नीरज नैयर
बीते दिनों ऐसे ही सड़क से गुजरते हुए कुछ लोग दिखाई दिए, उन्होंने अपनी बाइक के पिछले हिस्से में एक डंडा फंसाया हुआ था। जिसके दोनों तरफ मुर्गियों को बेतरतीबी से लटकाया गया था। मुर्गियां फड़फड़ा रही थीं, लटके-लटके उनकी आवाज ने भी शायद उनका साथ छोड़ दिया था। चंद पलों के लिए उनकी तड़पन दिखाई देती और फिर ऐसे खामोश हो जातीं जैसे कभी जान थी ही नहीं। थोड़ी ही देर में वो बाइक आंखों से ओझल हो गई, और एक आत्मग्लानी मन में लिए करोड़ों हिंदुस्तानियों की तरह मैं भी आगे बढ़ निकला। ऐसी दुर्दशा तो उस आलू-भिंडी-टमाटर की भी नहीं होती होगी जिसमें कोई जान नहीं होती। पर शायद मांस का व्यापार करने और खाने वालों की नजर में ये जीवित प्राणी निर्जीव वस्तु से भी गया गुजरा स्थान रखते हैं।
क्रूरता के कई मायने हैं और वो कई रूप में हमारे सामने आती है, लेकिन इस क्रूरता को क्या नाम दिया जाए। ये मैं आज तक समझ नहीं पाया हूं। इस वाकये ने कुछ साल पहले एक अखबार में छपी उन तस्वीरों की याद ताजा कर दी है, जिसकी भयावहता आज भी मेरे बदन में सिरहन पैदा कर देती है। वो तस्वीरें ईद के बाद प्रकाशित हुईं थीं। हाथों में धारधार हथियार लिए मुस्लिम समुदाय के लोग एक ऊंट पर प्रहार कर रहे थे, ऊंट के गले से खून की धारा बह रही थी और उसकी आंखों में दर्द का सैलाब उमड़ आया था। वो चीख रहा था मगर उसकी कद्रन कर देने वाली चीख उल्लास के शोर में दब गई थी। उन तस्वीरों को देखकर मेरे मुंह से सबसे पहले बस यही निकला था, आखिर ये कैसा त्योहार। कुर्बानी और बलि के नाम पर बेजुबानों को बेमौत मारा जाता है। मारने
वालों के पास अपने बचाव की तमाम दलीलें है, कोई इसे परवरदिगार का पैगाम कहता है तो कोई देवी का संदेश। लेकिन क्या इन दलीलों की प्रमाणिकता सिध्द की जा सकती है? जो मुस्लिम समुदाय कुर्बानी की बातें करता है वो हजरत मुहम्मद के जीवन से कुछ सीख क्यों नहीं लेता। हजरत साहब ने तो कभी किसी पशु-पक्षी को कष्ट पहुंचाने तक के बारे में भी नहीं सोचा।
बात करीब पंद्रह सौ साल पहले की है, अरब के रेगिस्तान से एक काफिला गुजर रहा था। कुछ दूर चलने के बाद काफिले के सरदार ने उचित स्थान का चुनाव कर रात में पड़ाव डालने का फैसला लिया। काफिले वालों ने ऊंटों पर लदा अपना-अपना सामान उतारा। कुछ देर के आराम के बाद उन्होंने नमाज अता की और खाना पकाने के लिए चूल्हे जलाना शुरू कर दिए। काफिले के सरदार एक चूल्हे के पास पड़े पत्थर पर बैठकर जलती हुई आग को निहारने लगे। अचानक ही उनकी निगाह चूल्हे के नजदीक बने चीटियों के बिल पर गई, जो आग की तपिश से व्याकुल होकर यहां यहां-वहां भागने के लिए रास्ता तलाश रहीं थीं। चीटियों की इस व्याकुलता ने सरदार को भी व्याकुल कर दिया। वो अपनी जगह से उठे और चीखकर बोले, आग बुझाओ, आग बुझाओ। उनके साथियों ने बिना कोई सवाल-जवाब किए तुरंत आग बुझा दी। सरदार ने पानी का छिड़काव कर चूल्हे को ठंडा किया ताकि चीटिंयों को राहत मिल सके। काफिले वालों ने अपना सामान उठाया और दूसरे स्थान की ओर चल निकले। उन चीटिंयों के लिए जिन्हें शायद हमनें कभी जीवित की श्रेणी में रखा ही नहीं होगा, चूल्हे बुझवाने वाले सरदार थे हजरत मुहम्मद। हजरत साहब ने हमेशा प्रेम और शांति का पाठ पढ़ाया। उन्होंने स्वयं कहा कि तुम समस्त जीव-जंतुओं पर दया करो, परमात्मा तुम पर दया करेगा।
सहाबी जाबिर बिन अब्दुल्ला को हजरत मोहम्मद का साथी माना जाता है। उन्होंने कहा है, एक बार हजरत साहब के पास से एक गधा गुजरा, जिसके चेहरे को बुरी तरह दागा गया था और उसके नथुनों से बह रहा खून उसके साथ हुई क्रूरता की कहानी बयां कर रहा था। गधे का दर्द देखकर हजरत साहब दुख और क्रोध में डूब गए, उन्होंने कहा, जिसने भी मूक जानवर को इस अवस्था में पहुंचाया है उसपर धिक्कार है। इस घटना के बाद हजरत मोहम्मद ने घोषणा की कि न तो पशुओं के चेहरे को दागा जाए और न ही उन्हें मारा जाए। याहया इब्ने ने भी हजरत मोहम्मद की करुणा और प्रेमभाव का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि एक दिन मैं मोहम्मद साहब के पास बैठा था, तभी एक ऊंट दौड़ता हुआ आया और साहब के सामने आकर बैठ गया। उसकी आंखों से अशु्रधारा बह रही थी। मोहम्मद साहब ने तुरंत मुझसे कहा, जाओ देखो ये किसका ऊंट है और इसके साथ क्या हुआ है। मैं किसी तरह ऊंट के मालिक को को खोजकर ले आया, मोहम्मद साहब ने उससे पूछा, क्या ये ऊंट तुम्हारा है? उसने इसपर अनभिग्ता जताई। उसने कहा, हम पहले इसे पानी ढोने के काम में इस्तेमाल किया करता था, पर अब ये बूढा हो चुका है और काम करने लायक नहीं है। इसलिए हमसब ने मिलकर फैसला लिया है कि इसे काटकर गोश्त बांट लेंगे।
हजरत साहब ने कहा, इसे मत काटो या तो इसे बेच दो या मुझे ऐसे ही दे दो। इसपर उस व्यक्ति ने कहा, जनाब आप इसे बगैर कीमत के ही रख लीजिए। मोहम्मद साहब ने उस ऊंट पर सरकारी निशान लगाया और उसे सरकारी जानवरों में शामिल कर लिया। हजरत ने उस व्यक्ति के लिए धिक्कार कहा है जो किसी जीव को निशाना बनाए। उन्होंने फरमाया है कि अगर कोई व्यक्ति गौंरेया को बेकार मारेगा तो कयामत के दिन वह अल्लाह को फरियाद करेगी कि इसने मुझे कत्ल किया था। हजरत मोहम्मद ने जानवरों से उनकी शक्ति से अधिक काम लेने को भी गलत बताया है। एक बार की बात है हजरत साहब ने देखा कि एक काफिला जाने की तैयारी कर रहा है। काफिले में शामिल एक ऊंट पर इतना बोझ लादा गया कि वो भार के बोझ तले दबा जा रहा था। हजरत साहब ने तुरंत उसका बोझ कम करने को कहा।
इस्लाम में एक चींटी की अकारण हत्या को भी पाप बताया गया है, बावजूद इसके कुर्बानी के नाम पर बेजुबानों को निर्दयीता से मौत के घाट उतार दिया जाता है। हजरत साहब ने कहा था, जिसके मन में दयाभाव नहीं, वह अच्छा मनुष्य नहीं हो सकता। इसलिए दया और सहानुभूति एक सच्चे मुसलमान के लिए जरूरी है। बात सिर्फ मुस्लिम समुदाय तक ही सीमित नहीं है, हिंदू धर्म में भी अंधी आस्था के नाम पर देवी-देवताओं को बलि चढ़ाई जाती है। आस्था और अंधविश्वास के बीच बहुत बड़ा फासला होता है, लेकिन अफसोस की लोग इसे समझना नहीं चाहते। आखिर खून का बोग लगाकर उसे कैसे प्रसन्न किया जा सकता है जो खुद दूसरों को जीवन देता है। जब तक ये बात लोगों को समझ में नही आती, खौफनाक वाकये यूं ही आखों के सामने से गुजरते रहेंगे और हम यूं ही आत्मग्लानी मन में लिए आगे बढ़ते चले जाएंगे।
(प्रदीप शर्मा के aर्तिक्ले के लिए सज्ञान के मुताबिक )