Thursday, October 29, 2009

आखिर इतने क्रूर कैसे हो सकते हैं हम

नीरज नैयर
काफी वक्त पहले मैंना ऐसा ही एक लेख लिखा था और आज भी कुछ ऐसी ही जरूरत महसूस हो रही है. इसका कारण है कुछ लोगों की मानसिकता, हालांकि मैं जानता हूं कि ऐसे हजारों लेख भी उनकी सोच में कोई खास परिवर्तन नहीं लाने वाले. पर फिर भी प्रयास करते रहना हमारा दायित्व है. मुझे अक्सर सुबह जल्दी उठने से परहेज रहा है, इसकी वजह मीडिया से जुड़े लोग बखूबी जानते हैं. लेकिन कल जब ऐसे ही आंख खुली तो फिर सोने का मन नहीं हुआ. इसलिए मैं यूं ही घूमने निकल गया, घर के थोड़ी सी दूरी पर एक पार्क है, जहां अमूमन बचपन के दिनों में मैं दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलने आया करता था.

कुछ देर टहलने के बाद मैं पास ही लगी एक बैंच पर बैठ गया, वहां पहले से ही कुछ लोग विराजे हुए थे. वो लोग शायद किसी चर्चा में व्यस्त थे, धीरे-धीरे उनकी बातें मेरे कानों तक भी पहुंचने लगी. जिसे सुनकर मुझे दुख भी हुआ और अफसोस भी. एक जनाब जो काफी तैश में बोल रहे थे उनके अल्फाज मैं हू ब हू आपके सामने रखना चाहूंगा. 'यार ये सड़क के कुत्तों ने नाक में दम कर रखा है, रात बेराते गला फाड़ना शुरू कर देते हैं, जैसे इनकी मां मर गई हो. मेरा तो मन करता है कि पीट-पीटकर इनकी जान निकाल डालूं. सड़क पर इन्हें देखकर मुझे घिन आती है. यार तुम्हारी तो नगर निगम में अच्छी खासी जान पहचान है, इन्हें यहां से उठाकर किसी नाले-वाले में क्यों नहीं फिकवा देते'.
ऐसे लोगों के लिए मैंने अपना जवाब कुछ इस तरह तैयार किया है:

गाहे-बगाहे यह आवाज उठती रहती है कि आवारा कुत्तों को सिर्पुद-ए-खाक कर देना चाहिए, ठीक उसी तरह से जैसे मुर्गियों को बर्ड-फ्लू के डर से किया गया. कुत्ते रैबीज फैलाते हैं, नींद में खलल डालते हैं इसलिए उन्हें जीने का कोई हक नहीं. दलीलें तो यहां तक दी जाती हैं कि गली-मोहल्लों में घूमते आवारा कुत्तों से डर लगता है. अतऱ् उन्हें सजा-ए-मौत दी जानी चाहिए. पर ऐसी सजा की दरयाफ्त करने वालों ने कभी चश्मा उतारकर एक-एक निवाले को तरसते कुत्तों को गौर से देखा है. भुखमरी के शिकार बेचारे किसी कोने में चुपचाप पड़े रहते हैं. पास आओ तो भाग खड़े होते हैं.

वो खुद इतने डरे होते हैं कि कभी-कभी तो अपने अक्स से भी घबरा जाते हैं. फिर भला ये निरीह किसी को क्या डराएंगे. जो खुद डरा हुआ हो वो किसी को डरा भी कैसे सकता है. कुत्ते सदियों से ही वफादारी की परंपरा को निभाते आए हैं. वो बात अलग है कि मनुष्य जानकर भी अंजान बना रहता है. बेचारे लात खाते हैं, गाली खाते हैं मगर सोते उसी चौखट पर हैं जहां उन्हें कभी आसरा मिला था. मनुष्य भले ही विलासिता के समुंदर में मानवता की गठरी बहाकर क्रूर और निर्दयी बन बैठा हो मगर ये बेजुबान आज भी प्यार का अथाह सागर अपने छोटे से दिल में समाए बैठे हैं. प्यार के बदले प्यार कैसे किया जाता है, यह इनसे बेहतर भला कौन समझा सकता है. मनुष्य हमेशा से ही अपनी जरूरतों के मुताबिक रिश्तों की उधेड़बुन करता रहा है. जिन उंगलियों के सहारे वह चलना सीखता है वक्त निकल जाने के बाद उन्हें झटकने में एक पल की भी देर नहीं करता. जिन कंधों पर बैठकर वह दुनिया देखता है उन कंधों को कंधा देना भी अपना धर्म नहीं समझता. मनुष्य सिर्फ ढोंग करता है.

बचपन में सच्चा बनने का और जवानी में अच्छा बनने का, लेकिन बेजुबान, वे बेचारे न तो ढोंग का मतलब जानते हैं और न ही छल-कपट उन्हें आता है. उन्हें आता है तो बस प्यार करना. लाख मारो, लाख सताओ फिर भी एक पुचकार पर उसी स्नेहभाव और आदर के साथ आपका सम्मान करेंगे जैसा हमेशा करते रहे हैं. रंग बदलने की प्रवृत्ति न तो उनमें कभी थी और न ही कभी होगी. यह काम तो मनुष्य का है. कुत्तों को इंसान का दोस्त समझा जाता है मगर चकाचौंध और ऐशोआराम से भरी मनुष्य की जिंदगी में इस बेजुबान दोस्त के लिए कोई जगह नहीं. गली-मोहल्लों में किसी तरह अपना गुजर-बसर करने वाले आवारा कुत्ते भी अब उसकी आंखों में खटकने लगे हैं. अभी कुछ वक्त पहले भोपाल, बेंगलुरु और उसके बाद जम्मू-कश्मीर में जिस निर्दयता से आवारा कुत्तों को मौत के घाट उतारा गया, ऐसा काम तो सिर्फ इंसान ही कर सकता है. गले में रस्सी बांधकर बड़ी निर्ममता के साथ उन्हें घसीटकर ऐसे गाड़ी में फेंका गया, जैसे वो कोई कूड़े की गठरी हों. बेचारे चीखते रहे, चिल्लाते रहे, अपनी जिंदगी की भीख मांगते रहे, मगर किसी को दया नहीं आई. इन बेजुबानों का कसूर सिर्फ इतना था कि वो शहर के सौंदर्यीकरण में फिट नहीं बैठ रहे थे. मनुष्य शक्तिशाली है, उसे किसी भी बेजुबान को मारने का हक है, पर उसे ये हक किसने दिया? शायद भगवान ने तो नहीं. सृष्टि की रचना के वक्त ईश्वर ने अन्न बांटने से पूर्व सबसे पहले कुत्तों को बुलाकर कहा, पृथ्वी का सारा अन्न मैं तुम्हें देता हूं, पर कुत्तों ने निवेदन किया कि इतने अन्न का हम क्या करेंगे? अन्न आप मनुष्य को दे दीजिए.

वो खाने के बाद जो कुछ भी बचाएगा हम उससे गुजारा कर लेंगे. बदि्कस्मती से मनुष्य खाता तो खूब है मगर कुत्तों के लिए बचाता बिल्कुल नहीं. खाने की हर दुकान के सामने बेचारे टकटकी लगाए इस उम्मीद में बैठे रहते हैं कि शायद मनुष्य को उनके हाल पर दया आ जाए, पर अमूमन ऐसा होता नहीं. टिन के पिचके हुए डब्बे की माफिक पतला-सा पेट, आंखों में डर और खामोशी लिए बेचारे एक-एक दाने के लिए यहां-वहां भटकते रहते हैं. कुछ रुखा-सूखा मिल गया तो ठीक वरना भूखे ही सो जाते हैं, पर वफादारी और प्यार के जबे पर कभी भूख को हावी नहीं होने देते. ऐसे निरीह को बेतुकी दलीलों और शहर के सौंदर्यीकरण की खातिर मौत की नींद सुला देना क्या हम इंसानों को शोभा देता है?

Wednesday, October 28, 2009

एक्स के ऐड के पीछे न जाना

किसी भी नए प्रोडेक्ट का भविष्य क्या होगा यह काफी हद तक उसकी एडवरटाइजिंग पॉलिसी पर निर्भर करता है. यदिएडवरटाइजमेंट लोगों के दिलों-दिमाग पर छाने में कामयाब रहा तो प्रोडेक्ट की कामयाबी निश्चित है. यही वजह है कि आजकल कंपनियां अच्छे विज्ञापन की चाहत में पानी की तरह पैसा बहाने से भी गुरेज नहीं करतीं. जहां तक उपभोक्ता की बात है तो उसके फैसले भी काफी हद तक विज्ञापन पर टिके होते हैं, लोग ऐड देखते हैं, उनसे प्रेरित होते हैं और अगले दिन प्रोडेक्ट घर ले आते हैं. लुकलुभावन विज्ञापन से प्रभावित होने से लेकर उत्पाद के खरीदने तक कंयुमर विश्वास की इसडोर में बंध जाता है कि जैसा दिखाया गया है वैसा तो होगा ही.

लेकिन अक्सर दिखाने और होने में जमीन आसमान का अंतर होता है. प्रोडेक्ट को जिस तरह से प्रचारित-प्रसारित किया जाता है, उपयोग के वक्त वो इतना असरकारी साबित नहीं होता. इस बारे में अगर एक सर्वे कराया जाए तो अधिकतर लोगों की राय भी यही होगी. आजकल एक्स इफेक्ट केविज्ञापन टीवी पर बहुत छाए हुए हैं, खासकर युवा वर्ग में इसका काफी क्रेज है. द एक्स इफेक्ट प्रोडेक्ट की प्रमोशन पॉलिसी भी केवल युवावर्ग को आकर्षिक करने की है. इसलिए विज्ञापन के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गई है कि इस प्रोडेक्ट के इस्तेमाल से लड़कियां खुद ब खुद आपके पास खिचीं आएंगी, यानी एक्स इफेक्ट के उत्पाद लगाओ और प्लेबॉय बन जाओ. न जाने कितने युवाओं ने इस विज्ञापन से प्रेरित होकर प्रोडेक्ट खरीदा होगा. ऐसा ही एक और विज्ञापन पिछले कुछ दिनों से आना शुरू हुआ है, जिसमें छत पर कपड़े उठाने आई एक युवती सिर्फ इसलिए मदहोश हो जाती है क्योंकि पास की छत पर बैठे युवक ने मनमोहक खुशबू वाला डियोडरेंट लगाया था. इस तरह के विज्ञापनों की तादाद दिन ब दिन बढ़ती जा रही है, कारण इनसे जुड़े उत्पादों की आपार सफलता.

लोग अति महंगे होने के बावजूद इस तरह के प्रोडेक्ट खरीदना पसंद करते हैं जो पल में दुनिया बदलने के ख्वाब दिखाते हैं. विज्ञापन कपंनिया इसके लिए फिल्म स्टार को हायर करती हैं, क्योंकि अपने पसंदीदा और चहेते स्टार की रिकमनडेशन को लोग नकार नहीं पाते. उन्हें लगता है कि अगर जॉन इब्राहिम या ऐशवर्या राय किसी फेयरनेस क्रीम का ऐड कर रहे हैं तो उसमें कुछ न कुछ तो सच्चाई होगी. मगर हकीकत ये है कि विज्ञापनों में आने वाले स्टार निजी जिंदगी में शायद ही कभी उन प्रोडेक्ट को प्रयोग में लाते हों. अभी हाल ही में जिस तरह से एक युवक ने एक प्रतिष्ठित कंपनी की एडवरटाइजिंग पॉलिसी को कोर्ट में चुनौती दी उसके बाद ऐड सेंसरशिप कड़ाई से लागू करने की जरूरत महसूस होने लगी है. दिल्ली के रहने वाले 26 वर्षीय वैभव बेदी पिछले काफी समय से एक्स के प्रोडेक्ट इस्तेमाल कर रहे थे, मगर वो किसी भी लड़की को प्रभावित करने में असफल रहे, बकौल वैभव मैं कॉलेज के वक्त से इसे प्रयोग कर रहा हूं, करीब सात साल तक एक्स प्रोडेक्ट के इस्तेमाल के बाद भी मुझे वैसे परिणाम देखने को नहीं मिले जैसे इसके विज्ञापनों में दिखाए जाते हैं. वैभव ने अब तक इस्तेमाल में लाए सारे एक्स प्रोडेक्ट के खाली डिब्बों को कोर्ट के समक्ष पेश करके उनकी लेबौरट्री जांच की मांग की है. वह इस तरह की एडवरटाइजिंग पॉलिसी को अपने मानसिक उत्पीड़न का कारण मानते हैं. एक्स के विज्ञापन की हू ब हू नकल करने के लिए वैभव बेदी एक्स डियोडरेंट लगाकर अपनी मेड के आगे निवस्त्र तक हो गये लेकिन बदले में उन्हें मार खानी पड़ी. कहने वाले इसे वैभव का पागलपन कह सकते हैं लेकिन इस पागलपन ने उस सच से अवगत कराया है जिस पर अक्सर हमारा ध्यान नहीं जाता.

लोग उत्पाद के संतोषजनक न होने की दशा में भी शांत रहना ही मुनासिब समझते हैं, संभवत: इससे उत्पाद को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने वाली विज्ञापन एजेंसियों के हौसले और बढ़ जाते हैं. क्या इस बात पर गौर करने की जरूरत नहीं है कि जो कुछ ऐड में दिखाया जा रहा है वैसा वास्तव में होता भी है या नहीं. अगर विज्ञापन में एक्स इफेक्ट लगाने के बाद लड़कियां अपने आप खिंची आती हैं तो रियल लाइफ में भी ऐसा होना चाहिए. कायदे में इस तरह के विज्ञापनों पर रोक लगनी चाहिए जो जादुई करिश्मे की बात करते हैं. मौजूदा वक्त में तो ऐसा लगता है जैसा टीवी पर प्रसारित होने वाले विज्ञापनों को लेकर कोई दिशा-निर्देश हैं ही नहीं. अधिकतर विज्ञापनों में अशीलता का पुट इतना यादा है कि परिवार के साथ बैठकर देखना भी मुश्किल हो जाता है. सरकार इस मामले पर अब तक खामोशी अख्तियार किए ही बैठी है, कुछ वक्त पुरुष अंडरगारमेंट के एक निहायत ही भद्दे विज्ञापन पर णरोक जरूर लगाई गई थी लेकिन वो भी अब नए रूप में सामने आ गया है.

जिस तरह से फिल्मों में अशीलता रोकने के लिए सेंसरबोर्ड है और वो अपनी कैंची चलाने में बिल्कुल नरमी नहीं बरतता उसी तरह विज्ञापनों को लेकर भी कुछ कड़े कदम उठाए जाने की जरूरत है. खासकर इस बात पर यादा जोर दिए जाने की आवश्यकता है कोई भी कंपनी अपने उत्पाद के प्रोमोशन के लिए इस तरह के हथकंडे न अपनाए जिन पर खरा उतरना उसके खुद के लिए मुमकिन न हो. एडवरटाइजिंग एजेंसियों के लिए लक्ष्मण रेखा खींची जाना बेहद जरूरी है ताकि वैभव बेदी जैसे मामले सामने आने की नौबत ही न आए. वैभव ने एक तरह से जागरुकता का परिचय दिया है. अगर बाकी लोग भी केवल मनमकोस कर रहने की आदत से बाहर निकलकर आवाज बुलंद करें तो शायद झूठे विज्ञापनों के सहारे मुनाफा कमाने की आस कंपनियों को खासी भारी पड़े. वैभव के मामले में संबंधित कंपनी को नोटिस भी जारी किया गया है, और कंपनी फिलहाल चुप्पी साधे हुए है. हवा का रुख पूरी तरह से कंपनी के विपरीत है, हो सकता है वो ऊल-जुलूल तर्क देकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश भी करे. मगर उसकी दलीलों का कोर्ट पर कितना असर पड़ता है, यह देखने वाली बात होगी. समझदारी इसी में है कि महज विज्ञापनों को देखकर उत्पाद की गुणवत्ता और उसके प्रभाव के बारे में राय कायम नहीं करनी चाहिए.