Thursday, March 4, 2010

भारत-पाक संबंध: चेतन भगत के विचार व्यवहारिक नहीं

नीरज नैयर
चेतन भगत बहुत ही काबिल उपन्यासकार हैं। वन नाइट एट कॉल सेंटर में उन्होंने प्यार के उतार-चढ़ाव और पेशे की मजबूरी को बहुत अच्छे ढंग से रेखांकित किया था। टू स्टे्टस में भी उन्होंने लव और मैरिज के बीच के फासले को मिटाने की जद्दोजहद को बेहतरीन तरीके से पाठकों के सामने पेश किया। उनके दूसरे उपन्यास भी वाह-वाही लूटने में सफल रहे , फाइव पाइंट समवन का नाम थ्री इडियट्स से उठे विवाद के बाद हर किसी की जुबान पर चढ़ा हुआ है।

चेतन के लेख भी आजकल विभिन्न अखबारों में देखने को मिल जाया करते हैं, कुछ दिन पहले हिंदी-अंग्रेजी को लेकर उनका एक लेख पढ़ने को मिला। जिसमें उन्होंने खूबी के साथ अग्रेजी की महत्ता को सरल शब्दों में सबके सामने रखा। निश्चित तौर पर चेतन की लेखनी युवावर्ग के लिए प्रेरणास्त्रोत का काम कर सकती है, मगर भारत-पाकिस्तान संबंध जैसे गंभीर मुद्दों पर उनमें थोड़ी अपरिपक्वता नजर आ ही जाती है। हाल ही में एक प्रतिष्ठित अखबार ने चेतन भगत का भारत-पाक रिश्तों को लेकर लिखा लेख प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक था 'शांति का मतलब प्रेम नहीं'। लेख के माध्यम से चेतन ने कहने का प्रयास किया कि भारत द्वारा पाकिस्तान को बातचीत के लिए आमंत्रित करने में कोई बुराई नहीं। वो मानते हैं कि दोनों देशों के बीच शांति स्थापित करने के लिए भारत को प्रयास करते रहने चाहिए।


इस बात में कोई दो राय नहीं कि अमन-शांति के माहौल में नफरत के बीज बोने वालों के लिए कोई जगह नहीं होगी, दोनों मुल्कों का आवाम वर्तमान की अपेक्षा यादा सुखी और खुशहाल नजर आएगा। विकास सिर्फ सैन्य ताकत बढ़ाने तक ही सीमित नहीं रहेगा, उसका असर छोटे से गांव से लेकर गगनचुंबी इमारतों वाले शहरों में भी दिखाई देगा। मगर ्सवाल ये यह उठता है कि क्या ऐसा संभव है? भारत के विभाजन से लेकर अब तक पाकिस्तान के साथ हम एकतरफा रिश्ते निभाते आए हैं। विदेश नीति में भी मोहब्बत की तरह एकतरफा रिश्ते कष्टदायक ही होते हैं और ये बात वक्त वक्त पर हमें महसूस भी होती रही है। जब एक तरफा मोहब्बत का अंत जुर्म की अंधेरी गालियों में जाकर होता है तो फिर कैसे उम्मीद लगाई जा सकती है कि पाकिस्तान हमारी अच्छाइयों का सिला अच्छाई के साथ देगा। चेतन मानते हैं कि जब तक पड़ोस में स्थिर लोकतंत्र नहीं आता, तब तक उससे शांति की आस नहीं लगाई जा सकती, इसलिए भारत को पाकिस्तान में लोकतंत्र के लिए अभियान चलाना चाहिए।


उनकी सोच है कि इससे हम उन पाकिस्तानियों का समर्थन हासिल कर सकेंगे जो लोकतांत्रिक सरकार चाहते हैं। लोकतंत्र के प्रति भारत का खुला समर्थन पाक सेना को कमजोर करेगा और पाकिस्तानियों में भारत की छवि सुधरेगी। चेतन की इस नसीहत का सीधा सा मतलब है कि नई दिल्ली इस्लामाबाद के अंदरूनी मामलों में अंदर तक दखल दे, लेकिन इसके परिणाम कितने भयानक हो सकते हैं चेतन ने शायद उनपर गौर करना मुनासिब नहीं समझा। कुछ साल पहले जब म्यांमार में पेट्रो मूल्य वृध्दि को लेकर बौध्द भिक्षुओं और जुंटा सरकार के बीच खूनी खेल शुरू हुआ था तब भीबुध्दिजीवियों द्वारा भारत को दखलंदाजी करने की नसीहतें दी गई थीं। उन दिनों शायद ही कोई ऐसा अखबार रहा होगा जिसमें बड़े-बड़े लेखकों के समझाइश भरे लेख न प्रकाशित हुए हों। लेकिन सरकार ने उस वक्त खामोशी अख्तियार करके बिल्कुल वाजिब निर्णय लिया। म्यांमार के साथ हमारी पूर्वात्तर की सीमा जुड़ती है, कई बार ऐसा देखने में आया कि भारत से नाराजगी प्रकट करने के लिए जुंटा सरकार ने नई दिल्ली विरोधियों को घुसपैठ करने के लिए आजाद छोड़ दिया।


ऐसी स्थिति में यदि भारत दखलंदाजी करने की कोशिश करता तो उसे देश हित में नुकसान उठाने पड़ते। पाकिस्तान में भी किसी तरह का अभियान चलाने का मतलब है कि उग्रवादी संगठनों को पूरी तरह से अपने खिलाफ कर लेना। वर्तमान में पाक में जो सरकार है वो लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनकर ही आई है, जनता ने रिकॉर्ड मतों से पीपीपी के सिर जीत का सेहरा बांधा था। इस सरकार ने अपने शुरूआती दौर में जब थोड़ी बहुत स्थिरता दिखाई दे रही थी तब भी ऐसा कौनसा तीर मार लिया जो हमें लोकतंत्र का अलख जगाने के लिए प्रेरित करे। पाकिस्तान में लोकतंत्र के पैरोकार हों या उसकी मुखालफत करने वाले, हर किसी के लिए भारत दुश्मनों की फेहरिस्त में सबसे पहले आता है। वहां के नेता भारत विरोधी नारे लगा-लगाकर ही सड़क से संसद तक का सफर तय करते हैं। ऐसे में वहां अपने लिए समर्थन की बात सोचना भी बेमानी होगा। जहां तक बात रही पाक से रिश्ते रखने की तो इसकी पहल अब उसे ही करने देनी चाहिए, आखिर संबंधों में बेहतरी का फायदा दोनों देशों को ही मिलेगा।


आखिर ऐसा कब तक चलता रहेगा कि हम ही शांति का पैगाम भी लेकर जाएं और बदले में हमें ही जख्म भी खाएं। जिस तरह ताली एक हाथ से नहीं बजती, उसी तरह रिश्तों में घनिष्ठता भी एकतरफा पहल से नहीं आ सकती। पाक को भी आगे बढ़कर इस बात का सुबूत देना होगा कि वो शांति और अमन का पक्षधर है, यदि वो ऐसा नहीं करता तो फिर उसके आगे-पीछे घूमकर उसे मनाने का क्या मतलब। पुणे ब्लास्ट में पाकिस्तानी संलिप्त्तता सामने आ चुकी है, सरकार भी इस बात को मानती है कि हमले के तार सीमा पार से जुड़े हैं। इस सब के बाद भी क्या पाक को करीब लाने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए, इसका जवाब वो लोग शायद यादा अच्छे से दे सकते हैं जिनके अपने आतंकवादी हमलों में मारे गए। मुंबई हमले के दोषियों के खिलाफ उसने अब तक कोई कदम नहीं उठाया, उल्टा उनके सरंक्षण में जरूर लगा रहा।


मौजूदा दौर में पाक को करीब लाने के बजाए उससे दूरी बनाए रखना ही बेहतर है, और शायद आवाम का भी यही फैसला होगा। चेतन ने अपने लेख में आंकड़ों का हवाला देते हुए बताया है कि शांति के प्रयास करना क्यों जरूरी है। उनके मुताबिक दोनों मुल्कों का संयुक्त रक्षा बजट करीब 40 अरब डॉलर है, जिसमें से तीन चौथाई से भी अधिक खर्च भारत करता है। यदि शांति के प्रयासों से सैन्य खर्चों में कटौती होती है तो क्या इससे शांति का आर्थिक महत्व साबित नहीं होता। एक बारगी मान भी लिया जाए कि पाकिस्तान से रिश्ते मधुर हो गए हैं तो भी यह सोचना गलत होगा कि रक्षा बजट की राशि को विकास में लगाया जाएगा। भारत के लिए सिर्फ पाक ही चुनौती नहीं है, चीन उसकी परेशानियों को हर रोज बढ़ा रहा है। चीन के मुकाबले में खड़े रहने के लिए रक्षा बजट में हर साल इजाफा ही किया जाएगा, कमी नहीं। चेतन भगत ने अपने लेख के दूसरे पैरा में कहा है कि अगर पाकिस्तान के साथ शांति बनाए रखने से भारतीयों को बेहतर जीवन मिलता है तो क्यों न इस विकल्प को आजमाया जाए। यहां चेतन को थोड़ा चिंतिन करने की जरूरत है कि हमारे अब तक के किए गए शांति के प्रयासों से भारतीयों का जीवन कितना बेहतर बना।


अगर 1993 के मुंबई ब्लास्ट के बाद ही भारत सरकार ने सख्त कदम उठाते हुए पाक से रिश्तों का इंतकाल कर दिया होता तो शायद उसके बाद हर थोड़े अंतराल में यूं धमाके नहीं होते। पाक को शह एक तरह से हमारी उदारवादी आदतों की वजह से ही मिलती रही। वह जानता है कि भारत लंबे समय तक उससे नाक-मुंह सिकोड़ कर नहीं बैठा रह सकता। एक बार फिर ये बात साबित हो ही गई। मुंबई हमले के बाद हमने जिस तरह का सख्त रवैया अपनाया उसमें वक्त के साथ-साथ नरमी इस हद तक आ गई कि खुद आगे बढ़कर पड़ोसी को बातचीत का न्यौता दे आए। भारत के इस फैसले को पाकिस्तान में घुटने टेकने के तौर पर लिया जा रहा है। प्रधानमंत्री गिलानी से लेकर राष्ट्रपति जरदारी तक सब इसे पाक की कूटनीतिक जीत मानकर चल रहे हैं। दोनों मुल्कों में दोस्ती होते देखने की हसरत शिवसेना जैसी कट्टरवादी पार्टी में भी होगी मगर इसके लिए आवाम की जिदंगी को दाव पर नहीं लगाया जा सकता।


चेतन भगत के विचार बहुत ही अच्छे हैं मगर उन्हें व्यवहारिक तौर पर नहीं अपनाया जा सकता, खासकर पाकिस्तान के साथ तो बिल्कुल नहीं। सरकार को चाहिए कि वो जनभावना का आदर करते हुए पाक से निश्चित दूरी बनाए रखे, क्योंकि उसका करीब आना हमारे लिए ही नुकसानदायक ही साबित होता है। दोनों मुल्कों के बीच रिश्तों की नींव पूरी तरह से खोकली पड़ चुकी है, जब तक पाक उसे विश्वास और भरोसे के मिश्रण से भरने के बारे में नहीं सोचता हमें भी खामोशी से खड़े रहना चाहिए। बात यहां अहम की नहीं, देश और जनता के हित ही है सरकार के साथ-साथ चेतन को भी इस बारे में सोचना चाहिए।