Saturday, September 24, 2011
मोंटेकजी आप कर सकते हैं 32 रुपए में गुजारा
नीरज नैयर
इंदिरा गांधी के जमाने में एक नारा दिया गया था, 'गरीबी उन्नमूलनÓ, लेकिन आज लगता है ये बदलकर 'गरीब उन्नमूलनÓ हो गया है। सरकार आज गरीबी नहीं हटाना चाहती बल्कि अपना बोझ हल्का करने के लिए गरीबों को ही कम करने पर तुली है। योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में जो हलफनामा दिया है, उससे सरकार और स्वयं आयोग की नीयत पर सवाल खड़े हो गए हैं। यहां, ये कहना कि आयोग की इस राय में सरकार शरीक नहीं है, सरासर गलत होगा। योजना आयोग का अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है, इस नाते मनमोहन सिंह अच्छे से जानते होंगे कि अहलूवालिया क्या गुल खिलाने वाले हैं। योजना आयोग कहता है कि शहरों में 32 रुपए और गांवों में 26 रुपए प्रति दिन खर्च करने वाला गरीबी रेखा के नीचे नहीं आ सकता। इतना खर्च उसे संपन्नता की निशानी दिखता है। इन 32 और 26 रुपए में महज खाना ही नहीं, किराया, कपड़ा, स्वास्थ्य और शिक्षा का खर्च भी शामिल है। यानी एक आम आदमी इन रुपयों में पेट भरने से लेकर बच्चों के स्कूल की फीस और उनके इलाज तक सबकुछ कर सकता है। आयोग तो यहां तक मानता है कि अगर एक आदमी रोजाना 5.50 रुपए दाल पर, 1.02 चावल-रोटी पर, 2.33 दूध, 1.55 तेल, 1.95 सब्जी, 44 पैसे फल, 70 पैसे चीनी, 78 पैसे नमक, 1.51 पैसे अन्य खाद्यय पदार्थों पर और 3.75 ईंधन पर खर्च करने की हैसीयत रखता है तो वो स्वस्थ्य जीवन यापन कर सकता है। आराम से जीवन बिताने के मामले में आयोग कहता है कि 49.10 रुपए मासिक किराया देने वाला व्यक्ति भी इस श्रेणी में आता है। योजना आयोग के हलफनामे में और गहराई में चलें तो पता चलता है कि शिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च करने वाला अच्छी तालीम पाने की हैसीयत रखता है। इसके अलावा अगर कोई व्यक्ति चप्पल आदि पर 9.6 रुपए खर्च करता है तो वो आयोग की नजर में गरीब नहीं है। गरीबी का ये पैमाना कौनसे गणित से तैयार किया गया, इसका जवाब अहलूवालिया और स्वयं प्रधानमंत्री के अलावा कोई नहीं दे सकता। ऐसे वक्त में जब महंगाई सिर पर पैर रखकर भागे जा रही है, ये कहना कि 32 रुपए पाने वाला गरीब नहीं, गरीबों का मजाक नहीं तो और क्या है। अहलूवालिया साहब को यदि 32 रुपए संपन्नता की निशानी लगते हैं तो इस लिहाज से भारत दुनिया का सबसे संपन्न देश कहा जाना चाहिए। आयोग 99 पैसे हर रोज में बेहतर शिक्षा की बात करता है, 99 पैसे के हिसाब से महीने के हुए 29.7 रुपए। महज 29 रुपए में कौनसा स्कूल बच्चों को दाखिला देगा, सरकारी स्कूल भी इतने में कम में दूर से हाथ जोड़ देंगे।
एक बारगी मान भी लिया जाए कि 29 रुपए मासिक फीस पर कोई स्कूल तालीम दे रहा है तो भी आयोग को समझना चाहिए कि शिक्षा महज स्कूल में दाखिला लेने भर से नहीं आ जाती, कॉपी-किताब, रबड-पैंसिल पर भी खर्चा करना पड़ता है। आयोग 49.10 रुपए प्रति माह में आराम से किराए पर मकान की बात भी कहता है, मगर हकीकत ये है कि अहलूवालिया ऐड़ी-चोटी का जोर भी लगा लेंगे तो भी इतने कम में कोई उन्हें घर के सामने खड़ा तक नहीं होने देगा। आज से 10 साल पीछे भी जाएं तो भी 49 रुपए में किराए पर मकान नहीं मिल सकता। जहां तक बात पेट भरने की है तो सरकार के सरदार और उनके जूनियर यानी अहलूवालिया आम जनता के पेट को चिडिय़ा का पेट समझते हैं। उन्हें लगता है कि दो दाने उसे जिंदा रखने के लिए काफी है। दो दानों को काफी मान भी लिया जाए तो भी सवाल ये उठता है कि चंद पैसों में ये दो दाने किस दुकान से मिलेंगे। मनमोहन सिंह या अहूलवालिया इसका इंतजाम कर दें तो बात अलग है। वैसे ऐसा पहली बार नहीं है जब अहलूवालिया ने गरीबों का मजाक उड़ाया हो, इससे पहले भी कई बार तो महंगाई को लेकर बेहयाई वाली बयान देते रहे हैं। फर्क बस इतना है कि इस बार उनकी बेहयाई कागजों पर सुप्रीम कोर्ट के सामने पहुंची है। इसे जमीनी अनुभव की कमी कह सकते हैं, अहलूवालिया या दूसरे वीवीआईपी को थैला उठाकर बाजार में मोल-भाव नहीं करना पड़ता, उन्हें ये हिसाब भी नहीं लगाना पड़ता कि महंगाई में खुद को जिंदा रखने के लिए उन्हें किन-किन जरूरतों में कटौती करनी होगी। लालबत्ती में घूमने वाले अहलूवालिया जैसे लोगों को सबकुछ थाली में सजा-सजाया मिल जाता है, इसलिए इन्हें अहसास ही नहीं होता कि किस चीज के कितने दाम चुकाने होते हैं। सबसे ज्यादा अफसोस की बता तो ये है कि योजना आयोग के इस तर्क को आम आदमी की बात करने वाली कांग्रेस ने भी खारिज नहीं किया है। कांग्रेस इसके ऐवज में पुराने आंकड़े याद दिलाने में लगी है।
कांग्रेस का कहना है कि 2004-2005 में गरीबी की जो रेखा खींची गई थी, उसके हिसाब से 32 रुपए काफी ज्यादा हैं। पर शायद वो ये भूल गई कि इन छ सालों में खाद्य वस्तुओं के दाम कितने ऊपर पहुंच गए हैं। जितनी रकम की बात उस वक्त की गई थी वो भी नाकाफी थी और आज जिस 32 या 26 रुपए की बात की जा रही है वो भी नाकाफी है। कांग्रेस और अहलूवालिया जैसे लोग संसाधनों का भी रोना रोते हैं, उनके मुताबिक सरकार के पास सीमित संसाधन हैं, ऐसे में वो सबसे पहले उसकी मदद करना चाहेगी जिसका पेट बिल्कुल खाली है। जरूरतमंद को सबसे पहले मदद मिले इससे इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन अगर संसाधनों की वास्तव में इतनी कमी है तो फिर कटौती का प्रतिशत सबके लिए बराबर क्यों नहीं रखा जाता। सरकार ऐसा नहीं कर सकती की आम आदमी को मिलने वाली सब्सिडी खत्म करती जाए और कॉरपोरेट सेक्टर को टैक्स छूट और प्रोत्साहन पैकेज जारी करने में जरा भी देर न लगाई जाए। एक अनुमान के तौर पर 2004 से अब तक सरकार ने कॉरपोरेट सेक्टर को22 लाख करोड़ रुपए की टैक्स छूट दी है। अगर सरकार समझती है कि उद्योग घरानों को खड़े रहने के लिए मदद की जरूरत है तो वो ये कैसे सोच सकती है कि आम आदमी उसके द्वारा पैदा की गई महंगाई में बिना किसी सहारे के मजबूती से खड़ा रहेगा। उद्योग घराने सरकार के आर्थिक विकास के लक्ष्य को पूरा करने में मदद करते हैं इसलिए उन्हें देते वक्त सरकार के हाथ नहीं दुखते, लेकिन जब बात उसे सत्ता में पहुंचाने वाले आम आदमी की आती है तो वो तानाशाह बन जाती है। कांग्रेस भले ही कितनी भी आम आदमी की बात करे, लेकिन ये अब साफ हो चला है कि उसकी सरकार की नजर में आम आदमी की कोई अहमियत नहीं। योजना आयोग का काम देश के संसाधनों का प्रभावी और संतुलित ढंग से उपयोग करने के लिए योजनाएं बनाना है, लेकिन यूपीए सरकार के कार्यकाल में उसका मकसद उद्योग घराने का विकास करना ज्यादा दिखाई दे रहा है। योजना आयोग का गठन 15 मार्च 1950 को पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में किया गया था। पहली पंचवर्षीय योजना 1951 से शुरू हुई, इसमें कृषि पर खासा जोर दिया गया। इसके बाद भी बनने वाली योजनाओं में कृषि को प्रमुखता से स्थान दिया गया।
1997 से नौवीं पंचवर्षीय योजना से उद्योगों के आधुनिकीकरण की शुरूआत हुई, लेकिन फिर भी उसमें मानवीय विकास पर जोर दिया गया। मगर यूपीए के सत्ता संभालने के बाद इस पंचवर्षीय योजना का मुख्य उद्देश्य महज आर्थिक विकास पर ही केंद्रित हो गया। 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-2012) में 8.2 फीसदी आर्थिक वृद्धि अनुमान लगाया गया, इसके अलावा हाल में 12वीं (2012-2017) पंचवर्षीय योजना के जिस दृष्टिकोण पत्र को सरकार ने मंजूरी दी है, उसमें भी 9 फीसदी विकास दर का लक्ष्य रखा गया है। यानी सरकार के एजेंडें से कृषि पूरी तरह बाहर हो चुकी है। जबकि यही सरकार कम उत्पादकता का रोना रोती रहती है। आर्थिक विकास जितनी जरूरी है उतनी ही जरूरत कृषि में सुधार की भी है। ये बात केवल वही समझ सकता है जो जिसने कभी एसी कमरों से बाहर निकलकर हकीकत जानने का प्रयास किया हो, अहलूवालिया जैसे लोग अर्थ का अनर्थ ही कर सकते हैं इससे ज्यादा कुछ नहीं। अहलूवालिया के इस मजाक के लिए एक महीने उन्हें उसी गणित के हिसाब से तनख्वाह दी जाए जिसके इस्तेमाल से उन्होंने आम आदमी को करोड़पति बना दिया है। इन 30 दिनों में सरकार के सरदार के इस जूनियर को आटे-दाल के भाव अच्छे से पता चल जाएंगे, तब शायद उनकी गणित की समझ में कुछ वृद्धि हो सके।
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