Tuesday, August 16, 2011

संसद नहीं जनता सर्वोच्च



नीरज नैयर
अभी हाल ही में एक फिल्म देखी, इस फिल्म में हीरो को फंसाने के लिए पुलिस वाले तलाशी के नाम पर उसकी जेब में ड्रगस रख देते हैं और फिर उसी ड्रगस को दिखाकर उसे गिरफ्तार कर लेते हैं। अन्ना हजारे के साथ भी सरकार कुछ ऐसा ही करने की कोशिश कर रही है। छह साल पुराने मामले को उठाकर सरकार ये बताना चाहती है कि भ्रष्टाचार मिटाने की बात करने वाले अन्ना खुद भ्रष्टचार में लिप्त हैं। अन्ना की पीएम को चि_ी के दूसरे दिन जिस तरह से सरकार के तीन-तीन बड़े मंत्री और कांग्रेस ने हजारे पर हमला बोला उससे ये साफ होता है कि सरकार उन्हें फंसाना चाहती है। हालांकि उस स्थिति में नहीं है, जिस स्थिति में फिल्म के पुलिसवाले थे। फिल्म में हीरो अकेला था, लेकिन अन्ना के साथ पूरा देश खड़ा है। सिर्फ देश ही नहीं विदेशों में भी इस गांधीवदी नेता के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं। जिस जस्टिस सावंत की रिपोर्ट का हवाले देकर सरकार अन्ना को भ्रष्ट बताने में लगी है, उस रिपोर्ट पर अन्ना के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। अगर अन्ना हजारे भ्रष्ट थे तो कार्रवाई होनी चाहिए थी। दरअसल, अन्ना ने महाराष्ट्र सरकार के चार मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टचार के आरोप लगाए थे। इन आरोपों से तिलमिलाए एक मंत्री ने भी अन्ना पर यही आरोप लगाया। दोनों आरोपों की जांच के लिए जस्टिस सावंत की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति ने 2005 में विधानसभा को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट के आधार पर तीन मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा, मगर अन्ना के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसका सीधा सा मतलब निकलता है कि अन्ना पर लगे आरोपों का कोई आधार नहीं मिला होगा। वरना जो सरकार अपने तीन मंत्रियों को कुर्बान कर सकती है, भला क्या वो आरोप लगाने वाले अन्ना को बेदाग छोड़ सकती थी?

सरकार ने अन्ना के पिछले सारे रिकॉर्ड खंगाले यहां तक कि उनके सेना के दिनों की भी जानकारी जुटाई, लेकिन जब कुछ नहीं मिला तो उसने जस्टिस सावंत की रिपोर्ट को हथियार बनाया। संभव है आने वाले दिनों में सरकार अन्ना पर कुछ और गंभीर आरोप लगाए, इन आरोपों को साबित करने के लिए वो कुछ दलीलें भी पेश करे। सरकार के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है, वो सच को झूठ और झूठ को सच में बदल सकती है। अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों का हाल वो बाबा रामदेव की तरह कर देती है। कल तक बाबा पूरे जोश के साथ कालाधन वापस लाने की मांग किया करते, मगर अब ऐसे खामोश हैं जैसे उन्होंने ये मुद्दा कभी उठाया ही नहीं। इस खामोशी के पीछे उनकी भी मजबूरी है। सरकार ने कई एजेंसियों को बाबा के पीछे साय की तरह लगा दिया है, वो सांस भी लेते हैं तो सरकार को पता चल जाता है कि उनकी धड़कनें कितनी तेज चलीं। सरकार कहती है कि अन्ना और उनकी टीम की मांगे नाजायज हैं, उन्हें अनशन करने का हक नहीं। कानून जनप्रतिनिधि बनाते हैं, संसद सर्वोच्च है आदि. आदि। अगर अन्ना की मांगे नाजायज हैं तो सरकार पहले उनपर राजी कैसे हो गई। उसे अन्ना का अनशन तुड़वाने के लिए रजामंदी का दिखावा करना ही नहीं चाहिए था। देश का कोई भी नागरिक सरकार के इस तर्क से सहमत नहीं हो सकता, आखिर अन्ना की मांगों में ऐसा क्या है जो जायज नहीं।

सिविल सोसाइटी का जनलोकपाल बिल प्रधानमंत्री और न्यायापालिका को दायरे में रखने की मांग करता है, क्या ये नाजायज है। प्रधानमंत्री या जज कोई दूध के धुले नहीं होते, पैसा उनका ईमान भी ढिगा सकता है। ऐसे तमाम उदाहरण हमारे पास मौजूद हैं। राजीव गांधी से लेकर नरसिंहराव तक पर पीएम रखते वक्त आरोप लगे। सब्बरवाल से लेकर केजी बालकृष्णन तक ने चीफ जस्टिस रहते वक्त भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना किया। क्या ये आरोप ऐसे ही लग गए, कहीं न कहीं तो कुछ न कुछ गड़बड़ रहा होगा तभी इतने उच्च पदों पर विराजमान लोगों पर इतने गंभीर आरोप लगे। जहां भ्रष्टाचार है वहां लोकपाल को जांच करने की अनुमति क्यों नहीं दी जा सकती? जहां तक बात अन्ना को अनशन करने के हक की है तो ये देश के हर व्यक्ति का अधिकार है। संविधान में इसकी इजाजत दी गई है तो फिर सरकार इस अधिकार को कैसे छीन सकती है। गांधी जी ने भी अहिंसक तरीके से सत्याग्रह किया, अगर उस सत्याग्रह के लिए गांधी को पिता का दर्जा दिया जा सकता है तो अन्ना को कम से कम सम्मान के साथ अनशन करने का हक तो मिलना ही चाहिए। सरकार कहती है कि कानून बनाने का अधिकार जनप्रतिनिधियों को है और संसद सर्वोच्च है। इस बात में कोई दोराय नहीं कि कानून जनप्रतिनिधि ही बना सकते हैं, लेकिन वो जनप्रतिनिधि जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। जनता ने उन्हें ये अधिकार दिया है। और अगर जनता अधिकार दे सकती है तो उन अधिकारों के गलत इस्तेमाल का विरोध भी कर सकती है।

लोकतंत्र में संसद को सर्वोच्च नहीं कहा जा सकता, ये बात ब्रिटेन जैसे देशों पर लागू हो सकती है जहां राजा-रानी की भी सरकारी फैसलों में दखलंदाजी होती है। लेकिन भारत में नहीं। देश की जनता अपना प्रतिनिधित्व करने वालों को संसद भेजती है, वो प्रतिनिधि मिलकर संसद चलाते हैं तो संसद सर्वोच्च कैसे हो गई। सर्वोच्च संसद नहीं बल्कि जनता है, अगर जनता प्रतिनिधि न चुने तो संसद इस काम की। जनता को और अन्ना हजारे को इस बात का पूरा अधिकार है कि वो सरकार के कामकाज एवं नीतियों के खिलाफ सड़क पर उतरकर अनशन कर सकें। इस अधिकार को सरकार चाहकर भी नहीं छीन सकती। कहने को भारत में लोकतंत्र है, लेकिन जिस तरह से सरकार अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों को ठिकाने लगाने में लगी है उससे इस लोकतंत्र के मायने ही बदल गए हैं। हमने सिफ लोकतंत्र का चोला ओढ़ा है, अंदर से हमारी मानसिकता तानाशाही वाली है। चीन, म्यांमार और भारत में फर्क केवल इतना ही कि वहां सरकार की मुखालफत करने वालों को सबके सामने कुचलकर रख दिया जाता है जबकि हमारे यहां पर्दे के पीछे रहकर खेल खेला जाता है।

ऐसे लोकतंत्र से अच्छा है तानाशाही, कम से कम लोगों को इस बात का भ्रम तो नहीं रहेगा कि उन्हें आवाज उठाने का हक है। अन्ना हजारे जो कुछ भी कर रहे हैं, उससे भले ही भ्रष्टाचार पूरी तरह खत्म न हो, लेकिन इस पहल की जरूरत थी। सरकार को इस बात का आभास होना ही चाहिए कि जनता सर्वोच्च है और उसकी मर्जी भी कुछ मायने रखती है। सरकार हर वक्त जनता को नहीं हांक सकती, बात चाहे भ्रष्टाचार की हो या महंगाई की सरकार अपनी मनमर्जी के हिसाब से काम करती आई है और उसकी मनमर्जी का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। अन्ना आम जनता की आवाज बनकर उभरे हैं, इस आवाज को बुलंद रखना हमारी भी जिम्मेदारी है और इसे हजारे की मुहिम में शामिल होकर ही बुलंद रखा जा सकता है।

संसद नहीं जनता सर्वोच्च



नीरज नैयर
अभी हाल ही में एक फिल्म देखी, इस फिल्म में हीरो को फंसाने के लिए पुलिस वाले तलाशी के नाम पर उसकी जेब में ड्रगस रख देते हैं और फिर उसी ड्रगस को दिखाकर उसे गिरफ्तार कर लेते हैं। अन्ना हजारे के साथ भी सरकार कुछ ऐसा ही करने की कोशिश कर रही है। छह साल पुराने मामले को उठाकर सरकार ये बताना चाहती है कि भ्रष्टाचार मिटाने की बात करने वाले अन्ना खुद भ्रष्टचार में लिप्त हैं। अन्ना की पीएम को चि_ी के दूसरे दिन जिस तरह से सरकार के तीन-तीन बड़े मंत्री और कांग्रेस ने हजारे पर हमला बोला उससे ये साफ होता है कि सरकार उन्हें फंसाना चाहती है। हालांकि उस स्थिति में नहीं है, जिस स्थिति में फिल्म के पुलिसवाले थे। फिल्म में हीरो अकेला था, लेकिन अन्ना के साथ पूरा देश खड़ा है। सिर्फ देश ही नहीं विदेशों में भी इस गांधीवदी नेता के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं। जिस जस्टिस सावंत की रिपोर्ट का हवाले देकर सरकार अन्ना को भ्रष्ट बताने में लगी है, उस रिपोर्ट पर अन्ना के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। अगर अन्ना हजारे भ्रष्ट थे तो कार्रवाई होनी चाहिए थी। दरअसल, अन्ना ने महाराष्ट्र सरकार के चार मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टचार के आरोप लगाए थे। इन आरोपों से तिलमिलाए एक मंत्री ने भी अन्ना पर यही आरोप लगाया। दोनों आरोपों की जांच के लिए जस्टिस सावंत की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इस समिति ने 2005 में विधानसभा को अपनी रिपोर्ट सौंपी। रिपोर्ट के आधार पर तीन मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा, मगर अन्ना के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसका सीधा सा मतलब निकलता है कि अन्ना पर लगे आरोपों का कोई आधार नहीं मिला होगा। वरना जो सरकार अपने तीन मंत्रियों को कुर्बान कर सकती है, भला क्या वो आरोप लगाने वाले अन्ना को बेदाग छोड़ सकती थी?

सरकार ने अन्ना के पिछले सारे रिकॉर्ड खंगाले यहां तक कि उनके सेना के दिनों की भी जानकारी जुटाई, लेकिन जब कुछ नहीं मिला तो उसने जस्टिस सावंत की रिपोर्ट को हथियार बनाया। संभव है आने वाले दिनों में सरकार अन्ना पर कुछ और गंभीर आरोप लगाए, इन आरोपों को साबित करने के लिए वो कुछ दलीलें भी पेश करे। सरकार के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है, वो सच को झूठ और झूठ को सच में बदल सकती है। अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों का हाल वो बाबा रामदेव की तरह कर देती है। कल तक बाबा पूरे जोश के साथ कालाधन वापस लाने की मांग किया करते, मगर अब ऐसे खामोश हैं जैसे उन्होंने ये मुद्दा कभी उठाया ही नहीं। इस खामोशी के पीछे उनकी भी मजबूरी है। सरकार ने कई एजेंसियों को बाबा के पीछे साय की तरह लगा दिया है, वो सांस भी लेते हैं तो सरकार को पता चल जाता है कि उनकी धड़कनें कितनी तेज चलीं। सरकार कहती है कि अन्ना और उनकी टीम की मांगे नाजायज हैं, उन्हें अनशन करने का हक नहीं। कानून जनप्रतिनिधि बनाते हैं, संसद सर्वोच्च है आदि. आदि। अगर अन्ना की मांगे नाजायज हैं तो सरकार पहले उनपर राजी कैसे हो गई। उसे अन्ना का अनशन तुड़वाने के लिए रजामंदी का दिखावा करना ही नहीं चाहिए था। देश का कोई भी नागरिक सरकार के इस तर्क से सहमत नहीं हो सकता, आखिर अन्ना की मांगों में ऐसा क्या है जो जायज नहीं।

सिविल सोसाइटी का जनलोकपाल बिल प्रधानमंत्री और न्यायापालिका को दायरे में रखने की मांग करता है, क्या ये नाजायज है। प्रधानमंत्री या जज कोई दूध के धुले नहीं होते, पैसा उनका ईमान भी ढिगा सकता है। ऐसे तमाम उदाहरण हमारे पास मौजूद हैं। राजीव गांधी से लेकर नरसिंहराव तक पर पीएम रखते वक्त आरोप लगे। सब्बरवाल से लेकर केजी बालकृष्णन तक ने चीफ जस्टिस रहते वक्त भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना किया। क्या ये आरोप ऐसे ही लग गए, कहीं न कहीं तो कुछ न कुछ गड़बड़ रहा होगा तभी इतने उच्च पदों पर विराजमान लोगों पर इतने गंभीर आरोप लगे। जहां भ्रष्टाचार है वहां लोकपाल को जांच करने की अनुमति क्यों नहीं दी जा सकती? जहां तक बात अन्ना को अनशन करने के हक की है तो ये देश के हर व्यक्ति का अधिकार है। संविधान में इसकी इजाजत दी गई है तो फिर सरकार इस अधिकार को कैसे छीन सकती है। गांधी जी ने भी अहिंसक तरीके से सत्याग्रह किया, अगर उस सत्याग्रह के लिए गांधी को पिता का दर्जा दिया जा सकता है तो अन्ना को कम से कम सम्मान के साथ अनशन करने का हक तो मिलना ही चाहिए। सरकार कहती है कि कानून बनाने का अधिकार जनप्रतिनिधियों को है और संसद सर्वोच्च है। इस बात में कोई दोराय नहीं कि कानून जनप्रतिनिधि ही बना सकते हैं, लेकिन वो जनप्रतिनिधि जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। जनता ने उन्हें ये अधिकार दिया है। और अगर जनता अधिकार दे सकती है तो उन अधिकारों के गलत इस्तेमाल का विरोध भी कर सकती है।

लोकतंत्र में संसद को सर्वोच्च नहीं कहा जा सकता, ये बात ब्रिटेन जैसे देशों पर लागू हो सकती है जहां राजा-रानी की भी सरकारी फैसलों में दखलंदाजी होती है। लेकिन भारत में नहीं। देश की जनता अपना प्रतिनिधित्व करने वालों को संसद भेजती है, वो प्रतिनिधि मिलकर संसद चलाते हैं तो संसद सर्वोच्च कैसे हो गई। सर्वोच्च संसद नहीं बल्कि जनता है, अगर जनता प्रतिनिधि न चुने तो संसद इस काम की। जनता को और अन्ना हजारे को इस बात का पूरा अधिकार है कि वो सरकार के कामकाज एवं नीतियों के खिलाफ सड़क पर उतरकर अनशन कर सकें। इस अधिकार को सरकार चाहकर भी नहीं छीन सकती। कहने को भारत में लोकतंत्र है, लेकिन जिस तरह से सरकार अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों को ठिकाने लगाने में लगी है उससे इस लोकतंत्र के मायने ही बदल गए हैं। हमने सिफ लोकतंत्र का चोला ओढ़ा है, अंदर से हमारी मानसिकता तानाशाही वाली है। चीन, म्यांमार और भारत में फर्क केवल इतना ही कि वहां सरकार की मुखालफत करने वालों को सबके सामने कुचलकर रख दिया जाता है जबकि हमारे यहां पर्दे के पीछे रहकर खेल खेला जाता है।

ऐसे लोकतंत्र से अच्छा है तानाशाही, कम से कम लोगों को इस बात का भ्रम तो नहीं रहेगा कि उन्हें आवाज उठाने का हक है। अन्ना हजारे जो कुछ भी कर रहे हैं, उससे भले ही भ्रष्टाचार पूरी तरह खत्म न हो, लेकिन इस पहल की जरूरत थी। सरकार को इस बात का आभास होना ही चाहिए कि जनता सर्वोच्च है और उसकी मर्जी भी कुछ मायने रखती है। सरकार हर वक्त जनता को नहीं हांक सकती, बात चाहे भ्रष्टाचार की हो या महंगाई की सरकार अपनी मनमर्जी के हिसाब से काम करती आई है और उसकी मनमर्जी का खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। अन्ना आम जनता की आवाज बनकर उभरे हैं, इस आवाज को बुलंद रखना हमारी भी जिम्मेदारी है और इसे हजारे की मुहिम में शामिल होकर ही बुलंद रखा जा सकता है।

Sunday, August 7, 2011

शेयर बाजार में गिरावट: डरने नहीं, मुनाफ कमाने का वक्त



नीरज नैयर
शेयर बाजार के हालात इस वक्त गमगीन हैं, गमगीन इसलिए कि एक दिन में निवेशकों को 1.33 लाख करोड़ का नुकसान उठाना पड़ा है। इस एक लाख 33 हजार करोड़ में हजारों छोटे-बड़े निवेशकों का पैसा डूबा होगा। जो बड़े हैं, वो किसी तरह इस मार को सह जाएंगे लेकिन जिन्होंने अभी चलना सीखा था या जो छोटे-छोटे कदम बढ़ाने की हैसीयत रखते हैं उनके लिए इससे उबरना बहुत मुश्किल होगा। बाजार में इस तरह का माहौल अचानक ही बनता है, लेकिन उसके पीछे की वजह अचानक जन्म नहीं लेती। मौजूदा गिरावट अमेरिका में आर्थिक मंदी की आशंका से आई है, अमेरिका पर कर्ज बढ़ता जा रहा है। हालांकि कर्ज माफी बिल पर सहमति तो बन गई है, लेकिन बोझ इतना ज्यादा है कि मंदी का खतरा जल्द टलने वाला नहीं। बस, इसी खतरे के चलते निवेशक घबराए हुए हैं और बाजार गिर रहे हैं। भारत ही नहीं, अमेरिका सहित कई देशों के बाजार में नरमी का रुख है। यहां, सोचने वाली बात ये है कि अगर आशंका बाजार को दो साल पीछे ले जा सकती है तो आशंका के सच होने की दशा में क्या हाल होंगे। ऐसी स्थिति में अमूमन निवेशक भारी नुकसान से बचने के लिए धड़ाधड़ बिकवाली करते हैं, उन्हें लगता है कि आज बेच लो कल मौका मिले न मिले। ये मानसिकता सामान्य बाजार में तो कारगर हो सकती है, लेकिन शेयर बाजार बिल्कुल अलग है।

धड़ाधड़ बिकवाली, एक मामूली से बीमार इंसान को आईसीयू में पहुंचाने जैसी है। निवेशकों की घबराहट पूरे के पूरे बाजार को जार-जार कर देती है, और जाहिर है ऐसी स्थिति से निकलने में वक्त लगता है। शेयर बाजार में पूंजी निवेशकर मुनाफा कमाना हमेशा लॉंग टर्म इनवेस्टमेंट रहा है, लेकिन बीते कुछ सालों में शॉट टर्म इनवेटरों की भरमार हो गई है। ऐसे लोगों की तादाद काफी ज्यादा है, जिनकी नजर में शेयर कम वक्त में प्रॉफिट गेन का बहुत बढिय़ा विकल्प है। इस बढिय़ा विकल्प की सोच ने ही ऐसे निवेशकों की लंबी-चौड़ी फौज खड़ी कर दी है जो बाजार में पैसा लगाते हैं और हल्की सी आशंका मात्र पर ही अपने हाथ खींच लेते हैं। नतीजतन, एक्सप्रेस की रफ्तार से दौड़े जा रहे बाजार की स्पीड पैसेंजर की माफिक हो जाती है। शेयर बाजार में निवेश धैर्य का खेल है, जिस किसी को ये खेल समझ आ गया उसके लिए मुनाफा कमाना कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन अफसोस कि इसे समझने में लोग अक्सर चूक कर जाते हैं। गिरावट के वक्त हमेशा समझदारी से काम लेना चाहिए। धड़ाधड़ बिकवाली के बजाए जिन शेयरों में आपको मुनाफे की संभावना बेहद कम नजर आ रही हो केवल उन्हें ही निकालना चाहिए। अन्यथा थोड़े समय के लिए खामोश बैठने में ही भलाई है। शेयर बाजार में कभी एक जैसा रुख नहीं रहता, आज नरमी है तो कल अच्छे दिन भी आएंगे।

पिछली बार जब विश्व ने आर्थिक मंदी का सामना किया था तब भी शेयर बाजार एक ही झटके में कई साल पीछे पहुंच गया था। लेकिन फिर भी उसने वापसी की, धीरे-धीरे ही सही मगर वो पुराने मुकाम तक पहुंच गया। इसलिए ये सोच लेना कि बाजार गर्त में चला गया नादानी और बेवकूफी के सिवा कुछ नहीं। बाजार में मंदी के बादल ज्यादा दिनों तक नहीं टिक सकते। हमारे यहां एक और धारणा है कि जब कभी भी बाजार गोते लगाता है, अच्छे से अच्छे निवेशक भी हाथ बांधे खड़े हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि अगर अब निवेश किया तो ताउम्र पछताना पड़ेगा। जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है। सही मायनों में देखा जाए तो खरीददारी का ये सबसे सुनहरा मौका है, ऐसे मौके बार-बार नहीं मिला करते। ये एक तरह से कभी-कभी लगने वाली बंपर सेल की तरह है, अगर आप सेल का लाभ लेने से नहीं चूकते तो फिर यहां घबराहट किस बात की? उदाहरण के तौर पर यदि आपके घर के बाहर कोई सब्जी वाला दो रुपए किलो टमाटर की आवाज लगाए तो क्या आप सिर्फ ये सोचकर कि कल तक तो 20 रुपए किलो थे आज दो रुपए कैसे हो गए, उसे जाने देंगे। शायद नहीं। तो फिर जब बड़ी-बड़ी कपंनियों के शेयर आलू-टमाटर के भाव मिल रहे हैं तो उनमें निवेश करने में बुराई क्या है? गिरावट के वक्त किया गया निवेश ज्यादा मुनाफे कमाने का नायाब तरीका है, वैसे जोखिम की संभावना तो हर पल बनी रहती है। लेकिन इस वक्त जोखिम का प्रतिशत काफी कम हो जाता है। हां, इसके लिए आपको धैर्य से काम लेना होगा। ऐसा बिल्कुल नहीं होगा कि आपने आज निवेश किया और कल आपको उसके दोगुने मिल जाएं।

यदि ऐसी सोच लेकर शेयर बाजार में किस्मत आजमाना चाहते हैं तो बेहतर होगा सोने-चांदी में निवेश करें। दीवाली आने वाली है, लिहाजा सोने-चांदी के रुख में नरमी के संकेत दूर-दूर तलक नजर नहीं आते। ऐसा संभवत: पहली बार हुआ है कि शेयर बाजार में गिरावट के बावजूद सोने के दामों में तेजी आई हो। सेंसेक्स के साथ अगर चलना है तो आपको धैर्य से काम लेना सीखना होगा। सस्ते दामों में आज खरीदे गए शेयर आने वाले कुछ वक्त में बेहतर प्रॉफिट दे सकते हैं। फिर भी निवेश करने से पहले अध्ययन जरूरी है। कुछ दिनों तक मार्केट को वॉच करें, जिन कंपनयिों के शेयर आप खरीदना चाहते हैं उनपर नजर रखें। जिन शेयरों में उतार-चढ़ाव ज्यादा हो रहा हो, उन्हें खरीदने में समझदारी है। उतार-चढ़ाव का मतलब दोनों बातों से है, मसलन, आज भाव बढ़ गए, कल गिरे तो परसों फिर चढ़ गए। ऐसे शेयर उन कंपनियों के शेयरों से ज्यादा मुनाफा दिला सकते हैं जो एक जगह काफी वक्त तक स्थिर हैैं। जिस तरह के हालात हैं, उसमें स्टॉक मार्केट अभी एक गोता और लगा सकता है। लिहाजा बाजार में निवेश की बेहतर संभावनाएं कुछ और वक्त तक बरकरार रहने वाली हैं। शेयर बाजार में उतरने से पहले लॉंग टर्म इनवेस्टमेंट की मानसिकता बनाएं, शॉट टर्म में कभी-कभी तत्कालिक फायदा तो हो सकता है, मगर नुकसान की संभावना भी हमेशा बनी रहती हैं। एक और बात जो सीखना बहुत जरूरी है, वो ये कि जब बाजार गिरावट की दिशा में जा रहा हो, निवेश करने से नहीं चूकें। जाने-माने इनवेस्टर वॉरेन बफेट ने कहा है, जब लोग डर रहे हों, तब आप लालची बन जाओ और जब लोग लालची हों तब आप थम जाओ। इसी लाइन पर आगे चलते हुए बफेट ने शेयर बाजार से बहुत कमाया, वो दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति का खिताब भी हासिल कर चुके हैं। अगर बफेट जैसा विशेषज्ञ कुछ कह रहा है तो निश्चित तौर पर उसके पीछे कुछ तर्क होंगे। इसलिए टीवी चैनलों पर छाय मातम से माहौल से बाहर निकलकर आगे की सोचें। इस वक्त शेयर बाजार से जुड़े लोग डरे हुए हैं, यानी निवेश का बेहतर माहौल है।

Wednesday, August 3, 2011

धुरंधरों की पराजय और मीडिया का मिजाज


नीरज नैयर
मीडिया के भी क्या कहने, पल में किसी को राजा बना दे और पल में उसी राजा की हालत रंक से भी बदतर कर दे। यही वजह है कि राजनेताओं से लेकर फिल्म कलाकारों तक हर कोई इस बिरादरी को साधकर चलना चाहता है। और जो ऐसा करने में असफल रहता है उसका हाल मायावती की माफिक हो जाता है। भले ही उत्तर प्रदेश को सर्वोत्तम प्रदेश बताने वाले लाखों रुपए के विज्ञापन चैनलों या अखबारों में आय दिन नजर आ जाते हों, लेकिन माया फिर भी मीडिया के निशाने पर रहती हैं। आमतौर पर यही धारणा है कि खबरिया बाजार में विज्ञापन फेंकने से मीडिया वाले राजा बनाने की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं, मगर असलीयत शायद इससे थोड़ी अलग है। अगर ऐसा न होता तो मायावती को भी किसी रानी की तरह पेश किया जा रहा होता। फिलहाल तो मीडिया ने उनकी छवि खलनायिका जैसी बना दी है। भट्टर परसौल को लेकर राहुल गांधी के दावों की हवा निकलने के बाद भी मायाराज को हिटलरशाही करार दिया गया। भूमि अधिग्रहण को लेकर यूपी सरकार की नीतियों पर प्रहार किया गया, खबरिया चैनलों ने तो घंटों इस मुद्दे के सहारे निकाल दिए। अभी हाल ही में बलात्कार के मामलों को लेकर भी ऐसा दर्शाया गया, जैसे इस तरह के कृत्य कहीं और होते ही न हों। खैर, ये मीडिया है जो चाहे कर सकता है। जो मीडिया जिंदा को मुर्दा बता दे और माफी भी न मांगे, उसकी तारीफ के लिए शब्द खोजे से भी न मिलेंगे। फिलहाल तो खबरिया बाजार में धोनी एंड कंपनी छायी हुई है, लेकिन नाकारात्मक कारणों से। इंगलैंड की फर्राटा पिचों पर भारतीय खिलाडिय़ों के समर्पण की दास्तान हर चैनल की बड़ी खबर है, चैनल के साथ-साथ अखबार वाले भी आलोचनाओं के शब्दों से खिलाडिय़ों की आरती उतार रहे हैं। वैसे कुछ हद तक इसमें कोई बुराई भी नहीं है। हमारे विश्वविजेता ऐसे खेल रहे हैं, जैसे गल्ली-मोहल्ले में बच्चे खेला करते हैं।

बच्चे भी एक बार के लिए इस बड़े-बड़े नाम वाली टीम से अच्छा खेल लेते हों। क्योंकि उनका पूरा ध्यान सिर्फ खेल पर होता है, जबकि हमारे क्रिकेटरों के पास विज्ञापनों की शूटिंग से लेकर रैंप पर चलने जैसे सैंकड़ों काम होते हैं। लाड्र्स पर खेले गए ऐतिहासिक मैच में हमारे धुरंधर ताश के पत्तों की तरह बिखर गए, इस बिखरने को वार्मअप माना गया। अक्सर टीम इंडिया की तुलना अमिताभ बच्चन से की जाती है, जिस तरह बिग-बी गुजरे जमाने में पहले मार खाते थे फिर मार खिलाते थे उसी तरह टीम इंडिया पहला मैच हारने के बाद वापसी करती है। ऐसी आम धारणा बन गई है। किसी भी हिंदुस्तानी से पूछो, वो यही कहेगा कि अगले मैच में हमारे खिलाड़ी जान लगा देंगे। कई मौकों पर ऐसा हुआ भी है, लेकिन इंगलैंड के सामने ये धारणा गलत साबित हुई। जिन गलतियों के चलते पहले मैंच में मुंह की खानी पड़ी, दूसरे मैच में उन गलतियों का प्रतिशत पहले से भी ज्यादा रहा। थोड़ी-बहुत जो इज्जत बची वो सिर्फ राहुल द्रविड़ की वजह से, वही राहुल द्रविड़ जिन्हें मौजूदा टीम के कुछ खिलाड़ी विदा होते देखना चाहते हैं। क्रिकेट के तमाम प्रशंसक भी इस दीवार को नगर निगम द्वारा खड़ी की गई जर्जर दीवार की तरह देखने लगे थे, लेकिन राहुल ने साबित किया कि दीवार में सीमेंट और बालू का बेजोड़ मिश्रण है। दोनों मैचों में उन्होंने शतक जमाए, टेंटब्रिज में तो वो मात्र ऐसे खिलाड़ी थे जो आखिरी तक संघर्ष करते नजर आए। हांलाकि सचिन तेंदुलकर ने भी अद़र्धशतक जमाया, लेकिन उसकी तुलना राहुल की पारी से नहीं की जा सकती। अ्रगर दूसरे छोर से विकेट गिरने का सिलसिला जारी न होता तो निश्चित तौर पर टीम एक सम्मानजनक बढ़त ले सकती थी। इन दो मैचों में सबसे ज्यादा खराब प्रदर्शन किसी का रहा तो वो कप्तान धोनी का। उन्हें देखकर ऐसा महसूस ही नहीं हुआ कि वो विकेट पर टिकने के इरादे से आए हैं। सही मायनों में कहा जाए तो उन्होंने बल्ला थामकर क्रीज तक आने की महज रस्मअदायगी की। टेंटब्रिज में जब भारत को उनसे बड़ी और लंबी पारी खेलने की उम्मीद थी, तब कप्तान साहब बिना खाता खोले ही पवैलियन लौट गए। सबसे ज्यादा हैरानी की बात तो ये है कि हार के लिए अपने प्रदर्शन को जिम्मेदार ठहराने के बजाए उन्होंने थकान का तर्क दिया।

धोनी का कहना है कि अत्याधिक दौरों के चलते थकान खिलाडिय़ों की क्षमताओं पर हावी हो रही है। इसमें कोई दोराय नहीं कि विश्वकप के बाद से हमारे खिलाड़ी लगातार खेले जा रहे हैं, ऐसे में थकावट होना स्वाभिक है। लेकिन इस थकावट का असल स्त्रोत दौरे नहीं बल्कि आईपीएल है। वल्र्ड कप जीतने के बाद खिलाड़ी चाहते तो आराम कर सकते थे, किसी ने उनके सिर पर बंदूक नहीं तानी थी कि उन्हें खेलना ही पड़ा। तकरीबन दो महीने तक चले आईपीएल में टीम इंडिया के धुरंधरों ने धना-धना रन बरसाए। तब उन्हें थकावट महसूस नहीं हुई, मगर जब बात वेस्टइंडीज जाने की हुई तो सचिन सहित कई खिलाडिय़ों को काम आराम याद आ गया। इसलिए धोनी महाश्य अपनी नाकामी का ढीकरा थकान पर नहीं फोड़ सकते। लचर प्रदर्शन के लिए उन्हें स्वयं जिम्मेदारी लेनी होगी। बतौर कप्तान धोनी के इस तरह के बयान दूसरे खिलाडिय़ों को भी अपनी नाकामी छिपाने का मौका देने वाले साबित होंगे। आज कप्तान ये बोल रहा है, कल बाकी खिलाड़ी भी यही राग गाएंगे। बेतहर तो ये होता कि धोनी सहजता से खामियों को स्वीकारते। खैर, अब वापस मीडिया के रुख पर चलते हैं। धोनी एंड कंपनी की हार का सबसे गहरा सदमा शायद मीडिया को लगा है और इस सदमे से निकलने के लिए वो टीम इंडिया के कथित धुरंधरों को खलनायक बताने में लगी है। यहां सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि जो खिलाड़ी कल तक मीडिया के लिए हीरो की तरह थे, जिनके नाम पर घंटों तक दर्शकों-पाठकों को झिलाया जाता रहा, क्या एक-दो हार से वो इतने बुरे हो गए कि उन्हें खलनायक साबित किया जा रहा है। अव्वल तो मीडिया को किसी का गुणगान करने से पहले थोड़ा-बहुत सोच विचार करना चाहिए, और अगर सोचने के लिए उसके पास भी दिमाग की कमी है तो कम से कम एकदम से किसी को इतना नीचे नहीं गिराना चाहिए।

कल तक मीडिया की नजरों में धोनी दुनिया के सबसे सफलतम कप्तान थे, खबरिया बाजार उनकी मैनेजेंट पावर की तारीफों के पुल बांधा जा रहा है। विश्वविजेता बनने के बाद मीडिया वालों ने लेडी लक यानी साक्षी की धोनी की लाइफ में इंट्री से पड़े प्रभावों तक को सबके सामने सुना-दिखा डाला। टॉक शो आयोजित कर धोनी की काबलियत के बारे में चर्चाएं की गईं, उन्हें भारतीय किक्रेट का सबसे अनमोल सितारा बनाया गया। लेकिन जैसे ही उनकी नाकामयाबी का दौर शुरू हुआ, मीडिया का मिजाज ही बदल गया। हकीकत ये है कि मीडिया ने ही खिलाडिय़ों को खिलाड़ी नहीं रहने दिया। उसने खिलाडिय़ों का गुणगान कर उन्हें इतनी ऊंचाई पर बैठा दिया जहां से क्रिकेट पर ध्यान केंद्रीय करना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है। मीडिया अगर रंक को राजा और राजा को रंक बनाने की मानसिकता से बाहर निकल जाए तो शायद बाकी चीजों के साथ क्रिकेट का भी कुछ भला हो सके। फिलहाल तो धोनी एंड कंपनी की असफलताओं की कहानी कुछ और वक्त तक हमसबको बोर करती रहेंगी।