बलात्कार के मामलों में पिछले कुछ वक्त में गजब की तेजी देखने को मिली है। ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि जैसे-जैसे हम विकास की दौड़ में आगे बढ़ते जा रहे हैं, नैतिक मूल्यों का उतनी ही तेजी से पतन होता जा रहा है। पहले कभी-कभी ऐसे किस्से सुनने में आया करते थे मगर अब चोरी-चपाटी जैसे आम खबरों की माफिक हर रोज बलात्कार की घटनाएं खबरों का हिस्सा बनी रहती हैं। कुछ लोग महिलाओं के खिलाफ बढ़ते इस तरह के अपराधों के लिए उनकी अति आधुनिक बनने की होड़ और जरूरत से यादा भडक़ाऊ वस्त्रों को कुसूरवार मानते हैं जबकि कुछ की नजर में इसके लिए पुरुष ही गुनाहगार हैं। ये एक निहायत ही लंबी बहस का मुद्दा है, ऐसी बहस जिसका शायद कभी अंत नहीं हो। उत्तरप्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक ने कुछ साल पहले एक टीवी चैनल पर कहा था कि बुर्के में चलने वाली महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार जैसी घटनाएं कम होती हैं, उनका इशारा शायद यही था कि महिलाओं को अपने पहनावे में बदलाव की जरूरत है। उनके इस बयान की महिलावादी संगठन और तमाम बुध्दिजीवियों ने तीखे शब्दों में आलोचना की थी। वैसे भी ये हमारे यहां का दस्तूर बन चुका है कि जो बात कानों को सुनने में अच्छी न लगे उसकी आलोचना शुरू कर दो, फिर भले ही उसके पीछे की हकीकत कुछ और क्यों न बयां कर रही हो। 70-80 के दशक में बॉलीवुड से निकलने वाली फिल्मों में खूबसूरती को सादगी में बयां किया जाता था, लेकिन अब उत्तेजक परिधान और अंतरंग दृश्यों के बिना कोई भी फिल्म तैयार नहीं होती।
फिल्मों में नायिका के परिधानों की लंबाई जितनी कम होती है उसे उतनी ही आकर्षक माना जाता है, दुर्भाग्य की बात तो ये है कि यही मानसिकता और चलन फिल्मी दुनिया के बाहर भी चल निकला है। फैशनेबल और फूहड़ता के मिश्रण से जो पोशाकें तैयार की जा रही हैं, वो बाजार में धड़ल्ले से बिक रही हैं। छोटे और कटे-फटे कपड़ों की बाजार में मांग भी है और इन्हें महंगे से महंगे दाम में खरीदने वालों की फौज भी। बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों से लेकर स्कूल-कॉलेज तक फैशन की मंडी बन गए हैं। दिल्ली यूनीवसिर्टी इसका सबसे जीवंत उदाहरण हैं, यहां पहुंचने पर स्वयं को यह अहसास दिलाने में काफी वक्त लगता है कि यहां लोग पढ़ने आते हैं। तमाम अखबारात आकर्षक पोशाकों वाली युवतियों के फोटो प्रकाशित कर नए और पुराने ट्रेंड में फर्क समझाने की कोशिश करते हैं। केवल पुरुष ही नहीं कई जानी-मानी महिलाएं भी आजकल के फैशन ट्रेंड को सही नहीं मानतीं, उनकी नजर में फैशनेबल और आधुनिकता केवल कम कपड़े पहनना ही नहीं। बात सही भी है, फैशन का पैमाना आजकल लोवेस्ट जींस और जींस एवं टीशर्ट के बीच कम से कम चार-पांच उंगल के फासलें को माना जाता है। हमारे यहां महिलाएं लंबे वक्त से समानता के अधिकार की बात करती आ रही हैं, आज इतना सब होने के बाद भी उन्हें लगता है कि वो काफी पिछड़ी हैं। पहनावे को लेकर अधिकतर महिलाओं का तर्क होता है, कि जब पुरुषों को अपने हिसाब से कपड़े पहनने की आजादी है तो फिर हम पर रोक-टोक क्यों?यादा वक्त नहीं हुआ जब कुछ विदेशी बालाओं ने टॉपलेस होकर प्रदर्शन किया था, उनका तर्क था कि अगर पुरुष अर्ध्दनग् अवस्था में घूम सकते हैं तो फिर कम क्यों नहीं। सवाल यहां रोकने-टोकने या फिर घूमने-फिरने का नहीं है, सवाल है मर्यादाओं का। महिलाएं यदि टॉपलेस होकर घूमती भी हैं तो उसका खामियाजा कौन भुगतेगा, इस बारे में भी सोचने की जरूरत है। विकृत मानसिकता और अपराधिक प्रवृति वालों की सोच नहीं बदली जा सकती। कानून को कितना भी कठोर क्यों न बना दिया जाए, वो अपराधी को अपराध करने से पूरी तरह नहीं रोक सकता।
इस्लामिक मुल्कों में आंख के बदले आंख, टांग के बदले टांग जैसे कानून हैं, छोटे से अपराध पर वहां सरेआम सजा दी जाती है। बावजूद इसके क्राइम वहां पर भी है। सड़क पर चलते वक्त अपना ध्यान खुद ही रखना पड़ता है, कड़े नियम- कानून सामने से आने वाले ट्रक को किसी राहगीर को रौंदने से नहीं रोक सकते। ठीक इसी तरह से यदि फैशनेबल के पैमाने में थोड़ा सा फेरबदल किया जाए तो इसमें हर्ज ही क्या है। जींस और टीशर्ट के बीच के फासले को खत्म करने पर भी आधुनिकता बरकरार रहेगी, बस इतना ही समझने की जरूरत है। वैसे मानसिकता को विकृत बनाने के पीछे हार्मोंस का भी अहम योगदान होता है। हमारे शरीर में पाए जाने वाले हार्मोंस इनसब में मुख्य भूमिका निभाते हैं। हमें कब क्या करना है यह हमसे यादा हमारे शरीर द्वारा स्त्रावित हार्मोंस को पता होता है। क्योंकि हमारी हर गतिविधि पर इनका नियंत्रण होता है। हमारे शरीर में पाए जाने वाला सेरोटेनिन वह हारमोन है जो सेक्स के मामले में इंसान को अंधा या शर्मिला बना देता है। शरीर में इस हारमोन का स्तर ऊंचा रहना ही उचित होता है क्योंकि नीचा स्तर सुलगते अंगारों को हवा देता देने का काम करता है। सेरेटोनिन का ऊंचा स्तर शांति, प्रसन्नता और संतोष को बढ़ावा देता है। सामान्यतौर पर जब शरीर में सेरेटोनिन का स्तर नीचे गिरने लगता है तो सेक्स करने की इच्छा में तीव्र वृध्दि होने लगती है। हमारे दिमाग पर हमारा संतुलन डगमगाने लगता है। सेक्स इच्छा में अंधे और हिंसक बनकर व्यक्ति किसी भी नीचता तक उतर सकता है। कभी-कभी तो यह हैवानियत बलात्कार जैसे अपराध पर जाकर शांत होती है। जब व्यक्ति में इस हार्मोंस का स्तर नीचे चला जाता है तो उसे सही गलत का अहसास नहीं रहता। ऐसे में अति उत्तेजक परिधान और फिल्मों मे परोसी जा रही अशीलता उसके अंदर के हैवान को और जागृत कर देती है। दूसरे शब्दों में अगर कहें तो बलात्कार जैसी घटनाओं के लिए काफी हद तक इस हार्मोंस का नीचा स्तर भी कुसूरवार है। हार्मोंस की हमारी जिंदगी में और भी कई बदलाव के लिए जिम्मेदार होते हैं। उदाहरण के तौर पर टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन।
इस हार्मोन के चलते पुरुष रिश्तों में शारीरिक संबंधों को यादा तरजीह देते हैं जबकि महिलाओं में भावनात्मक जुड़ाव अधिक होता है। पुरुषों में महिलाओं की अपेक्षा टेस्टोस्टेरॉन का स्तर यादा पाया जाता है और ये हार्मोन शारीरिक संतुष्टि को अधिक महत्व देता है इसी के चलते पुरुष शारीरिक संबंधों में निर्भर रहते हैं। टेस्टोस्टेरॉन अपेक्षाकृत गर्म मौसम में यादा प्रभावी होता है। हालांकि हार्मोंस तो एक अलग मसला है, असल मुद्दा तो है कि आधुनिकता और फैशनेबल बनने का पैमाना क्या होना चाहिए। निश्चित तौर पर कथित बुध्दिजीवियों और महिलावादी संगठनों को ये विचार दकियानूसी और पुरुषवादी मानसिकता से प्रेरित लगेंगे, लेकिन मैं फिर यही कहूंगा इनके पीछे की हकीकत और गहराई को समझने की जरूरत है।