Wednesday, February 2, 2011

इच्छामृत्यु क्यों न हो कानूनी

नीरज नैयर
कुछ वक्त पहले गुजारिश नाम की एक फिल्म आई थी। रितिक रोशन और ऐश्वर्या राय अभीनीत यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर तो कुछ खास नहीं कर पाई, लेकिन इसके लंबे वक्त से चला आ रही इच्छामृत्यु या यूथनेशिया की चर्चा को एक बार फिर से गर्म कर दिया। फिल्म में रितिक ने एक जादूगर का किरदार निभाया है जो बाद में लकवे का शिकार हो जाता है। चलने-फिरने में पूरी तरह असमर्थ यह जादूगर अदालत से इच्छामृत्यु की गुहार लगाता है, जिसे बार-बार ठुकरा दिया जाता है। परिवार के अलावा कोई भी इस फैसले में उसका साथ नहीं देता। हालांकि दर्द के सैलाब के बीच ऐश्वर्या के रूप में उसे जिंदगी जीने का एक बहाना मिल जाता है, बाकी हिंदी फिल्मों की तरह काफी हद तक इस फिल्म का अंत भी खुशनुमा ही रहा। लेकिन, हकीकत में जिंदगी के सताए हुए लोगों की जिंदगी का अंत शायद इतना अच्छा नहीं होता। हाल ही में बलात्कार की शिकार एक महिला ने सुप्रीम कोर्ट से इच्छामृत्यु की गुहार लगाई है। यह महिला पिछले 36 सालों से दिमागी तौर पर मृत है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो एक जिंदा लाश। अरुणा नाम की इस महिला के साथ 1973 में बलात्कार किया गया। पेशे से नर्स अरुणा को अस्पताल में सफाई कर्मचारी ने क्रूरता और दरिंदगी की सारी हदें पार करते हुए हवस का शिकार बनाया, अरुणा के गले में जंजीर डालकर उसे पलंग से बांधा गया, उसके शरीर को भूखे भेड़िए की तरह नोचा गया। इस घटना के बाद से अरुणा की जिंदगी बिस्तर पर पड़ी पत्थर की मूर्ति की माफिक बनकर रह गई है, फर्क बस इतना है कि इस मूर्ति में जान है। अब सवाल ये उठता है कि क्या इस याचिका को भी गुजारिश के जादूगर की याचिका की तरह खारिज कर दिया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका 2009 में आई थी, कोर्ट ने अब इस मुद्दे पर अटॉर्नी जनरल से राय मांगी है। साथ ही अदालत ने तीन डॉक्टरों की एक टीम भी गठित की है, जो अरुणा की दशा पर रिपोर्ट सौपेंगी। भारत में इच्छामृत्यु को कानूनी मान्यता नहीं है, इस लिहाज से इस बात की संभावना बेहद कम है कि सुप्रीम कोर्ट कोई नजीर पेश करेगा। एक ऐसा व्यक्ति जिसने अपनी जिंदगी के तीन दशक बिस्तर पर पड़े-पड़े गुजार दिए हों, उसे जिंदा रखना क्या उसके साथ अन्याय नहीं होगा। जो पहले से ही मर चुका हो, उसे फिर से मौत देना मौत की रस्म अदायगी से यादा और क्या हो सकता है। वैसे ये कोई पहला मामला नहीं है, जिदंगी से मात खाने वाले बहुत से लोग अपनी मर्जी से दुनिया छोड़ने की मांग कर चुके हैं। दो साल पहले उत्तर प्रदेश के एक व्यक्ति ने राष्ट्रपति को पत्र लिखकर अपने बच्चों के लिए इच्छामृत्यु मांगी थी। 10 से 16 साल की उम्र के यह बच्चे अपने पैरों पर खड़े होने तक में असमर्थ थे, उनके शरीर के अधिकतर अंगों (खासकर गर्दन के नीचे के) ने काम करना बंद कर दिया था। 2008 में हिमाचल प्रदेश की एक इंजीनियर ने दुनिया छोड़ने की इच्छा जाहिर की थी। सीमा नाम की इस इंजीनियर ने अपनी जिंदगी के 13 अनमोल साल एक कमरे में ही गुजार दिए। उसके शरीर के अधिकतर अंग अर्थराइटिस से ग्रस्त थे, कंधे, कोहनी और कमर के नीचे का हिस्सा पूरी तरह निष्क्रीय बन गया था। सीमा ने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट से लेकर मुख्यमंत्री तक गुहार लगाई। ऐसे ही 2004 में एक मां ने अपने 24 साल के बेटे के लिए मौत मांगी थी, ताकि उसके अंगों को दान किया जा सके। शतरंज खिलाड़ी वेंकटेश की जिंदगी लाइफ सपोर्ट सिस्टम के सहारे चल रही थी, डॉक्टर तक उसके ठीक होने की उम्मीद छोड़ चुके थे। इन सारे मामलों में जिंदगी मौत से भी यादा बदतर है , ये लोग यादा जीए तो ताउम्र सिर्फ जिंदगी को कोसते रहेंगे।

मौत का इंतजार करना दुनिया में शायद सबसे कठिन काम है, और ये लोग इसी इंतजार से गुजर रहे हैं। ऐसे में इन्हें जिंदगी से मुक्ति क्यों नहीं मिलनी चाहिए। निश्चित तौर पर कोर्ट के साथ-साथ ऐसे बहुत से लोग होंगे जो कभी भी यूथनेशिया के लिए तैयार नहीं होंगे। इसके पीछे कई कारण हैं, सबसे पहला तो यही कि अगर इच्छामृत्यु को कानूनी मान्यता मिल गई तो इसके दुरुपयोग की आशंका हमेशा बनी रहेगी। इसके अलावा हर वो व्यक्ति जो नाकामयाबी और नकरात्मकता के दौर से गुजर रहा है, इच्छामृत्यु उसके लिए छुटकारे का आसान साधन बन जाएगी। दुनिया के कुछ मुल्कों में यूथनेशिया को कानूनी मान्यता प्रदान की गई है, जिनमें नीदरलैंड, नोर्वे, स्वीडन, फिनलैंड, बेल्जियम, लैक्समबर्ग, अल्बानिया, हॉलैंड, स्वीट्जलैंड, थाईलैंड और अमेरिका के उत्तरप्रश्चिम में स्थित ओरेजन शामिल हैं। इनमें हॉलैंड का रिकॉर्ड सबसे यादा खराब है। आंकड़ों पर यदि विश्वास किया जाए तो 1990 में यहां इच्छामृत्यु के नाम पर करीब 1030 मरीजों को बिना उनकी सहमति के मौत की नींद सुला दिया गया। वहीं, तकरीबन 22,500 मरीजों की मौत लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाए जाने से हुईं। ये आंकड़े इच्छामृत्यु की वकालत करने वाले कदमों को पीछे खींचने की ताकत रखते हैं, मगर इसके बावजूद यह एक ऐसा गंभीर विषय है जिसके बारे में विचार किए जाने की जरूरत है। सिर्फ इसलिए कि यूथनेशिया को कानूनी जामा पहनाने पर उसके दुरुपयोग की आशंका बढ़ जाएगी, उन लोगों को जिंदा रखकर तड़पने नहीं दिया जा सकता जिनकी पूरी जिंदगी दूसरों पर बोझ बन जाए। इच्छामृत्यु को लेकर हमारे देश में लंबे समय से बहस चली आ रही है, लेकिन इस बहस का अब तक कोई नतीजा नहीं निकला है। समय के साथ बदलाव जरूरी हो जाते हैं, इसलिए इस मुद्दे पर बदलाव की दिशा में भी कदम आगे बढ़ाए जाने चाहिए।

इसके साथ-साथ हमारे कानूनी ढंाचे में बहुत कुछ ऐसा है जिसमें बदलाव की जरूरत है, हमारे यहां खुदकुशी की कोशिश करने वाले पर मुकदमा चलाया जाता है। यानी जो बेचारा जिंदगी से आजिज आकर मौत को आलिंगन करने में असफल रहा हो उसे कानून पचड़ों में उलझाकर जीते-जी मारने का पूरा बंदोबस्त किया गया है। क्या वास्तव में इसकी कोई जरूरत है। कानून के जानकर इसके समर्थन में बहुत से कारण गिना सकते हैं, पर मुझे व्यक्तिगत तौर पर ऐसा लगता है कि जब हमें जिंदगी की दूसरे फैसले लेने का अधिकार है तो फिर हम कब दुनिया को अलविदा कहेंगें यह भी हमें ही तय करने दिया जाए। वैसे भी खुदकुशी जैसा कदम उठाना या मौत की मांग कोई ऐसा ही व्यक्ति कर सकता है जिसके लिए जिंदगी के कोई मायने नहीं बचे हों, तो फिर उसे जबरदस्ती जिंदा रहने को मजबूर करना कहां तक जायज है। इस बारे में न केवल गौर करने की बल्कि इससे आगे बढ़ने की भी जरूरत है।