नीरज नैयर
कांग्रेस ने जब सत्ता के लिए जनता से समर्थन मांगने का सिलसिला शुरू किया तो उसकी जुबां पर आम आदमी का जिक्र था। पार्टी ने 'कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ' जैसे प्रभावशील नारे दिए। अपने एजेंडे में आम आदमी को सबसे ऊपर रखा, उसकी जरूरतों का ख्याल रखने का भरोसा दिलाया, समृध्दि और खुशहाली का वादा किया। लेकिन सत्ता में आने के बाद सबकुछ एक ही झटके में भुलाकर रख दिया। कांग्रेस और यूपीए सरकार के चाहने वालों की लंबी चौड़ी लिस्ट है, अखबारात में आय दिन महंगाई पर उसका बचाव करने वाले लेख पढ़ने को मिल जाया करते हैं। अब जिनको कलम चलाने के ऐवज में अच्छी-खासी रकम मिल जाती है, उनके लिए क्या महंगाई और क्या वादा खिलाफी। विचारधारा, नैतिकता और सत्यता जैसे शब्दों का मिश्रण आजकल वैसे भी देखने को कहां मिलता है, हर कोई बाजारवाद का हिस्सा बनकर अपनी योगयता को कैश करवाने में लगा है। यदि फलां पार्टी की शान में दो-चार कसीदे पढ़कर जेब थोड़ी और भारी हो जाती है तो इसमें बुराई ही क्या है, यही मानसिकता मौजूदा वक्त में अधिकतर लेखों की जननी है। णएक सामान्य व्यक्ति जिसे महंगाई और सरकार के जिम्मेदार नेताओं के गैरजिम्मेदार बयानों का मतलब समझ में आता है, कांग्रेस को पासिंग मार्क्स भी नहीं दे सकता। पहले कार्यकाल के पांच साल और दूसरे कार्यकाल के इन 10 महीनों में सरकार ने सही मायनों में आम आदमी के लिए कुछ किया है तो बस उसकी मुश्किलों में इजाफा।
कोई कितना भी इनकार करे, मगर हकीकत यही है कि कांग्रेस के एजेंडे में अब आम आदमी के लिए कोई जगह नहीं, कम से कम चुनाव आने तक तो बिल्कुल नहीं। सरकार का पूर फोकस इस वक्त पूंजीपतियों को खुश करने और जीडीपी दर को गति देने पर है। जीडीपी यानी ग्रास डॉमेस्टिक प्रोडेक्ट (सकल घरेलू उत्पाद) को किसी भी देश की समृध्दि का प्रतीक माना जाता है, जिस देश की जीडीपी आगे की तरफ बढ़ रही होती है उसे विकास के पथ पर मजबूत खिलाड़ी के रूप में देखा जाता है. भारत के सकल घरेलू उत्पाद की रफ्तार भी पिछले कुछ समय से अच्छी खासी बनी हुई है, इसलिए माना जा रहा है कि देश का विकास बहुत तेजी से हो रहा है. सरकार इन आंकड़ों को देखकर प्रफुल्लित है और अर्थशास्त्री इसे विकासशील से विकसित बनने के फासले को कम होना बता रहे हैं. शायद इसलिए सरकार बढ़ती महंगाई को लेकर जरा भी फिक्रमंद नहीं है, उसे लग रहा है कि विकास दर में इजाफे का संबंध लोगों के जीवन स्तर में सुधार से है. आंकड़ों के नजरिए से देखा जाए तो उसकी यह सोच काफी हद तक सही है लेकिन वास्तविकता में इसके लिए कोई जगह नहीं. शुरूआती दौर में जीडीपी जैसे सूचकांक आर्थिक गतिविधियों को मापने का काम करते थे और आज भी कर रहे हैं मगर आज उन्हें समाज की सुख-शांति के प्रतीक के रूप में भी देखा जाने लगा है. जबकि हकीकत ये है कि इस तरह के आकलन मानव जीवन के उन पहलुओं से कोई सरोकार नहीं रखते जो उसे सुखी, संतुष्ट और संपन्न बनाने में सहायक हैं. यही वजह है कि कई विशेषज्ञ प्रगति मापने के इस तरीके पर सवाल उठाते रहे हैं. नोबल पुरस्कार विजेता आर्मत्य सेन ने तो इसके लिए एक वैकल्पिक मॉडल की विकसित किया था जिसमें उन तमाम बिंदुओं को शामिल किया गया जो वास्तव में विकास को परिभाषित कर सकें.
संयुक्त राष्ट्र महासंघ भी कुछ इसी आधार पर अपनी सालाना मानव विकास रिपोर्ट जारी करता है, मानव विकास इंडेक्स निकालने के लिए औसत उम्र, मातृ शिशु जीवन दर, शिक्षा, जीवन स्तर आदि को शामिल किया जाता है. संयुक्त राष्ट्र विकास संगठन द्वारा 2005 में जारी की गई ऐसी ही एक रिपोर्ट में भारत के आर्थिक विकास का असली चेहरा उजागर हुआ था, इस रिपोर्ट में कहा गया कि ऊंची आर्थिक वृध्दि दर के फायदे अभी भारत में गरीबों तक नहीं पहुंच पाए. भारत में प्रति व्यक्ति आय पिछड़े माने जाने वाले अफ्रीकी देश होंडूरास और वियतनाम के बराबर है, लेकिन नवजात शिशुओं की मत्यु दर उनसे कहीं यादा. यहा सिर्फ 42 प्रतिशत शिशुओं को टीका लग पाता है, इसलिए विश्व में मरने वाले हर पांच बच्चों में से एक भारतीय होता है. रिपोर्ट में दक्षिण एशिया में सबसे अच्छी स्थिति श्रीलंका की रही, भारत को मानव विकास सूचकांक में 127वें स्थान पर रखा गया. इस रिपोर्ट के बारे में कहा गया था कि यह संस्करण पिछले संस्करणों में यादा व्यापक है और इसमें जीवन के तमाम पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया गया है. श्रीलंका आर्थिक विकास दर के मामले में भारत के आसपास भी नहीं फटकता, इसका कारण वहां दशकों तक चला तमिल संघर्ष रहा. 2005 में जब यह रिपोर्ट जारी हुई तब भी वहां कोई अच्छी स्थिति नहीं थी, सरकार की कमाई का आधे से यादा हिस्सा लिट्टे के खिलाफ अभियान में ही चला जाता था बावजूद इसके मानव विकास के मामले में उसका भारत से श्रेष्ठ साबित होना दर्शाता है कि वहां महज आर्थिक स्तर को विकास का पैमाना नहीं माना जाता.
2005 से 2009 के बीच देश के आर्थिक आंकड़ों में जबरदस्त उछाल आया है, लेकिन इस दौरान जीवन स्तर में सुधार का प्रतिशत कुछ खास नहीं रहा. अगर लोगों की तनख्वाह बढी तो उससे यादा महंगाई बढ़ गई, महंगाई ने नए-नए कीर्तिमान स्थापति किए. कुछ पहले जब मुद्रास्फीति की दर बहुत नीचे चली गई थी, तब भी आम लोगों को उसका फायदा नहीं मिल। हालात ये हो चले हैं कि पहले किसी तरह गुजर बसर करने वालों के सामने अब दो वक्त की रोटी का भी संकट पैदा हो गया है। ऐसी स्थिति में आर्थिक विकास को आम जनता के जीवन स्तर में सुधार और खुशहाली का प्रतीक कैसे समझा जा सकता है। हमारे देश में जीडीपी दर को लेकर भविष्यवाणियां की जाती हैं और उनको सच करने की दिशा में पर्याप्त कदम भी उठाए जाते हैं, मौजूदा सरकार में अर्थशास्त्रियों की लंबी चौड़ी फौज महज इस काम में ही मशगूल रहती है। लेकिन महंगाई नियंत्रित करने को लेकर न तो कोई भविष्यवाणी की जाती है और न ही ठोस कदम उठाए जाते हैं। जबकि इसका सीधा संबंध आम जनता से है। इस मामले में शायद फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी अकेले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने देश की बागडोर संभालने के बाद जीडीपी से यादा मानव विकास पर जोर दिया। कुछ वक्त पहले उन्होंने दुनिया के दूसरे देशों से भी जीडीपी जैसे आंकड़ों से आगे बढ़कर देखने की अपील की थी। उन्होंने बेवाक अंदाज में कहा था कि काफी लंबे समय से किसी देश की प्रगति को उसके आर्थिक आंकड़ों से नापा जा रहा है, लेकिन इस तरह के आंकड़े जितना भला नहीं कर रहे, उससे यादा समाज का नुकसान कर रहे हैं।
सरकोजी ने महज बयानबाजी ही नहीं की बल्कि इस सोच के आधार पर अपनी घरेलू नीतियों में बदलाव के परिणामों का भी जिक्र किया। गौर करने वाली बात ये है कि पिछले कुछ सालों में फ्रांस की आर्थिक विकास दर में कुछ खास बढ़ोतरी नहीं आई है, लेकिन लोग वहां भारत के मुकाबले कहीं यादा खुश हैं। आर्थिक तरक्की खुशहाली का पैमाना नहीं होती ये तो निजी जीवन में भी साबित होता रहता है, जो परिवार आर्थिक रूप से संपन्न है जरूरी नहीं कि वो सुखी भी हो। सरकार को ये बात समझनी चाहिए, अगर सरकार ने जीडीपी की तरह महंगाई को रोकने के बारे में गंभीरता से सोच-विचार किया होता तो निश्चित ही आम आदमी के चेहरे पर खुशी के भाव झलक रहे होते। कहने वाले कह सकते हैं कि विकास और तरक्की की दिशा में यूपीए सरकार का योगदान कोई झुठला नहीं सकता। हमने चांद पर तिरंगा लहराया, परमाणु संपन्न देशों में जमात में अपना नाम दर्ज करवाया, जिसके लिए हम अब तक इंतजार कर रहे थे। पिछले 70 महीनों में मुल्क की इन ऐतिहासिक उपलब्धियों के लिए कांग्रेस नीत यूपीए सरकार को निश्चित ही सराहा जाना चाहिए, मगर आम जनमानस की उम्मीदों पर जो उसने तुषारापात किया उसका क्या? क्या चांद की उपलब्धि ने भूख से बिलकते बच्चों के मुंह में निवाला डाल दिया, विकास दर पर ध्यान केंद्रित करना जरूरी है लेकिन उससे भी यादा जरूरी है उस आम इंसान की जरूरतों पर गौर करना जो अपने बेहतर कल की उम्मीदे में वोट देता है।