Thursday, September 1, 2011

कहां तक वाजिब है अन्ना और गांधी की तुलना



अन्ना के आंदोलन की अलोचना का सिलसिला अनशन खत्म होने के बाद भी खत्म नहीं हुआ है। जिन लोगों के मन में इस आंदोलन की खिलाफत में थोड़ी बहुत कसर रह गई थी, उसे वो अब पूरा कर रहे हैं। इन आलोचकों में अरुंधति राय सबसे आगे हैं, वैसे तो लालू यादव जैसे राजनीतिज्ञ भी आंदोलन को गलत करार दे रहे हैं मगर ये उनकी महज खीज है। कुछ लोगों को इसमें भी आपत्ति है कि अन्ना की तुलना महात्मा गांधी से की जा रही है। उनके मुताबिक गांधी देश की आजादी के लिए लड़े थे। इसे सोच का फर्क कह सकते हैं, ऐसे लोगों के लिए शायद आजादी के मायने गैरों के चुंगल से मुक्त होना भर है। अगर अंग्रेजों के जाने के बाद भी हमारे अधिकारों का हनन हो रहा है, हमारी आवाज को दबाया जा रहा है, हमारे हितों की अनदेखी की जा रही है तो हम अब भी गुलाम हैं। फर्क बस चमड़ी का है। वैसे मेरे नजरीय में भी अन्ना का आंदोलन गांधी के आंदोलन से अलग है, लेकिन मेरे मायने जुदा हैं। गांधी के आंदोलन की शुरूआत उनके साथ हुए गलत आचरण से शुरू हुई। जबकि अन्ना ने जन-जन की समस्या को मुद्दा बनाया। इस बात में कोई दोराय नहीं कि जिस पीड़ा से गांधीजी गुजरे उसी दर्द का अनुभव हजारों-लाखों भारतीय भी कर रहे थे। लेकिन यदि बापू को ट्रेन से न उतारा गया होता तो शायद वो आजादी की लड़ाई के अगुवा नहीं होते। गांधीजी उन दिनों दक्षिण अफ्रिका में थे, उन्हें फस्र्ट क्लास का टिकट होने के बाद भी थर्ड क्लास में जाने को कहा गया, जब उन्होंने ऐसा नहीं किया तो ट्रेन से बाहर कर दिया गया। ऐसे ही एक दूसरे मामले में बग्घी ड्राइवर ने गांधीजी के साथ महज इसलिए मारपीट की क्योंकि उन्होंने यूरोपियन यात्री को जगह देने से मना कर दिया। इन सबके अलावा दक्षिण अफ्रिका के कई होटलों में गांधीजी का प्रवेश प्रतिबंधित था, डरबन के मजिस्ट्रेट ने तो उन्हें पगड़ी उतारने तक का फरमान भी सुना दिया था, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। ये कुछ ऐसी घटनाएं थी, जिन्होंने गांधीजी को अन्याय और रंगभेद के खिलाफ आवाज उठाने पर मजबूर किया। यहां मजबूरी काबिले-गौर शब्द है।

गांधीजी ने देश के लिए जो किया, उसे कोई नहीं भुला सकता। आजादी में उनका योगदान हमेशा याद किया जाता रहेगा। विरोध का अहिंसक हथियार महात्मागाधी की ही देन है। लेकिन ये याद उस मजबूरी की भी याद दिलाती रहेगी। अब अन्ना की बात करें तो उन्हें भ्रष्टाचार से त्रस्त आम जनता का दर्द व्यक्तिगत अनुभव से नहीं हुआ, उन्होंने आस-पास जो होते देखा-सुना उसके खिलाफ लामबंद हो गए। फिर भी गांधी और अन्ना की तुलना को कहीं से भी जायज नहीं कहा जा सकता। तुलना करने से हम किसी को थोड़ा ऊपर, और किसी को थोड़ा नीचे कर देते हैं। जो गांधी ने किया वो अन्ना नहीं कर सकते और जो अन्ना कर रहे हैं उसे करने के लिए गांधी हमारे बीच हैं ही नहींं। इसलिए दोनों में अंतर निकालना या समानता बताना दोनों ही गलत हैं। बात केवल अन्ना के आंदोलन पर केंद्रित होनी चाहिए। अरुंधति राय मानती हैं कि अन्ना के समर्थन में सड़कों पर जनसैलाब का उमड़ाना हैरान करने वाला नहीं है, क्योंकि इससे ज्यादा भीड़ वो कश्मीर में देख चुकी हैं। कश्मीर को देश के बाकी इलाकों को जोड़कर देखना अरुंधति की सबसे पहली मूर्खता है। घाटी में जो हालात हैं, उसके लिए पाक परस्त हुर्रियत जिम्मेदार है। जहां तक बात भीड़ के उमडऩे की है तो, कश्मीरियों को इस्लाम के नाम पर आजादी का नारा बुलंद करने का पाठ पढ़ाया जा रहा है। धर्म के नाम पर भीड़ कैसे जुटती है, ये बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान देश देख चुका है। शरीर पर बम बांधकर अपने को उड़ा लेने और हंसते-खेलते जान निछावर करने का परिणाम भले ही मौत हो, मगर दोनों के आश्य अलग हैं। कश्मीर में जुटने वाली भीड़ बम बांधे हुए लोगों की तरह है, जो दूसरों के इशारों पर प्रतिक्रिया करती है जबकि अन्ना के समर्थन में उतरे लोग अपनी मर्जी से सड़क पर आए। अरुंधति को सबसे पहले इन दोनों के बीच का फर्क समझने की जरूरत है। आंदोलन के अहिंसक स्वरूप पर अरुंधति कहती हैं कि इसकी वजह पुलिस का डर था। यानी अगर पुलिस डरी नहीं होती तो आंदोलन को अहिंसक नहीं कहा जा सकता था।

आजादी के दौर में गांधीजी के आंदोलनों को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने कई बार जुल्म ढहाए मगर फिर भी उन आंदोलनों को अहिंसक कहा गया। इसलिए अगर पुलिस बेखौफ होती तो ये जरूरी नहीं कि लोग भी रक्तपात पर उतर आते। जनता के धैर्य और उत्तेजना को काबू रखना बेहद मुश्किल काम है, लेकिन अन्ना ने इस मुश्किल को आसान कर दिखाया। कम से कम इसके लिए तो उनकी तारीफ की ही जानी चाहिए। अरुंधति अन्ना के आंदोलन को मिले मीडिया कवरेज पर भी सवाल उठा रही हैं, इस लेखिका को लगता है कि कुछ चैनलों को साधकर आंदोलन को प्रमोट किया गया। ये बात बिल्कुल सही है कि आंदोलन की सफलता में मीडिया की भूमिका काफी अहम रही, पर क्या इसका ये मतलब निकाला जाना चाहिए कि सबकुछ पेड था। मीडिया मसाले की तलाश में रहता है, और अन्ना के आंदोलन में उसे वो मसाला मिला। आम जनता सिर्फ और सिर्फ अन्ना के बारे में जानना चाहती थी। चाय की दुकान से लेकर दफ्तरों तक में अन्ना की चर्चा थी, ऐसे में मीडिया कुछ और दिखाता या पढ़ाता भी तो कैसे। इस विवादास्पद लेखिका को इस बात पर भी ऐतराज है क लोगों ने हाथ में तिरंगे लेकर वंदेमातरम के नारे क्यों लगाए। बकौल अरुंधति वंदेमातरम का सांप्रदायिक इतिहास रहा है। इस्लाम में मूर्ति पूजा की मनाही है, इसी तर्क को लेकर शाही इमाम ने मुस्लिमों से आंदोलन से दूर रहने को कहा, मगर मुसलमान पहले से भी ज्यादा तादाद में अन्ना का साथ देने पहुंचे। जिन दो बच्चियों ने अन्ना का अनशन तुड़वाया वो भी मुस्लिम थीं। तो फिर इसमें सांप्रदायिकता की बात कहां से आ गई। जब मुस्लिमों को इन नारों के बीच भी खुद को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का हिस्सा बनाने पर कोई ऐतराज नहीं तो फिर अरुंधति ऐतराज जताने वाली कौन होती हैं। अरुंधति और उनके जैसे दूसरे लोग आलोचना की बीमारी से ग्रस्त हैं, इन्हें माओवादियों का रक्तपात, हुर्रियत के देश विरोधी नारे तो सुहाते हैं, लेकिन किसी अन्ना जैसे आम आदमी से जुड़े आंदोलन नहीं। अच्छी बात ये है कि जनता ने भी ऐसे लोगों को गंभीरता से लेना बंद कर दिया है। उसे समझ आ गया है कि ये लोग सुर्खियों में आने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। अन्ना ने जो काम किया है, उसके आगे ये अलोचनाएं कहीं नहीं टिकतीं। वैसे भी हर अच्छी पहल को अंजाम तक पहुंचने से पहले विरोध के दरिया से गुजरना ही पड़ता है।