Tuesday, November 30, 2010

बाघ बचाने के लिए इच्छाशक्ति की जरूरत

नीरज नैयर
बाघों की घटती संख्या के बीच बाघ सरंक्षण की कोशिशें भी परवान चढ़ रही हैं। ऐसी कोशिशें सुखद अहसास तो कराती ही हैं साथ ही उम्मीद भी जगाती हैं कि शायद वाली पीढ़ी जंगल में विचरण करते बाघ का दीदार कर सकेगी। दुनिया भर में बाघ जितनी तेजी से गायब हुए हैं उतनी तेजी से तो शायद कुछ और गायब हो ही नहीं सकता। मौजूदा वक्त में खुले जंगल में रहने वाले बाघों की तादाद महज 3000 है, पिछले एक दशक में बाघों की संख्या में 40 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। सबसे यादा बाघ भारत में है, ताजा गणना के मुताबिक हमारे यहां 1400 के आसपास बाघ हैं। हालांकि चीन में बाघों की तादाद को दुनिया भर में सर्वाधिक कहा जा सकता है, लेकिन ये बाघ जंगलों के बजाए पिंजरों में कैद हैं। चीन में बाघ के अंगों की जबरदस्त मांग है, इसी मांग को पूरा करने के लिए फार्मिंग के उद्देश्य से बाघों को दबड़ों में भेज दिया गया। वैसे चीनी सरकार ने बाघों के अंगों से बने उत्पाद पर प्रतिबंध लगा रखा है, जिस वजह से फार्मिंग का धंधा लगभग बंद सा पड़ा हुआ है। लेकिन इस लॉबी के दबरदस्त दबाव के चलते सरकार प्रतिबंध हटाने पर गंभीरता से विचार कर रही है। अगर प्रतिबंध हटता है तो जंगलों में बचे-कुचे बाघ भी दुनिया छोड़ जाएंगे। भारत में हो रहे इस खूबसूरत प्राणी के सफाए में चीन की मांग का बहुत बड़ा हाथ है। दूसरी जगहों की अपेक्षा भारत में शिकारी यादा आसानी से अपने काम को अंजाम दे सकते हैं। शिथिल कानून, कमजोर तंत्र और गैरजिम्मेदाराना सरकारी रवैये की वजह से भारत शिकारियों के लिए स्वर्ग साबित हो रहा है।

स्वयं प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद भी हालात जस के तस हैं, कुछ बदला है तो बस फाइलें रखने वाली अलमारियों का आकार। प्रोजेक्ट टाइगर के नाम पर हर साल करोड़ों-अरबों फूंके जा रहे हैं, लेकिन सरंक्षण जैसी बात कहीं नजर नहीं आती। दूसरे मुल्कों में जहां बाघ बचे हैं वहां भी कमोबश यही स्थिति है, इसी स्थिति से निपटने के लिए रूस के शहर सेंट पीटर्सबर्ग में बीते दिनों एक बैठक आयोजित की गई। 13 देशों के प्रतिनिधियों ने इस बैठक में हिस्सा लिया, बैठक में मुख्य तौर पर बाघ के प्राकृतिक आवास को बचाने, शिकार को रोकने और बचाव अभियान को आर्थिक मदद मुहैया करवाने जैसे विभिन्न मुद्दों पर चर्चा हुई। संभवत: ऐसा पहली बार हुआ है कि विश्व के तमाम नेता एक प्रजाति को बचाने के लिए साथ आए। बाघ बचाने को लेकर इतनी सक्रीयता अच्छी बात है, लेकिन इस सक्रीयता के सार्थक परिणाम भी तो निकलने चाहिए। अमूमन बड़ी-बड़ी बैठकों में बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, बड़े-बड़े वादे किए जाते हैं पर वो धरातल पर नहीं उतर पाते। इस बैठक में चीन ने भी शिरकत की, चीन पर बाघ बचाओ अभियान में जुटे लोगों के लिए किसी खलनायक की तरह है। चीनी सरकार दावा करती है कि देश में बाघ अंगों और खाल के गैरकानूनी व्यापार पर लगी पाबंदी का पूरी तरह से पालन हो रहा है। लेकिन इस दावे की हकीकत कई बार सामने आ चुकी है। चीन में बाघ की खाल और अंग हासिल करना उतना ही आसान है, जितना भारत में ड्रग्स जैसे नशीले पदार्थ। चीन इस गैरकानूनी टे्रड का हब है, और ये सबकुछ सरकार के सरंक्षण में ही फल-फूल रहा है। चीनी आर्मी खुद बाघों की खाल और अंगों से बने उत्पाद की सबसे बड़ी उपभोक्ता है। कुछ साल पहले दलाई लामा के आव्हान के बाद जरूर तिब्बत में बाघों की खाल की उसी तरह होली जलाई गई थी जैसे स्वदेशी अपनाओ नारे के बाद भारत में विदेशी कपड़ों की।



णतिब्बतियों ने अपने धर्म गुरू की भावनाओं का आदर करते हुए बाघ से जुड़े उत्पादों का उपयोग पूर्णत: बंद कर दिया था, लेकिन अब सबकुछ पहले की माफिक हो गया है। तिब्बत में सालाना होने वाले पारंपरिक आयोजन में चीनी सैन्य अधिकारियों की मौजूदगी में तिब्बती बाघों की खालों को तन पर लपेटे देखने को मिल सकते हैं। चीन में बाघ की एक पूर्ण खाल की कीमत तकरीबन 20 हजार डॉलर है। इस ट्रेड से जुड़े व्यापारी, ग्राहकों को उनकी मनमुताबिक जगहों पर डिलेवरी तक ही सुविधा उपलब्ध कराते हैं। चीन में बाघ की खाल को शानौ-शौकत का प्रतीक माना जाता है, इसके साथ ही धार्मिक लिहाज से भी चीनी और तिब्बती इनका उपयोग करते हैं। सबसे यादा फार्मेसी क्षेत्र में बाघ के अंगों का इस्तेमाल होता है, कामोत्तेजक दवाई के लिए बाघ की हड्डियां प्रयोग में लाई जाती हैं और चीन में इसका बहुत बड़ा बाजार है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की तरफ से चीनी सरकार को कई बार आईना दिखाया गया मगर उसने हालात बदलने के लिए कुछ नहीं किया। दरअसल बीजिंग के लिए भी बाघों का गैरकानूनी व्यापार कमाई का बहुत बड़ा जरिया है, इसलिए वो इस पर प्रतिबंध का दिखावा तो कर सकता है पर पूर्णत: रोक नहीं लगा सकता। जहां तक बात भारत सरकार की है तो उसके पास इच्छाशक्ति का अभाव है। हमारे यहां नए-नए प्रोजेक्टों को फाइलों से हकीकत में आने बरसों लग जाते हैं। सरिस्का में बाघों के सफाए के बाद से अब तक कई योजनाएं बनाई गईं उनमें से कुछ परवान भी चढ़ी मगर बाघों को बचाने के लिए कुछ नहीं किया जा सका। बाघ सरंक्षण हमारे देश में एक तरह से पार्ट टाइम नौकरी के माफिक हो गया है, सरकार अपने आप को संवेदनशील साबित करने के लिए यह काम किए जा रही है और अधिकारीगण महज अपनी नौकरी बचाने के लिए। यही वजह है कि तमाम तामझाम के बाद भी बाघ बचने के बजाए तेजी से शिकारियों के हत्थे चढ़ते जा रहे हैं। और जो रही सही कसर है वो जंगल में बढ़ती मानवीय गतिविधियों की वजह से पूरी हो रही है।



णमानव बाघ संघर्ष के किस्से अब आम हो चले हैं। जंगलों का सिकुड़ना लगातार जारी है, भोजन-पानी की कम उपलब्धता के चलते बाघ आदि जंगली जानवरी बाहर की ओर रुख करते हैं और मनुष्य के हाथों मारे जाते हैं। बाघ सरंक्षण के लिए सरकार कागज पर लकीरें खींचने के अलावा कुछ नहीं कर पाई है। अगर कागजी कार्रवाई के अलावा कुछ भी किया गया होता तो परिणाम अब तक नजर आने लगते। कुल मिलाकर कहा जाए तो बाघों को बचाने के लिए बड़ी-बड़ी बैठकें करने के बजाए इच्छाशक्ति विकसित करने की जरूरत है। क्या भारत या दूसरे देश इतने भी सक्षम नहीं कि एक प्राणी की जान बचा सकें, बिल्कुल हैं लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव के चलते सक्षमता भी नगण्य हो चली है।

Saturday, November 27, 2010

ओबामा के दौरे से हमें क्या मिला?

नीरज नैयर
धन्यवाद और जयहिंद जैसे भारी-भरकम शब्द बोलकर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा अपने भारत दौरे को आशाओं के अनुरूप बनाने में सफल रहे। उनकी यात्रा का उद्देश्य मुख्यरूप से मंदी की मार झेल रहे अमेरिका के लिए संजीवीनी लाना था और अरबों के करार के रूप में उन्हें वो हासिल भी हो गया। ओबामा की यात्रा के पहले दिन ही भारतीय और अमेरिकी कंपनियों के बीच करीब 10 अरब डॉलर के बीस समझौते हुए। इन समझौतों के आकार लेने के बाद अमेरिका में 54 हजार नई नौकरियों के रास्ते खुलेंगे। ओबामा से भारत को जो मिला उसमें सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता के समर्थन और प्रतिबंधित तकनीकों के निर्यात पर लगी पाबंदी से मुक्ति का आश्वासन इसके अलावा पाकिस्तान को थोड़ी बहुत फटकार। कुल मिलाकर कहा जाए तो भारत की झोली में केवल आवश्वासन ही आए, जहां तक बात पाकिस्तान को कोसने की है तो उसमें भी ओबामा ने कंजूसी से काम लिया। उन्होंने आतंकवाद के मुद्दे पर पाक के खिलाफ महज उतना ही बोला जितना इस्लामाबाद आसानी से हजम कर सके। अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो स्थिर और प्रगतिशील पाकिस्तान को भारत के हित में बता डाला। बकौल ओबामा पाक की स्थिरता सुनिश्चित करने में सबसे यादा दिलचस्पी किसी देश की हो सकती है तो वह भारत है। यदि पाकिस्तान अस्थिर है तो इसका सबसे अधिक नुकसान भारत को ही झेलना होता है। हालांकि संसद को संबोधित करते वक्त उन्होंने जरूर पाकिस्तान के खिलाफ कुछ एक बातें कहीं लेकिन उनमें कड़े शब्दों के इस्तेमाल जैसी कोई बात नजर नहीं आई।

सुरक्षा परिषद में भारत की दावेदारी और तकनीकों के निर्यात पर प्रतिबंध हटाने जैसे मुद्दों पर अमल की कोई समय सीमा नहीं है। वैसे भी सुरक्षा परिषद का विस्तार हाल-फिलहाल तो होने वाला नहीं है, ओबामा खुद भी जानते हैं कि यह रास्ता बहुत टेढ़ा है। शायद इसलिए ही उन्होंने खुलेतौर पर भारत के समर्थन की बात कही। ओबामा ने एक तरह से बुरे दौर से उभरने के लिए भारत का इस्तेमाल किया। तेजी से आगे बढ़ता भारत दुनिया के नक्शे पर एक बिजनेस हब के रूप में उभरा है, चीन से लेकर अमेरिका तक सबकी रुचि नई दिल्ली के साथ यादा से यादा व्यापार बढ़ाने की है। ओबामा भी इसी एजेंडे के साथ भारत आए, उन्होंने अपने एक बयान में कहा भी कि जब मैं वापस जाऊं तो अपने लोगों को बता सकूं की मैं उनके लिए क्या लेकर आया हूं। अपने इस दौरे में ओबामा ने जो एक अच्छी बात करी वो ये कि उन्होंने कश्मीर पर कोई बेफिजुल की बयानबाजी नहीं की, लेकिन सिर्फ इसलिए ओबामा के भारत दौरे को एतिहासिक बता देना नासमझी से यादा कुछ नहीं। ओबामा ने दोनों हाथों से भारत से बटोरा और बदले में आश्वासन थमा गए, बावजूद इसके उनकी यात्रा को भारत के लिए अहम बताने वालों की कमी नहीं है। सरकार का ऐसा करना तो समझ में आता है, मगर मीडिया का ओबामा के प्रति दीवानापन समझ से परे है। अमेरिकी राष्ट्रपति के आने से लेकर जाने तक मीडिया ने उन्हें एक नायक के रूप में पेश किया, देश भर के अखबारात ऐतिहासिक दौरे की खोखली उपलब्धियों से भरे रहे। मसलन, एक प्रमुख हिंदी दैनिक की सुर्खी थी- ओबामा ने किया निहाल। अखबार ने लिखा कि ओबामा ने सुरक्षा परिषद में स्थाई सीट और पाकिस्तान से आतंकवादी ठिकाने खत्म करने की पैरवी कर खुश किया।

संसद में अपने प्रभावशाली संबोधन से ओबामा ने भारतीयों का दिल जीता। ऐसे ही एक दूसरे अखबार ने जय हिंद, भारत को ओबामा का सलाम नामक शीर्षक से लिखा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने रिश्तों को नई ऊंचाई की राह खोल दी है। एक अंग्रेजी दैनिक ने ओबामा की तारीफों के पुल बांधते हुए लिखा कि ओबामा ने भारत की स्थाई सदस्या की मांग का समर्थन करके सबको अचंभित कर दिया। ऐसा लग रहा था कि ओबामा की उंगलियों पर अंबेडकर और चांदनी चौक जैसी जगहें थीं। भारतीय मीडिया की यही सबसे बड़ी कमजोरी और लाचारी है कि वो भी अमेरिकी मेहमानों के सत्कार में सरकार की तरह पूरी तरह बिछ जाती है, उसे मुद्दों की गहराई में उतरने तक का ख्याल नहीं आता। शायद ही कोई ऐसा अखबार या टीवी चैनल रहा हो जिसने सरकार से ये पूछने की कोशिश की हो कि आखिर ओबामा के दौरे से भारत को सिवाए आश्वासनों के क्या मिला। पाकिस्तान और आतंकवाद पर ओबामा की अधखुली जुबान से साफ है कि ओबामा की नजर में नई दिल्ली से दोस्ती इस्लामाबाद की कीमत पर नहीं हो सकती। मुंबई हमलों के गुनाहगारों को सजा देने की बात करने वाले ओबामा अच्छे से जानते हैं कि पूरी साजिश पाकिस्तान में तैयार की गई। इसके बाद भी वो पाक पर दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का दबाव नहीं बना सके। अमेरिका को अफगानिस्तान में बने रहने के लिए पाक का साथ चाहिए, मौजूदा वक्त में पाकिस्तान उसका सबसे बड़ा रणनीतिक साझेदार है। जहां तक भारत का सवाल है तो अमेरिका की नजर में वो केवल आर्थिक जरूरतों को पूरा करने का एक जरिया मात्र है। ओबामा भारत से 54 हजार नौकरियों की जुगाड़ तो कर गए लेकिन उन्होंने आउटसोर्सिंग जैसे मुद्दे पर एक शब्द भी नहीं बोला और न ही हमने उनसे बोलने के लिए कहा। मीडिया ने भी ओबामा की खुमारी में इसे पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। जबकि कुछ वक्त पहले तक यही मीडिया इस खबर को बढ़ाचढाकर दिखा रहा था। ओबामा की आउटसोर्सिंग विरोधी मुहिम के चलते भारतीय आईटी सेक्टर को काफी नुकसान झेलना पड़ा है। इसके अलावा पाकिस्तान को बदस्तूर जारी अमेरिकी मदद के मुद्दे पर भी भारतीय नेतृत्व कड़ी नाराजगी जाहिर करने में लगभग नाकाम रहा।

ओबामा भारत आने से ठीक पहले ही पाकिस्तान की जेब भरके आए थे। दरअसल भारत की हालत काफी हद तक उन बादलों की तरह है जो गरजते बहुत हैं मगर बरसते नहीं। भारत कई मौकों पर पाक को अमेरिकी रसद पर एतराज जता चुका है, लेकिन जब ओबामा के सामने बैठकर उन्हें सही-गलत का अहसास कराने का मौका आया तो हम महज मेहमाननवाजी में ही उलझे रहे। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, इससे पहले भी कई बार भारतीय नेतृत्व और मीडिया अमेरिका से आने वाले अतिथियों के सम्मान में मूल मुद्दाें को दरकिनार कर चुके हैं। अमेरिकी आते हैं, सम्मान करवाते हैं, भारतीयों को अच्छी लगने वाली कुछ बातें बोलते हैं और अपने के लिए मुनाफे के समझौते कर चलते बनते हैं। बराक हुसैन ओबामा का भारत दौरा अगर किसी के लिए ऐतिहासिक कहा जा सकता है तो सिर्फ और सिर्फ अमेरिका के लिए। भारत की झोली पहले भी खाली थी और अब भी खाली है। ओबामा की यात्रा को भारत के लिए ऐतिहासिक बताने वालों को दिमाग पर थोड़ा सा जोर डालकर जरा सोचने की जरूरत है कि आखिर ओबामा भारत का आश्वासनों के सिवाए क्या देके गए।

Monday, November 1, 2010

ओबामा की यात्रा पर विशेष----हम भारतीय बहुत संतोषी हैं

नीरज नैयर
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के भारत आने में बस कुछ ही दिन बचे हैं। उनके स्वागत से लेकर लगभग सारी तैयारियां पूरी कर ली गई हैं, और जो कुछ-एक बची भी हैं वो उनके आने से पहले पूरी हो जाएंगी। ओबामा मुंबई के उसी होटल ताज में रुकेंगे जो पाकिस्तानी आतंकवादियों का निशाना बना था। शायद ये उनकी आतंकवाद के आगे न झुकने वाली सोच को प्रदर्शित करने का एक तरीका है। ओबामा की यात्रा के लिए मुंबई को खासतौर पर सजाया जा रहा है, ताज की खूबसूरती तो पहले से ही कमाल की है, फिर भी ओबामा को कहीं कोई कमी न दिख जाए इसका होटल प्रबंधन ने पूरा ख्याल रखा है। इसके साथ ही कभी न चमकने वाली सड़कों का सूरत-ए-हाल भी बदला जा रहा है। डिवाइडरों को गहरे पीले रंग से रंगा गया है, कि कहीं ओबामा हल्के कलर को देखकर मुंबईवासियों को हल्का न समझ बैठें।

ओबामा के स्वागत से लेकर सुरक्षा तैयारियों में सरकार ने पानी की तरह पैसा बहाया है। उनकी दिल्ली यात्रा के दौरान सुरक्षा के लिए दुनिया की सबसे अत्याधुनिक प्रणाली सी4आई तैनात की जाएगी। इसे लगभग 150 करोड क़ी लागत से इजरायल से मंगाया गया है। संभवत ये पहला मौका है जब भारत में किसी विदेशी अतिथि की सुरक्षा के लिए इसका इस्तेमाल हो रहा है। कुल मिलाकर अमेरिकी राष्ट्रपति की इस यात्रा को यादगार बनाने के लिए सबकुछ किया गया है। सरकार के साथ-साथ मीडिया भी इस दौरे को लेकर उत्साहित है, वैसे उसका उत्साहित होना इसलिए भी लाजमी है क्योंकि इसी मीडिया ने ओबामा की ताजपोशी को जंग जीतने जैसा पेश किया था। देखा जाए तो बराक ओबामा की भारत यात्रा नई दिल्ली के लिए दो मायनों में अहम है, पहली तो यही कि ओबामा अपने पहले कार्यकाल में भारत आ रहे हैं। जबकि बुश और बिल क्लिंटन सेकेंड टर्म में आए थे। दूसरी, ओबामा पहले ऐसे राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं जो भारत दौरे के साथ पाकिस्तान नहीं जाएंगे। इससे पहले जितने भी अमेरिकी प्रेसिडेंटों ने नई दिल्ली का रुख किया वो या तो वाया इस्लामाबाद किया या फिर बाद में पाकिस्तान गए। ओबामा के साथ मुलाकात में जिन मुद्दों पर चर्चा होगी उनमें परमाणु करार, द्विपक्षीय व्यापार, चीन, पाकिस्तान और संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्यता शामिल है। इनमें अमेरिकी पसंद के केवल दो ही मुद्दे हैं, परमाणु करार और व्यापार, बाकी भारत की चिंताओं और अपेक्षाओं से जुड़े हैं।

जार्ज डब्लू बुश के कार्यकाल में भारत-अमेरिका के बीच हुईएटमी डील के पूरी तरह अमल में आने का तत्कालीक तौर पर सबसे बड़ा फायदा अगर किसी को होगा तो अमेरिका को। करार के रास्ते अमेरिकी कंपनियां भारत में करोड़ों-अरबों का व्यापार कर मोटा मुनाफा वसूल सकेंगी। ऐसी भी चर्चाएं हैं कि ओबामा कश्मीर पर कुछ फॉर्मूले सुझा सकते हैं, हालांकि अमेरिकी प्रशासन ने इससे इंकार किया है। वैसे कश्मीर पर ओबामा कुछ कहें इसकी संभावना इसलिए भी कम है क्योंकि उनका यह दौरा पूरी तरह से अमेरिकी फायदे पर केंद्रित है यानी करार से होने वाले मुनाफे पर। अमेरिकी प्रतिनिधियों की वैसे भी ये फितरत रही है कि भारत आने के बाद वो भारत को पसंद आने वाली बातें ही करते हैं। कुछ वक्त पहले अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन ने नई दिल्ली में खडे होकर पाकिस्तान के खिलाफ कुछ कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया, और बदले में करोड़ों के एंड यूजर समझौते को सील करवां गईं। ओबामा अपनी यात्रा में निश्चित तौर पर पाकिस्तान को लेकर भारत की चिंताओं पर गंभीरता दिखाएंगे, और ये भी हो सकता है कि वो भारतीय नेतृत्व के चेहरे खिलाने वाला कोई ऐसा बयान दे डालें।

भारतीय बहुत ही संतोषी होते हैं, ओबामा के इतना भर करने से ही खुश हो जाएंगे और भूल जाएंगे कि उन्होंने राष्ट्रपति बनने के बाद से अब तक हमारा क्या-क्या बुरा किया। ओबामा ने भारत को सबसे यादा चोट आउटसोर्सिंग के मुद्दे पर पहुंचाई। अमेरिकी कंपनियों से भारत को मिलने वाले काम के बीच में ओबामा दीवार बनकरखड़े हो गए, उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि जो ेकंपनी गैर अमेरिकियों को नौकरी देगी उसे सालाना मिलने वाली टैक्स छूट से हाथ धोना पड़ेगा। अमेरिका के इस फैसले से भारतीय आईटी उद्योग को काफी नुकसान उठाना पड़ा, अमेरिका की आईटी इंडस्ट्री का आधे से यादा काम भारत या भारतीय प्रोफेशनलों के रास्ते ही होता आया है। ओबामा ने परमाणु करार के रास्ते में रुकावट टालने की भी कुछ कम कोशिश नहीं की, दरअसल ओबामा बगैर परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत किए भारत को छूट दिए जाने के सख्त खिलाफ रहे हैं। हालांकि ये बात अलग है कि वो चाहकर भी करार पर विराम नहीं लगा पाए, क्योंकि ऐसा करने पर उद्योग लॉबी उनके खिलाफ मोर्चो खोल सकती थी। इसके अलावा कश्मीर पर भी वो रह-रहकर भारत की भावनाओं के खिलाफ खिलवाड़ करते रहे, हालांकि उन्होंने सीधे तौर पर अपने मुंह से कभी कुछ नहीं कहा मगर उनके सहयोगी उनकी जुबान बनते रहे। इसके अलावा पाकिस्तान को लेकर ओबामा ने नई दिल्ली के रुख को कभी महत्व नहीं दिया, भारत आने से पहले भी वो दिल खोलकर पाकिस्तान की झोली भरकर आ रहे हैं। जबकि कई रिपोर्टो में खुलासा हो चुका है कि इस्लामाबाद अमेरिकी मदद का इस्तेमाल भारत के खिलाफ मोर्चा पर लगता है। अमेरिका भले ही जुबानी तौर पर बड़ी-बड़ी बातें करके भारतीय नेतृत्व को विश्वास दिलाने की कोशिश करे कि उसकी नजर में नई दिल्ली का दर्जा पाकिस्तान से ऊपर है, मगर हकीकत इससे पूरी तरह अलग है। दरअसल इराक छोड़ने के बाद अमेरिकी फौजें अफगानिस्तान में मौजूद हैं, और निकट भविष्य में उनके वहां से हटने की संभावना भी नग्णय है।

इस करके अमेरिका को पाक की जरूरत लंबे समय तक पड़ती रहेगी, तो फिर उसके लिए भारत पाक से यादा महत्वपूर्ण कैसे हो सकता है। लेकिन अफसोस की बात है कि इतना सीधा लॉजिक भी भारतीय नेतृत्व को समझ नहीं आता। अमेरिका उल्लू बनाता है और हम बनते रहते हैं। ओबामा के इस दौरे को लेकर भी भारत हद से यादा उत्साहित है। हमारी सरकार किसी बड़े समझौते की उम्मीद लगाए बैठी है, उसे ये भी उम्मीद है कि ओबामा के आने से अशांति फैलाने वाले पड़ोसियों की आवाज थोडी नरम पड़ेगी। मगर ये सारे ख्वाब बराक ओबामा के दिल्ली छोड़ने से पहले ही चकनाचूर हो जाएंगे। पता नहीं क्यों, अमेरिका से आने वाला हर शख्स (सरकार से जुडा हुआ) हमारे लिए आम इंसान से बड़ा हो जाता है। अमेरिकियों से हमारी अपेक्षांए दूसरों से कई गुना यादा रहती हैं, फिर भले ही बार-बार चोट क्यों न पड़ती रहे। ओबामा पहली बार भारत आ रहे हैं, उनका स्वागत जोरदार होना चाहिए, लेकिन इनसब में उम्मीदों और अपेक्षाओं के पहाड़ खड़े करना नादानी के सिवा कुछ नहीं होगा। ण