Wednesday, September 17, 2008

गुस्ताव की गुस्ताखी का कुसूरवार कौन

नीरज नैयर
कैरोबियाई देशों में तबाही मचाने के बाद अब समुद्री तूफान गुस्ताव अमेरिका के लिए दहशत बना हुआ है. गुस्ताव को तूफानों का बाप कहा जा रहा है. मौसम विज्ञानी भी इसकी भयावहता से हैरान हैं. वैसेयह कोई पहला मौका नहीं है जब समुद्र से तबाही की खौफनाक तस्वीर सामने आई हो. बीते दिनों म्यांमार में कहर ढ़ाने वाला नर्गिस और अमेरिका को रुलाने वाला कैटरीना भी आमतौर पर शांत रहने वाले समुद्र का रौद्र रूप था. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर गुस्ताव जैसे समुद्री तूफानों की गुस्ताखी का कुसूरवार कौन है. या इन्हें महज प्राकृतिक आपदा कहकर हम अपना पल्ला झाड़ सकते हैं. शायद नहीं. गुस्ताव, नर्गिस और कैटरीना जैसे तूफान महज प्राकृतिक आपदा नहीं बल्कि मानव की कारगुजारियों का ही नतीजा है. ग्लोबल वार्मिंग एक ऐसी सच्चाई है जिसे जानकार भी हम अंजान बने बैठे हैं.


प्रकृति से छेड़छाड़ के अनगिनत खौफनाक चेहरे हमारे सामने आ चुके हैं बावजूद इसके विकास की अंधी दौड़ में हम पर्यावरण संतुलन की बातों को हम हवा में उडाए जा रहे हैं. अफसोस की बात तो यह है कि इस अहम् मसले पर ठोस समाधान निकालने के बजाए विकसित और विकासशील देश आपसी लड़ाई में उलझे हैं. अमेरिका कार्बन उत्सर्जन के लिए भारत और चीन आदि देशों को दोषी ठहरा रहा है, तो भारत अमेरिका को. अमेरिका का तर्क है कि विकसित बनने की होड़ में विकासशील देश पर्यावरण को अंधाधुंध तरीके से नुकसान पहुंचा रहे हैं. जबकि विकसाशील देशों का कहना है कि अमेरिका आदि देश अपने गिरेबां में झांके बिना दूसरों पर दोषारोपण कर रहे हैं. जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए दिसंबर 2007 में बाली में हुआ सम्मेलन भी इसी नोंक-झोंक की भेंट चढ़ गया था. पिछली एक सदी में आबादी में इजाफे, बढ़ते औद्योगिकीकरण और प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के चलते पारिस्थितिकीय संतुलन खत्म होने लगा है. जिसके चलते गंभीर खतरे उत्पन्न हो रहे हैं


ग्लोबल वार्मिंग के चलते पृथ्वी के तापमान में लगातार हो रही वृद्धि विनाश को जन्म दे रही है. इंटरगवर्मेन्टल पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज (आईपीसीसी) ने 2007 की अपनी रिपोर्ट में साफ संकेत दिया था कि जलवायु परिवर्तन के चलते तूफानों की विकरालता में वृद्धि होगी और ऐसा बाकायदा हो रहा है. 1970 के बाद उत्तरी अटलांटिक में ट्रोपिकल तूफानों में बढ़ोतरी हुई है तथा समुद्र के जलस्तर और सतह के तापमान में भी वृद्धि हो रही है. लोबल वार्मिंग की वजह से समुद्र के तापमान में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 100 फीट पर ही तापमान पहले ही अपेक्षा कहीं अधिक गर्म हो गया है.


पिछले कुछ सालों में महासागर का तापमान सामान्य स्तर से करीब 20 गुना यादा गर्म पाया गया है. भारतीय समुद्र क्षेत्र का भी जलस्तर पहले से कहीं यादा तेजी से बढ़ रहा है.अभी तक के आकलनों के अनुसार इसमें सालाना 1 मिलीमीटर की बढ़ोत्तरी हो रही थी लेकिन ताजा आकलन बताता है कि अब यह बढ़ोत्तरी सालाना 2.5 मिमी की दर से हो रही है. भारत का समुद्र तट 7500 किलोमीटर लंबा है और देश की 35 फीसदी आबादी समुद्र के तटों पर बसी हुई है. यानी 36-37 करोड़ लोगों के लिए भविष्य में खतरा उत्पन्न हो सकता है. जलस्तर में इजाफे के साथ-साथ समुद्र का तापमान भी बढ़ रहा है. इस सदी के म य तक यानी 2050 तक समुद्र के तापमान में 1.5-2 डिग्री तक की बढ़ोतरी हो जाएगी. जबकि सदी के अंत तक यह बढ़ोतरी 2.3-3.5 डिग्री तक की होगी. ये आंकड़े चिंता पैदा करने वाले हैं. क्योंकि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ के इंटरगवर्मेन्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में कहा गया है कि बीसवीं सदी के दौरान समुद्र के जलस्तर में कुल 1.7 मिमी की बढ़ोतरी हुई है. दूसरे, जलस्तर में सालाना बढ़ोतरी सिर्फ 0.5 फीसदी की रही है. 1993-2003 के दौरान समुद्र के जलस्तर में बढ़ोतरी 0.7 मिमी सालाना रही है, जबकि ताजा आंकड़े इससे कहीं यादा भयावह हैं. जलवायु परिवर्तन के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं जिससे समुद्र का जलस्तर लगातार बढ़ता जा रहा है. हिमालय से लेकर अंटार्कटिक तक लेशियरों का पिघलना जारी है. ग्लेशियरों के पिघलने के प्रमुख कारणों में से एक जहरीले रसायन डीडीटी के अंधाधुंध इस्तेमाल को भी माना जा रहा है. हालांकि अब इसका इस्तेमाल काफी कम हो गया है. लेकिन दो दशक पहले तक पूरी दुनिया में बतौर कीटनाशक इसका खूब इस्तेमाल होता था.

वैज्ञानिकों का कहना है कि हवा के साथ डीडीटी के अंश ग्लेशियरों तक पहुंचते हैं और ऊंचे ग्लेशियरों की बर्फ में भंडारित होते रहते हैं जो अब बर्फ को गलाकर पानी बना रहे हैं. हाल में किए गए शोध में अंटार्कटिक में पाए जाने वाले पेंगुइन के रक्त में डीडीटी के अंश मिले हैं. इस आधार पर वैज्ञानिकों का दावा है कि ग्लेशियरों में अभी भी डीटीटी के कण मौजूद हैं जो इनके पिघलने का कारण बन रहे हैं. अंटार्कटिक में पिछले 30-40 सालों के दौरान ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार तेज हुई है तथा औसत तापमान में छह डिग्री की बढ़ोतरी हुई है. हाल के वर्षों में जिस तेजी से दुनिया में जलवायु परिवर्तन हो रहा है उतनी तेजी से पिछले 10 हजार वर्षों में कभी नहीं हुआ. वर्तमान में कार्बन उत्सर्जन की दर को अगर नियंत्रित नहीं किया गया तो वर्ष 2050 तक दुनिया का औसत तापमान दो डिग्री बढ़ जाएगा. जिससे समुद्र तल का स्तर भयंकर रफ्तार से बढ़ेगा, आंधियों और तूफान के साथ-साथ असहनीय गर्मी भी झेलनी पड़ेगी. इन आपदाओं में से कई सच्चाई बन कर हमारे सामने अब तक आ चुकी हैं.


दक्षिणी एशिया में पहले भीषण बाढ़ से लोगों का सामना बीस सालों में एक बार होता था लेकिन हाल के दशकों में पांच सालों में लोगों को भीषण बाढ़ की तबाही झेलनी पड़ती है. यह दुखद है कि ग्लोबल वार्मिंग को नजरअंदाज करने का खामियाजा भुगतने के बाद भी हम इसे लेकर सचेत नहीं हो रहे हैं. जलवायु परिवर्तन को महज सरकार की जिम्मेदारी कहकर भी नहीं टाला जा सकता. हर व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी स्वयं उठानी होगी.

नीरज नैयर
9893121591