नीरज नैयर
काफी वक्त पहले मैंना ऐसा ही एक लेख लिखा था और आज भी कुछ ऐसी ही जरूरत महसूस हो रही है. इसका कारण है कुछ लोगों की मानसिकता, हालांकि मैं जानता हूं कि ऐसे हजारों लेख भी उनकी सोच में कोई खास परिवर्तन नहीं लाने वाले. पर फिर भी प्रयास करते रहना हमारा दायित्व है. मुझे अक्सर सुबह जल्दी उठने से परहेज रहा है, इसकी वजह मीडिया से जुड़े लोग बखूबी जानते हैं. लेकिन कल जब ऐसे ही आंख खुली तो फिर सोने का मन नहीं हुआ. इसलिए मैं यूं ही घूमने निकल गया, घर के थोड़ी सी दूरी पर एक पार्क है, जहां अमूमन बचपन के दिनों में मैं दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलने आया करता था.
कुछ देर टहलने के बाद मैं पास ही लगी एक बैंच पर बैठ गया, वहां पहले से ही कुछ लोग विराजे हुए थे. वो लोग शायद किसी चर्चा में व्यस्त थे, धीरे-धीरे उनकी बातें मेरे कानों तक भी पहुंचने लगी. जिसे सुनकर मुझे दुख भी हुआ और अफसोस भी. एक जनाब जो काफी तैश में बोल रहे थे उनके अल्फाज मैं हू ब हू आपके सामने रखना चाहूंगा. 'यार ये सड़क के कुत्तों ने नाक में दम कर रखा है, रात बेराते गला फाड़ना शुरू कर देते हैं, जैसे इनकी मां मर गई हो. मेरा तो मन करता है कि पीट-पीटकर इनकी जान निकाल डालूं. सड़क पर इन्हें देखकर मुझे घिन आती है. यार तुम्हारी तो नगर निगम में अच्छी खासी जान पहचान है, इन्हें यहां से उठाकर किसी नाले-वाले में क्यों नहीं फिकवा देते'.
ऐसे लोगों के लिए मैंने अपना जवाब कुछ इस तरह तैयार किया है:
गाहे-बगाहे यह आवाज उठती रहती है कि आवारा कुत्तों को सिर्पुद-ए-खाक कर देना चाहिए, ठीक उसी तरह से जैसे मुर्गियों को बर्ड-फ्लू के डर से किया गया. कुत्ते रैबीज फैलाते हैं, नींद में खलल डालते हैं इसलिए उन्हें जीने का कोई हक नहीं. दलीलें तो यहां तक दी जाती हैं कि गली-मोहल्लों में घूमते आवारा कुत्तों से डर लगता है. अतऱ् उन्हें सजा-ए-मौत दी जानी चाहिए. पर ऐसी सजा की दरयाफ्त करने वालों ने कभी चश्मा उतारकर एक-एक निवाले को तरसते कुत्तों को गौर से देखा है. भुखमरी के शिकार बेचारे किसी कोने में चुपचाप पड़े रहते हैं. पास आओ तो भाग खड़े होते हैं.
वो खुद इतने डरे होते हैं कि कभी-कभी तो अपने अक्स से भी घबरा जाते हैं. फिर भला ये निरीह किसी को क्या डराएंगे. जो खुद डरा हुआ हो वो किसी को डरा भी कैसे सकता है. कुत्ते सदियों से ही वफादारी की परंपरा को निभाते आए हैं. वो बात अलग है कि मनुष्य जानकर भी अंजान बना रहता है. बेचारे लात खाते हैं, गाली खाते हैं मगर सोते उसी चौखट पर हैं जहां उन्हें कभी आसरा मिला था. मनुष्य भले ही विलासिता के समुंदर में मानवता की गठरी बहाकर क्रूर और निर्दयी बन बैठा हो मगर ये बेजुबान आज भी प्यार का अथाह सागर अपने छोटे से दिल में समाए बैठे हैं. प्यार के बदले प्यार कैसे किया जाता है, यह इनसे बेहतर भला कौन समझा सकता है. मनुष्य हमेशा से ही अपनी जरूरतों के मुताबिक रिश्तों की उधेड़बुन करता रहा है. जिन उंगलियों के सहारे वह चलना सीखता है वक्त निकल जाने के बाद उन्हें झटकने में एक पल की भी देर नहीं करता. जिन कंधों पर बैठकर वह दुनिया देखता है उन कंधों को कंधा देना भी अपना धर्म नहीं समझता. मनुष्य सिर्फ ढोंग करता है.
बचपन में सच्चा बनने का और जवानी में अच्छा बनने का, लेकिन बेजुबान, वे बेचारे न तो ढोंग का मतलब जानते हैं और न ही छल-कपट उन्हें आता है. उन्हें आता है तो बस प्यार करना. लाख मारो, लाख सताओ फिर भी एक पुचकार पर उसी स्नेहभाव और आदर के साथ आपका सम्मान करेंगे जैसा हमेशा करते रहे हैं. रंग बदलने की प्रवृत्ति न तो उनमें कभी थी और न ही कभी होगी. यह काम तो मनुष्य का है. कुत्तों को इंसान का दोस्त समझा जाता है मगर चकाचौंध और ऐशोआराम से भरी मनुष्य की जिंदगी में इस बेजुबान दोस्त के लिए कोई जगह नहीं. गली-मोहल्लों में किसी तरह अपना गुजर-बसर करने वाले आवारा कुत्ते भी अब उसकी आंखों में खटकने लगे हैं. अभी कुछ वक्त पहले भोपाल, बेंगलुरु और उसके बाद जम्मू-कश्मीर में जिस निर्दयता से आवारा कुत्तों को मौत के घाट उतारा गया, ऐसा काम तो सिर्फ इंसान ही कर सकता है. गले में रस्सी बांधकर बड़ी निर्ममता के साथ उन्हें घसीटकर ऐसे गाड़ी में फेंका गया, जैसे वो कोई कूड़े की गठरी हों. बेचारे चीखते रहे, चिल्लाते रहे, अपनी जिंदगी की भीख मांगते रहे, मगर किसी को दया नहीं आई. इन बेजुबानों का कसूर सिर्फ इतना था कि वो शहर के सौंदर्यीकरण में फिट नहीं बैठ रहे थे. मनुष्य शक्तिशाली है, उसे किसी भी बेजुबान को मारने का हक है, पर उसे ये हक किसने दिया? शायद भगवान ने तो नहीं. सृष्टि की रचना के वक्त ईश्वर ने अन्न बांटने से पूर्व सबसे पहले कुत्तों को बुलाकर कहा, पृथ्वी का सारा अन्न मैं तुम्हें देता हूं, पर कुत्तों ने निवेदन किया कि इतने अन्न का हम क्या करेंगे? अन्न आप मनुष्य को दे दीजिए.
वो खाने के बाद जो कुछ भी बचाएगा हम उससे गुजारा कर लेंगे. बदि्कस्मती से मनुष्य खाता तो खूब है मगर कुत्तों के लिए बचाता बिल्कुल नहीं. खाने की हर दुकान के सामने बेचारे टकटकी लगाए इस उम्मीद में बैठे रहते हैं कि शायद मनुष्य को उनके हाल पर दया आ जाए, पर अमूमन ऐसा होता नहीं. टिन के पिचके हुए डब्बे की माफिक पतला-सा पेट, आंखों में डर और खामोशी लिए बेचारे एक-एक दाने के लिए यहां-वहां भटकते रहते हैं. कुछ रुखा-सूखा मिल गया तो ठीक वरना भूखे ही सो जाते हैं, पर वफादारी और प्यार के जबे पर कभी भूख को हावी नहीं होने देते. ऐसे निरीह को बेतुकी दलीलों और शहर के सौंदर्यीकरण की खातिर मौत की नींद सुला देना क्या हम इंसानों को शोभा देता है?