नीरज नैयर
आलोचना करने वाले भी कुत्ते की पूंछ की तरह होते हैं, कितना भी समझाओ, हकीकत से रूबरू कराओ मगर समझने को तैयार ही नहीं होते। क्रिकेट खासकर सचिन तेंदुलकर के मामले में तो इन अलोचकों के मुंह इतने चौड़े हैं कि पूरी की पूरी फुटबॉल भी अंदर चली जाए। सचिन ने विश्वकप के दौ मैंचों में शानदार सैंकड़ा जड़ा, मगर आलोचकों ने उसमें भी आलोचना की वजह ढूंढ ली। 27 फरवरी को इंग्लैंड के खिलाफ मास्टर ब्लास्टर ने 104.34 की औसत से 115 गेंदों में 120 रन बनाए, जिसमें 10 चौके और पांच छक्के शामिल थे। इसके बाद 12 मार्च को दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ तेंदुलकर ने 109.90 की औसत से 101 गेंदों में 111 रन ठोंके, जिसमें 8 चौके और 3 छक्के शामिल हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश इन दोनों ही मैचों में खेल खत्म होते-होते भारत बहुत दयनीय स्थिति में पहुंच गया। इंग्लैंड के साथ तो किसी तरह टाई करवाकर उसने लाज बचा ली, मगर दक्षिण अफ्रीका ने ये मौका भी नहीं दिया। नागपुर में अफ्रीकी खिलाड़ियों ने टीम इंडिया की नाक काटके ही दम लिया। भारत ये मैच 3 विकेट से हारा। इन दोनों हार का ठीकरा वैसे तो फूटना चाहिए था कप्तान बने बैठे महेंद्र सिंह धोनी पर मगर आलोचकों ने सचिन को शिकस्त का सेहरा पहना दिया। इसके पीछे तर्क दिए गए कि सचिन ने जब-जब शतक ठोंके टीम मैच हार गई। अब भला कोई इन आलोचकों से पूछे कि क्या सचिन रन बनाना छोड़ दें, चलिए छोड़ भी दें तो क्या गधे सरीखी बेसुरी तान छेड़ने वाले ये आलोचक खामोशी अख्तियार कर सकेंगे? निश्चित तौर पर नहीं, तेंदुलकर का बल्ला थमते ही ये चीखने लगेगे कि सचिन टीम पर बोझ हैं, उन्हें निकाल देना चाहिए आदि, आदि। सचिन की आलोचना करने वाले कहते हैं कि मास्टर महज अपने लिए खेलते हैं, अर्धशतक या शतक तक पहुंचते-पहुंचते वो संभलकर खेलना शुरू कर देते हैं ताकि रिकॉर्ड बन सके। अव्वल तो इसमें कोई सच्चाई नहीं है और अगर वो ऐसा करते भी हैं तो इसमें बुराई क्या है। नए-नए रिकॉर्ड गढ़ने की महत्वकांक्षा ही इंसान को ऊंचाईयों तक पहुंचाती है, और वैसे भी ये तो इंसानी फितरत है कि सफलता के शिखर तक पहुंचते-पहुंचते वो कदम थोड़ा संभलक रखना शुरू कर देता है। आलोचना करने वाले अगर सचिन की जगह होते तो क्या वो खुद ऐसा नहीं करते। ऐसा कौनसा खिलाड़ी है जो 49 को 50 और 99 को 100 बनते नहीं देखना चाहेगा। चलिए एक बागरी मान भी लिया जाए कि सचिन अपने रिकॉर्ड की लिए खेलते हैं, पर फिर भी खेलते तो हैं। टीम इंडिया का हर खिलाड़ी यदि अपने लिए ही खेलना सीख जाए तो हार-जीत का प्रतिशत आधे से भी कम रह जाएगा। इंसान अपने लिए सबसे अच्छा करने की कोशिश करता है, अगर खिलाड़ियों में एक दूसरे से यादा अच्छी परफॉर्म करने की होड़ हो जाए तो टीम का भला तो अपने आप ही हो जाएगा। सचिन अगर बुरा खेलें तो बुरा कहने में कोई बुराई नहीं, लेकिन अच्छा खेलने के बाद भी उनपर उंगलियां उठाना बीमार मानसिकता का ही उदाहरण है। जिन दोनों मैचों में सचिन ने सेंचुरी लगाई उसमें टीम के बाकी खिलाड़ियों का प्रदर्शन क्या रहा, ये भी गौर करने वाली बात है। इंग्लैंड के साथ मैच में प्रमुख 6 बल्लेबाजों के रनों का कुल योग रहा 197 और दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ यह घटकर रह गया 167। अब जरा इस योग में खिलाड़ियों के योगदान पर नजर डाल लेते हैं, इंग्लैंड के खिलाफ सहवाग ने 35, गंभीर ने 51, युवराज ने 58 पठान ने 14, कोहली ने 8 और धोनी ने 31 रन मारे। जबकि अफ्रीका के खिलाफ सहवाग 73, गंभीर 69, पठान 0, युवराज 12, कोहली 1 और खुद धोनी महज 12 रन बना पाए। यानी दोनों मैचों में सचिन ने मैच विनिंग पारियां खेली, बावजूद इसके टीम अगर नहीं जीत पाई तो इसके गुनाहगार बाकी के खिलाड़ी हैं न कि सचिन। ऐसा सिर्फ हमारे यहां ही हो सकता है कि रन बनाने वाले को अलोचना मिले और वो जो बस अपनी किस्मत का खा रहे हैं, उनको सर-आंखों पर बैठाया जाए। मेरा इशारा यहां महेंद्र सिंह धोनी की तरफ है, कप्तान के तौर पर धोनी ने आखिरी बार यादगार पारी कब खेली, शायद ही किसी को याद होगा। विश्वकप के अब तक के मैचों में उनका प्रदर्शन एक दोयम दर्जे के बल्लेबाज जैसा ही रहा है। दक्षिण अफ्रीका के विरुध्द उनके गलत फैसलों ने सचिन और सहवाग की मेहनत को मटियामेट कर दिया। टीम इंडिया का पहला विकेट 142 पर सहवाग के रूप में गिरा, उसके बाद जब सचिन पवेलियन लौटे तो स्कोर था 267। यानी बाकी के बल्लेबाज सिर्फ 29 रन ही जोड़ पाए। कागजों पर धुरंधर कहे जाने वाले बल्लेबाज इतनी अच्छी स्थिति में भी यदि घुटने टेक दें तो इसमें भी सचिन का दोष है। जैसे सचिन ने सबको कहा हो कि यादा मत खेलना। सचिन की आलोचना नहीं बल्कि उनकाउदाहरण पेश करने चाहिए, 35 की उम्र में भी यह बल्लेबाज टीम के युवाओं पर भारी पड़ रहा है। सचिन तेंदुलकर महज क्रिकेट खेलते नहीं बल्कि उसे जीते हैं। खेल के प्रति उनका कमिटमेंट उनके हर शॉट में नजर आता है। मास्टर ब्लास्टर ने वनड़े में 48 और टेस्ट मैचों में 51 शतक जमाए हैं। अब तक कुल 13 बार ऐसा हुआ है जब सचिन ने शतक बनाया और टीम मैच हार गई। ये भी एक तरह से रिकॉर्ड है, सचिन के अलावा वेस्टइंडीज के क्रिस गेल भी ऐसे दूसरे नंबर के बल्लेबाज हैं जिनके 9 शतक टीम के काम नहीं आए। 48 में से अगर 13 घटा भी दिए जाएं तो भी 35 बचते हैं, क्या ये आंकड़ा सचिन की तारीफ करने के लिए काफी नहीं। तेंदुलकर की आलोचना करने वालों को इस बात पर भी ऐतराज है कि उन्हें क्रिकेट का भगवान क्यों कहा जाता है, और यदि कहा जाता है तो वो हर मैच क्यों नहीं जिता पाते। विरोध करने का ये बहुत ही बेतुका सा तर्क है, सचिन को भगवान की उपाध्दि उनके खेल के प्रति समपर्ण और अतुल्य प्रदर्शन की बदौलत मिली है। लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि पौराणिक कथाओं की तरह वो कोई दैव्य रूप हैं जो हाथ घुमाएंगे और हर बॉल बाउंड्री पार कर जाएगी। वो भी हाड़-मांस का इंसान है, दर्द और थकान उसे भी होती है। सचिन मैदान पर अपना सौ प्रतिशत देने में विश्वास रखते हैं, लेकिन कभी-कभी उनका बल्ला भी साथ नहीं देता और ऐसा हर इंसान के साथ होता है। खैर आलोचना करने वालों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, उनका काम तो हर अच्छी चीज में बुराई ढूंढना है। सचिन चाहे कितना भी अच्छा क्यों न खेल लें उनकी आलोचना करने वाले अपना मुंह खोलते रहेंगे। जिस तरह कुत्ते की दुम कभी सीधी नहीं हो सकती, उसी तरह सचिन की आलोचना करने वाले भी नहीं सुधर सकते।