Friday, July 2, 2010

कश्मीर विवाद:जवानों को नहीं आवाम को संयम बरतना होगा

नीरज नैयर
कल्पना कीजिए की कुछ लोग आपको मार रहे हैं और अपने बचाव में यदि आप उनपर हाथ उठाते हैं तो आपकी भर्त्सना की जाती है, आपको दंडित किया जाता है। कश्मीर में तैनात केंद्रीय अर्ध सैनिक बल आजकल कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजर रहे हैं। सीआरपीएफ पर 11 नागरिकों को मारने का आरोप है, घाटी में फोर्स के खिलाफ जबरदस्त माहौल है। हर रोज प्रदर्शन हो रहे हैं, लाठी-डंड़ों से लैस प्रदर्शनकारी हालात काबू करने में लगे जवानों पर हमला बोल रहे हैं। सोपोर, बारामूला, श्रीनगर और अनंतनाग जैसे कुछ इलाकों की सड़कें ईंट-पत्थरों से पटी पड़ी हैं, कहीं टायर जल रहे हैं तो कहीं गाड़ियां। ये सारा फसाद कुछ दिनों पहले सीआरपीएफ की फायरिंग में एक युवक की मौत से शुरू हुआ। इस तरह के हालात घाटी में पहले भी बनते रहे हैं, लेकिन एक लंबी खामोशी के बाद अचानक इतना सब हो जाना किसी बड़ी साजिश की तरफ इशारा कर रहा है। बिल्कुल ऐसी ही स्थिति दो साल पहले इसी मौसम में बनी थी, जब अमरनाथ यात्रियों के लिए अस्थाई टैंट के नाम पर 25 एकड ज़मीन आवंटित की गई थी। इस बार भी अमरनाथ यात्रा के वक्त घाटी सुलग रही है।

दरअसल अलगाववादियों को अमरनाथ यात्रा के रूप में अपनी आवाज बुलंद करने और पाकिस्तान के पक्ष में माहौल बनाने का सुनहरा मौका मिल जाता है। पाकिस्तान सेना भी इस मौके की तलाश में रहती है ताकि दहशत फैलाने वालों को सीमा पार करवाई जा सके। पिछले साल अगर अमरनाथ यात्रा शांतिपूर्ण तरीके से हो गई तो इसके पीछे मुंबई हमला है। मुंबई हमले के बाद दोनों देशों के बीच पैदा हुए तनाव ने पाक हुक्मरानों को कश्मीर के बारे में सोचने का मौका ही नहीं दिया। अलगाववादी ताकतें भी समर्थन के अभाव में खामोश बैठी रहीं। लेकिन अब मुंबई हमले का मामला पूरी तरह से ठंडे बस्ते में जा चुका है। पाक पर अब न तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय का दबाव है और न ही भारत सरकार उसके प्रति कड़े रुख पर अडिग है। दोनों मुल्कों के बीच विश्वास बहाली के नाम पर लंबे समय से रुकी बातचीत का सिलसिला फिर से शुरू हो चुका है। ऐसे में सीमा पार से कश्मीर में बैठे अलगाववादियों को अपने हिसाब से नियंत्रित करने में पाकिस्तान को कोई नुकसान नहीं। पाक इस बात को अच्छे से समझता है कि कश्मीर जितना सुर्खियों में रहेगा, उतना ही भारत पर दबाव पड़ेगा। पिछले बीस-पच्चीस दिनों से जारी हिंसा की खबरें भारत और पाकिस्तान के साथ-साथ विदेशी मीडिया में भी प्रमुखता से आ रही हैं। सरकार सेना की सहायता लेने पर विचार कर रही है और संभव है कि एक-दो दिनों पर इस पर अमल भी कर दिया जाए। कश्मीर जैसी घाटी में जहां अशांति आग की तरह फैलती है, सेना दूसरे केंद्रीय बलों और राय पुलिस की अपेक्षा स्थिति से बेहतर तरीके से निपट सकती है। इसलिए यहां ये कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि केंद्र सरकार ने घाटी से सेना को हटाकर अशांति के प्रवेश के लिए खुद ही दरवाजे खोले थे। राय के मुख्यमंत्री उमर अब्दुला यूपीए सरकार के सहयोगी हैं और राय में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस गठबंधन की सरकार है। संभवत: इस करके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सेना हटाने के उमर के प्रस्तावों पर सहमत होते गए। मौजूदा वक्त में भी उमर अबदुल्ला के सीआरपीएफ को बेकाबू बल कहने का केंद्र सरकार समर्थन कर रही है।

यदि उमर के इस कथन को मान भी लिया जाए तो फोर्स के बेकाबू होने का जिम्मेदार कोई और नहीं कश्मीर का आवाम है। कर्फ्यू तोड़कर कानून का उल्लंघन करने वाले, सुरक्षाबलों पर पथराव करने वाले क्या निर्दोषों की श्रेणी में आ सकते हैं। 25 जून से 30 जून तक सीआरपीएफ के दर्जनों जवान घायल हुए, क्या इसे जनता का बेकाबूपन नहीं कहा जाएगा। एक रोज पहले एक एजेंसी द्वारा जारी की गई तस्वीर में साफ नजर आ रहा था कि हिंसक और बेकाबू कौन हैं। कुछ लोग मिलकर लाठी-डंड़ों से एक जवान को पीटते हैं, अखबारों में प्रमुखता से उस दर्शय को प्रकाशित किया जाता है लेकिन राय के मुख्यमंत्री को कुछ नजर नहीं आता। उमर अबदुल्ला महज वोट बैंक को बचाने की खातिर आंख पर पट्टी बांधे बैठें और वो ही बोल रहे हैं जो अलगवावादी उनसे बुलवाना चाहते हैं। पीडीपी इस मुद्दे को उमर सरकार की असफलता के तौर पर भुनाने की कोशिश में लगी है और उमर इस प्रयास से भटकने वाले वोटों को सुरक्षाबलों के खिलाफ बयान देकर पुन: अपने करीब लाने की सोच रहे हैं। जो लोग गोलीबारी में मारे गए हैं उनमें छह साल का एक बच्चा भी शामिल है। अलगाववादी इस बात को भी मुद्दा बना रहे हैं कि सुरक्षा बल बच्चों तक को नहीं छोड़ रहे। मौत चाहे बच्चे की हो या बड़े की किसी का भी जाना मातम और रोष लेकर आता है। लेकिन सवाल यहां ये है कि आखिर एक छह साल का बच्चे को उस भीड़ का हिस्सा किसने बनने दिया। बच्चे के मां-बाप को भी इस बात का इल्म होगा कि कर्फ्यू तोड़कर आगे बढ़ने वाली भीड़ का सुरक्षाबल फूलों से स्वागत नहीं करेंगे बावजूद इसके जाने दिया गया। कहा जाता है कि भीड़ की कोई शक्ल नहीं होती, तो फिर कैसे उम्मीद की जा सकती है कि उसे नियंत्रित करने वाले चेहरा और उम्र देख-देखकर कार्रवाई करेंगे। अलगाववादी और आतंकवादी अपने हितों की पूर्ति के लिए बच्चों का इस्तेमाल कर रहे हैं और अगर उनके मां-बाप इसको जायज मानते हैं तो फिर विलाप किस बात का। केंद्र सरकार को सीआरपीएफ को संयम बरतने के निर्देश देने से पहले जरा हालातों पर बारीकी से गौर करना चाहिए। हजारों की संख्या में मरने-मारने पर उतारू लोगों को महज लाठी के बल पर काबू में नहीं लाया जा सकता। अपने ऊपर हमला होने के बाद भी सामने वाले को जिंदा जाने देने से बड़ा संयम और क्या हो सकता है। यदि जवानों ने संयम नहीं बरता होता तो मरने वालो ंकी तादाद कई गुना यादा पहुंच गई होती। संयम बरतने की जरूरत सीआरपीएफ को नहीं बल्कि उन कश्मीरियों को है जो अलगाववाद की धारा में बेफिजूल बहे जा रहे हैं।