Tuesday, July 28, 2009

सिर्फ मुस्लिमों के साथ ही नहीं होती zयादती

नीरज नैयर
बटला हाउस मुठभेड़ का सच सामने आने के बाद भी इस पर उंगली उठाने वालों की आवाज मंद नहीं पड़ी है, उन्हें लगता है कि सरकार और उसका सिस्टम हकीकत पर पर्दा डालने की कोशिश में लगा है. पुलिस मुठभेड़ पर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं और शायद आगे भी उठते रहेंगे क्योंकि उत्तराखंड फर्जी एनकाउंटर जैसी वारदातें उसकी व्यवस्था का अंग बन गई हैं. ऐसे मामलों की लंबी-चौड़ी फेहरिस्त है जिसमें पुलिसवालों ने पदोन्नती या आर्थिक स्वार्थों की पूर्ती के लिए बेगुनाह लोगों को अपराधी बताकर मौत की नींद सुला दिया. मगर इसका मतलब ये कतई नहीं निकाला जाना चाहिए उसकी हर कार्रवाई झूठ पर आधारित होती है. हमारे देश में खासकर मुस्लिम समुदाय को हमेशा से ही शिकायत रही है कि पुलिस उनका उत्पीड़न कर रही है, उसके लोगों को बेवजह आतंकवादी साबित करने में लगी है.

बटला हाउस मुठभेड़ पर हुए बवाल का कारण भी सिर्फ यही है कि वहां मारे गये आतंकी समुदाय विशेष से जुड़े थे, अगर मुठभेड़ में कोई किशोर, घनश्याम या सुधीर नाम वाले लोग मारे जाते तो शायद जांच के बाद भी जांच की मांग नहीं होती. भले ही देश में हिंदुओं की तादाद यादा है मगर मुस्लिम भी कम नहीं. राजनीति से लेकर हर बड़े तबके में उनक प्रतिनिधित्व करने वाले भरे पड़े हैं. इस देश का राष्ट्रपति एक मुस्लिम रह चुका है, उपराष्ट्रपति भी एक मुस्लिम ही हैं. फिर न जाने क्यों ये समुदाय वक्त दर वक्त नाइंसाफी और भेदभाव जैसे शब्द उछालता रहता है, अगर मुस्लिमों के साथ हिंदुस्तान में सौतेला व्यवहार किया जाता तो क्या मुल्क के सर्वोच्च पद पर किसी मुस्लिम का पहुंचना संभव था. भेदभाव-नाइंसाफी और बेफिजुल प्रताडित करने जैसे आरोप सरासर गलत हैं सच तो ये है कि इस समुदाय ने अपने आप को दूसरों के अलग रखने की मानसिकता धारण कर रखी है और वह उससे बाहर निकलना नहीं चाहता. इसलिए उसे अपने कौम वाले के देश विरोधी गतिविधियों में संलिप्त होने के पीछे भी षड़यंत्र दिखाई पड़ता है, उसे लगता है कि उन्हेंबदनाम करने के लिए साजिश रची जा रही है. उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में रहने वाले मुस्लिम तो अपने को सर्वाधिक प्रताड़ित बताते हैं, उन्हें लगता है कि अल्पसंख्यक होने की वजह से ही पुलिस की आतंकवाद से जुड़ी हर कार्रवाई यहीं से शुरू होती है. पर वो भूल जाते हैं कि आजमगढ़ का आतंकवादियों से रिश्ता नया नहीं है, यहां का सरायमीर हमेशा चर्चा में रहा हैं. हाजी मस्तान ने अपनी दो बेटियों की शादी यहां की. दाऊद इब्राहीम के भाई की ससुराल यहीं है और मुबंई के जेल में बंद अबू सलेम का पैतृक गांव भी सरायमीर है. प्रतिबंधित इस्लामी छात्र संगठन सिमी के संस्थापक अध्यक्ष शाहिद बद्र इसी आजमगढ़ जिले के रहने वाले हैं. जामियानगर में पुलिस की मुठभेड़ में मारे गए दोनों संदिग्ध मुस्लिम चरमपंथी सरायमीर के पास ही संजरपुर गांव के रहने वाले थे.

इस मुठभेड़ के बाद पकड़े गए कई और संदिग्ध चरमपंथी भी यहीं आसपास से ताल्लुक रहते हैं. अहमदाबाद और जयपुर बम धमाकों के मास्टर माइंड होने के आरोप में पिछले साल गिरफ्तार मुफ्ती अबुल बशर सरायमीर के करीब बीनापार का रहने वाला है. आजमगढ़ की कुल आबादी 32 लाख के करीब है जिसमें मुसलमानों की हिस्सेदारी सबसे यादा है. आजमगढ़ और इसके आस-पास के इलाके सिमी की कार्यस्थली और शरणस्थली रहे हैं, इस प्रतिबंधित संगठन के कार्यकर्ताओं को पनाह देने वालों की आज भी यहां कोई कमी नहीं है. आजमगढ़ को आतंकवाद की नर्सरी माना जाने लगा है, ऐसे में अगर पुलिस का शक और कार्रवाई यहीं पर केंद्रित होती है तो उसमें गलत क्या है. आमतौर पर भी हम उसी को शक के घेरे में लेकर आते हैं जिसका पिछला रिकॉर्ड सही नहीं रहा, मसलन अगर कोई बच्चा दो बार हमारे घर का शीशा तोड़ चुका है तो तीसरी बार भी हमारा शक उसी पर जाएगा फिर चाहे वह निर्दोष ही क्यों न हो. बटला हाउस मुठभेड़ की जांच में मानवाधिकार आयोग ने यह साफ कर दिया है कि फायरिंग की शुरूआत कमरे के भीतर से हुई और पुलिस दल को आत्मरक्षा में गोलियां चलानी पड़ीं. बटला हाउस के उस कमरे में आतंकी थे या नहीं, और मारे गए लोगों का दिल्ली में हुए बम विस्फोटों में कोई हाथ था या नहीं, इन सवालों पर आयोग ने कोई टिप्पणी नहीं की, उसने अपनी जांच का दायरा सिर्फ यहीं तक सीमित रखा कि पुलिस ने सीधे दरवाजा खुलवाकर बेकसूर लोगों को मार डाला या दोनों तरफ की गोलीबारी में दो युवक मारे गए. इस मुठभेड में दिल्ली पुलिस के इंस्पैक्टर शर्मा भी शहीद हुए थे. जिन लोगों को आयोग की जांच और उसकी विश्वसनीयता पर संदेह हैं उन्हें याद दिलाने की जरूरत है कि वो मानवाधिकार आयोग ही था जिसने गुजरात दंगों की रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों के साथ हुई यादतियों को सामने रखा था.

अगर तब उन्हें आयोग, उसकी जांच सही लग रहे थे तो अब वो आयोग पर उंगली कैसे उठा सकते हैं. इसका मतलब तो यही हुआ कि यदि जांच उनकी सोच से इतर है तो उन्हें उसमें खामिया हीं नजर आएंगी. उत्पीड़न जैसे शब्द पुलिस के शब्दकोष में जरूर हैं मगर उनका इस्तेमाल किसी जाति-धर्म विशेष के आधार पर नहीं किया जाता, अमूमन हर समुदाय के लोग कभी न कभी पुलिस की यादतियों से दो-चार होते रहते हैं, देहरादून में फर्जी में मुठभेड़ में मारा गया युवक रणवीर शायद इसका जीता-जागता सुबूत है.