभावित होने वाले देशों में शुमार होगा। यहां, सूखा और तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ सकती हैं। रिपोर्ट के अनुसारएशिया में भारत के अलावा पाकिस्तान, अफगानिस्तान और इंडोनेशिया उन देशों में शामिल हैं, जो अपने यहां चल रही राजनैतिक, सामरिक, आर्थिक प्रक्रियाओं के कारण ग्लोबल वॉर्मिंग से सबसे यादा प्रभावित होंगे। ऐसे ही सांइस पत्रिका की प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत समेत तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों को तेजी से बढ़ती जनसंख्या और उपज में कमी की वजह से खाद्य संकट का सामना करना पड़ेगा। तापमान में बढ़ोतरी से जमीन की नमी प्रभावित होगी, जिससे उपज में और यादा गिरावट आएगी। इस लिहाज से देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन के खतरे को भारत सरकार जितना कम आंकती आई है, हालात उससे यादा खराब होने वाले हैं। जलवायु परिवर्तन को लेकर हमारी सरकार जितनी ढुलमुल है उतनी ही सुस्त यहां की जनता भी है।


अगर सरकार की तरफ से कोई पहल की भी जाती है तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि लोग उसका खुलेदिल से स्वागत करेंगे। अर्थ ऑवर इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। देश की आबादी का एक बड़ा तबका इसे महज चोचलेबाजी करार देकर अपना पल्ला झाड़ लेता है, जबकि ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरों से वो खुद भी अच्छी तरह वाकिफ है। इसलिए पर्यावरण मंत्रालय को अब अपनी आराम तलबी की आदत से बाहर निकालकर कुछ कदम उठाने चाहिए, उसे महज अर्थ ऑवर जैसी अपील करने के बजाए दिशा निर्देश तय करने होंगे जिसका पालन करने के लिए हर कोई बाध्य हो। कुछ प्रमुख ऐतिहासिक स्थल जैसे ताजमहल आदि के आस-पास एक निर्धारित परिधि में वाहनों की आवाजाही पर प्रतिबंध है, केवल बैटरी चलित वाहन ही वहां जा सकते हैं। इस व्यवस्था का शुरूआत में जमकर विरोध हुआ लेकिन आज सब इसके आदि हो चुके हैं। इसी तरह वो प्रमुख शहर जो प्रदूषण फैलाने में सबसे आगे हैं, के कुछ इलाके चिन्हित करके वहां ऐसी व्यवस्था लागू करने पर विचार-विमर्श किए जाने की जरूरत है। णहम यादा कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम वाहनों से होने वाले प्रदूषण पर तो लगाम लगा ही सकते हैं। सड़कों पर जितने यादा तांगे-रिक्शे और बैटरी चलित वाहन दौड़ेंगे हमारे भविष्य की संभावनाएं उतनी ही अल्हादित करने वाली होंगी। अगर पारंपरिक साधनों को अपनाकर हम अपना कल खुशहाल कर सकते हैं तो फिर आधुनिकता को एक दायरे में सीमित रखने में बुराई क्या है। कम से कम इससे कुछ घरों के चूल्हे तो जलते रहेंगे।

Tuesday, May 11, 2010

बेगानी शादी में अब्दुल्ला

दीवाना
नीरज नैयर
बीते दिनों मीडिया ने किसी खबर पर ध्यान केंद्रित किया तो वो थी सानिया-शोएब की शादी। पाकिस्तानी क्रिकेटर और भारतीय टेनिस सनसनी एक पखवाड़े तक मीडिया में सुखियां बटोरते रहे। सीमा के इस पार और उस पार दोनों तरफ सानिया और शोएब के बीच तीसरी कड़ी के रूप में सामने आईं आयशा के आरोपों का सच खंगालने में मीडिया ने कोई कसर नहीं छोड़ी। निकाहनामे की प्रति से लेकर उस पर अंकित दस्तखतों की बारीकी से जांच की गई, मुल्ला-मौलवियों के बयान लिए गए, यह बताने की कोशिश की गई कि कौन सही है और कौन गलत। कभी आयशा के आरोपों को उनके वजन के अनुरूप वजनी बताया गया तो कभी शोएब के बयानों में सच्चाई का अहसास कराया गया। खबरिया चैनलों ने तो इस खबर के एक-एक एंगेल को इतनी बार दिखाया कि इस लव कम मैरिज ट्रायंगल के हर पात्र का नाम लोगों को मुंह जुबानी याद हो गया। आयशा के मां-बाप से लेकर शोएब के जीजा तक को लोग ऐसे पहचानने लगे जैसे ये सब किसी सास-बहू टाइप हाईप्रोफाइल सीरियल के हाईप्रोफाइल किरदार हों। हर चैनल ने खुद को नंबर वन साबित करने की कवायद में पत्रकारों को मच्छरों की माफिक आयशा और सानिया के घरों के इर्द-गिर्द छोड़ दिया। दोनों परिवारों की हर हरकत पर निगाह रखी गई,

सानिया की बालकनी में लगे कैमरे की कहानी कैमरे की जुबानी बताने के लिए एक-दो घंटे के स्पेशल प्रोग्राम तक तैयार किए गए। रात-रात भर उल्लू की तरह जागकर मीडियावाले शोएब के सानिया के घर आने की राह तकते रहे। शोएब-आयशा के तलाक के बाद जब मामला सुलझ गया तो सानिया के होने वाले शौहर द्वारा बोले गए झूठों को एक-एक करके ऐसे दिखाया गया मानो इससे बड़ी कोई खबर ही न हो। और तो और मीडियावालों ने ये तक खुलासा कर दिया कि सुलह-समझौते के लिए शोएब को 15 करोड़ ढीले करने पड़े हैं। शादी में कौन आएगा, कौन नहीं, खाने का मीनू क्या होगा आदि..आदि पर भी विस्तार से चर्चा की गई। अब जब निकाह हो चुका है तो उसके जल्दी होने की वजह तलाशी जा रही हैं, योतिषियों से सानिया-शोएब के भविष्य का आकलन करवाया जा रहा है। उनके हनीमून के कयास लगाए जा रहे हैं। वैसे ये अकेले सानिया और शोएब की शादी की ही बात नहीं है। मीडिया हर हाईप्रोफाइल शादी में बिन बुलाए मेहमान की तरह शिरकत करने की आदत सी हो गई है, फिर चाहे इसके लिए लात-घूंसे ही क्यों न खाने पड़े। ऐश-अभिषेक, हर्ले-नायर की शादी के वक्त भी कुछ ऐसा ही माहौल तैयार किया गया था। देखा जाए तो नेता और पत्रकार बेशक अलग-अलग पेशे से जुड़े हों मगर दोनों में दो बातों बिल्कुल समान हैं। पहली सहनशीलता और दूसरी जल्द भूलने की आदत। जिस तरह नेता दुत्कारे जाने के बाद भी चुनाव के वक्त हाथ जोड़कर वोट मांगने पहुंच जाता है,


उसी तरह भी लात-घूसें खाने के बाद कैमरा और माइक लेकर फिर खड़ा हो जाता है। ऐश-अभिषेक की शादी के वक्त फोटो खींचने के चक्कर में कोई अस्पताल पहुंचा तो किसी को दिन में ही तारे नजर आ गए। तारे गिनते-गिनते जब लगा कि हमारी बेइाती हो गई है तो हल्ला शुरू कर दिया। लेकिन जैसे ही अमिताभ ने साफ कि मीडियाकर्मियों पर चली लात हमारी नहीं अमर सिंह की थी, फिर उधेड़बुन चालू हो गई कि ऐश ने जया को पहली बार सासू मां कहा होगा या कुछ और। अभि ने ऐश को झुमका दिया होगा या हीरों का हार आदि.. आदि। प्रतीक्षा और जलासा में जश् खत्म होने के लंब समय तक टीवी चैनलों पर यह दौर जारी रहा। कहीं उनके हनीमून को लेकर कयास लगाए गए तो कहीं सास-बहु के रिश्ते को लेकर। मौजूदा वक्त में भी बिग-बी के परिवार से जुड़ी हर खबर को स्पेशल ऐपीसोड़ बनाकर दिखाया जाता है। मीडिया पर जिस तरह का नशा सवार है, उसमें कोई तााुब नहीं होगा कि आने वाले दिनों में चैनल वाले इस बात भी मंथन शुरू कर दें कि ऐश-अभि के बच्चे का नाम क्या होगा। अगर नाम ये होगा तो शुभ होगा या अशुभ होगा। अगर नाम वो होगा तो ऐसा हो गया या वैसा होगा। इसके लिए नामी गिरामी योतिषियों की राय ली जाएगी और एक न झिलने वाले कार्यक्रम को चमका-दमकाकर हफ्ते भर का कोटा पूरा कर लिया जाएगा। जूनियर बच्चन की शादी की खबरों के सामने आने के साथ ही जैसे ये हर चैनल का धर्म बन गया था कि एक घंटा बच्चन परिवार को दिखाया ही जाएगा। अमिताभ ने भले ही कुंडलियां न मिलवाई हों मगर मीडिया ने कुंडलियां भी मिलवाईं,


गुण-दोष भी बताए और उपाए भी निकालकर भी सामने रख दिए। विशेषज्ञों को बिठाकर आकलन भी कर डाला कि ऐश का मंगल कहीं अमंगल न कर दे। शादी में कौन आएगा, कौन नहीं, कार्ड पर लिखने वाला पैन देशी है या विदेशी। लड्डू बूंदी के होंगे या बेसन के, दूध में चीनी कम होगी या यादा। ऐसी हर छोटी-छोटी बातों को मीडिया ने खूब तड़का लगाकर पेश किया। चैनल वालों ने बच्चन भक्ति में अपना आध समय भेंट किया तो अखबार वालों ने आधा पेपर। मगर अंत में दोनों को क्या मिला चंद लातें और घूंसे। बावजूद किसी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं दिखी। गाहे-बगाहे अगर जहन में कभी लात का ख्याल आ भी जाता है तो ये सोचकर तसल्ली कर ली जाती है कि वो लात बिग-बी की नहीं अमर सिंह की थी। हां, नायर-हर्ले के मामले में कभी-कभी टीस जरूर उठ जाती है। ऐश-अभी, सानिया शोएब की शादी की तरह लिज हर्ले और अरुण नायर की शादी को भी ने दिल खोलकर कवरेज दिया। लिज के लहंगे से लेकर नायर की शेरवानी तक पर कितना खर्च किया गया, सब पर मीडिया की नजर थी। नायर को जिस तरह से तवाो दी जा रही थी, उसे देखकर लग रहा था जैसे मुल्क की सल्तनत के किसी राजकुमार की वतन वापसी हुई है। और वो किसी राजकुमारी से शादी रचाने जा रहा है। पर हकीकत में न तो नायर ने राजकुमार जैसे कुछ काम किए और न ही हर्ले राजकुमारी के फ्रेम में फिट बैठती थीं। मीडिया वाले शादी में घराती भी बने और बराती भी,


डोली भी सजाई और स्टेज भी। शादी के वक्त किले के बाहर पहरेदार की भूमिका भी निभाई तो विदाई के वक्त आंसू भी बहाए। मगर अंत यहां भी कुछ फिल्मी अंदाज में ही हुआ। चंद लात और घूंसों से नायर दंपत्ति ने बिन बुलाए मेहमानों का स्वागत किया बैग में पहले से तैयार तख्तियां काम आ गईं। जिन समाचार चैनलों के पत्रकार पिट रहे थे वो बार-बार इस नजारे को दिखाए जा रहे थे और जिन समाचार पत्रों के पत्रकार ठुक रहे थे वो कल के लिए मैटर जुटाए जा रहे थे, इस आस में कि हर्ले-नायर के सॉरी कहते ही गिले-शिकवे दूर कर दिए जाएंग। जैसे बच्चन परिवार के साथ कर दिए गए थे। मगर अफसोस कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। नायर दंपत्ति ने उड़ान भरी और मीडियावालों को मुंह चिढ़ाते हुए निकल लिए। ऐसे ही करिश्मा कपूर की शादी के वक्त भी मीडियावालों को मुंह की खानी पड़ी थी। गनीमत रही कि सानिया-शोएब की शादी के वक्त ऐक्शन देखने को नहीं मिला। इसके पीछे जरूर दोनों परिवारों की नकरात्मक छवि रही। अगर प्यार में आयशा नाम का टि्वस्ट नहीं आता तो निश्वित ही मीडिया वाले लात-घूंसे खा रहे होते और प्रोग्राम दिखा रहे होते। बेगानी शादी में अब्दुल्ला की तरह दीवानगी दिखाने की मीडिया की आदत सी हो गई है और ये आदत हमें कभी कई और रोमांच महसूस करवाएगी।